भोजन का तड़का सभी क्षेत्रों का सत्य है / जयप्रकाश चौकसे

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भोजन का तड़का सभी क्षेत्रों का सत्य है
प्रकाशन तिथि :07 मई 2016


दक्षिण भारत में हट्‌टे-कट्‌टे बड़े डीलडौल वाले प्रकाश राज ने विविध भूमिकाओं का निर्वाह किया है परंतु शेष भारत में उनकी खलनायक छवि ही लोकप्रिय है। एक फिल्म में उन्होंने पिता की भूमिका की है, जिसकी सुपुत्री अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है और उसकी खोज में भटकता हुआ, वह आर्तनाद करता है कि माता-पिता जतन से पालते हैं और वह कुछ दिन पहले जन्मे प्रेम की खातिर सबकुछ भूल जाती है। वह हमें विश्वास में लेती तो हम उसका विवाह उसकी इच्छा के अनुरूप करते परंतु यह विश्वास होने के बाद वह सही कदम उठा रही है। इस फिल्म का नाम 'हीरोपंती' है। प्रकाश राज दक्षिण भारत की भाषाओं में कुछ फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं और अब वे अपनी ही सफल फिल्म को हिंदुस्तानी भाषा में 'तड़का' के नाम से बना रहे हैं। 'तड़का' विशुद्ध भारतीय पाक कला का वह छौंक है, जो भोजन का स्वाद गढ़ता है। यह तड़का ही है, जो भारतीय भोजन को पाश्चात्य शैली से अलग करता है।

यह तड़का हम कई क्षेत्रों में लगाते हैं। भवन निर्माण तक में भारतीय तड़के से भवन की नई पहचान मिलती है। शाहजहां के बनाए हुए ताजमहल में विभिन्न प्रांत ही नहीं, अनेक देशों के कारीगर जुटे थे परंतु यह नितांत भारतीय शैली थी कि यमुना के किनारे बने ताजमहल पर नदी के पानी का असर नहीं पड़े, इसके लिए ताज के गिर्द अनेक कुएं खोदे गए थे, ताकि यमुना की बाढ़ का पानी इन कुओं में चला जाए और ताज की नींव तक नहीं पहुंच सके। बहरहाल, प्रकाश राज की तड़का भवन निर्माण के बारे में नहीं है वरन वह एक आधुनिक परिवेश की प्रेम-कथा है, जिसमें मानवीय रिश्तों का तड़का लगा है। प्रकाश राज और नाना पाटेकर में समानता यह है कि दोनों के स्वभाव में गज़ब का अक्खड़पन है। नाना पाटेकर रंगमंच और सिनेमा के एकमात्र कलाकार हैं, जो महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र में भरपूर परिश्रम कर रहे हैं। वे सरकार की तरह किसान की आत्महत्या पर झूठे दिखावे का छातीकूट नहीं करके ग्रामीण क्षेत्र में ऐसा सार्थक काम कर रहे हैं कि किसान को आत्महत्या के लिए विवश न होना पड़े। इस शुभ कार्य के लिए नाना पाटेकर ने स्वयं अर्जित धन लगाया है और अनेक लोग उन्हें चंदा भी दे रहे हैं। क्या शाहरुख, सलमान, आमिर और अक्षयकुमार अपनी एक फिल्म का पारिश्रमिक नाना पाटेकर को नहीं दे सकते?

सरकारें तो दो ही कामों में प्रवीण होती हैं- नारेबाजी और शोशेबाजी। उनकी सारी ऊर्जा व्यर्थ के तामझाम और दिखावे में जाती है। वे सफलता का भरम रचने में बड़ा परिश्रम करते हैं और यह हमारा दुर्भाग्य है कि मीडिया खुद को मिलने वाले विज्ञापन के कारण सत्य को प्रस्तुत नहीं करते। यह नरेंद्र मोदी की शैली है कि विकास का विराट प्रहसन उन्होंने मीडिया को मैनेज करके रचा है। क्या प्रांतीय सरकारें अपने विज्ञापन पर किए गए खर्च और सचमुच के विकास पर किए गए दिखावे का सच्चा स्वरूप कभी पेश करेंगी। राज्यसभा में की गई बहस भी ठीक से प्रचारित नहीं है। कल ही अभिषेक सिंघवी ने हेलिकॉप्टर खरीद पर कुछ विलक्षण बातें सप्रमाण उजागर की और पहली बार अटलजी के सहयोगी रहे बृजेश मिश्र की भूमिका को स्पष्ट किया है। जाने ये क्यों नेताओं के नजदीकी समानांतर सरकार चलाते हैं। हर किसी के दामन में एक-दो राहुल छिपे बैठे हैं। राहुल अब एक नाम नहीं है, विशेषण बन गया है। एक ऐसी संज्ञा, जिसने व्याकरण के सारे नियमों की धज्जियां उड़ा दी है। बृजेशनामा एक अप्रकाशित रोजनामचा है और ऐसे रोजनामचे हर दल के शीर्ष नेताओं के हैं।

इस सरकारी प्रहसन के परे नाना पाटेकर की तरह के विलक्षण लोग हैं, जो प्रचार से दूर अपने काम में लगे हैं। हर कालखंड में ऐसे कर्मठ लोग हुए हैं, जो अपनी मासूम हथेलियों से व्यवस्था की अनगिनत छेद वाली छननी का कोई न कोई छेद बंद कर देते हैं। कुंभ व्यवस्था के स्तुति गान का असल वे कुछ लोग जानते हैं, जिन्होंने वहां प्रवाहित जल में दुर्गंध महसूस की है। बहरहाल, ये मामूली बातें हैं। असल बात तो यह है कि राष्ट्र में विकास का असली चेहरा कभी उजागर नहीं हो पाएगा, क्योंकि एक झूठ को हजार बार बोलकर उसे सत्य साबित करने के आदि गुरु हिटलर के प्रचारक गोेएबल्स ने एक महान मंत्र की खोज की थी, जिसका जाप निरंतर किया जाता है।