भ्रम / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी

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(अनुवाद :सुकेश साहनी)

एक दिन आँख ने कहा, "देखो, इन घाटियों के पार नीली धुंध से ढ़के पहाड़ कितने सुन्दर हैं!"

कान ने ध्यान से सुना और कहा, "कहाँ हैं पहाड़? मुझे तो सुनाई नहीं देते।"

हाथ ने कहा, "मेरा इसे छूकर महसूस करने का प्रयास व्यर्थ जा रहा है। मुझे तो केाई पहाड़ मालूम नहीं होता।"

नाक ने कहा, "कोई पहाड़ नहीं है, मुझे इसकी गंध ही महसूस नहीं हो रही है।"

तभी आँख दूसरी ओर देखने लगी। वे सब आँख के इस अनोखे भ्रम के बारे में आपस में चर्चा करने लगे। उन्होंने कहा, "आँख के साथ ज़रूर कुछ गड़बड़ है।"