भौं / प्रताप नारायण मिश्र
निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारों ओर कुत्ते तथा जुबारी भौं-भौं भौंकते फिरते हैं, संपादकी की सनक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो ही 'भौं' अर्थात् भूँकने के शब्द को लिख मारा। पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने वाचकवृंद को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं। महाशय! दर्पण हाथ में लेके देखिए, आँखों की पलकों के ऊपर श्याम वरण विशिष्ट कुछ लोभ हैं' वरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपर वाले रोम समूह! जिनका अपनी हिंदी में हम भैं, भौंह, भौंहें कहते है, संस्कृत के पंडित भ्रू बोलते हैं! फारस वाले अबरू और अंग्रेज लोग 'आईब्रो' कहते हैं, उन्हीं का वर्णन हमें करना है। यह न कहिएगा कि थोड़े से रोएँ हैं, उनका वर्णन ही क्या! नहीं!
यह थोड़े से रोएँ सुवर्ण के तारों से अधिक हैं। हम गृहस्थ है, परमेश्वर न करे, किसी बड़े बूढ़े की मृत्यु पर शिर के, दाढ़ी के और सर्वोपरि मूँछों तक भी बाल बनवा डालेंगे, प्रयाग जो जाएगे तौ भी सर्वथा मुंडन होगा किसी नाटक के अभिनय में स्त्री भेष धारण करेंगे तौ भी घुटा डालेंगे, संसार विरक्त होके संयास लेंगे तौ भी भद्र कराना पड़ेगा, पर चाहे जग परलौ हो जाए, चाहे लाख तीर्थ घूम आवें, चाहे दुनिया भर के काम बिगड़ जाए, चाहे जीवनमुक्त ही का पद क्यों न मिल जाए, पर यह हमसे कभी न होगा कि एक छूरा भौहों पर फिरबा लें! सौ हानि, सहस्र शलोक, लक्ष अप्रतिष्ठा हो तौ भी हम अपना मुँह सबको दिखा सकते हैं, पर यदि किसी कारण भौहें सफाचट्ट हो गईं तो परदेनशीनी ही स्वीकार करनी पड़ेगी! यह क्यों? यह यों कि शरीर भरे की शोभा मुखमंडल है और उसकी शोभा यह हैं! उस परम कारीगर ने इन्हें भी किस चतुरता से बनाया है कि बस, कुछ न पूछो! देखते ही बनता है! कविवर भर्तृहरि जी ने 'भ्रूातुर्य, कुंचिताक्ष, कटाक्षा, स्निग्धा, वाचो लज्जिता चैव हास:, लीला मंदं प्रस्थितं च स्त्रीणामेतद्भूषणं चायुर्धच।' लिखकर क्या ही सच्ची बात दिखलाई है कि बस, अनुभव ही से काम रखती है!
कहे कोई तो क्या कहे, निस्संदेह स्त्रियों के लिए भूषण है, क्योंकि उनकी परम शोभा है और रसिको को वशीभूत करने के हेतु संदरयिों का शस्त्र है! यह बात सहृदयता से सोचो तो चित्त में अगणित भाव उत्पन्न होंगे, देखो तौ भी अनेक स्वादु मिलेंगे। पर जो कोई पूछे कि वह क्या है तो भ्रूचातुर्थ्य अर्थात् भौंहों में भरी हुई चतुरता से अधिक कुछ नाम नहीं ले सकते। यदि काई उस भ्रूचातुर्य का लक्षण पूछे तो बस चुप। हाय-हाय कवियों ने तो भौंह की सूरत मात्र देख के कहीं दिया है, पर रसिकों के जी से कोई पूछे! प्रेमपात्र को भौंह का तनक हिल जाना मन के ऊपर सचमुच तलवार ही का काम कर जाता है। फिर भृकुटी-कृपाण क्यों न कहें। सीधी चितवन वान ही सी करेजे में चुभ जाती है! पर इसी भ्रूचाप का सहाय से श्री जयदेव स्वामी का यह पवित्र वचन -"शशि मुखि! तव भाति भंगुर भ्रू, युवजन मोह कराल काल सर्पी" - उनकी आँखों से देखना चाहिए, जिनके प्रमाधार कोप के समय भौंह सकोड़ लेते हैं! आहा हा! कई दिन दर्शन न मिलने से जिसका मन उत्कंठित हो रहा हो उसे बुव हृदयाभिराम की प्रेमभरी चितवन के साथ भावभरी भृकुटी ईद के चाँद से अनंत ही गुणा सुखादायिनी होती है। कहाँ तक कहिए, भृकुटी का वर्णन एक जीभ से तो हाना ही असंभव है! एक फारसी का कवि यह वाक्य कहके कितनों रसज्ञता का अधिकारी है कि रसिकरण को गूँगे का गुड़ हो रहा है-'भृकुटी रूपी छंद पंक्ति के सहस्रों सूक्ष्म अर्थ हैं, पर उन अर्थों को बिना बाल की खाल निकालने वालों अर्थात् महातीव्र बुद्धि वालों के कोई समझ नहीं सकता*'।
जब यह हाल है कि महातीव्र बुद्धि केवल समझ सकते हैं तो कहने को सामर्थ्य तो है किसे? संस्कृत भाषा, फारसी, उर्दू में काव्य का ऐसा कोई ग्रंथ ही नहीं है जिसमें इन लोमराशि का वर्णन न हो। अत: हम यह अध्याय अधिक न बढ़ा के इतना और निवेदन करेंगे कि हमारे देशभाई विदेशियों की वैभवोन्माद रूपी वायु से संचालित भ्रकुटी लता ही को चारों फलदायिनी समझ के निहारा करें, कुछ अपना हिताहित आप भी विचारें। यद्यपि हमारा धन, बल, भाषा इत्यादि सभी निर्जीव से हो रहे हैं तो भी यदि हम पराई भौहें ताकने की लत छोड़ दें, आपस में बात-बात पर भौंहें चढ़ाना छोड़ दें, दृढ़ता से कटिबद्ध हो के वीरता से भौहें तान के देशहित में सन्नद्ध हो जाए, अपनी देश की बनी वस्तुओं का, अपने धर्म का, अपनी भाषा का, अपने पूर्व पुरुषों के रुजगार और व्यवहार का आदर करें तो परमेश्वर अवश्य हमारे उद्योग का फल दें। उसके सहज भृकुटी विलास में अनंत कोटि ब्राह्मांड की गति बदल जाती है, भारत की दुर्गति बदल जाना कौन बड़ी बात है।