भैरवप्रसाद गुप्त / परिचय

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 भैरवप्रसाद गुप्त की रचनाएँ     

हिन्दी के सुपरिचित एवं प्रगतिवादी कथाकार भैरवप्रसाद गुप्त का जन्म 7 जुलाई, 1918 को सिवानकलां गांव (बलिया, उ.प्र.) में हुआ और निधन 7 अप्रैल को अलीगढ़ में। स्कूली शिक्षा के दौरान उनका रुझान लेखन की ओर हुआ। अपने शिक्षक रघुनाथ राय की प्रेरणा से गुप्तजी कहानी-लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उश शिक्षा के लिए जब वे इलाहाबाद इर्विंग कॉलेज में गए तो वहां जगदीशचंद्र माथुर, शिवदान सिंह चौहान जैसे लेखकों और आलोचकों के संपर्क और साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश में उनके रचनात्मक संस्कारों को दिशा मिली।

सन्‌ 1940 में वे गांधीजी की प्रेरणा से राजगोपालाचारी के साथ मद्रास पहुंचे और वहां हिन्दी प्रचारक महाविद्यालय में अध्यापन करने लगे। सन्‌ 1944 में वे माया प्रेस, इलाहाबाद से जुड़ गए। गुप्तजी अपने अन्य समकालीनों की तरह आर्य समाज और गांधीवादी राजनीति की राह से वामपंथी राजनीति की ओर आए। सन्‌ 1948 में वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने और तमाम विघटन एवं विभाजन के बावज़ूद इससे संबद्ध रहे।

'शोले' उपन्यास (1946) से अपनी रचना-यात्रा शुरू करने वाले भैरवप्रसाद गुप्त ने प्रगतिवादी आंदोलन की अंतिम कड़ी के बतौर प्रेमचंद की तरह शहर और गांव दोनों को अपनी रचना का केन्द्र बनाया तथा मानवीय शोषण के छद्म रूपों को उधेड़कर वर्गहीन समाज की राह तैयार की। नई कहानी के लिए उन्होंने अपने संपादन में निकलने वाली पत्रिकाओं-'कहानी' और 'नई कहानियां' द्वारा नई प्रतिभाओं को मंच दिया। गुप्तजी ने समाज के बुनियादी वर्गों -किसान और मज़दूर-को केन्द्र में रखकर 'मशाल', 'गंगा मैया' (1952), 'सत्ती मैया का चौरा' (1959) और 'धरती' (1962) जैसी महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृतियों की रचना की। गुप्तजी के कुल चौदह उपन्यास, बारह कहानी-संग्रह और दो अन्य कृतियां प्रकाशित हैं। उनकी अन्य प्रमुख कृतियां हैं-'अंतिम अध्याय' (1970), 'नौजवान' (1974), 'भाग्य देवता'(1992) और 'छोटी-सी शुरुआत' (1977)।