भोर के अधर / पूनम चौधरी

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कविता तब जन्म लेती है जब मनुष्य अपने भीतर से अपने ही अनुभवों को नये अर्थों में देखना सीखता है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी का काव्य–संग्रह 'भोर के अधर' इसी देखने की साधना का परिणाम है—यह वह दृष्टि है जो अंधकार में भी आलोक खोज लेती है और उस प्रकाश में भी अंधकार की स्मृति को सहेजकर रखती है। कवि ने पाँच दशकों के रचना और जीवन के अनुभवों को इस संग्रह में पिरोया है, इसीलिए हर कविता में समय की परतें हैं—कहीं स्मृति की नमी, कहीं वर्तमान का ताप और कहीं भविष्य का स्वप्न। कवि अपने पहले ही गीत 'कुछ न होगा' में अपने रचनात्मक अस्तित्व का उद्घाटन करते है—

सूने मंदिर में आकर के, दीप जलाओ कुछ न होगा,

सोई मिट्टी में चाहे तूफान जगाओ, कुछ ना होगा

यहाँ 'सूना मंदिर' केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि समय का प्रतीक है—वह समय जो बीतता तो है, पर मिटता नहीं। कवि जानता है कि भले ही देह या स्वरुप परिवर्तित हो जाएँ, पर संवेदना और स्मृति का तेज अक्षय रहता है। यह आलोक ही कविता की आत्मा है। कुछ न होगा कहना कवि के आत्म–विश्वास का नहीं, बल्कि उसके अनुभव–विश्वास की घोषणा है। क्योंकि कवि का विश्वास सर्जन की शक्ति में भी है, यही स्वर अगली कविता 'विश्वास नहीं टूटा' बहुत ही सधे हुए शब्दों में पाठक के सामने आता है-

टूट गए सब बंधन, पर विश्वास नहीं टूटा।

छूटे पथ में सब साथी, विश्वास नहीं छूटा।

यहाँ कवि ने जीवन की समस्यायों और आदमी की आस्था के द्वंद्व को बड़ी सहजता से रखाहै। जब जीवन में मुश्किलों के अलावा कुछ भी ना हो रिश्ते, परिस्थितियों और समय सब आपके विपरीत हो, तब भी 'विश्वास' का बने रहना—यह कविता के मूल में मौजूद मानवीय जिजीविषा है। यह वह भाव है जो निराशा के विरुद्ध खड़ा है। हिमांशु का कवि–स्वर यहाँ एक साधक का स्वर बन जाता है; वह भोर की प्रतीक्षा नहीं करता, वह अधर में ही दीप जलाना सीखता है।

कवि यहाँ कर्मशीलता के दर्शन को प्रतिपादित करते हुए दिखाई देते हैं उन की कविता 'बढ़ता चला चल' इस कर्म–दर्शन का जीवंत रूप है—

जीवन नहीं थक कर बैठ जाना

विश्राम के लिए शय्या सजाना

जब तक है दम शेष बढ़ता चला चल।

बाधा की पैनी चोटियों पर

चढ़ता चला जा।

यहाँ 'बढ़ना और चढ़ना' जीवन की ऊर्जाएँ हैं। यह केवल पकविता नहीं, बल्कि जीवन का सूत्र है। कवि की दृष्टि में रुक जाना मृत्यु है और गति जीवन। यही गति उसे बार–बार अंधकार के पार ले जाती है। यह गति का उत्सव है, जो निराशा से नहीं, कर्म से जन्म लेता है।

'भोर के अधर' में कवि बार–बार अपने अंतर के द्वंद्व से संवाद करता है। उसकी कविताएँ आत्म–संवाद की तरह हैं, जिनमें प्रश्न के साथ वह उत्तर की खोज भी कर रहे हैं। वे लिखते है—

आँसू हो या कोई गीत

सम्पति हो या कोई विपत्ति

प्रियतम! तेरी किसी भेंट को

कभी लौटा नहीं सकता

किसी दूसरे द्वारे जा नहीं सकता।

यह 'न जा सकना' असहायता नहीं, बल्कि सृजनात्मक दृढ़ता है। कवि अपना रास्ता छोड़ने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि वही उसकी पहचान है। यह पंक्ति उन तमाम रचनाकारों की प्रतीक बन जाती है जो समय के दबावों के बीच भी अपनी संवेदना को बचाए रखते हैं।

संग्रह में एक और कविता सामाजिक यथार्थ की ओर मुड़ती है। कवि यहाँ समाज के नैतिक पतन को देखकर व्यथित है—

भ्रष्टाचार, ब्लैक मार्केटिंग, गुंडागर्दी जिंदाबाद।

जुग जुग जियो समाजवाद।

जो हो रहा, सो ठीक हो रहा;

जुग जुग जियो समाजवाद।

यहाँ उसका स्वर केवल आलोचना का नहीं, आत्म–पीड़ा का है। वह बाहर के समाज की बात करते हुए भीतर के अंधकार से भी संवाद करता है। यह समाज वही है जो भोर की प्रतीक्षा में है, पर अधर में अटका हुआ है। कविता का यह बिंब—

काला धन कमाने वाले ईश्वर से न घबराते—समय की बेचैनी का उत्कृष्ट चित्रण है।

कवि के लिए जीवन स्मृतियों का संगम है। उसकी कविता

'हमको न भूल जाना' स्मृति और विस्मृति के बीच की यात्रा है

पतझड़ आता और जाता, उपवन फिर होता हरा है,

आँसुओं की ओट में, मुस्कान का सागर भरा है

पोंछों नयन आ गई मंजिल, रोने में अब क्या धरा है

क्योंकि इस मंज़िल से आगे फिर नहीं मंज़िल को पाना।

याद ना करना भले ही पर नाम को भूल जाना।

यह कोमल संवेदना की कविता है, यहाँ पीड़ा है, पर वह पीड़ा भी आवश्यक है क्योंकि वही अस्तित्व को जीवित रखती है। विस्मृति मृत्यु है—यह पंक्ति बताती है कि कवि जीवन को स्मृति के विस्तार में देखता है। उसके लिए जीना स्मरण करना है—अपने, दूसरों के और समय के अनुभवों का।

कवि के भाव–लोक का सबसे उज्ज्वल रंग है—करुणा। जिस पर कवि का संपूर्ण जीवन दर्शन और रचना दर्शन अवलंबित है-

किसका साथी कौन है जग में,

इसका भेद है किसने जाना

चलते-चलते पाँव थक गए,

मंजिल का न मिला ठिकाना।

इसी करुणा की गूँज 'मोम-सा मन' में सबसे तीव्र रूप में सुनाई देती है—

मोम-सा मन जल चुका

हृदय का हिम गल चुका

ढल चुका यौवन का

मधुमास निर्झर-धार में

गिरकर संभल गया मैं

काफी बदल गया मैं

मगर बना न तुझ बिन

मीत कोई संसार में

कवि का प्रेम भी मानवीय है, इस यांत्रिक होते समाज में जो संवेदनाएँ जड़ हो गई है कवि उन्हीं कोमल भाव तंतुओं को छेड़ रहा है। संग्रह की कविता, ठहरों ओ युग! कवि समय से टकराता है—

समेट रहे हैं भूख-प्यास अब

जिला रहे हैं मरी आस अब,

न करो शीघ्र ता आने की

झूठमूठ बहलाने की,

अपने पैरों पर हमको तुम

खड़ा हो जाने दो पहले।

ठहरों ओ युग!

यह पंक्ति कवि की जिजीविषा की पराकाष्ठा है। समय उसकी कविताओं में न मित्र है न शत्रु—वह एक साथी है जो उसे परखता है। कवि जानता है कि समय को रोका नहीं जा सकता, पर उसे अर्थ दिया जा सकता है। यही अर्थ–सृजन उसकी कविताओं का मूल प्रयोजन है।

हिमांशुजी की रचनाओं में आया प्रेम अस्तित्वगत है—ऐसा प्रेम जो जीवन और मृत्यु, दोनों को एक सूत्र में बाँध देता है। 'प्यार मिला लें' में वह लिखता है—

जीवन का इतिहास मरण है

इन साँसों के तार मिला लें

तार मिलें तो सुर उपजेंगे

सुर से यह संसार मिला लें...

सीखें इससे धीरज रखना

कण कण में हम प्यार मिला लें।

यह प्रेम कवि को जीवन से पुनः जोड़ता है। यहाँ प्रेम किसी 'तुम' के लिए नहीं, बल्कि उस समग्र संवेदना के लिए है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है।

और जब कवि कहता है—

ले चल अब कहीं दूर चंचल

देकर मनुवाँ मुझको सम्बल।

तो यह चलना किसी दिशा की ओर नहीं, बल्कि अस्तित्व की निरंतरता की ओर है। यह चलना ही जीवन है, रुकना ही मृत्यु। यह कविता उसके सम्पूर्ण काव्य–दर्शन का सार है। इन सब कविताओं के भीतर एक गहरी अंतर्यात्रा चलती रहती है। कवि भोर की प्रतीक्षा करता है, पर वह अंधकार से डरता नहीं।

'भोर के अधर' का यह भाव–पक्ष अपनी आत्मीयता, मानवीय करुणा और समय–सापेक्ष दृष्टि के कारण अत्यंत विशिष्ट बन पड़ा है। यह कविताएँ शब्दों का जाल नहीं बल्कि कवि की जीवन यात्रा का साक्षात्कार है। कविता में एक जीवन का टुकड़ा धड़कता है—कहीं प्रिया की स्मृतियों में, कहीं समाज की विसंगतियों में, कहीं स्मृति के अंधकार में और कहीं भोर की किरण में।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की यह काव्य–यात्रा उनके जीवन यात्रा का ही प्रतिबिंब है—एक ऐसी यात्रा जहाँ जीवन को स्वीकारने समझने और प्रेम करने की सतत साधना चलती रही। उनकी संवेदना में करुणा भी है, तर्क भी और सबसे बढ़कर मनुष्य के प्रति आस्था भी। यही कारण है कि यह संग्रह अपने शीर्षक की तरह एक अर्थगर्भ प्रतीक बन जाता है—भोर के अधर—जहाँ ज़िन्दगी और उम्मीद का मिलन होता है। इस काव्य संग्रह की विशेषता भी यही है कि कवि ने अपने जीवन के सभी अनुभवों का एक सार प्रस्तुत किया है, उनकी लेखनी हर उसे विषय पर चली है जिसने उनके संवेदनशील मन को झिंझोड़ा है। इसीलिए विषय वैविध्य की दृष्टि से यह काव्य संग्रह उनका महत्त्वपूर्ण काव्य संग्रह है।

कविता की शक्ति और सौंदर्य मात्र उसकी भावगत संवेदना से ही नहीं बल्कि शिल्प की शैली से भी निखरती है। वही प्रस्तुति, वही भाषा, वही लय—जो भाव को अर्थ देती है, उसे आकार देती है और पाठक तक पहुँचाती है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का काव्य–संग्रह 'भोर के अधर' इस दृष्टि से शिल्प की परिपक्वता का अनुपम उदाहरण है। उनके यहाँ शिल्प न तो कृत्रिम है, न केवल व्याकरण का बोझ बल्कि वह भाव का स्वाभाविक विस्तार है। यह शिल्प संतुलन के साथ प्रभावी है, वह अपने आप को दिखाता नहीं, बल्कि अनुभूति को उजागर करता है।

'भोर के अधर' की भाषायी पारदर्शिता शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता बनकर उभरती है। यह पारदर्शिता कवि की आत्मा की सच्चाई से आती है। उसकी भाषा सजावटी नहीं, सजीव है; वह बोली–बानी से उठी है, पर उसमें विचार की परिपक्वता है। उदाहरण के लिए कवि लिखते है—

'टूट गए सब अनुबंध, पर विश्वास नहीं टूटा।'

या

माना पथ है घोर कँटीला कोई साथ नहीं

छूट चुके सब साथी पीछे कोई बात नहीं।

इस पंक्ति में कोई अलंकारिक चमत्कार नहीं, पर शब्दों की स्वाभाविक संगति ही उसका सौंदर्य बन जाती है। 'टूटना' और 'न टूटना'—यह सरल विरोधाभास भाषा के सौंदर्य को और बढ़ा देते हैं, यह 'कम–शब्दों में अधिक कहने' की कला है—जो हिमांशु जी के शिल्प का मूल स्वरूप है।

उनकी कविताओं का दूसरा महत्त्वपूर्ण शिल्प–तत्त्व है—लयात्मकता। यह लय केवल छंदगत नहीं, बल्कि भावगत है। वह अपनी कविता को गीतात्मक बनाते हैं, पर गीत का उपयोग भाव–प्रवाह के लिए करते हैं, न कि केवल रस–सृजन के लिए।

जब तक है दम शेष, बढ़ता चला चल,

चढ़ता चला चल।

या

आँखों से दो आँसू गिरने दो

कोमल तन बाहों में गिरने दो

यहाँ दोहराव केवल लय के लिए नहीं, बल्कि विचार के बलाघात के लिए है। यह पुनरावर्तन कविता को एक निरंतर गमनशील लय देता है। पाठक इसे पढ़ते हुए अपने भीतर एक छुपी हुई ताल महसूस करता है—यह वही ताल है, जो जीवन की धड़कन से मेल खाती है।

सरलता और सहजता के साथ गहराई लिए शब्द हिमांशु जी की कविताओं की शक्ति है, उनकी कविताओं में न तो शब्दों का बोझ है, न बिंबों की भीड़। वे जानते हैं कि कविता की शक्ति उसकी सादगी में है। 'दुनिया एक बगिया है' में जब वह लिखते हैं-

जितने शब्द मिलते हैं,

उनसे गीत रचना तुम।

आँसू पोंछना बेहतर

शूल बनने से बचना तुम

फूल बनकर के मुसकाना

सदा खुशियाँ ही पाओगे

तो यह सीधे–सीधे कहा गया वाक्य, कविता का केंद्रीय बिंब बन जाता है। यह भाषा न तो क्लिष्ट है, न भाव–हीन; बल्कि यही सादगी उसकी गहराई है। यह शिल्प उस आत्मविश्वास का द्योतक है जो अनुभव से आता है।

कवि की भाषा में स्थानीयता और सार्वभौमिकता का अद्भुत संतुलन है। वह हिन्दी के प्रांजल रूप का प्रयोग करते हैं, पर कभी–कभी उसकी लचक में लोक–रस की मिठास भी घुली होती है। यह उनका अपना भाषिक प्रदेश है—न पूरी तरह परंपरागत, न आधुनिक प्रयोगवादी, बल्कि दोनों के बीच का पुल। उदाहरण के लिए 'सूनी सेज' में:

सावन में बाँधी है पायल, जब से अपने पाँव में

सुधियों के नासूर पिराए, पुरवइया में टीस की

हिमांशुजी का शिल्प आंतरिक संरचना पर आधारित है। वे बाहरी सज्जा नहीं रचते; उनकी कविता का विन्यास भीतर से बनता है। हर कविता एक बीज की तरह है, जो धीरे–धीरे खुलती है। 'हमको न भूल जाना' में आरंभिक पंक्ति—

'याद न करना भले ही, पर न हमको भूल जाना' कविता का मूड स्थापित करती है और फिर धीरे–धीरे पूरा भाव–लोक इसी एक वाक्य से विकसित होता है। यह रचना–विन्यास का अत्यंत प्रभावी उदाहरण है। यहाँ कविता किसी संरचना–सूत्र से नहीं, भाव–अनुशासन से बँधी है।

उनकी रचनाओं में प्रतीक और बिंब अत्यंत सरल हैं। 'भोर', 'अंधकार', 'दीप', 'जल', 'पथ', 'साँस', 'धरती', 'युग', नदी—ये सारे उनके स्थायी प्रतीक हैं। लेकिन इनके प्रयोग में नवीनता यह है कि वे इन्हें बार–बार दोहराते हुए भी हर बार नया अर्थ देते हैं। यह मानवीकरण (personification) उसकी शिल्प–कला की सुंदरता है।

भोर 'उनके यहाँ आशा है,' अँधेरा' जीवन का संघर्ष,' अधर' संक्रमण की स्थिति। इन तीन शब्दों में ही पूरा संग्रह समाया है। यही उसकी प्रतीकात्मक संगति है—एक शीर्षक जो पूरे शिल्प का केंद्र बन जाता है।

कवि के शिल्प में ध्वनि और मौन का संतुलन अत्यंत उल्लेखनीय है। कुछ कविताएँ इतनी शांत हैं कि उनका मौन ही उनका संगीत बन जाता है। जैसे 'क्या करें!' में-

सूखता ही

जा रहा उदगम अहर्निश

दूर तक

फैली हुई

रेत की लंबी नदी, क्या करें!

यहाँ शब्दों की गिनती से अधिक उनके बीच का विराम महत्त्वपूर्ण है। यह विराम पाठक के हृदय में प्रतिध्वनित होता है। यह कवि की वह शिल्प–सिद्धि है जहाँ मौन भी अर्थ बन जाता है।

उनकी कविता का संगीतात्मक विन्यास 'छंद' या 'अलंकार' पर निर्भर नहीं, बल्कि भाव–लय पर टिका है। वे अपने शब्दों को ऐसा प्रवाह देते हैं कि वे पाठक के मन में गूँजते रहते हैं। उदाहरण के लिए, —

आँचल में छुपकर शरमाए, दहके फूल पलाश के।

रोम रोम के साँस हो गए, प्यासे मधुर सुवास के॥

यहाँ 'साँस' और ' पलाश का बिंब केवल दृश्य नहीं, श्रव्य भी है। इन शब्दों की ध्वनि–संरचना लहरों की धीमी गति का आभास देती है। यही वह सूक्ष्म शिल्प है जो कवि को संगीतात्मक बनाता है।

हिमांशु के शिल्प में संयम और संक्षेप का असाधारण अनुशासन है। वे कभी भी शब्द–बहुलता में नहीं जाते। उनकी हर कविता में 'कहने' से अधिक 'छोड़ने' की कला है। यह विरल गुण उन्हें समकालीन कवियों में विशिष्ट बनाता है।

उनके बिंब अत्यंत मानवीय और दृश्यात्मक है, 'झर गयी चाँदनी' कविता विशेष उल्लेखनीय है-

ईख की मुँडेर पर उतर गई चाँदनी,

पात पात को चूम बिखर गई चाँदनी

धरती की गोद में थकान चुप सो रही,

ओस की हथेलियाँ दूब को भिगो रही।

माटी की सुगंध से भर गई चाँदनी।

पात पात को चूम बिखर गई चाँदनी।

यह बिंब सहज है, पर सशक्त। यही बिंबकला का कौशल है—भावना को ठोस चित्र में ढाल देना।

हिमांशु जी का काव्य–शिल्प इस बात का प्रमाण है कि सरलता भी एक जटिल कला है। हिमांशु जी का काव्य संसार कहने से अधिक अनुभूत करने का है, वे पाठक को अर्थो की खोज करने का अवसर देते हैं यही आधुनिक काव्य शिल्प की अन्यतम विशेषता है।

कुल मिलाकर, 'भोर के अधर' का शिल्प उसकी आत्मा के अनुरूप है। उसकी भाषा भावों के समान कोमल है, उसकी संरचना अनुभव के समान सघन। वह दिखती नहीं, पर भीतर गूँजती है। यह वही शिल्प है जो पाठक को शब्दों से आगे ले जाकर अनुभूति के संसार में पहुँचा देता है।

"'-0-भोर के अधर (काव्य-संग्रह) -रामेश्वर काम्बोज' हिमांशु'पृष्ठ: 120, मूल्य: 300 रुपये, संस्करण: 2022, प्रकाशकःअयन प्रकाशन, जे-19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059"'