भोर की मुस्कान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाइकु और काव्य की संगमस्थली: भोर की मुस्कान'

हाइकु 5-7-5 का वर्णिक गणित नहीं है। काव्य होना इसकी प्रथम और अन्तिम शर्त है। डॉ सत्यभूषण वर्मा से पहले हाइकु की रचना ज़रूर हो रही थी, किन्तु वह नियमित नहीं थी। इसको नियमित करने का श्रेय यदि वर्मा जी को जाता है, तो व्यापक रूप देने और प्रसार करने का श्रेय डॉ भगवत शरण अग्रवाल जी को जाता है। डॉ अग्रवाल जी अच्छे हाइकुकार भी हैं, अत: हाइकु भारती के माध्यम से आपने गुणात्मक रचना कर्म को समर्पण भाव से आगे बढ़ाया, जो मूलत: कवि थे उन्होंने हाइकु रचकर इस विधा का रूप सँवारा। बरसों के अध्यवसाय से देश के प्रसिद्ध रचनाकारों को हाइकु–रचना के लिए प्रेरित किया। 'हाइकु भारती' पत्रिका के साथ अपनी दो अनुपम कृतियों से हाइकु क्षेत्र को समृद्ध किया। 'हिन्दी कवयित्रियों की हाइकु-साधना' संग्रह के माध्यम से छह प्रमुख कवयित्रियों का विशद विवेचन एवं 86 कवयित्रियों की सामान्य जानकारी प्रस्तुत की; जो अपने आप में बहुत ही श्रमसाध्य कार्य था। 'हाइकु काव्य विश्वकोश' इनका दूसरा मुख्य ग्रन्थ है; जो अपनी तरह का भारतीय ही नहीं वरन् विश्व की भाषाओं का पहला ग्रन्थ है। सबको साथ लेकर चलने और सबको प्रोत्साहित करने की जो भावना डॉ भगवत शरण अग्रवाल में थी, उससे हाइकु-जगत समृद्ध हुआ। इस ऐतिहासिक कार्य के साथ ही समान्तर रूप से ऐसे आशु यशकामी लोगों की भीड़ भी हाइकु–जगत् में घुसपैठ कर गई जो, 5-7-5 का अकाव्यात्मक खेल आज तक खेल रही है। एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे आयातित कहकर अपनी संकीर्णता और कूपमण्डूकता का सदा प्रदर्शन करता आया है। दु: खद स्थिति विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से जुड़े उन विश्वामित्रों की है, हाइकु का नाम सुनकर जिनकी तपस्या भंग होने लगती है। ऐसे परहेज़ी शिक्षक फिर भारतीय साहित्य शास्त्र के साथ पाश्चात्य साहित्य शास्त्र क्यों पढ़ाते हैं? क्या इससे उनकी कूपमण्डूकता को सन्तुष्टि मिलती है? शुद्ध हिन्दी लिखने में असमर्थ हिन्दी विभाग के एक प्रवक्ता ने एक हाइकुकार के संग्रह की भूमिका लिखते (बकते) समय अमर्यादित और खिचड़ी भाषा में अपनी संस्कारहीनता प्रकट करते हुए हाइकु की भरपेट निन्दा की है। इस तरह के निन्दा आयोजकों से मेरा इतना–सा निवेदन है कि भाषा एक संस्कार है और साहित्य विश्व-जन-मन की वह चेतना है, जो मानवता को जिन्दा रखे हुए है। हाइकु लिखकर कोई भी समर्थ रचनाकार जापान के सम्राट का यशोगान नहीं कर रहा है, वरन् इसी देश की मिट्टी की खुशबू परोस रहा है। जो भी सार्थक रचा जा रहा है उसकी आत्मा पूर्णरूपेण भारतीय है, जैसे गीत, ग़ज़ल, रूबाई, नवगीत आदि की।

सार्थक रचनाकारों की भारत में कमी नहीं है। डॉ सुधा गुप्ता, शैल रस्तोगी, नलिनीकान्त, निर्मलेन्दु सागर, उर्मिला कौल, उर्मिला अग्रवाल आदि वरिष्ठ रचनाकारों के साथ कुछ और भी साहित्यकार अन्य विधाओं से हाइकु के साथ जुड़े जिनमें डॉ सतीशराज पुष्करणा, कुँअर बेचैन, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, कमलेश भट्ट कमल आदि का नाम लिया जा सकता है। कुछ ऐसे भी लोग जुड़े जो दस-बीस हाइकु लिखकर पुरोधा बनने का अहंकार पोषित कर रहे हैं। इक्कीसवीं सदी में बहुमुखी काव्य प्रतिभा का धनी एक और वर्ग जुड़ा, जिसने अपने व्यापक अनुभव से हाइकु को उत्कृष्ट काव्य का रूप दिया और हिन्दी हाइकु को भारत की सीमाओं से बाहर भी विकसित किया। इस तरह के सशक्त रचनाकारों में ये नाम प्रमुख हैं-डॉ भावना कुँअर, डॉ हरदीप सन्धु, पूर्णिमा वर्मन, सुदर्शन रत्नाकर, ज्योत्स्ना प्रदीप, डॉ जगदीश व्योम, कमला निखुर्पा, रचना श्रीवास्तव, डॉ जेन्नी शबनम, हरेराम समीप, स्वामी श्यामानन्द सरस्वती, सुभाष नीरव, अनीता कपूर, मंजु मिश्रा मुमताज टी एच ख़ान, डॉ ज्योत्स्ना शर्मा, सीमा स्मृति, सुशीला शिवराण, अनिता ललित, सरस्वती माथुर, डॉ रमा द्विवेदी, कृष्णा वर्मा, अनुपमा त्रिपाठी, सुभाष लखेड़ा, पुष्पा मेहरा', शशि पुरवार, हरकीरत' हीर शैफाली गुप्ता आदि। ये वे रचनाकार हैं, जिन्हें कभी-कभार लिखने वाले तथा अन्य चर्चित (चर्चा के जुगाड़ धर्मी) हाइकुकारों से कहीं भी कम नहीं माना जा सकता।

उपर्युक्त हाइकुकारों में रचना श्रीवास्तव सहज अनुभूति को हृदयस्पर्शी भाषा में उकेरने वाली कवयित्री हैं। इनके सरल व्यक्तित्व के दर्शन इनके काव्य में भी होते हैं। रिश्तों को पूरी ऊर्जा से निभाना, सामाजिक परिवर्तन पर कड़ी और सूक्ष्म दृष्टि, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजगता नवगीत, कविताओं और छोटी कविताओं में मुखर हुआ है। यही मुखरता इनके काव्य का पाथेय बनी है। एक वाक्य को तोड़कर एक हाइकु बनाने वाले या एक मिश्रित वाक्य के दो उपवाक्यों से दो हाइकु बनाकर उसको हाइकु गीत कहने वाले हनुमान कूद करने वालों से दूर रचना श्रीवास्तव उन हाइकुकारों में से एक है, जो काव्य की अन्य विधाओं की भी सशक्त हस्ताक्षर होने के साथ–साथ कहानी और लघुकथा के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। हाइकु के सफल अनुवादक के रूप में आपका 'मन के द्वार हज़ार' (34 हाइकुकारों के हाइकु का अवधी हाइकु में अनुवाद) कार्य सराहनीय रहा है। जीवन के विविध आयामों की छवि इनके हाइकु का मूल गुण है।

'भोर की मुस्कान' इनका पहला हाइकु–संग्रह है। यह मुस्कान सात अध्यायों में विभाजित है-1-भोर–किरन, 2-उत्सव की धूप, 3-मौसम के रंग, 4-नेह की बूँद, 5-रिश्तों की डोर, 6-धरा का आँगन और 7-समय का सच। सात रंगों का यह इन्द्रधनुष जीवन और जगत के व्यापक फलक को समेटे हुए है।

1-'भोर–किरन' में भोर होने पर प्रकृति की मनोरम छटा का रूप अनूठा एवं दर्शनीय हो उठता है—सिन्दूरी हुआ / नदी का नीला पानी / भोर जो आई.

भोर–किरन का 'धरती पर नंगे पाँव' उतरने का मानवीकरण तो अर्थ की अनेका छटाएँ खोलता है; एक ओर धरती की पावनता जिस पर किरण नंगे पाँव उतरती है, दूसरी ओर धरती की कोमलता, जिसका अहसास उस नन्ही किरण को होता है—भोर-किरण / उतरी घरती पर / नंगे ही पाँव।

सुनहरी धूप जब धरती का मुख चूमती है तो वह और भी मोहक लगने लगती है—चूमा मुख जो / सुनहरी धूप ने / धरा लजाई.

2-उत्सव की धूप' में जीवन की उत्सवधर्मिता अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। हर त्यौहार केवल मनाया जाने वाला साधारण घटना मात्र नहीं वरन् उस उमंग को जाग्रत रखना है, जो जीवन को जीने लायक बनाती है, जो सामाजिक जीवन की सांस्कृतिक शैली का निर्माण करती है। यादों की चौखट पर रखे दिए से साम्य कितना सहज और संवेदनशीलता से अनुपूरित प्रतीत होता है! चौखट का प्रयोग इस हाइकु को घर के अपनेपन से जोड़ देता है—तुम्हारी याद / चौखट दीप धरूँ / दिवाली-रात।

होली का चित्रण उद्दीपन रूप में कितना प्रभावशाली बन जाता है—सजन छुए / बिना रंग ही गोरी / हुई गुलाबी.

सीमा पर तैनात सैनिक की होली की कल्पना रचना श्रीवास्तव ने बहुत ही अनूठे ढंग से की है। वह सपने में ही होली मना सकता है। कर्त्तव्य परायणता के कारण उस बेचारे को वसन्त के आने की खबर तक नहीं हो पाती—सजनी-संग / सपने होगी होली- / सैनिक सोचे। -कब आया था / सीमा पर बसंत / पता न चला!

चाँद जैसे मुखड़े के मुरझाने का कारण भी चाँद बन जाता है। प्रतीक रूप में इस हाइकु की अभिव्यक्ति बहुत ही सम्प्रेष्य है—मुरझाया है / चाँद-जैसा मुखड़ा / आया न चाँद।

3-'मौसम के रंग' में कवयित्री की मधुर कल्पनाशीलता उनके गहन अनुभव की साक्षी बनती है- 'धूप' को चिड़िया के रूप में बहुत से कवियों ने चित्रित किया है। रचना ने ठण्ड के समय का बहुत सार्थक चित्रण किया है—धूप चिड़िया / सिमटी कर बैठी / ठंड जो आई.

गर्मी की धूप का रूप तो सबसे अलग है, उसकी भीषणता भी इतनी कि धूप को भी गर्मी से अचने के लिए छतरी चाहिए—उकडू बैठी / काश मिले छतरी! / धूप सोचती

पानी देने वाली नदियाँ भी जेठ के महीने में पिपासाकुल हैं। तालाब सूख गए हैं। एक कटोरी पानी-पंछी नहाए या पिए, क्या करें! यह विकट समस्या गर्मी की भीषणता को चित्रित करती है। -नदियाँ प्यासी / झरने माँगें पानी / जेठ की बेला। -तालाब सूखे / पंछी पिए, नहाए / कटोरी पानी।

आम क्या बौराए, मन भी बौरा गया और प्रिय याद आ गए. बौराए का अभिधेय और लाक्षणिक दोनों रूपों में प्रयोग रचना श्रीवास्तव की काव्य प्रतिभा का लोहा मनवा लेता है। परम्परागत तुकबन्दी या विचारों के शुष्क खेल की तरह 5-7-5 के पत्ते फेंटने वालों को इस कवयित्री के हाइकु ज़रूर पढ़ने चाहिए. -बौराए जो आम / महक उठे बाग / वे याद आए.

वर्षा का बूँदों सजा लहँगा पहनना उसको गर्विता का रूप दे देता है। उसकी चाल ही बदल जाती है। तीन पंक्तियों में एक आकर्षक चित्र आँखों के सामने खिंच जाता है। कल्पना के साथ भाषा का माधुर्य और यह मटककर चलना चित्र को गत्यात्मक बना देता है। हाइकु के ऐसे उत्कृष्ट उदाहरण उसे उच्च कोटि के काव्य की श्रेणी में रखते हैं। -वर्षा पहने / बूँदों सजा लहँगा / मटक चले।

ऋतु-पनिहारिन का यह रूप किसका मन नहीं मोह लेगा कि वह गागर भरकर जब चले तो गागर छलक-छलक जाए—भरे गागर / ऋतु-पनिहारिन / छलक जाए.

4-नेह की बूँद-में कवयित्री के हाइकु का माधुर्य हिन्दी काव्य की ऊँचाई को स्पर्श करता है। हाइकु के नाम पर शब्दजाल बुनने वाले, नन्हे हाइकु की खोंपड़ी पर दर्शन का प्रेत नचाने वाले इनसे सीख सकते हैं कि हाइकु की वास्तविक शक्ति उसका काव्य गुण है न कि शब्द-सर्कस की कलाबाज़ी। प्रकृति के उपादानों के माध्यम से प्रेम का यह उदात्त रूप इन पंक्तियों में—तुम सूरज / मैं किरण तुम्हारी / साथ जलती। -मैं नर्म लता / तुम तरु विशाल / लिपटी फिरूँ।

संयोग–शृंगार के ये हाइकु, शब्द–संयम की शक्ति का अहसास कराते हैं। -तुम जो आए / उगा हथेली चाँद / नैन शर्माए. -तुम हो वैसे, / दिल में धड़कन / होती है जैसे

जब प्रिय साथ नहीं होता तो बिखरे रंग समेटे नहीं जाते। उस समय तो बस आँसू ही बिखरते हैं। चिट्ठी खोलना और हथेली का भीगना बहुत मार्मिक है—आँसू से लिखी / वह चिट्ठी जब खोली / भीगी हथेली।

मिलन के सुखद क्षण मन की शान्त झील को तरंगित कर जाते हैं। झील में जैसे चाँद शर्माता है, वैसे ही बाहों में प्रिय भी लज्जानत है-

तुमने छुआ / शांत झील में उठी / तीव्र लहर।

-झील में चाँद / मेरी बाहों में तुम / दोनों लजाएँ।

जीवन में स्मृतियों का बहुत महत्त्व है। उन्हीं स्मृतियों की खुशबू से हमारा जीवन महकने लगता है जो कठिन पलों में भी शक्ति बन जाती हैं-

-याद के मोती / मैं पिरोऊँ माला में / महक जाऊँ l

5-'रिश्तों की डोर' में माता-पिता भाई बहन मित्र आदि का वैविध्यपूर्ण संसार है। जिस भी रिश्ते पर रचना हाइकु लिखती हैं, उसी में पूरी तरह निमग्न हो जाती हैं। माँ का प्यार अनेक आह्लादकारी रूपों में छलक उठा है। माँ के हाथ का बुना स्वेटर ठण्ड को भी लज्जित कर देता है। फन्दों में बँधा वह प्यार कितना प्रभावशाली है! -नींद पहन / पायल घर आए / माँ सुलाए. -माँ ने बुना था / जब फंदों में प्यार / ठंड लजाई.

पिता पर बहुत कम कवियों के हाइकु हैं। रचना ने पिता को भरोसे के रूप में प्रस्तुत किया है—तोतली भाषा / मासूम सपनों का / भरोसा पिता।

बच्चे बड़े होकर अपना अलग घर बसा लेते हैं तब की विकट स्थिति को 'बूढ़े पीपल' के प्रतीक के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है—उड़े जो पंछी / सूखा बूढ़ा पीपल / इन्तज़ार में।

माँ जीवन-संघर्ष में जूझते हुए कब बुढ़िया हो गई, पता नहीं चल पाता। एक माँ वह है जो बेटे की प्रतीक्षा कर रही है और उसके कोट को रोज धूप दिखाती है, बेटे के जीवन की ऊष्मा बनाए रखने के लिए—बच्चों के लिए / माँ हो गई बुढ़िया / पता न चला। -बेटे का कोट / रोज धूप दिखाती / प्रतीक्षा में माँ

बरसों बाद जब पुरानी सखियाँ मिलती हैं तो खुशी और पुरानी यादों के कारण आँसू उमड़ पड़ते हैं—बरसों बाद / सखियाँ मिलें गले / उमड़ें आँसू।

भाई के प्रति रचना का अकुण्ठ प्रेम दिल को छू जाता है। वह बहन के अम्बर जैसे हृदय का कभी अस्त न होने वाला चाँद है। इतना पावन प्रेम 17 वर्णों में समाहित करने की कला ही गागर में सागर भरना है। रचना की सहृदयता किसी भी भाई को अभिभूत कर सकती है -भाई है चाँद / बहन के अम्बर का / कभी न डूबे

बहन को दूसरे घर जाना है, लेकिन भाई के घर वह कितनी आत्मीय है, कितनी प्यारी है, गौरैया की तरह। गौरैया जो किसी भी घर की सुबह की सबसे बड़ी साक्षी होती है—भाई अँगना / बहन चुगे दाना / बन गौरैया।

बेटी पर केन्द्रित हाइकु में एक अकथित पावनता समाविष्ट है। कहीं वह महकती भोर है, तो कहीं बिदा हो जाने पर उसके झूले माँ को द्रवित कर देते हैं। कभी बेटी अपनी मुट्ठी में माँ की अँगुली पकड़ती थी, माँ को वह स्पर्श अभिभूत कर देता है—नन्हीं—सी कली / भोर महकती है / राज दुलारी। -आँगन झूला / झूलती थी बिटिया / माँ करे याद। -बेटी मुट्ठी में / पकडे जो अँगुली / पुलकित माँ।

बेटी की बिदाई माँ के लिए बहुत दारुण होती है। बिदा के बाद माँ बिखरा सामान ही नहीं सँभालती, बल्कि खुद के बिखराव को भी सँभालती है। बेटी की किलकारी में वह माधुर्य और पावनता समाहित हैं, जो मन्दिर की घण्टी में होते हैं। माँ–बेटी के ये बहुआयामी चित्र रचना श्रीवास्तव को हाइकु के क्षेत्र में एक सफल कवयित्री के तौर पर स्थापित करते हैं। -सँभालती माँ / बिखरा सामान वह / कर विदाई. -किलकारी से / मंदिर की घण्टी-सा / घर गूँजता।

6-धरा का आँगन-धरती का पूर्ण स्वरूप सृष्टि के रूप-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का संयोजन है। यह संयोजन ही इसका सौन्दर्य है। जब यह संयोजन विकृत होकर असन्तुलन और उपेक्षा को जन्म देता है तब सबके लिए अहितकारी सिद्ध होता है।

सन्तुलन और संयोजन का सौन्दर्य अप्रतिम होता है, तरु–लता-पात से लेकर नदी, निर्झर, झील तक, सूर्य–चन्द्रमा-तारकगण से लेकर मेघ, सागर, वायु तक। गुलमोहर और पलाश की छटा निराली है—पेड़ लजाए, / गुलमोहर खिला, / तो लाल हुए. -गुँथे पलाश / प्रकृति की चोटी में / अजब छटा।

तो झील में अपना रूप देखकर लजाता चाँद अद्भुत सौन्दर्य की ओर इंगित करता है—अपना रूप / झील में देखा जब / लजाया चाँद

वहीं दूसरी ओर असन्तुलन के कारण उपजे भयावह परिणाम की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है—दूषित हवा / पंछी को हुआ दमा / झील कराहे।

उसी झील में तिरते जलचर को जब कोई अपनी हिंसा का शिकार बनाता है तो पानी भी आतंकित हो उठता है–-एक धमाका / डरा झील का पानी / जंगल चुप।

वहीं झील का मानवीकरण बहुत मार्मिक दृश्य उपस्थित कर देता है। सीलन–भरी हवा किसी के दु: ख का बहुत गहरा अहसास कराती है

सीली थी हवा / भीगे झील के तट / कोई तो रोया।

सूखे के कारण चटकी झील का साम्य बिवाई से देना कितनी प्रभावी बन गया है! झील सूखी तो पंछी भी पलायन कर गए, वायु प्रदूषण बढ़ा तो चाँद भी खाँसने लगा। वर्षा आई तो झील का आँचल भीग गया, सीवान हरा-भरा हो गया। -चटकी झील / गरीब के पैरों में / जैसे बिवाई. -सूने किनारे / पंछी के स्वर बिना / सूखी जो झील। -ज़हर धुँआ / चिमनी ने उगला / बंजर धरा। -दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / बेचारा चाँद।

वर्षा आई तो झील का आँचल भीग गया, सीवान हरा-भरा हो गया। -वर्षा जो आई / भीगा झील-आँचल / हरे सीवान।

कवयित्री ने झील के माध्यम से प्रकृति के उतार–चढ़ाव को बहुत कलात्मक और वैज्ञानिक ढंग से पेश किया है।

7-समय का सच–जीवन के विभिन्न यथार्थ का ज्ञान कराता है। जीवन एक पुस्तक है, जो कोशिश करने पर भी पूरी तरह पढ़ी नहीं जा सकती। यदि आँसू में मुस्कान तलाश लेंगे, तो जीवन सरल हो जाएगा—पढ़ी न जाए / जीवन की किताब / कोशिश करो। -ढूँढ़ो आँसू में / यदि तुम मुस्कान, / जीना आसान।

नफ़रत की आँधी आँखों में काँटे ही बिखेर सकती है और कुछ नहीं, अत: त्याज्य है। आज परिवार के बीच की जोड़ने वाली मर्यादा की कड़ी जर्जर हो चुकी है। यही कारण है कि सम्बन्धों को गरिमामय बनाने वाली मर्यादा ध्वस्त हो चुकी है -आँखों में धूल / नफरत की आँधी / बिखेरे शूल। -आज के गीत / घर गाती बेटियाँ / शर्मिंदा पिता। -अश्लील दृश्य / बैठे रहते बच्चे / हटता पिता।

देश से आजीविका के लिए पलायन माता–पिता को बेसहारा करते जा रहे हैं। इस तथ्य को रचना ने डॉलर के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। -डॉलर छीने / बेसहारा की लाठी / सूना आँगन

बुढ़ापे का एकमात्र सहारा प्यार है, जिसके बल पर इस कठिन समय का मुकाबला किया जा सकता है—न कोई आस / बुढ़ापे का साथ तो / केवल प्यार।

इनका भाव-वैविध्य, गहन जीवन अनुभव, सूक्ष्म पर्यवेक्षण, भाषा पर गहरी पकड़ इन्हें उत्तम हाइकुकारों की श्रेणी में स्थापित करती है।

अन्तत: मैं यही कहना चाहूँगा कि रचना श्रीवास्तव का यह संग्रह सहृदय पाठकवर्ग को हाइकु-काव्य का रसास्वादन करा सकेगा।

(27 नवम्बर, 2013)