भ्रष्टाचार क्यों बन गया शिष्टाचार / सत्य शील अग्रवाल

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भ्रष्टाचार क्यों बन गया शिष्टाचार (नेताओं की सोची समझी साजिश का परिणाम)

(प्रथम भाग)

सैंकड़ों वर्षों के संघर्ष के पश्चात् हमारे देश को विदेशी दस्ता से मुक्ति मिली और स्वदेशी नेताओं ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में संभाली। आजादी के पश्चात् जब संविधान तैयार किया गया तो देश में गणतंत्र की घोषणा की गयी अर्थात जनता की सरकार, जनता द्वारा चुनी गयी सरकार,, जनता के हितों के लिए कार्य करेगी। प्रत्येक पांच वर्ष पश्चात् जनता अपनी राय से नयी सरकार चुनेगी। अतः तत्कालीन सरकार को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी। तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी सदैव के लिए सत्ता में बने रहने के उपाय सोचने लगी, जिसमे चुनावों को जीतने के लिए भी धन की व्यवस्था करना आवश्यक था। साथ ही सत्ता में न रह पाने की स्तिथि में अपनी संतान और अगली पीढ़ी के लिए धन कुबेर भी एकत्र करना था। इन्ही सब कारणों के चलते सत्तारूढ़ पार्टी ने कानूनों की इस प्रकार संरचना की ताकि नेताओं की जेबें भरने के प्रयाप्त अवसर प्राप्त होते रहें। बहुसंख्यक अशिक्षित जनता को लुभावने नारे देते हुए जटिल एवं अव्यवहारिक कानून का निर्माण किया गया। उन्होंने ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें बेईमान नौकर शाह पारितोषिक और नेताओं का आशीर्वाद प्राप्त करते रहें, इमानदार कर्मी हतोत्साहित किये जाते रहें ताकि नेताओं को अपना कमीशन आसानी से प्राप्त होता रहे। कुछ समय पूर्व स्विस बैंक में जमा भारतीयों की जमा राशी विश्व में सर्वाधिक बताई गयी है। और साथ ही उजागर किया है की 1456 अरब डालर अर्थात करीब साठ हजार अरब रुपये स्विस बैंक में भारतीयों का काला धन जमा है। इन जमा कर्ताओं में बड़े बड़े उद्योगपति, बड़े बड़े नौकर शाह, फ़िल्मी एक्टर, क्रिकेटर, के साथ बड़े बड़े नेता शामिल हैं अब क्योंकि सभी राजनेता इस पवित्र कार्य में संलिप्त हैं, इसीलिए विदेशों में जमा धन की जानकारी मिलने के पश्चात् भी सत्तारूढ़ या विपक्षी पार्टी का कोई भी नेता धन वापस लाने में रूचि नहीं दिखा रहा। हमाम में सब नंगे हैं तो कैसे उजागर हों सबके नाम और कैसे वापस आए काला धन वापस।

एक मोटे अनुमान के अनुसार विदेशों में कुल जमा धन देश पर कुल कर्ज का तेरह गुना है, अर्थात यदि उस राशी को वापस लाया जा सके तो अपना देश कर्ज मुक्त तो हो ही जायेगा, बाकी धनराशी का ब्याज ही हमारी पूरी अर्थव्यवस्था को चला पाने में सक्षम होगा और सरकार को कोई टेक्स लगाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। इस बकाया राशी को दूसरे शब्दों में भी आंका जा सकता है, यथा यह राशी देश की आधी आबादी को लखपति बनाने में सक्षम है।

यहाँ पर अब मैं आपको बताने का प्रयास करूंगा इस भ्रष्टाचार एवं काले धन को पैदा करने के लिए हमारे नेताओं ने किस प्रकार षणयंत्र रच कर देश को लूटा। उन्होंने अपने हितों की रक्षा के लिए भ्रष्टाचार को किस प्रकार पुष्पित पल्लवित किया। किसी ने ठीक ही कहा है ----:अगर जनता सही रस्ते पर जाये तो उसे गलत रस्ते पर ले जाना नेता का काम है। स्वतंत्र देश के नेताओं द्वारा रचा गया षणयंत्र का खुलासा

आयकर की उच्चतम दरें

हमारे नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए किस प्रकार भ्रष्टाचार को आमंत्रित किया और प्रत्येक व्यक्ति को उस भ्रष्टाचार में भागीदार बनाया, उसका सबसे बड़ा उदाहरण है, पचास से सत्तर के दशक तक आए कर की उच्चतम दरें, अर्थात उच्चतम स्लेब, नब्बे प्रतिशत तक रखा गया था। इतनी ऊँची दर रखने के पीछे लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा चंद लोगों के हाथ में धन संग्रह को रोकने का उद्देश्य बताया गया। और कहा गया सरकार चाहती है, जनता को संसाधनों का बटवारा समान रूप से एवं न्यायपूर्वक हो। आम व्यक्तियों के लिए देखने में मन लुभावन उद्देश्य प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी। कोई भी उद्योगपति, व्यापारी, कारोबारी तमाम प्रकार के जोखिम लेकर एवं दिनरात एक कर कमाने का प्रयास करता है, और जब वह किसी प्रकार कमा लेता है तो नब्बे प्रतिशत आयेकर के रूप में सरकार की झोली में डाल दे, तो कमाने के प्रति उसकी इच्छा कितनी बाकी रह जाएगी। क्या यह टैक्स वह सहन कर पायेगा। जाहिर है वह ऐसे उपाय ढूँढेगा जिससे कम से कम आयेकर देकर अपनी मेहनत की कमाई को बचा सके। यही हमारे नेताओं का उद्देश्य था आयेकर पूरा न देने की स्थिति में सरकारी प्रतारणा से बचने के लिए आयेकर अधिकारियों और नेताओं की पूजा करना आवश्यक हो जायेगा। इस प्रकार प्रत्येक कारोबारी को करापवंचन करने को मजबूर किया गया, फ़िलहाल वही आयेकर की अधिकतम दर तीस प्रतिशत कर दी गयी है। क्यों? क्योंकि अब उनकी योजना की आधार शिला रखी जा चुकी थी।।

अन्य अनेक प्रकार के भारी टैक्स

आयकर की भांति, कस्टम ड्यूटी, एक्साईस ड्यूटी, बिक्री कर, सभी टैक्स की दरें बहुत ही ऊँची रखी गयीं जो सर्वथा अव्यवहारिक थीं, असंगत थीं। व्यापारी के पास कर अपवंचना के उपाय सोचने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। कस्टम ड्यूटी दो सौ प्रतिशत और कभी कभी इससे भी अधिक रखी गयी थीं। जिसके कारण तस्करी को बढ़ावा मिला और बड़े बड़े तस्कर खड़े हो गए जो नेताओं के आशीर्वाद से फलते फूलते रहे। इसी प्रकार एक्साईस ड्यूटी व्यापारी के कुल लाभ से भी अधिक वसूली जाती थी और उद्योगपति को कर बचाने के लिए नए नए उपाय बताये जाते थे। जो नेताओं और नौकरशाहों की जेबें भरने में सहायक होते थे। बिक्री कर विशेष तौर पर छोटे दुकानदार को परेशान करने का हथियार रहा है। छोटा दुकानदार अक्सर बिना ब्रांड का स्थानीय निर्मित समान बेचता है जिस पर टैक्स देने की जिम्मेवारी दुकानदार पर होती है और प्रतिद्वंदिता के कारण ग्राहक से टैक्स वसूल पाना संभव नहीं होता। अतः उसे काले धंधे को मजबूर होना पड़ता है और बिक्री कर विभाग के अधिकारियों की जेबे भर कर अपनी जान बचानी पड़ती है। बिक्री कर की दरें भी बारह प्रतिशत या इससे भी अधिक हुआ करती थीं। जो फिलहाल घट कर पांच प्रतिशत तक सिमित रह गयी हैं। परन्तु सरकारी विभागों को इतना खून मुंह लग चुका है, यदि कोई व्यापारी आज सब काम कानूनी तरीके से करे तो भी उसके खाते पास नहीं हो सकते। अधिकारी अपनी कलम की ताकत का प्रयोग कर व्यापारी को परेशान करते हैं। व्यवस्था को इस प्रकार से बिगाड़ा गया, की व्यापारी, उद्योगपति, कारोबारी अपने कार्यों को गैर कानूनी तरीके से करें और नेताओं की जेबें भरते रहें

इन्स्पेक्टर राज

आजादी के पश्चात् सरकार ने प्रत्येक विभाग में इन्स्पेक्टर नियुक्त कर दिए, या फिर अंग्रेजों के समय की व्यवस्था को अपने हित में जारी रखा और उनके कार्य को आसान बनाने के लिए अव्यवहारिक कानून तैयार किये गए। अब उनकी जिम्मेदारी कानून पालन कराने की आड में उगाही की राह प्रशस्त की गयी और नेताओं तक पैसा पहुँचाने के लिए अफसरों की चेन बना दे गयी। इस प्रकार दुकानदारों, उद्योपतियों, कारोबारियों का शोषण कर, नेताओं के खजाने भरे गए जो दूसरे रूप में आज भी जारी है। 1985 के आस पास व्यापार संघों के दवाब में इन्स्पेक्टर राज को विराम लगाना पड़ा। व्यापारी के सर पर हर दम लटकने वाली, सर्वेक्षण की तलवार से निजात मिली। परन्तु अब व्यापारी सरकारी विभागों को अपने आप उनका सुविधा शुल्क अर्थात शिष्टाचार शुल्क कार्यालयों में पंहुचा देते हैं। नेताओं के पास दौलत अपने आप पहुँच जाती है, विदेशों जमा अपार काला धन सब कुछ इसी प्रकार से बनाया गया, बनाया जाता है।, चुनावों में होने वाले अंधाधुंध खर्च इसी काले धन द्वारा पूरे होते हैं।

जटिल कानून बनाना भी कदाचार का उद्देश्य

हमारे कानून निर्माताओं ने कानूनों को इतना जटिल एवं अव्यवहारिक बनाया, जिसे साधारण नागरिक के लिए समझना भी मुश्किल और पालन करना अव्यवहारिक होता है। उनका पालन करने और जानकारी पाने के लिए विशेषज्ञों अर्थात वकीलों की आवश्यकता पड़ी, जिन्होंने अपने मुवक्किल को कानूनी सहायता कम आम आदमी और सरकारी अफसरों के मध्य दलाल का काम अधिक किया। क्योंकि कानून की जटिलता के कारण किसी व्यक्ति के लिए अक्षरशः पालन करते हुए कार्य कर पाना असम्भव था अतः वकीलों के जरिये सुविधा शुल्क पहुँचाना उनके कारोबार की मजबूरी बन गयी। आम जनता की धारणा बन गयी कानून तोड़ो और अफसरों को कमीशन पहुंचा कर अपना दामन साफ कर लो। जिसके कारण गुंडे, मवालियों, अत्याचारियों की पौ बारह हो गयी। उन्हें पता है यदि वे सरकारी अधिकारियों, नेताओं को अपनी काली कमाई का कुछ अंश पहुंचाते रहें तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। धीरे धीरे उनके हौसलें इतने बढ़ गए, वे स्वयं चुनाव लड़ कर मंत्री के पदों तक पहुँच गए और सरकार चलाने लगे। आम जनता का इतना नैतिक पतन हो गया की देश का प्रत्येक व्यक्ति कमाई के अवैध तरीके ढूंढने लगा है, बहती भ्रष्ट गंगा में हाथ धोने को उतावला है। अब दुकानदार हो, व्यापारी हो, उद्योगपति हो, अन्य कारोबारी या फिर सरकारी कर्मी सबने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मान लिया है

सरकारी कर्मियों के वेतनमान

राजनेताओं की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं एवं काले धन को पाने के लिए सरकारी कर्मी ही उनके सर्वोत्तम माध्यम हो सकते थे। अतः एक षणयंत्र के अंतर्गत उन्हें भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर किया गया, इसी कड़ी में उनके वेतन मान को तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुसार इतना कम रखा गया ताकि वे वेतन मान से अपने घर खर्च अपनी हैसियत के अनुसार चला न पाए और एक अन्य कमाई के लिए प्रेरित हों। मुझे स्वयं इतना ध्यान आता है सन सत्तर के आस पास एक बाबू का मासिक वेतन इतना कम होता था जिससे अधिक एक मामूली पनवाड़ी भी मासिक आए के रूप में कमा लेता था, एक रिक्शे वाला बाबू के दैनिक औसत वेतन से अधिक कमा लेता था, जिसे अपने काम करते समय कोई सफेदपोश पहनावा भी आवश्यक नही होता। परन्तु एक बाबू को साफ सुथरे कपडे पहन कर ऑफिस में आना उसकी आवश्यकता है। वेतनमान कम रखने के पीछे उद्देश्य था सरकारी कर्मी मजबूर हो काले धन की ओर आकर्षित हो, घूस लेना उसकी मजबूरी बन जाये और नेताओं के लिए कालेधन का बंदोबस्त हो सके। धीरे धीरे सभी सरकारी कर्मियों ने नंबर दो की कमाई के रस्ते ढूंढ लिए और वेतन का अस्तित्व पेंशन की भांति राह गया। उनकी आमदनी अपने अफसरों को खुश करने के पश्चात् वेतन से कई गुना हो गयी। साथ ही अफसरों के खुश रहने के कारण उनकी नौकरी भी पक्की हो गयी उनका प्रोमोशन भी पक्का हो गया सन1985 तक उनको घूस का खून मुंह लग चुका था, और उनकी फितरत में शामिल हो चुका था। भ्रष्ट नेता भी तो यही चाहते थे। अब तक सरकारी कर्मियों के संगठन इतने मजबूत हो चुके थे वे जब चाहे सरकार को हिला सकते थे। मजबूरन नेताओं को सरकरी कर्मियों के वेतनमान नियत करने के लिए वेतन आयोग का गठन करना पड़ा जो महंगाई के अनुसार कर्मियों की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए, न्यायसंगत वेतनमान सुझा सके और महंगाई के सूचकांक से फिक्स कर सके। वेतन आयोग सरकारी कर्मियों से प्रभावित था, कुछ लोग तो खुद सरकारी कर्मी ही थे। अतः उसने वेतनमान कई गुना बढा कर पेश किया जिसे विभिन्न संगठनों ने दवाब बना कर नेताओं से पास करा लिया। ताकि महंगाई के अनुसार स्वतः ही महंगाई भत्ता बढ़ता रहे साथ साथ पत्येक दस वर्ष पश्चात् फिर से वेतन आयोग बैठाकर वेतन करें का पुनर्सर्वेक्षण करने का प्रावधान कर दिया गया। अब सरकारी कर्मियों की बल्ले बल्ले हो गयी। सरकारी कर्मी कोई भी हो, काम करता हो या नहीं, वेतन तो पूरा मिलेगा ही।, जो मार्केट में प्रचलित वेतनमान या किसी कारोबारी की आमदनी से कहीं अधिक है। आज वेतनमान पर्याप्त हो जाने के बावजूद भ्रष्टाचार घटने के स्थान पर और बढ़ गया। जनता को अब तक भ्रष्टाचार सहने की आदत पड़ चुकी है, अतः अपने सरकारी काम करवाने के लिए नजराना भेंट कर शिष्टाचार माना जाने लगा है। आम जनता तो गुलामी के समय में भी पिसती थी और आजादी के पश्चात् भी पिस रही है।

मुझे भलीभांति याद है सन अस्सी तक देश में फेक्ट्रियां एवं निजी उद्योग धंधे बहुत कम थे जो उद्योग थे उनकी सेवाएं किसी प्रकार से सुरक्षित नहीं होती थीं। अर्थात रोजगार में स्थायित्व नहीं था। इसलिए कम वेतनमान के बावजूद आम आदमी सरकारी नौकरी ही करना पसंद करता था और भ्रष्ट तरीके सीखने पड़ते थे। क्योंकि उसे किसी प्रकार के निजी कार्य करने की अनुमति भी नहीं थी। यह था हमारे भ्रष्ट नेताओं का योजना बद्ध षड्यंत्र, जिसमें वे पूर्णतया सफल भी हुए। आज भ्रष्टाचार लाइलाज बीमारी बन चुका है।

दलालों की फौज

किसी भी सरकारी ऑफिस में आम जनता को अपना काम करवाने के लिए रिश्वत देने की मजबूरी है। अब यदि सरकारी कर्मी सीधे सीधे किसी से घूस लेता है तो सी बी आइ द्वारा पकडे जाने का खतरा बना रहता है अतः इस समस्या का हल निकाला, दलालों ने, जिन्होंने बीच की सुरक्षित कड़ी का काम किया और अपने लिए रोजगार भी ढूंढ लिया। इस प्रकार दलालों की फौज खड़ी हो गयी। प्रत्येक विभाग में मुख्यतया आर। टी। ओ। कचहरी, बिक्री कर( जिसे अब उत्तर प्रदेश में 'वाणिज्य कर' का नाम दे दिया गया है), आए कर, उद्योग विभाग, विद्युत् विभाग, पोलिस समेत सभी सरकारी विभागों में दलालों के द्वारा उचित सुविधा शुल्क दे कर शीघ्र काम करवा लिया जाता है, अन्यथा आपकी जूतियाँ घिस जाएँगी आप अपना काम नहीं करा पाएंगे। अब यदि आपको कोई सरकारी विभाग का भुगतान करना हो, या भुगतान लेना हो, रेल में आरक्षण करवाना हो या फिर अपने लिए गाड़ी का लायसेंस बनवाना हो, बिना दलाल के संभव नहीं है। यद्यपि कंप्यूटर के आने से कार्य में पारदर्शिता आने की सम्भावना बनी है परन्तु सरकारी कर्मी अपनी अतिरिक्त आमदनी के लिए रास्ता खोजते रहते हैं। और हमारे राजनेता भी नहीं चाहते की भ्रष्टाचार ख़त्म हो।

समाजवाद की कल्पना

देश को आजादी मिलने के पश्चात् तत्कालीन नेताओं के ऊपर देश को, जनता के कल्याण के अनुरूप, संविधान का निर्माण कर देने की जिम्मेदारी थी। , ताकि देश के चहुंमुखी विकास की व्यवस्था बनायीं जा सके। साथ ही एक मजबूत लोकतंत्र की स्थापना की जा सके। प्राथमिक लक्ष्यों के अनुरूप धर्म निरपेक्ष एवं सामाजिक समरसता की संकल्पना की गयी। उस समय हमारा नेतृत्व गाँधी दर्शन से प्रभावित था अतः गाँधी जी की इच्छा के अनुरूप देश को जो सामाजिक स्वरूप प्रदान क्या गया। वह मिश्रित अर्थवयवस्था थी, जिसे न तो कम्युनिस्म का रूप दिया गया और न ही पूँजी वादी व्यवस्था का रूप, जिस के अंतर्गत निर्मित रणनीति के तहत सभी बड़े उद्योगों को सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। निजी उद्योगों के लिए लघु उद्योगों की स्थापना की व्यवस्था की गयी। बड़े उद्योगों को निजी स्तर पर हतोत्साहित किया गया। उनकी सभी आवश्यकताओं जैसे कच्चा मॉल यथा धातुएं, कागज, कोयला, पेट्रोल, डीजल इत्यादि सभी खुले बाजार में उपलब्ध नहीं थे उन्हें सरकारी परमिट द्वारा ही सरकार से प्राप्त किये जा सकते थे। परमिट का अर्थ था सरकारी कार्यालयों के ऊपर आम जनता की निर्भरता। इस प्रकार उद्योगपति को कच्चा मॉल प्राप्त करने के लिए नौकरशाहों की सेवा करना मजबूरी बन गयी। और काले धन की अर्थव्यवस्था का विकास होने लगा। बड़े उद्योगों को हतोत्साहित करने का उद्देश्य सामाजिक समरसता नहीं था बल्कि नेताओं का अपना स्वार्थ था। आम जनता को कुटीर उद्योगों के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा। यद्यपि गाँधी आश्रमों ने कुटीर उद्योगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परन्तु विश्व में विकसित ओद्योगीकरण के कारण देश में उत्पादित वस्तुएं गुणवत्ता में दुनिया में पिछड़ चुकी थीं और देश का विकास अवरुद्ध होने लगा। आम व्यक्ति को रोजगार के अवसर होते गए देश की बढती आबादी के कारण बेरोजगारी बेतःषा बढ़ने लगी। , देश का निर्यात पिछड़ने लगा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश की आर्थिक स्तिथि कमजोर होने लगी। सरकारी खजाने खली होने लगे। उन्नीस सौ नब्बे में देश के खजाने में पेट्रोल खरीदने के लिए पार्यप्त राजस्व भी नहीं रहा और मजबूरन रिजर्व बैंक को अपना सोना गिरवी रखकर देश की पेट्रोल की आवश्यकताओं की पूर्ती करनी पड़ी। (अर्थात सरकारी खजाने खाली होते गए और नेताओं के विदेशों में खजाने भरते गए) सभी सरकारी उद्यम भ्रष्टाचार के कारण घाटे में चल रहे थे जो बिना किसी स्पर्द्धा के भी लाभ नहीं दे पा रहे थे। निजी क्षेत्र को सरकारी नियंत्रण के कारण अपना अस्तित्व बचा पाना आसान नहीं था, उनके विकास की बात तो नामुमकिन ही हो गयी थी। जब देश की साख गिरवी रखी जाने लगी तो हमारे कर्ण धारों को अपनी औद्योगीकरण की निति में बदलाव लाने को मजबूर होना पड़ा। अतः अब नयी निति के अंतर्गत स्वदेशी एवं विदेशी कम्पनियों को बड़े बड़े उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित किया गया। 1991, से उदारीकरण का दौर प्रारंभ हुआ। उदारीकरण के कारण मार्केट में प्रतिस्पर्द्धा का वातावरण बना, नयी नयी तकनीक आयात होने से उच्च गुणवत्ता की वस्तुओं का उत्पादन हुआ और निर्यात बढ़ने लगा। देश में रोजगार के अवसर बढ़ने लगे। हमारे नेताओं के हौसले भी बढ़ने लगे। पहले सौ या दो सौ करोड़ के घोटाले होते थे अब लाखों करोड़ के घोटाले सामने आने लगे। देश की तरक्की के साथ नेताओं का हाजमा भी बढ़ने लगा। भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया। हरिशंकर पारसी के अनुसार 'इस लोकतंत्र में जनता की उपयोगिता सिर्फ इतनी है की उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं। '

विशाल चुनाव खर्च भी भ्रष्टाचार का कारण

हमारे देश की चुनाव प्रणाली ने भी भ्रष्टाचार को पनपने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। चुनाव एक पार्षद, या ग्राम प्रधान का हो, या फिर विधायक या सांसद का उसे चुनाव जीतने के लिए, अपने कार्यकाल के दौरान प्राप्त कुल वेतन से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ता है। जाहिर है बेपनाह राशी का खर्च कोई समाज सेवा के लिए तो करेगा नहीं। इतना अधिक चुनावी खर्च आम व्यक्ति को चुनाव लड़ने से वंचित कर देता है और एक ईमानदार समाज सेवा की नियत रखने वाला योग्य व्यक्ति जिसके पास विपुल धनराशी नहीं है चुना लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। जब कुबेरपति, बेईमान, दबंग व्यक्ति ही चुनाव जीत कर आएंगे, तो उनकी कार्यप्रणाली कितनी इमानदार, पारदर्शी एवं समाज कल्याण की हो सकती है। प्रत्येक नेता के लिए आवश्यक है की वह पहले भ्रष्ट तरीके अपना कर चुनाव जीते और फिर भ्रष्ट तरीके अपना कर अपनी लागत वसूल करे। अतः चुनावों में होने वाला खर्च भ्रष्टाचार का मुख्य कारण बन चुका है। इसीलिए सारी व्यवस्था इस प्रकार से बना दी गयी है ताकि राजनैतिक पार्टी और नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए कालेधन की प्राप्ति होती रहे। लेखक श्री रविन्द्र नाथ त्यागी का कथन सत्य बन गया है, "प्रजातंत्र का लक्षण शायद चीखना चिल्लाना ही होता है, मंच पर नेता चिल्लाता है, और नीचे जनता"

उपसंहार

उपरोक्त सभी षड्यंत्रों से सपष्ट होता है की नेताओं ने किस प्रकार अपने स्वार्थ के लिए न केवल सरकारी विभागों को भ्रष्टाचार में धकेला, एक आम व्यक्ति का नैतिक पतन करने में भी अपना भरपूर सहयोग दिया। साधारण व्यति ने मजबूर हो कर भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मान कर समझौता कर लिया। ऐसा भी नहीं किसी ने इन भ्रष्ट आचरणों के विरुद्ध आवाज न उठाई हो या संघर्ष न किया हो। ऐसा भी नहीं सभी सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो गए हों अनेक कर्मचारी या अफसर आज भी ईमानदारी की मिसाल बने हुए हैं। अनेक संगठनों एवं व्यक्तियों ने भ्रष्टाचार एवं घोटालों का समय समय पर पर्दाफाश किया और भ्रष्टाचार का विरोध किया। परन्तु जिसने घोटालों की पोल खोलने का प्रयास किया पूरा सिस्टम उसके विरुद्ध खड़ा हो गया। उसे अनेक प्रकार की यातनाएं दी गयीं और अनेकों बार जीवन से भी बेदखल कर दिया गया अर्थात मार डाला गया। हाल फिल हाल में यशवंत सोनवाने, उससे पूर्व सत्यन्द्र दुबे, एस. मंजूनाथ, सतीश शेट्टी जैसे अनेकों जाबांजों, के उदाहरण मौजूद हैं। जिनको अपनी ईमानदारी एवं भ्रष्टाचार के प्रति संघर्ष करने के लिए अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। जिनका गुनाह सिर्फ यही था की वे ईमानदार थे और जनहित के लिए अपनी आवाज को बुलंद कर रहे थे, नेताओं के घोटालों से जनता को अवगत कराना चाहते थे। आज यही लडाई, श्री अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने प्रभावी तरीके से शुरू की है जिसने सभी नेताओं की नींद उड़ा दी है। देर सवेर जनता को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलने की सम्भावना प्रबल हो गयी है।