मंगल मेलाघुमनी / रंजना जायसवाल

Gadya Kosh से
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मेलाघुमनी एक स्त्री का नाम था। इस बात से शहर के लोग चौंक सकते हैं पर गाँव-कस्बे से जुडे़ लोग नहीं जहाँ लड़कों के घुरऊ कतवारू नकछेदी और लड़कियों के मुरतिया तेतरी लगनी मेलाघुमनी जैसे नाम आम होते हैं। कसया कस्बे में सीधी रोड पर करमहा मोहल्ला है जो तीन गलियों में बॅंटा हैं। पहली गली में हिन्दू दूसरी गली में मुस्लिम और तीसरी में दलित जाति के लोग रहते हैं। तीनों गलियां अपने आप में पूरा मोहल्ला हैं। पहली गली एक छोटी पुलिया से शुरु होती हैं जिसके मुहाने पर ही मेलाघुमनी की चाय-पान की दुकान है और कोई पचास फर्लांग की दूरी पर उसका कच्चा घर। दीवारें ईट और मिट्टी की बनीं व छत फूस की। उसके घर के चार-पाँच घर के बाद ही मेरा घर था। साँवली थोडी़ मोटी मध्यम कद की मेलाघुमनी पूरे मोहल्ले का आतंक थी। मैं बचपन से ही उसे इस रूप में देख रही थी।

मेलाघुमनी जिसका असली नाम रामकली था किसी से नहीं डरती थी। लोग उसे पीठ पीछे मर्दमार कहते। वह धड़ल्ले से मर्दो वाली गालियां दिया करती थी। माँ बताती है शुरु में वह ऐसी न थी। हालात ने उसे ऐसा बना दिया। जब वह इस मोहल्ले में बहू बनकर आई थी बड़ी ही सीधी और सलज्ज थी।

उसका पति एक ठाकुर साहब की आरा मशीन में काम करता था। एक पाँव खराब था लाठी के सहारे चलता था। एक दिन उसने मेलाघुमनी को अपने मालिक के साथ कमरे में बंद कर दिया और खुद बाहर चौकीदारी करता रहा। मेलाघुमनी चीखी चिल्लाई रोई पर उसका वश न चला। वह लूट ली गईं। उस दिन के बाद उसके लिए पति और कुत्ते में कोई फर्क नहीं रहा।

दस महीने बाद उसको एक पुत्री पैदा हुई जिसका नाम रमरतिया रखा गया। सब लोग दबी जुबान में कहते थे कि वह ठाकुर साहब की ही सन्तान थी। रमरतिया जब तीन वर्ष की हुई तभी मेलाघुमनी के पति की मृत्यु हो गई और मोहल्ले वालों के शब्दों में मेलाघुमनी छुटटा खेलने-खाने लगी। उसने तब तक चाय-पान की दुकान खोल ली थी और उस पर बैठने लगी थी।

इधर रमरतिया तेजी से बढ़ रही थी। कभी-कभी बच्चों को लेकर मेलाघुमनी और मोहल्ले की औरतों के बीच ठन जाती तो मर्द लोग निकल आते मेलाघुमनी को गालियां देते कभी-कभी हाथ चला देते। बेचारी रोती-चिल्लाती गरियाती पर कोई उसके पक्ष में खड़ा न होता। मर्द लोग उससे इसलिए भी चिढ़ते थे कि वह उन्हें घास नहीं डालती थी। एकाध लोगों ने रात में जब उसकी झोंपड़ी में घुसने की कोशिश की तो उसने शोर मचाकर उनकी इज्जत उतार दी थी। सब कुछ खोकर मेलाघुमनी बदल रही थी और एक दिन पूरी तरह बदल गई. मर्दो से निपटने का उसने एक नायाब तरीका ढूँढ निकाला। अब जब कोई मर्द उसे मारने के लिए आगे बढ़ता वह अपनी साड़ी सिर तक उठा लेती और पूरी तरह नंगी हो जाती। हाय-हाय कहते हुए पहले औरतें और फिर मर्द घर के अन्दर भाग जाते। किसी की हिम्मत उससे उलझने की न हेाती। माँ कहती-नंगों जिसको अपनी इज्जत की परवाह नहीं होती से भगवान भी डरता है।

अभी कुछ दिन पहले जब ब्रिटनी स्पीयर्स ने अपने गुप्तांगों का प्रदर्शन करते हुए फोटो खिंचवाई तो मुझे मेलाघुमनी की याद आ गई. जिसने तीस वर्ष पहले ही इस नंगई का सहारा लिया था। स्त्री द्वारा लज्जा का यह प्रदर्शन पुरूषों के मुंह पर तमाचे जैसा है। पुरुष जब स्वयं स्त्री का वस्त्र हरण करता है तभी गौरव महसूस करता है। अब अगर द्रौपदी भरे दरबार में स्वयं साड़ी उतार देती तो क्या वह कुल-ललना रह जाती रक्षणीय रह जाती तमाशा देखने वालों को भी भला क्या रोमांच आता तब तो कामसूत्र की वह गणिका हो जाती जो भरे दरबार में यह कहती हुई नंगी आ जाती है कि उसे इस राज्य में कोई पुरूष ही नहीं दिखता जिससे वह लज्जा करे।

आज भी जो डेस कोड लागू करते हैं तथा देह ।उघाड़ू कपड़ों फैशन और सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के विरोधी हैं उनके कम्प्यूटरों में नग्न स्त्री देह मनोरजंन के लिए कैद है। कथनी और करनी का यही अन्तर तो मर्दो की सबसे बड़ी विशेषता है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब तक पुरुष ही अपने गुप्तांगों पर इतराता रहा है स्त्री को जलील करने के लिए उसका प्रदर्शन करता रहा है और अब स्त्री भी। पर मेलाघुमनी आज की स्त्री नहीं थी। स्त्री-विमर्श तो दूर उसे अक्षर।ज्ञान भी न था न ही उसने ब्रिटनी की तरह देह को हथियार ही बनाया था। हाँ उसने अपने इस प्रदर्शन से पूरे मोहल्ले को परास्त ज़रूर कर दिया था। अब कोई भी उसके मुँह लगने से डरता था। वह सीना ताने जिधर चाहे गुजरती। कभी-कभी हद से बाहर भी चली जाती पर सब उसे नंगी औरत कहकर दामन बचाते। माँ कहती-गन्दी नाली में पत्थर फेंकने से अपने ही उपर छींटा पड़ता है। पर मेलाघुमनी ऐसे ही जीती रही।

अब रमरतिया की कथा सुनिए. रमरतिया मुझसे एक-दो वर्ष बडी़ थी। मेरे साथ ही वह नगरपालिका के स्कूल में कक्षा पाँच तक पढ़ती रही। मुझे वह विचित्र इसलिए लगती थी क्योंकि उसकी शादी हो चुकी थी और फ्राक स्कर्ट के जगह सलवार समीज या साड़ी पहनती थी। गाँव की एक रूढ़ मान्यता के अनुसार रजस्वला से पूर्व लड़की की शादी से ही जाँघ पवित्र होता है। मेलाघुमनी ने भी आठ वर्ष की उम्र में कन्यादान कर मानो अपने लिए स्वर्ग में जगह आरक्षित करा ली थी। रमरतिया अक्सर मेरे घर आती और हसरत से मेरे घर कपड़ों और सुविधाओं को देखती लम्बी साँस भरती। वह अच्छा गाती और नाचती थी। उसका प्रिय गाना था—बना के क्यूँ बिगाड़ा रे बिगाड़ा रे नसीबा उपर वाले उपर वाले। वह इस गीत को इस भावपूर्ण मुद्रा में गाती कि मैं उसको देखती रह जाती। माँग में चटक पीला सिन्दूर बड़ी-सी लाल बिन्दी देह पर सलवार समीज सावली-सलोनी रमरतिया की आँखों में ढेर सारे सपने थे। कभी-कभी वह मुझसे अपना मन खोलती मैं तुम्हारे जैसी बनना चाहती हूँ खूब पढ़ना चाहती हूँ। उस समय मुझे उसकी बात समझ में नहीं आती थी। छठवीं कक्षा से मेरा उसका साथ छूट गया। मेरा एडमिशन लड़कों के कालेज कराया गया जबकि रमरतिया कन्या कालेज में गई. मेलाघुमनी ने पूरे मोहल्ले में शोर मचाया कि लड़कों के साथ पढ़ने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं। मेरी माँ को बहुत बुरा लगा पर मेलाघुमनी के मुँह लगना उन्होंने ठीक नहीं समझा।

समय तेजी से बीत रहा था। जब रमरतिया नवीं कक्षा में पहुंची तेा पडो़स के ही पंड़ित जी की बेटी रमा जो उसके साथ पढ़ती थी के साथ एक नेपाली बाला के बहकावे में आकर हिरेाइन बनने के लिए भाग गई पर दूसरे ही दिन रमरतिया तो वापस आ गई पर रमा नहीं। पंड़ित जी ने मेलाघुमनी और रमरतिया को पकड़ा तो रमतिया ने रहस्य बताया। कार में उसे लेकर पंडित जी उस ठिकाने पर पहुंचे जहाँ दोनों रात में ठहरी थीं पता चला रमा नेपाली एंजेट के साथ बाँम्बे वाली गाड़ी में बैठ चुकी है। दौड़ते-भागते बड़ी मुश्किल से पुरुष वे शधारी रमा चलती ट्रेन से मार-पीटकर जबरन उतारी गई और वहीं से अपने पुश्तैनी घर कुबेरनाथ ले जाई गई जहाँ उसने हाईस्कूल की परीक्षा प्राइवेट छात्रा के रूप में पास की और फिर उसकी शादी हो गई. किसी को कानो-कान खबर भी नहीं हुई. अमीर और ऊँची जाति की लड़की होने का उसे लाभ मिला पर रमरतिया तो गरीब और छोटी जाति की थी उस पर बदनाम माँ की बेटी. अब उसके जीवन का काला अध्याय खुल गया। इस बदनामी के बाद उसकी पढा़ई छूट गई. उसकी माँ ने उसका गौना तय कर दिया, तो वह भड़क गई कि गंवार पति के साथ नहीं जाऊँगी वहाँ गाँव में गोबर पाथना पडे़गा। मारने-पीटने पर भी वह टस-से-मस नहीं हुई. हारकर मेलाघुमनी चुप हो गई.

रमरतिया की युवा होती देह पर मर्दो की नजर पड़ने लगी थी पर वह हत्थे चढी़ आरा मशीन वाले ठाकुर साहब के ही। अब इसमें कितना मेलाघुमनी का हाथ था यह वही जाने। रमरतिया के सारे सपने टूट गये थे। उसे अब कोई शरीफ घर स्वीकार नहीं करता था। इसी बीच मैं पढ़ने के लिए बाहर चली गई. ग्रैजुएशन के बाद जब लौटी तो पता चला रमरितया मर गई है। मुझे धक्का लगा माँ ने बताया-किसी विवाहित मुसलमान पुरुष के साथ रहने लगी थी। एक बेटी भी हुई पर जाने कैसे एक रात ढिबरी से आग लगी और बुरी तरह जलकर मर गई. लोगों का कहना था मुसलमान लड़के ने ही जला दिया पर कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. बच्ची को मेलाघुमनी उठा लाई और जाने क्यों उसको मेरा नाम दिया।

मंजू

मेलाघुमनी मंजू को बडे़ नाजों से पाल रही थी। अक्सर जब मेरे घर का कोई सदस्य उधर से गुजरता तो वह जोर से उस बच्ची का नाम लेकर पुकारती। मेरे घर वालों को बहुत बुरा लगता। यह सब मेलाघुमनी चिढाने के लिए करती है या मुझमें रमरतिया की छवि देखती है या मेरी पढाकू प्रवृत्ति से प्रभावित होकर ऐसा करती है ईश्वर जाने। पर मैं जब भी घर आती। अपनी दुकान पर बैठी वह मुस्कराती और पूछती-का हो बहिनी कइसन बाडूँ और व बैठे लोगों को बताने लगती कि कैसे मैं प्रातः चार बजे से ही पढ़ने लगती हूँ। बचपन से प्रातः उठकर मैं संस्कृत के श्लोक याद करती थी। मैं कटकर रह जाती पर मजबूर थी क्योंकि उसी गली से होकर घर जाने रास्ता था जिसके मुहाने पर दुकान थी। मंजू को रमरतिया के पाठ से सबक लेकर कि पढने से बिगड गई मेलाघुमनी ने स्कूल नहीं भेजा। मैंने उसकी चाय-पान की दुकान पर ही उसे पलते-बढ़ते देरवा। जब मंजू पन्द्रहवें वर्ष में पहुंची तो मेरे उपर वज्रपात-सा हुआ। वह कुंवारी माँ बनने वाली थी। माँ ने बताया-कोई ड्राईवर है जिसकी रखैल बन गई है। उफ! रमरतिया के सपनों का यह अन्त। अगर वह जिन्दा होती तो मुझे पहली बार मेलाघुमनी से घृणा हुई. मंजू अपनी नानी की तरह ही बदतमीज व बदजुबान थी। गर्व से सीना व पेट ताने वह मोहल्ले में घूमती पर मजाल क्या कि कोई कुछ कह सके. एक दिन मुझसे टकरा गई तो उसने बडी उपेक्षा से मुझे देखा जैसे हमनाम ही नहीं मेरी प्रतिद्वन्द्वी भी हो पर मैंने बडी ही शर्म और दया से उस पन्द्रह साल की बच्ची को देखा जो मेरे बचपन की साथी रमरतिया की बेटी थी जिसका प्रेमी उसके पिता से भी अधिक उम्र का था और जो दूसरी मेलाघुमनी बनने में गर्व महसूस कर रही थी। घर लैाटकर मैं फूट-फूटकर रोने लगी। मेरे देखते-देखते रमरतिया मर गई उसकी बेटी मर रही है और मैं कुछ नहीं कर सकती। कब तक चलेगा यह सिलसिला क्या कभी मेलाघुमनी कथा का अन्त होगा।

ताजा सूत्रों के अनुसार मेलाघुमनी नहीं रही और मंजू ने एक बेटी को जन्म दिया है।