भोली काका / ब्रह्मनंद पंडा / दिनेश कुमार माली
ब्रह्मनंद पंडा (1922-1997),
जन्म-स्थान :- टिकिली, सेरगड़, गंजाम
प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“साधारण सत्य”,” .भोली काका”,* “आम परिचय”, “कला ओ कल्पना”,1959 “प्रांत यमक”, इत्यादि।
जीवन घटनाओं का वह तूफान है, जिसके स्रोत में सब कुछ बह जाता है और समय के अनंत गर्भ के भीतर समा जाता है। मगर वहीं से कुछ घटनाओं का प्रभाव मनुष्य की विचारधारा में कभी-कभी इस कदर पड़ जाता है,जिसे इतिहास या काल चिरकाल तक मिटा नहीं पाता। मेरे इस छोटे-से जीवन में भोली काका के व्यक्तित्त्व ने मेरी विचारधारा को पारंपरिक आत्म-प्रताड़ना से मुक्त कर एक नई दिशा प्रदान की। यही वजह है कि भोली काका अभी तक मेरे मन से निकल नहीं पाए।
आधी हरियाली वाले (खंडिलता) पहाड़ के नीचे लगभग सौ घरों की एक छोटी-सी बस्ती वाला हमारा गांव था। किसी भौगोलिक अथवा उत्परिवर्तन के कारण शायद इस पर्वत-श्रेणी का प्रसार अचानक हमारे गांव के नजदीक में अवरोध के रूप में प्रकट हुआ, क्योंकि हमारे गांव की पश्चिम दिशा में लगभग डेढ़-मील की दूरी के बाद घने जंगल थे। हमारे गांव के बाद पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा भी देखने को नसीब नहीं होता था। काली चिकनी मिट्टी की बनी क्यारियों के अंदर ग्राम्य-जीवन में उपयोगी नाना तरह के पेड़ों से घिरा हुआ एक निराडंबर गांव पुरातन समय से बसा हुआ था। दूर से ऐसा लगता था, जैसे किसी योगी ने निर्विकल्प वहाँ समाधि धारण की हो।
तालाब के किनारे बैठकर मैं बहुत बार क्यारियों में मेंढकों की टरटराहट सुनता हूँ, सुनहरी लहरें देखता हूँ, दूर श्मशान में धधकती आग को अपलक देखता रहता हूँ। जंगल में पानी गिरने से गांव के बच्चों का संसार खिल जाता है। उस अपूर्व गंगा के स्रोत में नहाने के लिए हम दल-बदल टूट पड़ते थे। धान की क्यारियों में नए और पुराने पानी का मेल होता है। मेड के कटे हुए किनारों से मछलियां उछल बाहर जाती। वे बाँध के पास पकड़ी जाती; गडीश, फली, चिंगुडी, केरांडी तरह-तरह की मछलियां। जीरा, धनिया, हल्दी मिलाकर मेरी माँ के हाथ से बनी मछलियां और मेरी मां के हृदय में था स्नेह का स्वाद, भोजनालय की गंगा इलिशी या चिलिका भेक्टी के भीतर भरा रहता था व्यवसाय का जहर अर्थात प्रतियोगिता के अर्थ का अनर्थ।
मुझे उस उम्र में गाँव का श्री-बोध स्वतंत्र रूप से अच्छा नहीं लगता था। वहीं मिट्टी, पानी, पवन, धान, मछलियां और पेड़ों के भीतर से मैं अपने आप को कभी भी दूर नहीं कर सका। मेरी आज की यह संस्कृति उसी काली मिट्टी के पेट से पैदा हुई। नगर की संस्कृति और सभ्यता के तकनीकी वर्णसंकर प्रणाली भी उसे कोरे कागज के फूल नहीं बना पाई। भोली काका ने मेरे प्राणों में उस चेतना को संचारित कर दिया था।
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मेरी उम्र थी उस समय सात वर्ष। समझ में आया, भोली काका केवल मेरे नहीं वरन सारे गांव के काका थे। हलवाई के यहां से चना, मिश्री केवल मेरे लिए नहीं लाते थे, बल्कि दूसरे बच्चों के लिए भी। कभी-कभी भोली काका का यह आचरण देखकर मुझे बुरा लगता था। मेरे भोली काका सारे गांव के काका कैसे हुए? वही भावना मुकुंदा, सोली, राधी, पदि उनके ऊपर इतना क्यों अधिकार जमाते? कहने की इच्छा होने पर भी भोली काका से नहीं कह पाता था। मगर इस दबे हुए गुस्से की वजह से मैंने खेलने के समय पदि को जोर से मारा था। बड़ी-बड़ी आंखों से मुझे एक बार विकल भाव से देखकर वह अपने घर ले गया। भोली काका की तरह पदि वे आंखें अभी भी मेरे मन में अटकी हुई हैं।
अंग्रेजी- स्कूल में भर्ती होने हेतु मेरा पास के शहर में ले जाया गया। बैलगाड़ी में बैठकर जाते समय रास्ते में जामुन के पेड़ के नीचे से दो अनजान निरीह काली आंखें मुझे बड़े ही संतर्पण भाव से देख रही थी। गुस्से से मैने मुंह फेर लिया था। मेरी अनुपस्थिति में भोली काका के पास से मिश्री, मिठाई ये सारी चीजें तो बहुत मजे से खाएंगे। पदि के आंखों की भाषा समझने से पहले मैं उसकी दुनिया से अलग हो गया था। मेरी इस शरणपंजर दुनिया में थे पावडर से पोते हुए गाल, वासना से ओतप्रोत आंखें, जटिल बातों की छल भाव-प्रवणता, दिखावटी अनुराग। पीछे रह गए काली मिट्टी के हमारे गांव, भोली काका और पदि, मैं आगे चला गया लाल-धूल की सड़क पर किसी दूर लक्ष्य और उद्देश्य की ओर।
गर्मी के दिनों में छुट्टी में आकर लगभग ढाई महीना मैं गांव में बिताता था। मगर भोली काका के साथ मिलने का प्रयोजन कभी भी विशेष तौर पर अनुभव नहीं किया। आम के बगीचे से पके आम लेना, जाल बिछाकर चिड़ियाँ पकड़ना, पहाड़ पर चढ़कर बेर तोड़ना, मंडप में रात को भागवत पुराण सुनना, अथवा छंद-चौपदी गाना सीखने इत्यादि में छुट्टी के दिन बहुत जल्दी कट जाते थे। मैं फिर शहर में आगे की पढ़ाई करने के लिए चला जाता था, एक अनजान पूरी तरह से अलग-थलग संसार में। किशोर मन के निर्मल, स्वप्नाविष्ट चेहरे के चंद्रलोक के अंदर बाल-मन की चंचलता देखकर भोली काका चुप हो जाते थे।
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कॉलेज छोड़ने के बाद मुझे गांव में एक साल रहना पड़ा। पारिवारिक कारणों की वजह से मुझे घर में रहना पड़ा था। तब तक रोजी-रोटी के बारे में मैने कुछ भी नहीं सोचा था। इसी साल के अंदर बचपन के दिनों से परिचित भोली काका को जानने का सुयोग मुझे इसी दौरान प्राप्त हुआ। विश्वविद्यालय की शिक्षा की तुलना में भोली काका के साहचर्य में मुझे अधिक विश्वस्त भाव से जीवनदर्शन की नई दिशा प्राप्त हुई।
सदैव हंसमुख रहने वाले पचपन वर्ष के बुजुर्ग भोली काका गांव के सबसे ज्यादा गरीब थे। पांच साल का लड़का और तीन साल की लड़की काका की गोद में छोड़कर उसकी पत्नी ने पचीस वर्ष पहले आंखें मूंद ली थी। दोनों बच्चों को मां का प्यार और पिता की जिम्मेदारी उठाकर काका ने मनुष्य बनाया। पास के गांव में उनकी बेटी की शादी हो गई। बीच-बीच में वह उन्हें देखने आती। बेटा बर्मा चला गया। विगत महायुद्ध के समय जापान का बर्मा पर आक्रमण करने से हमारे सभी लोग भाग आए थे।कुछ रास्ते में मर गए, कोई अधमरी हुई हालत में घर पहुंचे। मगर काका का बेटा और नहीं लौटा। किसी ने कहा बर्मा में किसी स्त्री के साथ उसने किसी पल्ली गांव में घर बसा लिया है। किसी और ने कहा, रंगून में बम गिरने के पहले दिन जो जहां छुपे थे, वहीं मर गए। मगर काका के मुख से कभी भी बेटे की बात मैने नहीं सुनी। तब भी, हंसमुख चेहरे के तले मुक्त प्राण की अनभिव्यक्त मानसिकता के भीतर पुत्रहीनता की गुप्त-वेदना अथवा निर्लिप्त सांत्वना का जमाव शायद असाधारण नहीं था, क्योंकि किसी प्रसंग में काका ने एक बार मुझे कहा था -
“बेटे, जन्म की मिट्टी से जो पैदा होता है श्मशान की मिट्टी में उसकी गति होती है। मां के पल्लू से बच्चे को छीन लेने से बच्चा उजड़ नहीं जाता।”
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उस दिन गांव में कौड़ी का एक बड़ा खेल चल रहा था। हर दिन की तरह दोपहर में अखाड़ा घर में आठ जवान कौडी के खेल में लगे हुए थे। खेल खूब जमा था. खिलाडियों की तुलना में दोनो तरफ के समर्थक और देखने वालों का उत्साह, उद्वेग, उत्तेजना विशेष दिखाई दे रही थी। हंसी के शोर-शराबे से मानो घर की छत उड़ जाएगी। खेल के आरंभ से मदन की ‘जोड़ी ’ को कइवल की ‘जोड़ी ’ टक्कर दे रही थी। ठीक खेल खत्म होने के समय पर मदन की ‘जोड़ी ’ मर गई। कइवल के दल को और कौन संभाल पाता? सीटी बजाना शुरु, ताली मारना, गमछा उड़ाकर विजय के उल्लास का प्रदर्शन करने लगा। खेल खत्म होने का समय हुआ। ‘जोडी’ और फेंकने का मदन को साहस नहीं था। धान बांधकर ले जाते समय सोचकर मदन के दल ने आपत्ति दर्ज की। मज़ाक-मज़ाक में मुक्केबाजी और हाथापाई होने लगी। भीड़ के भीतर में मदन की जनेऊ टूट गई। रोते-रोते मदन घर गया। ऐसी घटना आठ पइंच खेल में कोई नई नहीं थी। मदन के पिताजी वरज पाणिग्रही गांव के सेठ महाजन थे। उनके बेटे के शरीर पर कोई हाथ लगा दे, ऐसा आदमी इस गांव में जन्मा नहीं था। विधवा के पुत्र कइवल की इतनी हिम्मत ! पत्थर की तरह गांव के लोग स्थिर खड़े हो गये थे, पूरे मंडप के ऊपर पाणिग्रही ने कइवल को बुरी तरह से मारा। कइवल के नाक से खून निकलकर मुंह की तरफ आने लगा, तब भी पाणिग्रही का गुस्सा शांत नहीं हुआ। उस समय भोली काका का आविर्भाव हुआ। अधमरे कइवल को नीचे से उठाकर थपथपाते हुए कितनी बातें उन्होंने पाणिग्रही को सुना दी। दोनों में कुछ समय बहस भी चली। अंत में, कचहरी में देखेंगे कहकर पाणिग्रही जहरीले सांप की तरह मुंह फुलाते हुए घर चला गया। भोली काका कइवल को उसकी अंधी विधवा मां के पास ले गए। धीर-धीरे कर गांव के लोग चले गए।
इस घटना के दिन मैं गांव में नहीं था। दूसरे दिन जब लौटा तब सारी कहानी मैंने सुनी। भोली काका के हिम्मत की मैंने मन ही मन खूब तारीफ की। मगर, डर भी लगने लगा क्योंकि भोली काका के इस साहस को पाणिग्रही सहजता से भूल नहीं पाएगा। अपराहन में पहाड़ की तलहटी की बैंगन के बगीचे में मेरी काका से भेंट हुई। मैने कहा-
“आप इस लफड़े में क्यों पड़े। पाणिग्रही के कल-बल तो जानते हो। ”
काका बैंगन तलहटी में मिट्टी खोद रहे थे। खेंती छोड़कर दोनो हाथों को कमर पर लगाकर बैठ गए। ललाट से बूंद- बूंद पसीना गालों की तरफ बढ़ रहा था।
“मनुष्य का कल-बल ही अगर सब कुछ है, बेटा, भगवान किसलिए हैं। मनुष्य का कितना अच्छा समय होता है? जितना बढ़ेगा,उतना ही टूटेगा।”
मुझे लग रहा था, काका जैसे नीति अध्याय को दुहराकर दुनिया की गति को समझने में नियम का उल्लंघन कर रहे हैं। मैने कहा - “भगवान को तो कचहरी की सीमा में बंधना नहीं पड़ता है।”
“तु भूल कर रहा है, उन्होंने समझाने का प्रयास किया, भगवान सब कुछ देखता है, सब कुछ भोगता है। वे सब कुछ करते हैं। पाणिग्रही मारेगा, कइवल अधमरा होगा, वह सब कुछ देखता है। उसका देखना ही असली है। कचहरी जो देखती है देंखे।”
“मगर, कचहरी के आदेश तो तुम्हें भी मानने पड़ेंगे। ”
वे सहज होकर बैठ गए। मैं भी एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। काका के चेहरे पर एक गंभीर आत्मविश्वास झलक रहा था। “मान लेना और मन से मानने में अंतर है बेटे। मन से मानने के अंदर स्वेच्छा होती है, मानने में बाहर का जोर। पाणिग्रही मुझे पुलिस के हाथों गिरफ्तार करवाएगा, करवाने दो, वह अगर ऐसा करता है, गांव वाले लोग मनुष्य बन जाएंगे। ”
एक तरह हताश भाव से मैं कहने लगा, “तुम क्या सोचते हो, काका,ये मूर्खलोग कभी अपना मुंह खोल पाएंगे? मनुष्य बन पाएंगे? इन लोगों पर मुझे कतई विश्वास नहीं है।”
काका के मलिन चेहरे पर हंसी उभर आई। आवाज में दुख के भाव स्पष्ट प्रतीत हो रहे थे।
“तुम इन लोगों के नजदीक से दूर जा रहे हो। तो तुम्हारे मन में विश्वास कैसे होगा? मैं इन लोगों के साथ में रहता हूँ इसलिए जानता हूँ कि ये लोग कौन है।”
काका के चेहरे की तरफ मैं देखते रह गया। उस ‘कौन’ पद की व्याख्या सुनने से पूर्व और कुछ युक्ति नहीं कर पाया।
सूर्य का प्रकाश मद्धिम हो रहा था। दूर किसी गुवाल में बंशी से ‘कला मानिक’ ध्वनित हो रहा था। खंडीलता पहाड़ी के कई घरों की ओर गोधूली वेला में लौटती गायों की उद्विग्न हंबाली रूक-रूक सुनाई दे रही थी। पशु और मनुष्य दोनों जीवों में जैसे आशंकित मातृत्व आकुल हो उठा हो। काका कहने लगे, “ये लोग गरीब, अनाथ है। पेट भरने या रुचिकर खाने के दिन नहीं जानते। ऊपर से मनुष्य के अत्याचार की सभी प्रकार की बाधाओं, विपदाओं को कर्म मान कर अपने सिर पर सहन कर लेते हैं।”
मैने बात बीच में रोकी “मगर यह धर्म-भीरूता नहीं है। वे कुसंस्कार और मानसिक विकृति है।”
“बिल्कुल सही, मगर इनमें इनका दोष क्या? युगों- युगों से सभी प्रकार की सुविधाओं और सुयोग रहित गहरी खाई इन लोगों में सदियों से घर करती आई है। धर्म, जाति, न्याय, शासन के नाम पर बड़े लोगों ने इनके साथ छल किया है। किस साहस से ये लोग मुँह खोलेंगे? मनुष्य की तरह रहना कैसे सीखेंगे ? ये लोग केवल प्यार पाने के लिए मुंह खोलेंगे। आकुल कंठ से ठीक इस गाय की तरह इनको स्नेह प्रदान करते हुए पुकारना होगा, अपना बनाना होगा।”
शाम हो गई। मैं घर लौटा।। मेरा मन भारी हो गया था। कइवल के लिए पाणिग्रही का सामना करने के पीछे काका के प्राणों के आवेग को मैने थोड़ा समझ लिया था। फिर भी तरह-तरह के प्रश्न मन में उठ रहे थे। काका क्या स्नेह देकर इन लोगों के मुंह से वास्तव में सच्ची बात उगलवा पाएंगे?
(5)
पाणिग्रही ने बहुत उपाय किए। धमकियां दी, पैसों का लोभ दिखाया फिर भी भोली काका के विरोध में कहने के लिए गांव का एक आदमी भी राजी नहीं हुआ। कभी हार नहीं मानने वाले पाणिग्रही की हिम्मत भी दाद देने लगी।
घर- घर से पुराने चावल, जौं, घी, खट्टा, सब्जी लाकर काका के इलाज से कइवल ठीक हो गया। अखाड़ा घर में पहले की तरह खेल चलने लगे। गांव के जवान बच्चें फिर से आमोद-प्रमोद में सहज सरस हो गए। इस जीवन से वंचित हुआ केवल मदन? अखाड़ा घर में आने को मुंह नहीं दिखा पा रहा था।
मैंने एक दिन हँसते हुए कहा, “मुझे विश्वास नहीं था काका, गांव के लोग इस तरह एकमत होंगे। वास्तव में आपने इनके भीतर एक नई ताकत भर दी है। ”
काका ने हँसते हुए उत्तर दिया- “ये कोई जानवर नहीं है। स्नेह और विवेक की केवल जरूरत है। पैसों को जो लोग बड़ा मानते है, पैसों के लिए वे सब कुछ दे सकते हैं। मान, महत ज्ञान उनका नहीं रहता है, मगर ये लोग पैसों के मोह में नहीं पड़े क्योंकि चिर दरिद्रता ने उनको हर समय पैसों की दुनिया से दूर रखा है।”
मैने अपना संदेह दूर करना चाहा, “ये लोग हमेशा पैसों की दुनिया से दूर रहे, क्या आप ऐसा चाहते हैं? ”
“नहीं, पैसा एक दिन इनके कदम चूमेगा। उस दिन के लिए उन्हे तैयार रहना होगा।”
मैं नहीं समझ पाया। कहने लगा- “व्यवसाय, व्यापार,कल-कारखाने, जमींदारी सभी तो बड़े लोगों के हाथ में हैं। पैसे इनके हाथ में आएंगे कैसे? ”
काका कहने लगे, “आजकल पैसों का अर्थ केवल धन नहीं है, धर्म, न्याय, ज्ञान, शासन। ये सब पैसों का...”
वह एक शब्द अर्थ बतलाने के लिए खोजने लगे।
मैने इस बात को आगे बढ़ाया - “पैसा विनिमय का माध्यम है।”
वह खुश हो गए। “हां, पैसों से जहां अदला-बदली होती है। पैसों की प्रधानता नहीं रहती है।”
मैं अविश्वास से पूछने लगा, “क्यों? आज जो पैसों के मूल्य का निरुपण कर रहे हैं, पैसों के दाम नहीं जानते हैं। पैसा केवल अनावश्यक सृष्टि मात्र है कई लोगों के एक बाजारु शौक। उपज-उत्पादन के साथ इसका कोई सहज संपर्क नहीं है। बाजार में अनिश्चित गति के दिन में ये शौक को अचल कर देते हैं। उसके साथ थम जाती है शौक की दुनिया।”
मैं समझ गया, काका पूंजीवादी दुनिया में आर्थिक संकट के साथ- साथ शासन व्यवस्था के स्थिर होने की गणना कर रहे हैं। मुझे आश्चर्य होने लगा, गांव का एक अशिक्षित बूढ़ा इस युग के जटिल अर्थ-शास्त्र के सारगर्भित तत्वों को कैसे समझ पाया? हो न हो,इसके पीछे सृजनशक्ति का सहज अंतर-ज्ञान होगा। संतान के विविध क्रियानुष्ठानों के अर्थ माता यदि संपूर्ण हृदयबोध से समझ नहीं पाती है, फिर भी संतान पर ये परिणत होकर अच्छी तरह रूप ले सकती है, उसके कल्पना प्रवण मातृप्राण अव्यक्त-भाव में अनुभव कर सकती है। काका समझ गए थे, पूंजीवादी शासन-तंत्र को तोड़ने की शक्ति श्रमजीवी हाथों में आ जाएगी।
मैने पूछा- “लोग कैसे तैयार होंगे? ”
काका ने उत्तर दिया, “लोगों के मन में विश्वास जगाना होगा। उस विश्वास को लाकर उनके साथ अपने को एक कर देने से उनके सुख-दुख में भागी होने से, अथाह प्यार और सम्मान देने से। तुम्हारे जैसे लोग जो युगों-युगों से इन दलित लोगों की सहायता करके अपने जीवन का सुख नहीं भोग सकते हैं, उनके साथ मिलना होगा। क्योंकि बड़े-लोग तुम्हें बीच में नहीं रहने देंगे।”
भोली काका की गंभीर अंतदृष्टि ने मुझे उस दिन अवाक कर दिया। पूंजीवादी समाज में निम्न मध्यम वर्ग धीरे-धीरे दिवालिया होते वे जान रहे थे।
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मुझे उनका दर्शनलाभ मिला था। मैं समझ गया था, मेरा भाग्य, मेरा भविष्य इस गांव की इन काली जड़ों से जुड़ा हुआ है, नगर के बैंक अथवा कारखाना मालिकों के साथ नहीं। ऊपरी वर्ग के लोगों के अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरोध में भोली काका ने इन लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होकर मेरे अंतर के भीतर की आवाज को एक नई शक्ति प्रदान की। मैं जितना दूर चला गया था, लौट आने में उतना ही व्याकुल हो रहा था।
भोली काका के मन में शिक्षा की अहमियत नहीं थी, मगर अच्छी शिक्षा के श्रेष्ठ महत्व, अंधकार के भीतर उजाले को तलाश लेना, वे अच्छी तरह जानते थे। आभिजात्य के बाहरी आडंबरों की तरह उनके लोकप्रिय नाम को मिथ्या सम्मान देते हेतु आगे-पीछे में विश्वविद्यालय के सस्ते उपाय नहीं थे। मगर, वह स्वयं किसी शिक्षानुष्ठान से कम नहीं थे। जिसमें मनुष्य की जीवन यात्रा को सरल, सहज और सुंदर करने के लिए विविध तत्व और सत्य सामने आए थे। भले ही वह अष्टवर्ग का साधक नहीं थे, मगर उनका धर्म था स्नेह और मैत्री का। बच्चे की तरह सरल और मां के हृदय की तरह उदार थे वे मानवता के प्रतीक। उन्हें राजनीति नहीं आती थी, वाद -विवाद करना नहीं आता था, मगर उनकी नीति थी मनुष्य को दासत्व से मुक्त करने की। दुखमय जीवन को पकड़कर रोते-रोते वह दार्शनिक नहीं हुए थे, मनुष्य से सुख-दुख को अपनाकर उन्होंने पाया था सत्य-प्राण के दर्शन, जो स्पंदित होते हैं करोडों शोषित अस्थिपंजरों के भीतर।
भोली काका को मरे कई वर्ष हो गए, मगर गांव के दीन-दुखियों के अंदर वे बचे रहेंगे हमेशा-हमेशा के लिए। पाणिग्रही अभी जिंदा है, मगर वह हमेशा- हमेशा के लिए मर गया। उसके मनगढ़ंत आभिजात्य की दुनिया हर दिन टुकड़े - टुकड़े होकर टूटती जा रही है।