भौंर्या मो / भाग 2 / कमलानाथ
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रिश्तेदारों के अलावा मेरी बहनों की कुछ अन्य सहेलियां भी थीं. इनमें उल्लेखनीय भौंरीलाल जी बाण्या की लड़कियां थीं. संयोगवश भौंरीलालजी जो मूल रूप से तो महापुरा निवासी थे पर जयपुर में कुछ काम करते थे और हमारे जयपुर के मकान में किराएदार की हैसियत से या वैसे ही रहते थे. उनकी सबसे बड़ी लड़की जिनको मेरी बड़ी बहन की सहेली थी. कभी कभी चपेटे खेलते हुए वे गुपचुप कुछ बातें करती थीं और एक दूसरे की पीठ पर धौल जमा कर बीच बीच में शैतानी से हँस देती थीं. उससे छोटी शांति नीम-पागल सी थी, फिर तेज़तर्रार नोरती और सबसे छोटी शकुंतला. उनका एक लड़का भी था उन सबसे छोटा, करीब ४-५ साल का, जिसे सब लोग ‘भाया’ बुलाते थे. ज़ाहिर है वह सब का लाड़ला था, ख़ास तौर से अपने चाचा छोटूजी का, जिनको वह काका कहता था. छोटूजी खुद अपने आप में एक विचित्र शख़्सियत थे. शकुंतली मेरी ‘दोस्त’ हुआ करती थी, लगभग मेरी ही उम्र की या मुझसे एकाध साल छोटी थी और मुझे ‘यार जी’ कह कर संबोधित करती थी, जिस को सुन कर सब स्त्रियां हंसी से अपना मुंह दबा लेती थीं. कभी कभी कुछ धार्मिक क़िस्म की औरतें मुझे कृष्ण और उसे राधा बना कर अजीब सा श्रृंगार करके और मुकुट लगा कर एक मंदिर तक लेजाती थीं. तब मुझको लगता था काश शकुंतली से मेरी शादी होगई होती. भाया हमेशा अपनी किसी न किसी बहन की गोद में लदा रहता था. सबसे ज़्यादा प्यार शायद उसको छोटूजी ही करते थे जो अक्सर उसे मूंगफली छील छील कर खिलाते हुए नज़र आते थे. एक बार जब छोटूजी ने मूंगफली देना बंद कर दिया और दो तीन बार कहने पर भी नहीं दी तो भाया बोला - ‘अरै भंगी का मूत, मनैं एक मूंफली तो देदे’. मेरी शब्दावली में तब एक नया शब्द जुड़ा था. पर जब मैंने अम्मा से ‘भंगी का मूत’ का मतलब पूछा तो उन्होंने अपनी हंसी रोकते हुए मुझे झिड़का और फिर दुबारा ये शब्द कभी नहीं बोलने की हिदायत दी. बहरहाल उस संबोधन का, या अगर वह गाली थी तो उसका, अर्थ समझने में कई वर्षों तक मुझको दिक्कत आई. इस सब के बावजूद छोटूजी हमेशा भाया को अत्यधिक स्नेह करते थे और गोदी में उठाये रखते थे. जब कभी साईकिल पर वे बाज़ार जाते तो भाया के लिए साईकिल के डंडे पर अपना गमछा लपेट कर गद्दीनुमा आरामदायक जगह बनाते जिस पर भाया अपनी दोनों टाँगें हैंडल के नीचे छोटे डंडे के इर्दगिर्द लपेट कर बैठ जाता था.
छोटूजी ताउम्र अविवाहित रहे, अपने भाई और उसके परिवार के प्रति समर्पित रहे और भाया से उतना ही प्यार करते रहे. बाद में वे हमारे दूसरे मकान में कई वर्षों तक हमारे साथ भी रहे थे और कभी कभार छोटा मोटा काम कर देते थे. उस दौरान वे अपना थोड़ा सा सामान ‘मशीन के कमरे’ में रखते थे जो बमुश्किल ४ फुट गुणा ४ फुट था और जिसमें पहले से ही एक पुराना पम्प और बिजली के ३ सिंगल फेस मीटर पड़े थे. उसके बाहर ही उनकी तथाकथित साईकिल रखी रहती थी जो कई मायनों में बड़ी प्रसिद्ध थी. वह इतनी धीमी गति से चलती थी या छोटूजी द्वारा चलाई जाती थी कि उस पर कई चुटकुले बन गए. एक बार अम्मा ने छोटूजी से कुछ सामान मंगवाते वक़्त कहा था- ‘छोटूजी, थोड़ो जल्दी को काम छै, साईकिल तो ईंढै ही मेल द्यो और फटाफट पैदल जा’र शाकभाजी खरीद ल्याओ’. ये बात जब भी छोटूजी की याद होती है तो हमेशा दोहराई जाती है. बाद के दिनों में छोटूजी अक्सर गंभीर और अपने आप में ही मग्न रहते थे, बस अचानक कभी कभी हँस देते थे.
छोटूजी हमारे सबसे छोटे मामाजी के साथ गाँव में बचपन से रहे थे और अंत तक उनके साथ सम्मानजनक मित्रभाव रखते थे. युवावस्था में दोनों ने गाँव में किसी अघोरी बाबा की सेवा भी की थी. वे बतलाते थे एक दिन किसी अघोरी ने गाँव में कुछ दिन के लिए एक पेड़ के नीचे डेरा डाल लिया. मामाजी और छोटूजी उसकी सेवा में रहने लगे और गाहे बगाहे उसके लिए घर से खाना ले जाने लगे. किसी समारोह के दिन उन्होंने अघोरी को खीर खाने के लिए निमंत्रण दिया, पर अघोरी ने मना कर दिया और कहा वह खुद ही यहीं इसी वक़्त खीर बना लेगा. तब उसने पास ही पड़ी हुई किसी कुत्ते की या सूअर की विष्ठा उठा कर एक मिट्टी की हांडी में डाली और आसपास से सूखी लकड़ियाँ बटोर कर आग जलाई. वह हांडी को आग पर रख कर एक डंडी से लगातार हिलाता रहा. कुछ ही देर में खीर तैयार थी. उसने छोटूजी और मामाजी से खीर खाने का आग्रह किया. कुछ देर की टालमटोल के बाद वे मना नहीं कर सके. बड़ी झिझक के साथ छोटूजी और मामाजी ने खीर खाई. पर वे दोनों सौगंध के साथ कहते हैं कि वह सचमुच खीर ही थी और स्वादिष्ट थी. कहते हैं अघोरी ऐसा कुछ भी कर सकते हैं.
गाँव में छोटूजी के हिस्से का एक छोटा सा खेत भी था जिसमें तीन आम के पेड़ लगे थे जिनमें उनके अनुसार सालाना औसतन ३ मन कैरियाँ आती थीं. हालाँकि गाँव छोड़ते वक़्त उन्होंने वह खेत तो बेच दिया पर बाद में भी पेड़ों पर वह अपना अधिकार समझते रहे. गर्मियों में अक्सर गाँव जाकर आम लाने का प्रयास करते थे और ज़मीन के मालिक के साथ उनका हमेशा झगड़ा होता था. इस मामले में कई वर्षों तक उन्होंने मुक़दमा भी लड़ा जो बाद में वे हार गए और उसके बाद से हमेशा दुखी रहने लगे. उनका बोलचाल भी समाप्तप्राय ही होगया. बस बीच बीच में अचानक हँस देते. कालांतर में उन्होंने किसी छाबड़ा जी के स्कूल में नौकरी कर ली थी जिसके तहत वे हर आधे घंटे के बाद घंटी बजाते थे और बीच के वक़्त में बच्चों को रामझारे से पानी पिलाते थे. छाबड़ा जी और सभी बच्चे उनसे खुश थे और उनका आदर करते थे.
उम्र और लिंग के अनुसार गाँव में कई तरह की टोलियाँ बन जातीं थीं. छोटे बच्चों, छोटी लड़कियों, किशोरी लड़कियों या किशोर लड़कों की. ये सभी लगभग अलग अलग ही रहते थे. गर्मी की छुट्टियाँ होने की वजह से महापुरा से बीकानेर जाचुके कई परिवार भी इन दिनों बच्चों सहित आजाते थे, इनमें कई ऐसे भी बच्चे थे जो दिखने में थोड़े छोटे लगते थे पर जिनका सामान्य ज्ञान काफ़ी विकसित था, खासतौर से विभिन्न शारीरिक अंगों और उनके उपयोग के बारे में, जिसका प्रदर्शन वे बेझिझक करते रहते थे. किसी से झगड़ा होने पर गुस्से से लच्छेदार बीकानेरी भाषा में चंदू कहता था – ‘मस्साण कूँ बेकड़ू में रमाय दऊंगो’ (स्साले को मिट्टी में मिला दूंगा ) और फिर मारपीट पर उतारू होजाता था. जब खुश होता था तो कोई एक गाना गाता था - ' छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा'. मतलब जो कुछ भी हो. बहरहाल किशोरावस्था वाली टोली में रिश्ते के मेरे कुछ भाई और मामा थे- सरोज, बीया, बल्लू, मोथा, चिड़िया, मोती वगैरह जो आपस में दोस्त थे और हम बच्चों वाली टोली से अलग रहना पसंद करते थे. गप्पें मारने के अलावा वे लोग ताश खेलते थे, या कभी कभी कबड्डी. कई बार वे एक दूसरे की निकरों या पाजामों में हाथ डालते थे, झटके से हाथ खींच लेते थे और फिर हँसते थे. उन लोगों की गुपचुप बातों से मालूम होता था कि इस मामले में बीया और मोती बड़े धाकड़ माने जाते थे. अगर हम बच्चों में से वहाँ कोई होता था तो उसे डाँट कर भगा दिया जाता था. पर हमारी हमेशा इच्छा रहती थी कि कभी अचानक हम भी किसी की जेब में हाथ डालें और जानें कि हंसी क्यों आती है. पर ऐसी हिम्मत कभी नहीं हुई. लड़कियों की अलग टोली पैलदूज या चपेटे खेलती थी, जब कि हमारी टोली उत्सुकतावश किशोरोंवाली टोली की जासूसी करने से बचे समय में पकड़म पकड़ाई या सितोलिया खेलती थी या फिर तेजाजी के चौंतरे पर उछलकूद करती थी.
हनुमान राणा जिसे सब लोग हणमान पुकारते थे गाँव का ढोली था. वह कजोड़ी ढोली का बेटा था जो अब बहुत बूढ़ा होगया था. इसलिए शादी-ब्याहों, उत्सवों या रामलीलाओं में हणमान ही या उसके भाई नगाड़ा या ढोल बजाते थे. उसका छोटा भाई नाराण था जो गाँव की छोरियों को कनखियों से देखा करता था और हणमान की अनुपस्थिति में या उसके थक जाने पर ढोल नगाड़ा बजाता था. उससे छोटा भाई रूड्या था जो इन्हीं कामों के अलावा अच्छा नाचता भी था. पहले वह बकरियां चराने भी जाता था पर एक बार एक बकरी के साथ रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद उससे यह काम छीन लिया गया था. रंगे हाथ कैसे पकड़े जाते हैं ये मुझे समझ में नहीं आया था, और शायद किशनू को भी नहीं मालूम था इसलिए वह मुझे पूरी तरह समझा नहीं पाया. रूड्या हमारी ही उम्र का था या हमसे एक दो साल बड़ा, पर घुंघरू पहन कर रामलीलाओं या उत्सवों-समारोहों में नगाड़ों की ताल पर ख़ूब नाचा करता था. कभी कभी तो उसको साड़ी पहना कर भी नचाते थे. रामलीलाओं में तो हर दूसरे दृश्य-प्रसंग के बाद या मध्यांतर में उसकी नृत्य सम्बन्धी भूमिका काफ़ी अहम होती थी. कई बार तो रामलीला के किसी प्रसंग से ज़्यादा लोगों को रूड्या का नगाड़े के साथ प्रतिस्पर्धा में जोशीला नाच पसंद आता था. कहते हैं एक बार तो वह पूरे एक घंटे तक नाचता रहा, नगाड़े वाला थक गया पर वह लगातार नाचे जारहा था.
एक बार अचानक ही सारे गाँव में भूचाल सा आगया. नानी ‘हरे राम हरे राम’ का जाप ज़ोर ज़ोर से करने लगी और मंझले मामा तेज़ी से घर से बाहर निकल पड़े. हमारे पूछने पर किसी ने कुछ नहीं बताया और हमारे बाहर निकलने पर भी कुछ समय के लिए रोक लग गयी. हम शाम के धुंधलके में खिड़की से बाहर झांक कर माजरा जानने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे. क़रीब एक घंटे के बाद मामा जब वापस लौटे तो उन्होंने बताया कि नाराण को कुएं के बाहर निकाल लिया गया था. रामनाराण बाण्या ने जिसकी दुकान खारे कुएँ के पास ही थी, कुएं में किसी बड़ी चीज़ या आदमी के गिरने की आवाज़ सुनी थी. आननफानन में सारा गाँव कुएँ के पास इकट्ठा होगया था. हणमान को एक मोटे रस्से की सहायता से कुएँ में उतारा गया. किसी तरह हणमान ने अपने भाई को कंधों पर उठाया और लोगों ने उन्हें ऊपर खींच लिया. काफ़ी देर के बाद नाराण को होश आया. यह सब सुन कर बहुत देर तक हमें कँपकँपी होती रही. अगले दिन किशनू ने गुप्त रूप से पता किया (शायद रूड्या से) कि हमेशा की तरह कल भी नाराण अपनी भाभी यानी हणमान की बीवी के साथ सोने की कोशिश कर रहा था जिसे भाभी ने नहीं माना. इसी से नाराज़ हो कर और भाभी के साथ मारपीट करके उसने कुएँ में छलांग लगा दी थी. पर इस बात को दबा दिया गया. मुझे तब नाराण निहायत ही सनकी और तुनकमिज़ाज लगा था. भला सोने की बात पर कुएँ में कूदने की क्या ज़रूरत थी, वह कहीं भी सो सकता था – छत पर खुली हवा में, या दरी बिछा कर मूंज की चारपाई पर जो उनके घर के चौक में पड़ी रहती थी.
नगाड़े बजाने के अलावा खाली समय में हणमान किशोर टोली को फुसफुसा कर कुछ सुनाया करता था जिसे यह टोली मुस्कराहट के साथ तन्मय हो कर सुनती थी. किसी भी बच्चे के आजाने पर अचानक हणमान चुप होजाता था और बच्चे को भगा दिया जाता था. हणमान के यहाँ कुछ घोड़ियां भी थीं जिन्हें वो अपनी रेड़ी (छोटा खुला तांगा) में जोतता था. प्रजनन के लिहाज़ से वह हमेशा घोड़ियां ही रखता था जिनके नर बच्चों को बेच दिया करता था और मादाओं को फिर बड़ा करने और प्रजनन के लिए पाल लेता था. इससे उसको अच्छी आमदनी हो जाती थी.
भौंर्या पुजारी एक निहायत ही धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे जो पूजा पाठ और लोगों के कष्ट निवारण के लिए अनुष्ठान करते रहते थे. उनकी एक अत्यंत सीधी सादी, सदा हँसते रहने वाली बहन भी हुआ करती थी जिसका नाम भागवती था और जिसे अम्मा बहुत पसंद करती थीं और हमेशा कुछ न कुछ देती रहती थीं. शायद उसको मुंहबोली बहन भी बना रखा था. भौंर्या पुजारी महापुरा से जयपुर और जयपुर से महापुरा हमेशा पैदल ही चल कर आते जाते थे. उनके साथ हमेशा मोटे कैनवास की एक डोलची और एक रस्सी रहती थी जो आवश्यकतानुसार रास्ते में किसी कुएँ से पानी खींचने के काम आती थी. वे अक्सर जयपुर आते जाते रहते थे और अम्मा या तो उन्हें हमेशा भोजन कराती थीं या सीधा (खाना बनाने के लिए कच्चा सामान) देती थीं. भौंर्या पुजारी को किसी भी व्यक्ति की गंभीर बीमारी में अवश्य याद किया जाता था, बल्कि यों कहें गंभीर बीमारी में ही याद किया जाता था – महामृत्युंजय मन्त्र के जाप के लिए, जो वे बड़ी शिद्दत के साथ करते थे. जप की समाप्ति पर बड़े आत्मविश्वास के साथ घोषणा करते थे कि अब कोई शक्ति उस व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचा सकती. वास्तव में ऐसा होता भी था. जिस दौरान या जितने दिनों उनका पाठ चलता था, दिए में एक फूलबत्ती मद्धम सी जलती रहती थी- इतनी मद्धम कि बहुत ध्यान से देखने पर ही पता चलता था कि कोई दिया भी जल रहा है. भौंर्या पुजारी की यह भी एक विशेषता थी. रुई की वे ऐसी बत्ती बनाते थे जो कम से कम घी की खपत में घंटों जली रह सके. वे कहते थे कि जब अपने ही घर में नित्य पाठ करना होता है तो इतना घी कहाँ से आये कि मोटी लौ वाली बत्ती जलाई जासके. इसीलिए इस महीन बत्ती का आविष्कार उन्होंने किया था. पाठ के लिए उन्हें थोड़ी सी रुई और थोड़ा सा शुद्ध घी दिया जाता था. बस, कुल मिला कर केवल इतना ही, जिसे भी वे बड़ी कृतज्ञता और संकोच के साथ लेते थे. जहाँ तक मुझे याद है हर कोई गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति जिसके लिए भौंर्या पुजारी ने महामृत्युंजय का पारायण किया, हमेशा स्वस्थ होकर ही उठा. कई वर्षों बाद भौंर्या पुजारी के बीमार होने और अंत में उनकी मृत्यु के समाचार से हम सभी को बहुत दुःख हुआ था- ख़ासकर अम्मा को. कई व्यक्तियों को महामृत्युंजय मन्त्र के जाप से मृत्यु के चंगुल से छुड़ाने वाले एक सीधेसाधे, निश्छल, निस्पृह, निश्कंचन ब्राह्मण की मृत्यु वास्तव में दुखद थी. मैं सोचता था क्या उनके लिए कोई महामृत्युंजय मन्त्र का जाप नहीं कर सकता था?
भौंर्या पुजारी के चार पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम विद्याधर था. उसकी नाक चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा घेरे रहती थी. वह अक्सर ऊँट पर आता जाता दिखाई देता था. हालाँकि हमारी भी ऊँट की सवारी की इच्छा होती थी पर विद्याधर की शक्ल और ऊँट के डर के कारण यह इच्छा कभी व्यक्त नहीं होसकी. कई बार हमको लगता था शायद ऊपर बैठे होने के कारण ही हम विद्याधर और ऊँट में फ़र्क कर पाते थे. खैर.
किशनू कई बार भैंसों और बकरियों का दूध खुद निकाला करता था- खासतौर से उस वक़्त जब इस कार्य के लिए नियुक्त घासी का बाप समय पर नहीं पहुँचता था और भैंसे बेचैन होजाती थीं. आते ही वह भैंस के पाड़े को खोल देता था जो झपट कर भैंस का दूध पीने लगता था. इससे भैंस के थनों में दूध उतर आता था, उसने बताया. एकाध मिनट के बाद ही वह पाड़े को अलग करके वापस खूंटे से बांध देता और उसके आगे घास डाल देता था. फिर वह भैंस की पिछली टांगों में ‘न्याणा’ बांधता था जो एक मूंज की रस्सी होती थी. इससे भैंस के बिदकने पर या हिलने पर लात से दूध की चरी के गिरने की सम्भावना कम होजाती थी. हालाँकि मैं भी भैंस का दूध निकालना चाहता था पर पता नहीं क्यों, मेरे पास आते ही भैंस अपने लंबे मुड़े हुए सींगों से मुझे मारने या भगाने की कोशिश करती थी. मुझे लगता था अगर ये भैंस खूंटे से बंधी नहीं होती तो निश्चित ही मेरे पीछे दौड़ कर मुझे रौंद देती. बहरहाल किशनू ने मुझे बकरियों का दूध निकालना ज़रूर सिखाया. वह उकड़ूँ बैठ कर बकरी के मोटे मोटे थनों को बारीबारी से एक लय के साथ दबाता था जिससे तेज़ धार निकलती थी जो उसके घुटनों के बीच दबी बाल्टी या चरी में गिरती थी. पहली बार मैंने जब बकरी के थनों को छुआ तो एक अजीब सी सिहरन मेरे सारे शरीर में दौड़ गई थी. गर्म-से थनों का स्पर्श अंदर ही अंदर मुझमें कुछ कुछ रोमांच और हलचल जगा रहा था और यह सब मुझे बेहद अच्छा लग रहा था. शुरू शुरू में थन दबाने से दूध तो नहीं निकला, पर कुछ देर बाद बकरी ज़रूर बिदकने लग गई थी. तब किशनू खुद आकर दूध निकालता था और बताता था कि कैसे अंगूठे को मोड़ कर बाकी उँगलियों और अंगूठे के बीच थन को नीचे खींच कर दबाना चाहिए. जो भी हो, हर शाम मन ही मन ऐसी इच्छा होती थी कि घासी का बाप न आये और किशनू और मैं ही बकरी का दूध निकालें. कई बार किशनू से आँख चुरा कर मैं चुपचाप बकरी के थनों को छूता और दबाता भी था. भैंस की ठांड में चारा डालने और बकरियों को उनके प्रिय अल्डू के पत्ते रखने के बाद ही हम लोग वापस घर आया करते थे. इस सब के बाद मुझे किशनू और भैंस की बू में कोई फ़र्क नहीं लगता था. पूरी तरह अँधेरा होने से पहले ही सब बच्चे ब्यालू करके निबट जाते थे और अँधेरा होने के बाद गद्दों और लिहाफ़ों या रजाइयों में घुस जाते थे. इन गद्दों में ख़ास तरह की बू आती थी जिसे मैं गाँव से जोड़ कर ही देखता था. ये गद्दे कई बार धूप में सूखते भी नज़र आते थे, किशनू की छोटी बहनों के कारण. पर जिस तरह चिमनियों से निकले धुएं की बू और हरि बाण्या की दुकान की सीलन मेरे लिए अपनी ख़ास जगह और प्रभाव रखती थी इसी तरह इन गद्दों की बू भी गाँव से हमेशा जुड़ी हुई रहती थी.
नानी अक्सर हमें प्यार से एक-दो मुट्ठी जौ या गेंहू दे देती थीं. पहली बार तो समझ में नहीं आया क्या करें इसका, पर मेरे मामा के बच्चों के लिए यह इनाम था और इसका क्या करना है वे अच्छी तरह जानते थे. उन सबके साथ ही मैं भी रामनाराण बाण्या की दुकान तक दौड़ गया था. रामनाराण बाण्या का ही बेटा था हरि बाण्या जो ज़्यादातर दुकान में सामान बेचता था. यह तथाकथित दुकान एक कच्चे मकान के बाहर वाले एक कमरे में चलती थी जिसमें घुसते ही मिट्टी, सीलन और वहाँ रखे सामान की मिलीजुली गंध आया करती थी. कुछ बोरियों में गुड़, बाजरा, ग्वार, जौ वगैरह भरा रहता था, आसपास कांच के मर्तबानों में छोटी नारंगी की कलियों की शक्ल में ‘लेमनचूस’ की खुली गोलियाँ, चना, धानी, मूंगफली आदि रहती थीं. उन सबके बीच खुद रामनाराण बाण्या, या उसका बेटा हरि बाण्या जो हमारी ही उम्र का था, बैठा करता था. बाहर की रौशनी से दुकान के अंदर आने पर पहले तो कुछ भी नज़र नहीं आता था, पर थोड़ी देर के बाद कुछ कुछ दिखाई देने लगता था. जौ या गेहूं जो नानी हमें देती थीं हम बाण्या के हवाले कर देते थे. उसके बदले में वह अपनी समझ से हमें जो चाहिए होता था- ‘लेमनचूस’, या आम या गुड़-चना देदेता था. हरि बाण्या ध्यान से जौ या गेहूं की मात्रा देखता था और बहुत देर सोच कर जो कुछ देता था वो हमेशा हमें कम लगता था. मोटे शीशे का चश्मा पहनने वाला हरि बाण्या इसीलिए हमें उसके बाप से भी ज़्यादा शातिर और कंजूस लगता था और हम उसको नापसंद करते थे. देर तक झिकझिक करने के बाद भी वो टस से मस नहीं होता था. जब दुकान पर नहीं बैठा होता था तो वह हमारे साथ खेलने के लिए लालायित रहता था. पर किशनू और मेरे अन्य भाई शायद उसकी इसी कंजूसी की वजह से उस पर ध्यान नहीं देते थे और ज़्यादातर वह बाहर ही खड़ा खड़ा हमको देखता रहता था. नानी इसी तरह हमसे कभी कभी कुम्हार से घड़ा या सुराही भी मंगवाती थीं, जौ या गेंहू के बदले. चूँकि मामा के यहाँ एक कमरा जौ गेहूं से भरा रहता था, कभी कभी हमलोग चुपचाप भी अपने आप कुछ मुट्ठियाँ चुरा कर मौका लगते ही बाण्या की दुकान पर सौदा कर लेते थे. स्वतन्त्र रूप से बिना किसी बड़े की सहायता या मार्गदर्शन से ख़रीद फ़रोख्त का यह अच्छा अवसर होता था चाहे हमें कितने ही कम चने मिलें या कितना भी छोटा आम मिले.
‘घुण घुणन्तर घुन्तर घूं, घुण घुणन्तर घुन्तर घूं’. बिरध्या जाट का एक लड़का कभी कभी दौड़ता हुआ आकर हमारे खेल में रुकावट डालता था. किशनू ने उसे उसी की भाषा में डांटा था – ‘ओ घुणन्तर! चाल फूट. द्यूं कांईं एक?’ वह दौड़ता हुआ ही लौट गया. वह हमेशा ‘घुण घुणन्तर घुन्तर घूं, घुण घुणन्तर घुन्तर घूं’ बड़बड़ाता रहता था. मैं सोचता था वो कोई पहाड़ा याद कर रहा है, सुद्धा कहता था वो ढोल की किसी ताल की नकल करता रहता है, पर किशनू ने बताया एक बार वह ‘गुलाम लकड़ी’ खेलता हुआ एक ऊंचे पेड़ से गिर गया था और तभी से यही बोलता रहता है हमेशा.
बीरमा बळाई एक बहुत अच्छा हड्डी विशेषज्ञ भी था. नानी बतलाती थीं कि दूर दूर के गाँवों के लोग भी यहाँ आकर बीरमा से हड्डियां जुड़वाते थे. छोटे मामा के टीले पर बने एक दूसरे घर से आते हुए एक बार मैं टीले से फिसल गया था और नीचे एक बड़े पत्थर से ज़ोर से जा टकराया था. हाथ में खरोंचें तो लगी थीं पर उसके बाद चलना मुश्किल हो गया था. मेरे भाई लोग जैसे तैसे मुझको सहारा देकर घर तक लाए थे. अम्मा और नानी को डर था कि मेरे कूल्हे की हड्डी में चोट आई है. लिहाज़ा इसकी पुष्टि के लिए मंझले मामा मुझे गोद में उठा कर बीरमा के घर तक ले गए. साथ में अम्मा भी थीं. बूढ़े बीरमा ने ज़ोर ज़ोर से मेरे कूल्हे की हड्डियां दबाईं और ऐलान किया कि हड्डी खिसक गई है. बोला इसे जल्दी ही बैठानी पड़ेगी वर्ना बाद में ज़्यादा परेशानी आ सकती है. थोड़ी ही देर में नानी और सब बच्चे भी वहाँ पहुँच गए. बीरमा ने ‘इलाज’ के लिए एक जलता हुआ ‘छाणा’ (उपला), मूंज की रस्सियाँ और दो मिट्टी के कुल्हड़ मँगाए. उसकी बहू ने सारी चीज़ें लाकर रख दीं. मुझे पजामा नीचे करके एक दरी पर पेट के बल लिटा दिया गया. कुछ दर्द के कारण और कुछ ‘ऑपरेशन’ का यह सामान देख कर मैं रुआंसा हो रहा था. बीरमा ने जलते हुए उपले पर मूंज रख दी और उसके जलने से धुंआ निकालने लगा. जिस तरह इंजेक्शन लगाने से पहले डाक्टर सुई को सिरिंज में फिट करता है, फिर सुई को दवा की शीशी में घुसा कर दवा अंदर खींचता है, सिरिंज को हवा में ऊंचा लहराके उसमें से हवा निकलता है और जिस तरह इस सब के बीच किसी नन्हें मरीज़ की रूह कांपती रहती है वैसी ही स्थिति मेरी हो रही थी. बीरमा ने मेरे कूल्हे की हड्डी को टटोला, जलती हुई और धुआं देती मूंज को अचानक मेरे कूल्हे पर उस जगह रखा और तुरंत ही उसके ऊपर कुल्हड़ ढक दिया. हालाँकि मैं देख नहीं सकता था पर जलती मूंज की जलन महसूस कर रहा था और रो रहा था. मामा ने मुझे पकड़ रखा था. मुझे लगा था मैं जल जाऊँगा पर कुछ क्षणों में ही मूंज के बुझ जाने पर जलन कम होगई और उस जगह भारी खिंचाव सा होने लगा. अचानक बीरमा ने एक झटके के साथ कुल्हड़ ऊपर खींचा. एक आवाज़ के साथ कुल्हड़ मेरे कूल्हे से अलग हुआ और शायद अंदर की हड्डी को भी थोड़ा ऊपर उठा कर ले लाया. मैं ज़ोर से चिल्लाया, पर सब मुझे सांत्वना देते हुए कहने लगे ‘होगो होगो’. बीरमा ने फिर मेरे कूल्हे की हड्डी को टटोला और कहा ‘ठीक छै, बैठ गई’. उसने अरंड के बड़े पत्ते पर खोपरे का तेल और कोई और द्रव लगाया और उसे कूल्हे की हड्डी पर रख कर एक पट्टी से बांध दिया. दो दिन आराम करने का निर्देश देकर उसने मुझे ले जाने को कहा. सचमुच ३-४ दिन बाद मैं फिर से दौड़ने कूदने लग गया था. जयपुर में भी इसी तरह हमारी एक अधेड़ उम्र की ‘खातण माई’ हुआ करती थी जो अम्मा या मेरी बहनों के पैरों को इधर उधर मोड़ कर ‘धरण’ बैठा देती थी. घर में किसी भी औरत के पेट में दर्द होने पर सबसे पहले खातण माई को ही याद किया जाता था.
वह प्रतीक्षित दिन आखिर आ ही गया जो सारे गाँव का, बल्कि आसपास के दूसरे गाँवों का भी त्यौंहार का सा दिन हुआ करता था. तेजाजी का मेला. दोपहर ढलने तक आसपास से या जयपुर से कई ‘दुकानदार’ आगये थे - कुछ खिलौने वाले जिनके पास मिट्टी की ‘गड़गड़ गाड़ी’, कागज़ के सरकंडे में लगी हुई फिरकनी, ‘पीपाड़ी’ वगैरह हुआ करती थी; गुब्बारे वाले; आइसक्रीम वाले जो रंगीन मीठे शर्बत के साथ बर्फ़ के गोले बनाते थे, लंबी डंडी वाली कुल्फियाँ बेचते थे और ऐसी डंडी वाली आइसक्रीमें भी रखते थे जिनके ऊपर के हिस्से में रबड़ी की तरह ही कोई आधे इंच की परत होती थी. पर वे सिर्फ़ बर्फ़ वाली सादा आइसक्रीमों से अधन्ना मंहगी होती थीं. हम जब कभी इस तरह की आइसक्रीम खरीदते तो आसपास के लोगों पर इसका असर तौलने के लिए कनखियों से इधर उधर देखते. इनके अलावा मिठाई वाले भी होते थे जिनके पास अन्य चीज़ों के अलावा ‘लेमनचूस’ की तरह ही लगने वाली रंगबिरंगी गोलियाँ भी होती थीं. हम लोगों को खर्च करने के लिए दुअन्नी मिली थी, हरेक को.
गाँव की सारी औरतें अपने सबसे अच्छे कपड़े – गोटा लगी रंगबिरंगी कांचली, घाघरा लूगड़ी में थीं. उन सब के माथे पर चांदी का मोटा सा बोरला, गले में भारी चांदी की हंसली, हाथों में काफ़ी ऊपर तक पौंची या बंगड़ी और कड़ों के साथ कांच, लाख और हाथी दांत की लाल हरी चूड़ियाँ, कमर में लटकती चांदी की मोटी कौंधनी (करधनी) और पैरों में चांदी के भारी मोटे कड़े या छागल आदि थे. छोटी लड़कियां नया पोलका घाघरा पहने थीं, और छोटे बच्चों ने कमीज़ और चड्डियाँ पहन रखी थीं. आसपास की औरतें इसी तरह अच्छे अच्छे और नए सिले बगरू छाप या सांगानेरी लालकाली गोलगोल छाप वाले घाघरे और लूगड़ी और उसी तरह के श्रृंगार का सारा साज़ो-सामान पहने और लंबा घूंघट निकाले गाती हुई आती जारही थीं. कुछ मनचले युवक भी मोटा सा काजल लगा कर कानों में बालियाँ लटकाए, नई धोती, सदरी, मोजड़ी और काले धागों में लटके जंतर पहने स्वयंवर का सा माहौल बना रहे थे. कुछ ने अलग अलग रंगों की गुंथी हुई सूत की मालाएं भी गले में लटका रखी थीं. बच्चों की चीख़ चिल्लाहट, औरतों की ज़ोर ज़ोर से गपशप या उनके राजस्थानी गीत, युवकों के जयपुरी भाषा में द्विअर्थी गाने, कुछ बच्चों के खरीदे ‘पीपाड़ी’ जैसे वाद्य आदि इतना शोर पैदा कर रहे थे कि हरेक को चिल्ला कर ही बोलना पड़ रहा था.
‘धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़, धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़....’ तेजाजी के चबूतरे के पास ही हणमान राणा का ढोल बजना शुरू होगया था जो इस बात का संकेत था कि मेला अपने पूरे शबाब पर आगया था. किशनू ने बताया अब थोड़ी देर में ही तेजाजी आयेंगे. हम लोगों ने दोपहर की धूप ढलने से पहले ही चबूतरे पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था. हणमान का ढोल उसी निर्धारित गति और ताल के साथ लगातार बज रहा था और कुछ लोग उसके अच्छा ढोल बजाने के लिए सिर हिला कर अपनी सम्मति व्यक्त कर रहे थे जिसे हणमान दांत निकाल कर स्वीकार कर रहा था. उसका आगे का एक दांत सोने का था.
यह सिलसिला करीबन आधे घंटे चला होगा कि दूर से एक आदमी झूमता हुआ, ज़ोर ज़ोर से कांपता हुआ, आवेश में अपनी गर्दन इधर उधर हिलाता हुआ आता दिखाई दिया. उसके साथ कुछ और लोग भी थे. किशनू ने बताया इसी आदमी में दो साल से तेजाजी आते हैं. इससे पहले नाथ्या कुम्हार में आते थे पर उससे एक बार बीमारी की हालत में तेजाजी के चौंतरे के पास मूतने का अपराध हो गया. सुद्धा ने कहा जब भी लगातार ढोल इस तरह बजता है तो तेजाजी उस आदमी में प्रवेश कर जाते हैं और वो आदमी अजीब सी हरकतें करता हुआ, झूमता झामता उस स्थान तक खिंचा आता है जहाँ ढोल बज रहा होता है. उसके आते ही अचानक थोड़ी शांति सी होगई और लोग ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ के नारे लगाने लगे. उस व्यक्ति के कांपने और विचित्र तरीके से झूमने से भय मिश्रित कौतूहल हो रहा था - भय ज़्यादा और कौतूहल थोड़ा कम. ‘तेजाजी’ के इर्द गिर्द भीड़ जमनी शुरू होगयी. किशनू ने समझाया अब लोगबाग अपनी अपनी परेशानियां तेजाजी को बताएँगे. किसी की लुगाई ने भाग कर दूसरा नाता कर लिया, किसी का ऊँट चोरी होगया, किसी का बैल थोड़े से पैसों के बदले ही साहूकार ने रख लिया, किसी का जंवाई ही घर में चोरी करके भाग गया और अपनी लुगाई को वहीं छोड़ गया, किसी की बीमारी कई सालों से ठीक नहीं होरही ..., इसी तरह की सारी समस्याओं का समाधान तेजाजी बता देते हैं. पड़ौस के गाँव का छिन्तर भी वहाँ आया था, जो अपने सासरे में ही घर जंवाई रह रहा था. उसका ससुर मर गया था, उनके तीन बेटे भी और अब उनके एक ही बेटी बची थी. पर अब वो सास जो है तीन साल से बीमार है, लेकिन मर ही नहीं रही. छिन्तर से ही छः महीने पहले ठीक-ठाक पैसों में मामा ने एक बकरी खरीदी थी दो मेमनों के साथ. अच्छा दूध देती है. किशनू को मानो उससे बड़ी सहानुभूति थी. तेजाजी बता देंगे कब उसकी सास मरेगी, फिर सब कुछ उसका ही होगा. झूमते हुए ‘तेजाजी’ लोगों के प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.
तभी ‘परै हटो परै हटो’ चिल्लाते कुछ लोग एक अर्धमूर्छित व्यक्ति को कंधे में उठाये चले आरहे थे. लोगों ने उसके लिए जगह बनाई और उसे तेजाजी के पास ही लिटा दिया गया. ये लोग किसी दूसरे पड़ौसी गाँव के थे. उस व्यक्ति को एक सांप ने काट लिया था. किशनू ने बताया जब मेला होता है तो कोई सांप यहाँ किसी को कभी न काटता है न परेशान करता है, बल्कि बांबियों से ही नहीं निकलता है. पर यह आदमी दूसरे गाँव का था. खैर. ‘तेजाजी’ मूर्छित आदमी के और नज़दीक खिसक आये और शरीर के उस स्थान का निरीक्षण करने लगे जहाँ सांप ने काटा था. अचानक वे झुके और वहाँ मुंह से ज़हर चूस कर थूकने लगे. दो तीन मिनट के बाद वे रुक गए और मोरपंखों से बनी एक झाड़ू से झाड़ा देने लगे. कोई ५ मिनट के अंदर ही वह व्यक्ति हिला और उठ कर बैठ गया. एक बार फिर ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ का उद्घोष हुआ. थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति लोगों के कन्धों पर झूलता हुआ वहाँ से चला गया. इस बीच ‘धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़, धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़....’ हणमान राणा का ढोल लगातार उसी तरह लय में बज रहा था. तेजाजी अब भी लोगों की समस्याओं का हाल बताने में लगे थे, सिर्फ़ दो लोग बाक़ी थे. जैसे ही इन दो के प्रश्नों का उत्तर भी तेजाजी ने दिया, किसी ने हणमान को इशारा किया और उसने ढोल की आवाज़ थोड़ी धीमे की और फिर बजाना बंद कर दिया. इसके तुरंत बाद ही तेजाजी का हिलना कम होते हुए बंद हो गया. ‘तेजाजी’ चले गए. एक बार फिर ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ के नारे लगे और लोग उस पूरी तरह थके हुए व्यक्ति को कोई शर्बत पिलाने लगे. फिर उन सभी ने मिल कर एक चिलम सुलगाई और उकड़ूँ बैठ कर सुट्टे लगाने लगे. तमाशा ख़त्म. किशनू बड़े गर्व से मेरी ओर देख रहा था और मैं रोमांच के कारण थोड़ा सा कांपते हुए सिर्फ़ मुस्करा भर रहा था.
जब भी हम बड़ के पेड़ के नीचे से निकलते थे किशनू पेड़ में गर्दन ऊंची करके कुछ देखता था. समझ में नहीं आता था वो क्या देखता था. एक दिन उसने बताया वह भौंर्या मो को देखता है कि वो अपनी जगह हैं कि नहीं. पेड़ के नीचे से गुज़रते वक़्त मेरे ऊपर भौंर्या मो का आतंक इतना छाया रहता था कि वहाँ से किसी तरह जल्दी से जल्दी निकल भागने का ही मन करता था. अगर भौंर्या मो कोई मोटा बन्दर है तो हो सकता है ठीक हमारे ऊपर कूद जाय, या कोई राक्षस है तो क्या पता अपना हाथ लंबा करके हमें ऊपर ही खींच ले या खुद ही नीचे उतर कर हमें पकड़ ले या अगर कोई बाज़, गिद्ध या कोई ख़तरनाक पक्षी है तो होसकता है नीचे से गुज़रते वक़्त एक झपट्टा मार कर पंजों से ले उड़े. हर स्थिति में अच्छा यही था कि वहाँ से फ़ौरन ही खिसक लिया जाये. देर शाम को किसी के साथ भी, कितनी भी लालटेनों के साथ वहाँ से निकलने की कल्पना से भी सिहरन सी होने लगती थी. पिछले साल मैं जब यहाँ आया था तब ऐसी कोई समस्या नहीं थी, न किसी तरह का खौफ़ था. कई बार तो हम चांदनी रात में भूड़े-मिट्टी में बड़ के पेड़ के इर्द गिर्द ख़ूब पकड़म-पकड़ाई और लुकाछिपी खेलते थे. ठंडी, साफ़ रेशमी बालू में लोटने में बड़ा मज़ा आता था. किशनू ने बताया दो-तीन महीनों से ही भौंर्या मो का प्रकोप हो गया है. छिगन्या अपने दोस्तों के सामने अपनी शान दिखाने के लिए बड़ के पेड़ के ऊपर तक चढ़ गया था और तभी भौंर्या मो ने हमला कर दिया था. किसी तरह वो नीचे तो उतर आया पर उतरते ही बेहोश होकर गिर पड़ा. उसका सारा शरीर बुरी तरह फूल गया था. काफ़ी देर बाद लोगों को इस हादसे का पता चला. पर तब भी भौंर्या मो शांत नहीं थे. करीब एक घंटे के बाद हिम्मत करके और अपने ऊपर कपड़ा लपेट कर ही उसका बाप उसे उठा कर ला पाया. काफ़ी झाड़फूँक करवाई पर छिगन्या को बचाया नहीं जा सका.
बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने किशनू से पूछा – ‘अगर मैं चुपचाप ऊपर भौंर्या मो को देखूं तो वो मुझे मार तो नहीं देगा?’
किशनू ने कहा - ‘नहीं’.
किशनू का हाथ थामे बड़ी हिम्मत के साथ मैंने ऊपर देखा, पर वहाँ जो कुछ मैं देखने की कल्पना कर रहा था वह नहीं दिखा.
मैंने कहा- ‘वहाँ तो सिर्फ़ एक बड़ा सा मधुमक्खियों का छत्ता है’.
किशनू ने कहा- ‘मधुमक्खी नहीं, भौंर्या मो. ये मधुमक्खियों से बहुत मोटी होती हैं, भौंरों जितनी. और ज़्यादा खतरनाक भी.’
'भौंर्या' यानी भौंरा और 'मो' यानी शहद की मक्खी. भौंरों जितनी मोटी मधुमक्खियाँ.
भौंर्या मो अब भी वहीँ थे और मुझे ख़ुशी थी कि मैं अब पेड़ के ऊपर बेझिझक देख सकूँगा.
पर न जाने क्यों इस तिलिस्म के टूटने पर एक अजीब सी निराशा और उदासी मेरे मन पर छाई रही, कई दिनों तक.
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