भ्रष्टाचार का दानव / नागार्जुन
भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ बहुत कुछ कहा जा रहा है । हमारे बड़े-बड़े नेता और जन-समाज के विशिष्ट व्यक्ति भ्रष्टाचार पर कड़ी से कड़ी राय प्रकट करते रहते हैं । समाचार-पत्रों के कालम भ्रष्टाचार विरोधी मंतव्यों से भरे रहते हैं । छोटी गोष्ठियों से लेकर बड़ी सभाओं तक में भ्रष्टाचार विरोधी बातें उछाली जाती हैं । फिर भी भ्रष्टाचार का दानव अपना हमला जारी रखे हुए है । इतना ही नहीं, वह दिन से दिन अधिकाधिक शक्तिशाली होता जा रहा है । परसों उसके एक सिर था। कल उसके तीन सिर थे । आज लेकिन वह दशानन बन गया है । आहिस्ते-आहिस्ते यह दानव हज़ार सिरोंवाला वैसा दैत्य तो नहीं हो जाएगा, जिसकी चर्चा पुरानी लोक-कथाओं में आती है ?
यह भ्रष्टाचार हमारे मौजूदा समाज की तहों में घुला-मिला हुआ है। हमसे अलग कोई ख़ास जंतु नहीं है यह । हाथ में डंडे लेकर अगर हम इस जंतु को खदेड़ने की नीयत से आगे बढ़ें, तो यह कहाँ मिलेगा ? भ्रष्टाचार नाम का कोई विकट जंतु अलग से हमें कहीं शायद ही दिखाई पड़े । वह तो हमारे अंदर है । कामदेव की तरह वह भी अनंग है । ब्रह्म की तरह वह भी घट-घट व्यापी है, वह सहज है, अलग से आरोपित नहीं है और इसलिए लगता है, आसानी से वह हमारा पिंड नहीं छोड़ेगा।
अपने यहाँ पुराने शास्त्रकारों ने शत्रुओं का विश्लेषण करते हुए कहा है-- कुछ शत्रु बाहरी होते हैं, कुछ भीतरी । बाहर का शत्रु हमें दिखाई पड़ता है। उससे निपटना उतना मुश्किल नहीं है। अंदरवाला शत्रु आसानी से हार नहीं क़बूल करेगा। बाहरी शत्रु को परास्त करने से पहले हमें भीतरी शत्रु पर क़ाबू पाना होगा। यह भ्रष्टाचार भी हमारा भीतरी शत्रु है। हमारी ही अंदरूनी गंदगी से पुष्टि और ताक़त हासिल करता है। हमारे शासन का मौजूदा ढाँचा वस्तुतः ख़ुद ही भ्रष्टाचार के मोटे खंभों पर टिका है। इन खंभों की नींव बहुत गहरी है। इन खंभों की नींव खोदने लायक छैनी और फावड़े किस कारखाने में तैयार होंगे ? मेरी तो पक्की धारणा है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन निकट भविष्य में हम नहीं कर पाएँगे, जिनकी उम्र 50 पार कर गई है। यानी, मुझे स्पष्ट दीखता है कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन नई पीढ़ी ही करेगी ।
निश्चय ही नई पीढ़ी के लिए हमने बहुत बड़ा जंजाल इकट्ठा कर दिया है। व्रतबद्ध होकर, संघबद्ध होकर, बहुजन समाज की कल्याण कामना से उद्वेलित होकर एक लाख नवयुवक हमारे युग को भ्रष्टाचार के अभिशापों से छुटकारा दिलाने के लिए यदि आज ही आगे बढ़ें तो पचीस वर्षों में इस महादानव को परास्त कर पाएँगे ।
यह कोई भविष्यवाणी नहीं है, न ही मैं त्रिकालदर्शी ज्योतिषाचार्य की तख्ती टाँग कर बैठा हूँ । जादू का डंडा यह काम नहीं करेगा । हमारा अपना विवेक, हमारी अपनी सूझ-बूझ, अपनी ईमानदारी, अपनी श्रमनिष्ठा, अपना संकल्प, परस्पर की कल्याण-भावना का अपना आग्रह आदि गुण मिलकर ही युग को अभिशापों से छुटकारा दिलाने में नयी पीढ़ी की सहायता करेंगे।
अभी-अभी मैंने बतलाया कि भ्रष्टाचार हमारे समाज की सहज उपज है, वह न तो आसमान से टपका है, और न ही सात समुद्र पार से आया है। दानवीय आकृति देकर भ्रष्टाचार की बड़ी प्रतिमा मगर गढ़वाई जाए तो कैसा रहेगा ? उस विराट प्रतिमा की ओर निशाना साधते हुए हमारे कुछ विशिष्ट नेता दिखलाए जाएँ तो कैसा रहेगा ? यदि भ्रष्टाचार की उस विराट प्रतिमा की नाक पर हथौड़ी चलाते दिखलाए जाएँ तो कैसा रहेगा ?
यह रूपक कल्पना में लाने पर आपको अवश्य ही हँसी आ रही होगी । आ रही है न हँसी ! बात है भी हँसने की । मगर नहीं, यह हँसने की बात नहीं है। समस्या गंभीर है, हँसकर उड़ा देने की बात नहीं है। समाचारपत्रों और सभा-मंचों से भ्रष्टचार के विरोध में जितना ही अधिक उत्साह दिखलाया जा रहा है, उतनी ही अधिक बढ़ोतरी भ्रष्टाचार की दिखाई पड़ती है। लगता है, फ़िलहाल दस-पाँच वर्षों में भ्रष्टाचार की यह बढ़ोत्तरी जारी रहेगी। हम अभी बहुत दिनों तक कहते रहेंगे-- अजी, सब कुछ चलता है ज़िंदगी की लढ़िया को आगे ढकेलने के लिए क्या नहीं करना पड़ता है। किसको नहीं अपना जीवन प्यारा है। कौन नहीं आराम चाहता है। अपने बाल-बच्चों की भलाई के लिए कौन नहीं तिकड़म भिड़ाता है। जब कुएँ में ही भंग पड़ गई हो तो आप अकेले अपने लिए आकाश गंगा का जल कहाँ से लाएँगे...
इस प्रकार की बातें सुनते-सुनते हमारे और आपके कान अच्छी तरह अभ्यस्त हो गए हैं। व्यक्तिगत लाभ और हित के पक्ष में जो भी दलील जहाँ सुनाई पड़ती है, वह हमें सर्वथा स्वाभाविक प्रतीत होती है। हम इस दलील को न केवल ध्यान से सुनते हैं, बल्कि व्यवहार के अपने साँचे पर इस दलील को जाने-अनजाने फिट कर लेने की कोशिश में लग जाते हैं । सौ प्रकार की परेशानियों में फँसा हुआ आज का हमारा यह जनसाधारण जीवन जैसे-तैसे घिसटता चल रहा है ।
ऊँचे आदर्शों के हवाई गुब्बारे रंगीन धागों में बँधे-बँधे ऊपर आसमान में लहराया करें, हमारा क्या ? अपना आसमान तो फीका ही रहेगा। दिन रात ‘जय-जगत’ के नारे गुँजानेवाले सर्वोदयी संत और उनके अनुगामी अपने प्रवचनों की अमृतधारा के कतिपय श्रुद्धालु जनों का अनपच का रोग दूर न करते होंगे, ऐसा भला कौन कहेगा ? अपनी तो यही प्रतीक्षा रहेगी कि कोई ऐसा भी माई का लाल निकल आए जो ‘जय-जगत’ के बदले जय-जनसाधारण के नारे लगाए और बासमती में सफ़ेद कंकड़ मिलानेवाली आढ़तदार सेठ की कलाइयों को कसकर पकड़े । हमें प्रवचन का अमृत नहीं चाहिए, चाहिए जीवन का रसायन और वह रसायन सभी के लिए सुलभ हो, मिलावट न रहे उसमें । महंगाई की सुरसा के जबड़े दिन से दिन फैलते जा रहे हैं। है कोई माई का ऐसा लाल जो इस दानवी के फैलते जबड़ों को अंततः दस-पाँच वर्षों के लिए भी बैठा दे ? हम तो नित्य प्रातःकाल उठकर उस आनंदमय क्षण की कल्पना करते हैं, जबकि पड़ोसी दूकानदार साबुन का दाम लेते समय मुस्कराकर पाँच नए पैसे वापस कर देगा और कहेगा, ‘बाबूजी, कीमत घट गई है।’
हाथ-कते, हाथ-बुने सूत की खादीवाली जिनकी सफ़ेद लंगोटी आकाश की ऊँचाइयों पर, देवांगनाओं के फहराते आँचलों के स्पर्श का योग पाकर सूखती रहती है, काश, उनको पता होता कि दुधमुँहे बच्चे के लिए बने हुए रेडीमेड निकर का दाम कितनी तेज़ी से बढ़ गया है ।
मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि साधारण जनता के जीवन की दुर्दशाओं से नितांत अनभिज्ञ रहनेवाले इन हवाई संतों और ढपोरशंखी नेताओं के प्रच्छन्न आशीष के बिना भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हो ही नहीं सकती । मैं तो स्पष्ट कहूंगा कि भ्रष्टाचार का ज़्यादा श्रेय कांग्रेस की मौजूदा नेताशाही को है । अदालत के कटघरे में पहले इन्हीं को खड़ा होना है । भ्रष्टाचार को बढ़ावा देनेवालों की दूसरी कतार वह होगी जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के अधिकांश पुराने नेता आएँगे। तीसरी कतार होगी धनकुबेरों की । चौथी कतार में बड़े आफ़िसर आएँगे।
पाँचवी लेकिन स्पेशल कतार होगी बुद्धिजीवियों-साहित्यकारों-कलाकारों की। इस कतार को स्पेशल इसलिए मानता हूँ कि बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और कलाकारों की ठकुर-सुहाती के बिना शासक वर्ग इतना अधिक पतित हो ही नहीं सकता। स्पष्ट है कि मेरे जैसा साहित्यकार भी इसी पंक्ति में आता है । यह दूसरी बात है कि हमारी इस कतार में जो आगे खड़े हैं, उन्हें ‘पद्मभूषण’ और ‘पद्मश्री’ तमगों से सजा दिया गया है ।
(जन-संसार, वार्षिक अंक, 1964)