मंज़िल / भैरवप्रसाद गुप्त
अभी कुछ ही रात गुजरी थी। सरजू के तीर एक जर्जर झोंपड़ी में चटाई पर पड़ा था। मेरा युवक मिहनतकश मेजबान अपने नन्हें मुन्ना को गोद में चिपकाये हुए मेरी बगल में एक चटाई पर गहरी निद्रा में बेहोश पड़ा था। उसकी मीठी नींद में डूबी हुई स्वस्थ साँसें जैसे झोंपड़ी में मिहनत के मधुर गीतों के स्वर भर रही थीं। मेरे सिर के पास मिट्टी के दीवट पर बरे के तेल का दीपक मन्द गति से जल रहा था। उसका धीमा प्रकाश युवक के थके चेहरे पर पड़ रहा था। उस प्रकाश में मुझे लगा, जैसे मिहनत निद्रा का आवरण मुँह पर डाले मुस्करा रही हो। ‘मिहनत की मुस्कान।’ मैंने होंठों ही में कहा। मेरे होंठ कोनों पर कुछ फैलकर रह गये। मैंने अपने चेहरे पर हाथ फेरा। एक ईष्र्या भरी साँस मेरे मुँह से अबस निकल गयी। और मेरी मलकती हुई आँखें युवक की चौड़ी छाती पर जा टिकीं, जिसमें मुँह दुबकाये नन्हा शिशु उसकी माँसल बाँहों के घेरे में नींद में डूबा हुआ नन्हीं-नन्हीं साँसे ले रहा था। उसका भोला-भाला मुखड़ा उस समय वैसे ही चमक रहा था, जैसे एक चट्टान के पास बैठे नाग के गेंडुर के बीच उसकी मणि चमक रही हो।
अभी थोड़ी ही देर पहले मैं रोज की तरह अपने प्यारे मेजबान के साथ उसके चौके में बैठा था। मेरी मेहरबान मेजबानिन ने मोटी-मोटी ज्वार की रोटियाँ और चौराई का साग अपने गोरे-गोरे हाथों से मुस्कराते हुए थालियों में परसा था। आज मैंने अनुभव किया था कि मेरी थाली में उन मोटी-मोटी रोटियों को रखते समय पहले की तरह न उसके हाथ हिचके, और न उसका मन ही कसका था। इसलिए मुझे आज उन मोटी रोटियों में पहले की अपेक्षा अधिक स्वाद आया। पहले तो मुझे लगता था कि मेरे मेजबानों के दिल में यह बात बैठ गयी है कि मैं उनका रूखा-सूखा खाकर उनके ऊपर कोई एहसान कर रहा हूँ। इसी बात के कारण खाते समय और उसके बाद भी थोड़ी देर तक आत्मीयता से भरी हुई प्यारी बातें सुनने को न मिलती थीं। जिन बातों को सुनने से पेट भरने से भी अधिक आत्मा को तृप्ति मिलती है और जिनके कारण मोटी-मोटी ज्वार की रोटियाँ बहुत मीठी लगतीं हैं। मेरी बोलचाल में कहीं शहरियत झलक रही होगी तभी वे यही समझकर झिझक रहे थे। मैं कोशिश करता रहा हूँ कि उन्हें अपनी गरीबी और मजबूरियों का एहसास न हो। आज मुझे बड़ी खुशी हुई कि आखिर मेरे मेजबानों के दिल से वह बात निकल गयी। आज पहिली दफा छाछ-भरे फूल के कटोरों को थालियों के पास रखकर मेरी मेजबानिन गोद में अपने मुन्ना को लिये हमारे सामने आ बैठी, और खुलकर बातें की।
इनके यहाँ आज मेरी तीसरी रात थी। सरजू के उस पार इधर-उधर जंगलों और तट की बस्तियों में छिपे-छिपे एक फरार की तरह बेसरों-सामान भटकने के बाद मैंने अपने प्यारे गाँव की ओर रुख किया था। सावधानी का तकाजा था कि मैं शामवाली नाव से घाट उतरूँ, और रात के अँधेरे में ही पुलिस के कुत्तों से अपने शरीर की महक बचाते गाँव पहुँच जाऊँ। दिन भर आकाश में छाये हुए बादलों में छिपा हुआ सूरज सन्ध्या को पश्चिमी क्षितिज पर बादलों के घूँघट का एक कोना उठाकर झाँका, और मेरी नाव खुली। सन्ध्या की पीली आभा उमड़ती हुई नदी के बरसाती मटमैले जल पर एक फीकी, उदास मुस्कान बिखेर रही थी। मन्द-मन्द शीतल पुरवैया नदी की सतह को अपने कोमल करों से सहलाकर नन्हीं-नन्हीं सिहरन की लकीरों-सी लहरें उठा रही थी। आकाश में बैंगनी रंग के बादलों की छाया में कुछ दरियाई सफेद परों वाले पंक्षी रुई के नन्हें गोलों की तरह हवा में इधर-उधर तैर रहे थे। नदी में यहाँ-वहाँ कुछ बड़ी नावें सुफेद पाल ताने धीरे-धीरे बही जा रही थीं, जैसे मानसरोवर में कुछ राजहंस अपने एक-एक डैने को ऊपर उठाये तैर रहे हों। मेरी नाव में अधिकतर युवक ग्वाले थे, जो पास के कस्बे से दूध-दही बेंचकर अपने गाँवों को वापस जा रहे थे। उनके चेहरे पर इस वक्त प्रसन्नता छायी हुई थी। कुछ आपस में हँसी-ठिठोली कर रहे थे। कभी-कभी पूरी नाव उनके उन्मुक्त हास्य से हिल जाती थी। धरती माता की इन युवक सन्तानों के हास्य में जो हृदय की उन्मुक्त उत्फुल्लता फूट पड़ती थी। उसमें मेरे हृदय की सारी चिन्ताएँ क्षण भर को डूब जाती थीं। थोड़ी देर के बाद एक मनचले युवक ग्वाले ने अपने सुरीले गले से एक भोजपुरी प्रेम-गीत छेड़ दिया। मैं लोक-गीतों का चाहक हूँ। जहाँ कहीं भी देहाती युवक या युवतियों का झुण्ड देखता हूँ, उनके गीतों के लिए ललचा जाता हूँ। यह मेरा सौभाग्य था कि बिना मेरे कहे ही युवक ने अपना गीत शुरू कर दिया। अन्तरा की पंक्तियाँ वह अकेले गाता था, और टेक की पंक्ति उसके कई साथी मिलकर गाते थे। उस प्रेम-गीत में नदी का स्वाभाविक प्रवाह था, झरने का प्राकृतिक संगीत था, जंगली मधु की मिठास थी, और धरती के प्रेम के सच्चे उद्गार थे। उस गीत का मतलब यों था—
ऐ माँझी, तू जल्दी-जल्दी डाँड़ चला! तीर पर मेरी फूल-सी सुकुमार प्रेमिका अपनी बड़ी-बड़ी जामुन-सी रसीली आँखों पर केले के फूल-से मेंहदी-रचे हाथों का साया कर कभी मेरी राह की ओर और कभी डूबते हुए सूरज की ओर धडक़ते हुए नन्हें कलेजे को सीने में दबाये हुए देख रही होगी! ए माँझी, तू जल्दी-जल्दी डाँड़ चला। आज मैंने अपने गले की सोने की मोहर बेंचकर अपनी प्रेमिका, के हाथों के लिए कड़े खरीदे हैं। वह अपने गोरे-गोरे हाथ बढ़ाये अधीरता से मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी! ए माँझी, तू जल्दी-जल्दी डाँड़ चला! आज मैं अपनी प्रेमिका के हाथ अपने हाथ में ले उसकी गोरी-गोरी, नरम कलाइयों में कड़े पहनाऊँगा। हर्ष के मारे उनकी छाती फूल जाएगी, उसकी अंगिया के बन्द टूट जाएँगे, उसकी गुलाबी आँखों से प्रेम-रस छलक पड़ेगा। मुझे मेरे प्रेम का पुरस्कार मिल जाएगा। मेरा अधीर प्रेम मेरे कलेजे में धडक़ रहा है! ए माँझी, तू जल्दी-जल्दी डाँड़ चला!
गीत की मधुरता मेरे हृदय पर छा गयी। मैं उस वक्त के लिए जैसे सब-कुछ भूल गया! ...
सहसा माँझी की दहशत में काँपती हुई आवाज मेरे कानों से आ टकरायी—‘‘तूफान आने ही वाला है।’’ मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे एक मीठे सपने से मेरे कन्धों को झिंझोडक़र जगा दिया हो। मेरे हृदय में सहसा प्रश्न उठा—भगवान्! अब उस युवक प्रेमी का क्या होगा? तीर की किसी झोंपड़ी के द्वार पर प्रतीक्षा में खड़ी उसकी युवती प्रेमिका का क्या होगा? इतने में ही नाव जोर से हिली। लोगों में खलबली मच गयी। मैंने अपने में आ जो देखा, तो सबकी आँखें उत्तर-पश्चिम के कोने में क्षितिज पर उठी हुई थीं। उनकी फैली आँखों में खौफ थर्रा रहा था। मैंने आकाश की ओर नजर उठायी। सूरज डूब चुका था। आकाश पर काले बादल जमे हुए, से छाये थे। उत्तर-पश्चिम के कोने में आकाश पर पीली गर्द का पर्दा-सा पड़ गया था। वातावरण की शान्तता मय की सीमा तक पहुँच चुकी थी। नदी की तरंगों की आवाज उस सन्नाटे में अर्द्ध-रात्रि की चीत्कार-सी डरावनी लग रही थी। माँझी बेतहाशा डाँड़ चलाये जा रहा था। नाव नदी के बीच में जल को चीरती तूफानी वेग से घाट की ओर सर्र-सर्र बढ़ती जा रही थी।
नाव अभी थोड़ी ही दूर आगे बढ़ी होगी कि ठण्डी हवा के झोंके आने लगे। नदी की लहरें ऊँची उठ-उठकर नाव के दोनों किनारों पर थपेड़े मारने लगीं। डोलने लगी मँझधार में जीवन की नैया। दूर था अभी साहिल! बेहद घबराहट छा गयी माँझी की आँखों में। अब कौन लगाये पार बीच भँवर में डोलै नैया? धडक़ने लगा सबका हृदय। देखते-देखते छा गया घटाटोप अन्धकार! हहराती हुई आ पहुँची प्रचण्ड वेग से आँधी। लहरें चीत्कार करती नाव को गेंद की तरह उछालने लगीं। मच गयी खलबली यात्रियों में। जोर की डगमगाहट हुई नाव में। आ गयी नाव आँधी की चपेटों में। विकराल सर्प की तरह फुफकारती हुई उन्मत्त लहरों ने चारों ओर से घेर लिया नाव को। तैरने लगीं सबकी आँखों में मृत्यु की परछाइयाँ। करीब था कि नाव के साथ-साथ सबको वे प्रलयकारी लहरें निगल जातीं कि माँझी जोर से चिल्लाया—‘‘जान का मोह हो, तो कूदो तूफान में। नहीं तो नाव सबको लेकर बैठ जाएगी।’’ कहकर वह छपाक से धारा में कूद पड़ा। और कूद पड़े यात्री सरजू माँ की गोद में। प्रचण्ड धारा में लहरों के ऊपर काले-काले सिर क्षण भर फूलों की तरह काँपते हुए नीचे-ऊपर आकर अन्धकार में अदृश्य हो गये।
मेरे लिए यह कोई पहला भयानक अनुभव नहीं था। मैंने कितनी ही बार सावन-भादों में लबालब भरी गंगा की तूफानी रातों में अकेले या अपने साथियों के साथ पार किया था। कितनी ही बार तूफान और आँधियाँ आयी थीं, और मेरे जीवन के पर्वत से टकराकर चली गयी थीं। जिसका जीवन स्वयं एक तूफान रहा है, जो आँधियों और आफतों की गोद में भी एक जंगली फूल की तरह हमेशा मुस्कराता रहा है, जिसने क्रान्ति की ज्वालाओं को चूमने की महती इच्छा हृदय में पाल रखी है, जिसकी जीवनी साहसिकता और खतरे की अनेक रोमांचकारी कहानियों का संग्रह मात्र है, उसके लिए ऐसी हल्की-फुल्की आफतें क्या महत्त्व रखती हैं? हाँ, मुझे उन भोले-भाले नौजवान ग्वालों के लिए अवश्य दु:ख हो रहा था। पता नहीं उन बेचारों पर क्या बीती होगी। विशेषकर वह गीत गाने वाला नवयुवक तो मुझे बेहद याद आ रहा था। उसके गीत की मनोहर पंक्तियाँ अब भी मेरे हृदय में गुनगुना रही थीं। गीत गाते समय उसकी काली-काली आँखों में जो अलमस्ती छा गयी थी, और उसकी घनी भौंहों में एक स्वाभाविक तनाव पैदा हो जाने से उसके चेहरे पर जो धरती की जवानी मुस्करा उठी थी, वह अब भी मेरी आँखों के सामने से नहीं हट रही थी।
मैं भावुक नहीं हूँ। हृदय की दुर्बलताएँ मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। मैंने अपने को, अपने जीवन को, अपनी भावनाओं को साधा है। मेरे लिए जीवन की राह में कोई फिसलन नहीं है। मेरे कदम मजबूत और सधे हैं। मेरा स्वभाव, मेरी आदतें वर्षों की कड़ी परीक्षाओं और जोखिमों के अभ्यासों के साँचे में ढली हैं। मेरा हृदय चोटें खाता-खाता पत्थर से भी सख्त हो गया है। लेकिन प्रकृति वह है, जो पत्थर की शिलाओं पर भी दरारें कर दे। प्रकृति वह है जो पत्थर की छाती चीर कर झरने बहा दे, प्रकृति वह है, जो वीराने में भी नन्हें-मुन्हंव फूल उठा दे।
ऐसे अवसरों पर मेरी सारी साधनाएँ नि:शक्त हो जाती हैं, मेरे सारे अभ्यास ढीले पड़ जाते हैं। प्रकृति के इन पुत्रों के सामने मैं अवस-सा खिंच जाता हूँ, और अपने दिल के तारों को जीवन के मीठे-मीठे गीतों से भर देता हूँ। पहाड़ों, जंगलों और वीरानों में जहाँ कोई अपना हमदर्द नहीं मिलता, मैं प्रकृति की गोद में बैठकर जब इन गीतों को गाता हूँ, तो मुझे लगता है, जैसे ग्वाले कृष्ण की बाँसुरी मेरे चारों ओर मीठी-मीठी ध्वनियों का वृत्त बनाकर मुझ पर अपनी मोहिनी की वर्षा कर रही है। उस वक्त मैं अपना अकेलापन भूल जाता हूँ। वातावरण का सारा सूनापन गीतों की मधुर लहरी में खो जाता है।
हाँ, तो मैंने तनिक भी विचलित हुए बिना शवासन लगाया, और अपने को वेगवती धारा में एक सूखे काठ के कुन्दे की तरह लहरों पर उछलते हुए बहने को छोड़ दिया। लहरें मुझे अपनी गोद में ले झूला झुलाने लगीं। आँधी गर्जन के गीत सुना रही थी। ऊपर से रेत और धूल केसर की तरह झड़ रही थीं। खासा बसन्त का मजा लेता मैं यह शेर गुनगुनाता हुआ जा रहा था—
‘‘बाज आ साहिल पे गोते खाने वाले बाज आ! डूब मरने का मजा दरियाये बैसाहिल में है! ...’’
सहसा पास ही ‘‘बल-बल’’ की आवाज़ हुई। मैंने समझा कि मैं भँवर में पड़ गया हूँ। बचने के लिए मैंने पानी की सतह पर हाथों का जोर लगाकर अपने को उछाल दिया। फिर जो धारा पर गिरा, तो मुझे लगा कि मेरी पीठ किसी की खोपड़ी से जा टकरायी है। मैंने मुडक़र उधर देखा। फिर वही ‘‘बल-बल’’ की आवाज आयी, और एक काला सिर सा ऊपर उठकर पानी में डुबकी लगा गया। मुझे वहाँ किसी आदमी के होने का शक हुआ। धार से मुडक़र मैंने डुबकी लगायी। एक कुरते का दामन मेरे हाथ में आ लगा। मैंने उसे ऊपर खींचा सचमुच वह एक आदमी ही था। उसका ऊपर आना था कि वह मेरे ऊपर दहशत में काँपता हुआ झपटा। मैं अपना हाथ सीधा कर उसे अलग ही थामे रहा। वह मुझे पकडऩे को छटपटा रहा था। मैंने डाँटकर ज़ोर से कहा—‘‘घबराओ नहीं! मैं तुम्हें डूबने नहीं दूँगा। मेरे सहारे तुम धीरे-धीरे हाथ-पाँव चलाते बढ़ आओ।’’
मेरे डाँटने का असर उस पर पड़ा। वह सँभल गया, और सतह पर पट फैलकर अपना हाथ-पाँव एक कुशल तैराक की तरह चलाने लगा।
थोड़ी देर में आँधी चली गयी। आकाश में छायी हुई पीली गर्द बैठने लगी। लहरों का चिंग्घाड़ बन्द हुआ। आकाश में तारे झलमलाने लगे। आँधी अपने साथ बादलों को भी उड़ा ले गयी थी।
अब आप मेरा कुरता छोड़ दीजिए, मैं यों भी तैर सकता हूँ। उसने कृतज्ञा-भरी आवाज़ में कहा। मैंने उसका कुरता छोड़ दिया। और उसके बिलकुल पास हो कुछ बात करने की गरज के साथ ही तैरने लगा। मैं उसकी ओर देखकर कुछ कहने ही वाला था कि मेरी आँखें हर्ष और आश्चर्य से भर गयी। वह आदमी नाव पर गीत गाने वाला युवक ही था। मैंने उसके कन्धे को थपथपाकर कहा—‘‘युवक, तुमने मुझे पहिचाना?’’
उसने अपनी आँखों का पानी हाथ से पोंछकर मेरी ओर देखा। मैंने अपना मुँह उसकी ओर कर दिया। उसकी आँखें अँधेरे में बिजली की तरह चमक उठीं। मुझ पर नज़र गड़ाये ही वह बोला—‘‘हाँ, आप भी तो उसी नाव पर थे। मैं तो भँवर में पड़ गया था। अगर आप न होते, तो ... कहते-कहते जैसे भँवर की बात सोचकर उसे रोना आ गया।
भाई, कैसी बुजदिली की बातें करते हो! सच्चे प्रेम के गीत गाने वाले में हँसते-हँसते मरने का साहस होना चाहिए! मैंने उसके भीगे बालों पर हाथ फेरते हुए कहा।
मैं मरने से नहीं घबराता। सच्चे प्रेम में जहाँ साहस है, शक्ति है, वहीं प्रेमी के दुख की आशंका की कमजोरी और चिन्ता भी है। सोच रहा हूँ कि अगर मैं कहीं डूब गया होता, तो मेरी नयना और मुन्ना का क्या होता? कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गयी, और उसकी आँखों से प्रेम के आँसू टप-टप चूकर नदी के मटमैले पानी में विलीन हो गये।’’
‘‘अच्छा, अब हमें किनारे का रुख करना चाहिए,’’ जोर का एक हाथ पानी में मारकर मैंने बात का रुख बदलने के लिए कहा। उसी सिलसिले में कोई और बात जोडक़र मैंने उसे और विचलित करना उचित न समझा।
मैंने उससे कुछ जोर से हाथ मारने को कहा। वह किसी चिन्ता में डूबा हुआ-सा मेरे साथ बढऩे लगा। अभी-अभी जो एक भयानक सत्य की ज्योति उसकी आँखों के सामने झलमला गयी थी, उसने जैसे उसके भोले दिल पर एक जोर का घूँसा मार दिया था। शायद वह सोच रहा था, ‘‘एक-न-एक दिन मैं मर जाऊँगा। मेरे प्रेम और सुख के सपने बिखर जायँगे। मेरा बसा हुआ घर उजड़ जाएगा। मेरी नयना और मुन्ना बिलख-बिलखकर जान दे देंगे।’’ मैं उसे कुछ समझाना चाहता था। जो सत्य एक-ब-एक पर्दा उठ जाने से उसके सामने नंगा हो गया था, उसे फिर मैं ढँक देना चाहता था। सत्य को ढँककर या उससे आँखें मूँदकर ही तो आदमी झूठे जीवन को पालता है। पर वह सोचकर चुप ही रहना ठीक समझा कि जिस प्रकृति ने उसके हृदय पर घूसा मारा है, वही उसकी चोट को सहलाकर ठीक भी कर देगी। पतझड़ में जो कोयल उजड़े बाग को देखकर मूक हो जाती है, क्या वही बसन्त आने पर नयी उमंगों के साथ नहीं कूक उठती? जिस प्रकृति में गर्जन की भयंकरता है, क्या उसी में गुंजन की मधुरता नहीं है?
थोड़ी देर बाद हम दोनों किनारे पर थे। सामने ऊँचे कगार को देखते हुए मैंने कहा—‘‘भाई, तुम्हारा घर तो कहीं पास ही होगा?’’
‘‘हाँ, ऊपर चलिए, तो मैं ठीक-ठीक बता सकूँगा कि हम कहाँ हैं— उसने उदास स्वर में ही कहा।’’
दोनों अपने कपड़े निचोड़ते हुए कगार पर तिरछे चढऩे लगे। बलुधँस मिट्टी में हमारे पैर घुटनों तक धँस जाते थे। पास ही कगार टूट-टूटकर नदी में गिर रहा था। नदी का पानी उछलकर गिरी हुई मिट्टी को अपनी गोद में दबा लेता था। ठण्डी हवा झाऊ के पौधों में अटकती हुई साँय-साँय बह रही थी। आकाश में उड़ते हुए बादलों के कुछ टुकड़े अँधेरी रात के जगमगाते हुए तारों से आँखमिचौनी खेल रहे थे।
‘‘वह सामने जिस जगह से रोशनी आ रही है, बसरखापुर है। वहाँ से मेरा गाँव करीब एक मील पश्चिम सरजू माँ के किनारे है।’’—ऊपर आकर सामने रोशनी की ओर इशारा करता हुआ युवक बोला।
मुझे यह समझते देर न लगी कि मैं कहाँ हूँ। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा—‘‘तब तो हम घाट के पास ही हैं। अच्छा, अब तुम जाओ, नयना तुम्हारी राह देख रही होगी। मेरी ओर से अपने मुन्ना के हाथ-पाँव चूमना।’’ कहकर मैं पूरब की ओर मुड़ा।
‘‘लेकिन आपको कहाँ जाना है?’’ युवक ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर पूछा।
मैंने मुडक़र देखा, युवक की आँखें जैसे कृतज्ञता के भार से झुकी जा रही थीं। मैंने कहा—‘‘मैं हिरामनपुर जाऊँगा।’’
‘‘हिरामनपुर?’’ कुछ सोचते हुए युवक ने कहा—‘‘हिरामनपुर तो यहाँ से चार कोस है। अगर बुरा न मानें, तो आज रात को मेरे यहाँ ठहर जाइए। कल सुबह चले जाइएगा। यों भी आप काफी थक गये हैं।’’
‘‘तुम इसकी फिक्र न करो।’’ इस हालत में भी मैं दस-पन्द्रह कोस दौड़ता हुआ जा सकता हूँ।
‘‘यह तो आपका शरीर ही कह रहा है। लेकिन अगर कोई खास हर्ज न हो, तो मेरी विनती स्वीकार करें। नयना आप से मिलकर बहुत खुश होगी। मेरी ससुराल हिरामनपुर के पास ही पुरवा पर है।’’ शरमाकर उसने आँखें नीची कर लीं और पैर के अँगूठे से धरती कुरेदने लगा।
मेरे दिमाग में कोई बहुत पुरानी बात जैसे बिजली की तरह कौंध गयी। मेरे मुँह से अचानक निकल गया—‘‘तुम्हारी नयना सुनयना तो नहीं है?’’
‘‘हाँ-हाँ, उसका नाम सुनयना ही है, पर मैं नयना कहकर पुकारता हूँ। क्या आप उसे जानते हैं?’’— आश्चर्य-चकित हो पलकों को मलकाते हुए युवक ने पूछा।
उत्तर में मैंने एक मीठी याद में खोया हुआ-सा सिर हिला दिया।
‘‘तब तो आप जरूर चलिए।’’—मेरे हाथों को अपने हाथों में लेता हुआ युवक मचल पड़ा।
‘‘सुनयना के याद के साथ ही न जाने कितनी बातें मेरी आँखों के सामने विस्मृति के अन्धकार से उभरकर तारों की तरह चमकने लगीं। मैंने अपने हृदय की बातों को अन्दर ही दबाते हुए कहा—’’ भाई, वह जमाने की बात हो गयी। अब क्या सुनयना मुझे पहचानेगी? यह मेरी खसखसी दाढ़ी, मेरे बेढ़ँगे तौर पर बरसात की घास की तरह बढ़े हुए सिर के बाल, यह चेहरे का धूप में झुलसा हुआ रंग, मेरी आँखों में जमी हुई यह दृढ़ता देखकर क्या वह डर न जायगी? नहीं-नहीं, भाई, तुम जाओ। अगर हो सका, तो फिर कभी मैं तुम्हारे यहाँ आऊँगा। उसके हाथों से अपने हाथ को छुड़ाकर मैं फिर मुडऩे को हुआ कि वह मेरे कन्धों को अपने मजबूत हाथों से पकड़ मुझे अपनी ओर करके बोल पड़ा—यह आप क्या कहते हैं? नयना को जब मालूम होगा कि आपने उसके सुहाग की रक्षा की है, तो वह आपके चरणों को अपने हाथ से धोएगी, और एक देवता की तरह आपकी पूजा करेगी। आप मेरी विनती यों न ठुकराएँ। मैं आपके पैरों पड़ता हूँ। कहकर वह मेरे पैरों पर झुका ही चाहता था कि मैंने उसे ऊपर ही अपने हाथों में रोक लिया। उसकी आँखों में उसके हृदय का नम्र आग्रह तरल हो झलमला उठा। वह गिड़गिड़ाकर फिर बोला—‘‘तो चल रहे हैं न?’’
मैं उसकी गिड़गिड़ाहट की अवहेलना न कर सका। मेरे मुँह से अवस ही निकल गया—‘‘हाँ, चलो।’’
उसकी आँखें हर्षातिरेक से चमक उठीं। खुशी में पागल-सा हो उसने मेरा हाथ पकडक़र अपनी ओर खींचा। मैंने ठिठककर कहा—‘‘चल तो रहा हूँ, मगर तुम्हें भी मेरी एक बात माननी होगी।’’
‘‘मैं आपकी हर बात मानने के लिए तैयार हूँ। आप चलिए तो। उसने फिर मेरा हाथ खींचा।’’
मैंने फिर रुककर कहा—‘‘नहीं, पहले तुम मुझे वचन दो कि तुम मेरी बात मानोगे! तब मैं अपना कदम उठाऊँगा।’’
‘‘मैंने पहले ही कह दिया कि आप जो भी कहेंगे, मैं करने के लिए तैयार हूँ। आप कहिए न।’’ उसने कुछ झुँझलाकर कहा, जैसे अब एक क्षण भी रुकना उसे खल रहा था। वह जल्दी से जल्दी मुझे लिये सुनयना के पास पहुँचने के लिए उतावला हो रहा था।
‘‘वादा करो कि तुम सुनयना से इस दुर्घटना और मेरे हिरामनपुर के होने की बात न कहोगे।’’
‘‘भला ऐसा क्यों? उसने तनिक आश्चर्य से कहा।’’
‘‘चाहे कोई भी वजह हो। अगर तुम मुझे अपने साथ ले चलना चाहते हो, तो तुम्हें मेरी यह शर्त माननी होगी।’’ मैंने दृढ़ता के शब्दों में कहा।
‘‘अच्छा।’’ उसने मुँह लटकाकर कहा, ‘‘जैसे उसकी सारी खुशी पर पाला पड़ गया हो।’’
अब हम युवक के गाँव की राह पर थे। आगे-आगे युवक, पीछे-पीछे मैं अँधेरी राह पर दो छायाओं की तरह बढ़ रहे थे। आकाश के पश्चिमी कोने में चतुर्थी का पीला चाँद बादलों के झुण्डों से लड़ता-झगड़ता अपना मद्घिम प्रकाश धरती पर फेंकने का व्यर्थ-सा प्रयास कर रहा था। राह के दोनों ओर जहाँ-कहीं भी वर्षा का पानी खेतों में इकठ्ठा हो गया था, मेढकों का दल टर्रा रहा था। पीछे झाऊ के जंगलों से झिंगुरों की आवाज़ आ रही थी। हवा सर्र-सर्र हमारे भीगे कपड़ों को फडफ़ड़ाती हुई बह रही थी। मैं युवक के पीछे-पीछे चला जा रहा था सुनयना से मिलने। यह संयोग की खूबी ही तो है कि जो सुनयना शुरू जवानी के दिनों में मेरी एक मामूली सी भूल के कारण शायद, हमेशा-हमेशा के लिए सहसा मुझसे अपना सम्बन्ध विच्छेद कर चुकी थी, और न जाने कितनी बार चाहकर भी मैं अपनी उस भूल के लिए उससे क्षमा न माँग सका था। उसी सुनयना के सामने आज परिस्थिति मुझे यों खड़ा कर देने वाली है। आज मैं जो कुछ बना हूँ, जिस रूप में भी आज मेरा जीवन खड़ा है, उसकी नींव जब मैं बहुत गहरे पहुँचकर देखता हूँ, तो मालूम होता है कि उसी एक भूल की ईंट पर पड़ी थी। वह भूल मेरे जीवन में प्रथम और अन्तिम थी, जिसको लाख प्रयत्न करके भी मैं कभी भूल न सका। वह मेरी भूल की घटना जैसे हमेशा मेरे जीवन की अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं की सतह पर जल में तेल की बूँद की तरह तैरा करती है। यह युवक, सुनयना का पति, जो मेरे आगे चल रहा है, यदि मेरी उस भूल को जानता, तो क्या वह मुझे सुनयना के पास ले जाने को इतना आतुर होता? ...
मेरे कदम युवक के पीछे-पीछे उठ रहे थे। और मेरी आँखों के सामने से मेरे अतीत पर छाये हुए विस्मृतियों के पर्दे एक-एक कर खिसक रहे थे। ... लडक़पन से ही सुनयना अपनी माँ के साथ मेरे यहाँ दूध देने आती थी। उसकी माँ मेरे यहाँ दूध देकर गाँव में औरों के यहाँ दूध देने चली जाती, और छोड़ जाती सुनयना को मेरे घर। नन्हीं सुनयना अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उपलों को बौरसी में सजाकर उसमें आग धधकाती, कहतरी में पानी डाल उसे सितुही से खुरच-खुरचकर साफ करती, और तब मेरी अम्माँ से बौरसी पर दूध रखने को कहती। इतने में यदि उसकी माँ लौट आती, तो वह उसके साथ चली जाती। नहीं तो मेरे पक्के आँगन में चुपचाप बैठकर टुकुर-टुकुर इधर-उधर देखा करती। मेरे घर में मेरे सिवा और कोई लडक़ा या लडक़ी न थी, जिसके साथ वह खेलती-कूदती। और मेरे साथ आफत यह थी कि सुबह में एक मास्टर मुझे पढ़ाने आया करते थे। कभी-कभी जब मैं बिना कुछ खाये-पिये मास्टर के आ जाने पर पढऩे बैठ जाता था, तो मेरी अम्माँ मुझे बुलाने के लिए सुनयना को भेजती। सुनयना मेरे पढऩे के बाहरी कमरे के दरवाजे पर आकर आवाज़ देती—‘‘किशन भैया, किशन भैया। चाची बुला रही हैं।’’ मैं तो इस अवसर की ताक में रहता ही। झट किताब बन्दकर उठ पड़ता। और मास्टर के मुँह से जल्द आना। निकलकर मेरे कानों से टकरा भी न पाता कि मैं कमरे से बाहर होता। सुनयना मेरे हाथ से लिपटकर मुस्कुराती हुई आँखों से कभी मेरा मुँह देखती और कभी सामने देखती हुई मेरे साथ आगे बढ़ती। उस वक्त वह बेहद खुश होती, जैसे एक लडक़ी सहसा अपने हाथ में एक खुशनुमा गुड्डा पड़ा देखकर खुश हो जाती है। चौके के पास पहुँचकर सुनयना ठिठक जाती। मैं अन्दर जा अम्माँ के सामने खड़ा हो जाता। वहाँ खड़ा-खड़ा मैं कभी अम्माँ की ओर देखता, और कभी द्वार पर सुनयना को, जो खड़ी-खड़ी बाल-सुलभ लज्जा में सिर झुकाये अपनी नन्हीं उँगलियों से दरवाजा कुरेद रही होती। छिपली में गरम-गरम हलुआ निकालकर अम्माँ मेरी ओर बढ़ा देतीं। मैं उसे कुरते का दामन लगा हाथ से उठाने को होता कि अम्माँ बोल पड़तीं—‘‘यहीं बैठकर क्यों नहीं खा लेता?’’ मेरी सहमी हुई नज़र द्वार पर खड़ी सुनयना की ओर मुड़ जाती। अम्माँ उसे देखकर मुस्कुराती हुई कहतीं—‘‘अच्छा, अच्छा, जा।’’
सुनयना को जाने उस वक्त कैसा लगता कि वह सिर झुकाये ही वहाँ से हटने लगती। मैं उसके पास आ अपने कन्धे से उसका सिर छू देता। वह अचकचाकर मेरी ओर देखती। मैं मुस्करा देता। और तब हम आँगन में कोने में बैठ जाते। मैं छिपली में हलुए को दो भागों में बाँटने के लिए अँगुली से लकीर खींचने लगता। मेरी अँगुली गरम हलुए से जल जाती। मैं सी करके उसे ऊपर उठा लेता। सुनयना जोर से ताली पीटती हँस पड़ती। मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए उसका हाथ पकडक़र हलुए पर रख देता। वह चिल्ला उठती। मैं कहता—‘‘कहो, कैसा लगा। अब क्यों नहीं हँसती?’’ वह रूठकर उठने को होती। तब मैं उसका हाथ पकड़ अपने पास उसे खींच लेता। और आदेश के स्वर में कहता—‘‘खाओ। वह कहती ‘‘ऊहूँ।’’ मैं थोड़ा-सा हलुआ ले उसे फूँक मारकर ठण्डाकर उसके मुँह में डाल देता। वह सिर झुकाये ही आँखें मलकाते हुए मुँह चलाने लगती।
फिर खा-पीकर हाथ में हाथ मिलाये हम उस वक्त तक आँगन में खेलते-कूदते रहते जब तक माँ की डाँट न पड़ती, या बाहर से मास्टर की पुकार न सुनाई देती, उस वक्त जब मैं सुनयना का हाथ छोड़ता, तो उसकी आँखों में सहसा एक ऐसी उदासी छा जाती, जिसे देखकर मेरा मन मसोस उठता। तब मैं फिर उसका हाथ अपने हाथ में ले लेता और उसे लिए ही पढऩे के कमरे में जा बैठता। वह सहमी-सहमी मेरी बगल में बैठ जाती। मैं किताब खोलकर पढऩे लगता। और वह कभी मेरा मुँह, कभी मास्टर की ओर और कभी किताब की ओर देखती चुपचाप बैठी रहती। ...
देखते-देखते यों ही नाच-खेल में जाने कब बचपन की मासूम घड़ियाँ बीत गयीं। मैं अँग्रेजी पढऩे शहर में चला गया। अब सुनयना से मेरी भेंट छुट्टियों में ही होती जब मैं घर आता।
शुरू जवानी के दिन भी क्या होते हैं, जब हर लडक़ी और लडक़े का जीवन एक प्रेम-कहानी है।
हर जीवन में एक राजा है।
हर राजा की एक रानी है।
आज मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि वह कौन-सी घड़ी थी। जब सुनयना अपनी मद-भरी आँखों में प्रथम बसन्त का सन्देशा लिये मेरी यौवन-वाटिका में आ खड़ी हुई। आज वह क्षण मेरी स्मृतियों की पकड़ में नहीं आता, जब सुनयना पहले-पहल मेरी अलस आँखों में चाँदनी रातों में उगने वाले रूपहले सपनों की रानी बनकर आ बसी थी। अपने विगत जीवन की घटनाओं के जाल में उलझकर उस घटना का समय-निर्देश करने में आज मैं अपने को असमर्थ पा रहा हूँ, जब सहसा सुनयना मेरे उमंगों-भरे हृदय पर सावन की रिमझिम का नशा बनकर छा गयी थी।’’
सुनयना अब सयानी हो गयी थी। मुझे सामने देखकर वह अब अपने मुँह पर घूँघट खींच लेती थी। उसके किनारीदार घूँघट के नीचे उसकी तनिक आगे को उठी हुई ठुण्डी में जो कम्पन होता, उससे जाहिर था कि वह अन्दर-ही-अन्दर शरमायी हुई सी मुस्कराती होगी। मेरे जी में तो आता कि उसका घूँघट उलट दूँ, और पहले की ही तरह उसके दोनों हाथ अपने हाथों से पकड़ उसे आँगन में खींच लाऊँ। मगर, आह! अब वे बचपन के नन्हें-नन्हें मासूम हाथ कहाँ थे? अब तो उन हाथों में विद्युत धारा बह रही होगी। मैंने छुआ नहीं कि दिल पर शाक लगा।
उस सुबह भी सुनयना आँगन के कोने में बैठी हुई बोरसी पर दूध बैठा रही थी। अम्माँ रसोई में बैठी थीं। मैं हल्के-हल्के कदम रखता सुनयना के सामने बरामदे की दीवार की ओट में जा खड़ा हुआ। आज कई कोशिशों के बाद सुनयना को मैं बिना घूँघट के देख पाया था। मेरी आँखें उसके कपोलों पर पूर्व परिचित बचपन की नटखट लाली को खोज रही थीं, मगर अब तो जैसे उस लाली पर यौवन की लावण्यता ने अपना माधुर्य बिखेर दिया था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें अब अधिक काली हो गयी थीं, और ऐसी लग रही थीं, जैसे लम्बी-लम्बी, उभरी पलकों की ओट में शराब का समुद्र हिलोरें ले रहा हो। उसकी भौंहें घनी हो गयी थी, और अब उसमें अधिक बाँकपन तथा तनाव आ गया था। उसके होंठ अधिक सुर्ख हो बीच में तनिक आगे को झुक गये थे। मैं कुछ देर तक छिपे-छिपे उसे खोया-सा देखता रहा। न जाने क्यों मेरे दिल में यह भाव उठ रहा था कि सुनयना यों ही मेरे सामने अनजान सी बैठी रहती, और मैं छिपे-छिपे उसे देखता रहता, देखता रहता! इतने में वह उठने को हुई। मेरे मुँह से सहसा निकल गया—‘‘सुनयना।’’
उसने अचकचाकर मेरी ओर एक दृष्टि फेंकी, और झट से माथे का आँचल चेहरे पर खींच लिया। मुझे लगा, जैसे एक काँपती हुई विद्युत-रेखा उसकी काली-काली आँखों में चमकी और इसके पहले कि उसकी चमक मेरी आँखों को चकाचौंध कर दे वह घूँघट में ही खो गयी। मैं अनियन्त्रित-सा उसकी ओर बढ़ गया। उसके बिलकुल पास जा खड़ा हो बोला—‘‘सुनयना।’’
वह कुछ सिकुड़-सी गयी, जैसे लाज से और गड़ गयी हो।
मैंने सहसा कहा—‘‘सुनयना, अब मुझसे भी शरमाने लगी?’’
उसने तनिक सिर उठाकर घूँघट की ओट से मेरी ओर देखा। उसके होंठों पर एक मृदु मुस्कान थिरक रही थी, जिसमें अभी भी रूप का अभिमान नहीं था।
‘‘वाह! तुम तो जैसे बचपन की सारी बातें भूल गयीं। वह नाचना और खेलना, वह हँसना और रूठना, वह खिझना और रोना, तुम्हें अब कुछ भी याद नहीं, सुनयना।’’
उसने घूँघट जरा पीछे खिसकाकर, आँखें उठा मेरी ओर देखा। उन आँखों में जैसे बचपन की सारी कहानियाँ उभर आयीं हों। तनिक देर के लिए हम आँखों में आँखें डाले बचपन की मीठी यादों में खो गये।
‘‘आओ न, सुनयना। एक बार फिर हम हाथ में हाथ ले बचपन का गुजरा जमाना ताजा करें। गले से गला मिला बचपन के मधुर गीत एक बार फिर गा लें! न जाने वे आजादियाँ, वे रंगीन घड़ियाँ, वे प्यारी-प्यारी मासूम बातें कब हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएँ।’’ बचपन की याद में ही खोया-सा मैं बोला।
‘‘किशन र्भया!’’ एक ठण्डी आह लेकर उसने कहा—‘‘वे दिन तो अब बीत चुके, भैया!’’
मुझे जैसे बिजली छू गयी। सहसा मुझे विश्वास न हुआ कि हम इतने बड़े हो गये हैं। मैंने अनायास ही झुककर उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी कलाई की लाल-लाल चूड़ियाँ खनखना उठीं। उसके हाथ मेरे काँपते हाथ में काँप रहे थे। सारी देह में एक सिहरन-सी दौड़ गयी थी। एक अजीब तरह की थर्राहट-भरी नजर से उसने मेरी ओर देखकर अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा—‘‘किशन भैया, छोड़ो मेरे हाथ! कहीं कोई देख न ले।’’
मैंने उसका हाथ छोडक़र देखा, उसके गालों पर जैसे लाल-लाल धारियों की जाली बन गयी थी, उसके कान की लवें खून की तरह सुर्ख हो गयी थीं। और उन नीम मासूम आँखों में जैसे कोई भय थर्रा रहा था। तब मुझे लगा कि सुनयना अब वह नन्हीं सुनयना न रही। मैं अपने दिल में एक अजीब-सी गुदगुदाहट लिये वहाँ से हटने को हुआ कि सुनयना ने फिर एक बार मेरी ओर आँखें तिरछीकर देखा। अब की मुझे लगा कि उन नीमबाज आँखों में एक इशारा था, एक सन्देशा था, एक हसरत थी। मैं मन-ही-मन मुस्कराता वहाँ से हट गया।
समय वर्ष पर वर्ष की तह लगाता रहा, लेकिन मेरे हृदय पर जो सुनयना का रूपमय चित्र खिंच गया था, उसे वह धुँधला न कर सका। मैं अब यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी था। जवानी जोश पर थी। आँखों में हमेशा नशा-सा छाया रहता। और उस जोश और नशे की तह में सुनयना की मधुर यादें चुटकियाँ लिया करतीं। मैं स्वप्नों की दुनिया की कल्पना करता, सुनयना सपनों की परी बन मेरी आँखों में उतर आती। मैं दाम्पत्य जीवन की सोचता, सुनयना दुलहन बनी घूँघट की ओट से झाँक जाती। मैं जीवन में प्रेम और सुख खोजता, सुनयना प्रेम की देवी बन अपना रूप माधुर्य लुटाती हुई मेरी आँखों के सामने थिरक उठती। मेरी भावनाएँ सुनयना को केन्द्र बना उसके चारों ओर मँडराया करतीं।
खुदा-खुदा करके गर्मियों की छुट्टियाँ आयीं। अपने हृदय में सुनयना के प्रति कितने ही मीठे अरमान संजोये मैं घर आया। उम्मीद थी कि हमेशा की तरह सुनयना सुबह में अपनी माँ के साथ दूध देने आएगी। रात भर रंगीन सपनों में खोया रहा। सुबह हुई तो धडक़ता हुआ हृदय लिये मैंने अपनी आँखें सुनयना की राह में बिछा दीं। तरह-तरह के मनसूबों के हुजूम में दिमाग उलझ रहा था। एक अजीब-सी घबराहट की हालत तारी रही थी। कभी उठकर कमरे में टहलने लगता, और कभी खिडक़ी के पास जा पुरवे से आने वाली पगडण्डी की ओर देखने लगता।
सहसा नीचे से सुनयना की माँ की आवाज़ आयी। मेरा कलेजा धक से कर गया। कमरे के दरवाजे से आँगन में एक उड़ती हुई दृष्टि फेंकी, तो कोने में सुनयना की माँ उपले तोड़ रही थी। यह क्या? सुनयना की माँ तो कभी यह सब नहीं करती थी, मन में शंका उठी। बरामदे में आकर जो देखा तो सुनयना वहाँ कहीं नहीं थी। मुझे लगा जैसे मेरी आँखों के सामने जगमग-जगमग तारों-भरे आकाश पर अचानक अन्धकार का पर्दा पड़ गया।
सुनयना क्यों नहीं आयी? क्या हो गया उसे? कहीं बीमार तो नहीं पड़ गयी? तरह-तरह के बेचैन करने वाले सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे। सोचा, उसकी माँ से पूछूँ। मगर हिम्मत न हुई। जाने क्या सोचे। एक जवान लडक़ा एक जवान लडक़ी के बारे में किसी से कुछ पूछे, इसका क्या मतलब? मतलब चाहे जो कुछ भी हो, जवानी एक ऐसी चीज़ है, जिसे समाज शंका की नज़र से देखता है। और जब उसे जरा भी सुबहा हो जाता है, तो वह जवानी के विरुद्घ षड्यन्त्र करना शुरू कर देता है। जवानी की कितनी उमंगों, कितनी चाहों, कितनी हसरतों को यह षड्यन्त्र बेदर्दी से पामाल नहीं कर देता!
दूसरी सुबह भी जब अपनी माँ के साथ सुनयना न आयी, तो मैं अत्यधिक व्याकुल हो उठा। अपने को अधिक रोक रखना मेरे लिए असम्भव था। सुनयना से मिलने को मेरा दिल बेहद तड़प रहा था। मैं जानता था कि सुनयना और उसकी माँ के सिवा कोई और उसके घर में नहीं है। उसकी माँ को अभी गाँव में दूध देने में घण्टों लग जाएँगे। सुनयना अपने घर में अकेली होगी। सोचा, तब तक क्यों न मैं ही उसके घर हो आऊँ? यह ख्याल आना ही था कि मैंने चप्पल पहनें, और अम्माँ की निगाह बचाकर घर से बाहर हो गया।
सुबह का सुहावना समय था। पूर्वी क्षितिज के नीचे के सूरज की कोमल किरण निकलकर ऊषा की सिन्दूरी साड़ी पर सुनहरी धारियाँ बन झलमला रही थीं। पुरवा हवा खरमा-खरामा चल रही थी। वृक्षों की नव-पल्लवित शाखाएँ मन्द-मन्द झूम रही थीं। उनके पत्तों के हिलने से ऐसी आवाज़ आती थी, जैसे हवा में कोई नदी कल-कल करती धीरे-धीरे बह रही हो। कभी-कभी दूर से आती हुई कोयल की सुरीली कूक एक दूरागत झंकार की तरह उस सुनहले वातावरण में गूँज उठती थी। मैं कटे खेतों के बीच से बहार का एक गीत गुनगुनाता हुआ चला जा रहा था।
वहाँ पहुँचकर, सुनयना के घर के दरवाजे पर कुण्डी चढ़ी देखकर मैं अचकचा-सा गया। मन सौ मन का एक मन हो गया। दिल की मचलती उमंगें जैसे आहत को फडफ़ड़ा उठीं। तो क्या सुनयना कहीं चली गयी? यह ख्याल आना ही था कि मुझे लगा, जैसे अचानक मैं पहाड़ की चोटी से गहरे खड्ड में गिर गया हूँ। मेरी आँखों में हठात् आँसू आ गये। मेरे सपने एक-एक कर मेरी धुँधली दृष्टि के सामने ही बिखरने लगे।
किशन भैया! सहसा पीछे से एक सुरीली आवाज़ मेरे कानों से आ टकरायी। मुझे लगा कि जिस धारा में मैं डूब रहा था, उसी धारा ने अचानक मुझे एक टीले पर लाकर खड़ा कर दिया। मैंने मशीन की तरह मुडक़र देखा, सुनयना एक हाथ में भीगी साड़ी और दूसरे में कुछ डण्ठल-सहित कमल के फूल लिये मेरे सामने एक वन देवी की तरह खड़ी थी। उसके भीगे बाल कन्धों पर लहरा रहे थे, और उनमें उसका निखरा हुआ चेहरा ऐसा लग रहा था, जैसे बरसती हुई सावन की काली घटाओं में पूर्णिमा का चाँद मुस्करा रहा हो।
‘‘तुम शहर से कब आये, किशन भैया?’’ आँखों में खुशी छलकाती हुई वह बोली। फिर मेरे हाथों में कमल के फूल थमाकर दरवाजे की कुण्डी खोलने लगी।
‘‘मैं तो परसों ही आ गया,’’ कमल के फूलों से खेलते हुए मैंने कहा—दो दिन तक तुम्हारे आने का इन्तजार किया। जब तुम न आयी, तो आज खुद ही ...।
‘‘मुझे क्या मालूम था, भैया!’’ बीच ही में दरवाजा खोलकर वह बोल पड़ी—‘‘अच्छा, आओ! यह भी तो तुम्हारा ही घर है। अच्छा हुआ जो तुम्हीं आ गये। मुझे तो अब माँ कहीं आने जाने नहीं देती। कहो, अच्छे रहे न?’’
घर के अन्दर होते ही उत्तर में मैंने सिर हिला दिया।
आँगन में एक खटोले पर मुझे बैठाकर सुनयना अन्दर के एक कमरे में चली गयी।
थोड़ी देर में वह अपने बाल ठीककर आयी। और एक छिपुली में कुछ मोतीचूर के लड्डू मेरे सामने खटोले पर रखकर तनिक शरमायी हुई बोली—‘‘लो, किशन भैया, मुँह तो मीठा कर लो। ये लड्डू मैंने तुम्हारे लिए चुराकर रखे थे।’’
‘‘अच्छा! तो तुम्हें मालूम था कि मैं आऊँगा?’’ तनिक विस्मय मिश्रित हर्ष से मैंने कहा।
‘‘अगर तुम न भी आते, तो मैं एक-न-एक दिन तुम्हें इन लड्डुओं को खिलाने जरूर आती।’’ कुछ खोयी-सी बोली वह!
‘‘तो खिलाओ न!’’ मैं तनिक मुस्कराते हुए उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा। मुझे लगा कि उसकी आँखों की पलकें जैसे मुँद रही हैं, और वह उन्हें बरबस खोले रहने का प्रयत्न कर रही है।
‘‘सुनयना!’’ अबस बोल पड़ा मैं।
सुनयना ने धीरे से हाथ बढ़ा, एक लड्डू उठाकर मेरे मुँह की ओर बढ़ाया। उसके हाथ जैसे काँप गये। जल्दी में ही उसने लड्डू मेरे मुँह में डाल हाथ खींच लिया, और झटके से मुँह दूसरी ओर फेर लिया, जैसे दिल पर बहुत जोर देकर उसने यह सब किया हो।
‘‘सुनयना’’ मैं आवेश में उसका हाथ पकड़ बोल पड़ा। मुँह में लड्डू जैसे पत्थर के टुकड़े की तरह गड़ रहा था।
सुनयना ने ... धीरे से अपना मुँह मेरी ओर किया। मैंने देखा, उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू बह कर गालो पर ढुलक रहे थे।
‘‘सुनयना’’! उठकर, उसकी आँखें अपने हाथ से पोंछकर रुँधे स्वर में मैं बोला—‘‘यह क्या?’’
‘‘कुछ नहीं भैया! खाओ, तुम!’’ सुनयना का आर्द्र स्वर काँप रहा था।
‘‘इस तरह मुझसे खाया न जाएगा, तुमने इसे व्यर्थ ही मेरे मुँह में डाल दिया। मैं इसे ... ’’ थूकने के लिए मैंने मुँह नीचे किया कि सुनयना काँपती हुई बोल पड़ी—‘‘नहीं-नहीं, भैया, ऐसा न करो! यह मेरी मँगनी की मिठाई है, मेरे सुहाग ... ’’ वाक्य पूरा किये बिना ही वह मेरे मुँह पर अपना हाथ रखकर फफक पड़ी। मेरे दिल की धडक़न जैसे एक क्षण को रुक गयी। निर्जीव-सा हो, शून्य में अपनी फैली आँखें टिकाये वहीं बैठ गया।
सुनयना मेरे मुँह पर हाथ रखे हुए ही फिर बोली—‘‘खा जाओ इसे, भैया।’’
मेरी अटकी पलकें धीरे से सुनयना की ओर मुड़ीं। उसकी आँखों से आँसू की धारें अविरल गति से बह रही थीं। होंठ फडक़ रहे थे। सारा शरीर काँप रहा था। मेरी आँखें तिलमिला गयीं। मुझे लगा, जैसे मैं किसी बवण्डर में पड़ गया हूँ, और पवन-चक्र के साथ जैसे मेरा सारा शरीर हवा में चक्कर लगा रहा है।
सुनयना ने मेरा कन्धा पकडक़र ज़ोर से झकझोरा। मैं जैसे फिर धरती पर आ गया। कान में अब भी कुछ सनसना रहा था। दिमाग और आँखों के चारों ओर अन्धकार का गोला कुम्हार के चक्र-की तरह घूम रहा था।
‘‘किशन भैया!’’ सुनयना की विह्वल वाणी मेरे कानों से टकरायी। अपने जंघे पर किसी कोमल चीज का दबाव-सा मैंने अनुभव किया। हाथ बढ़ाया, तो सुनयना के रेशमी बालों का स्पर्श हुआ। एक सिहरन-सी मेरे सारे शरीर में व्याप्त हो गयी। जाने कैसी भावना की लहर मेरे दिल में लहरा गयी। आँखें खोली, तो देखा सुनयना मेरे जानूँ पर सिर रखे सिसक रही थी। मुझे लगा, जैसे कोई अदृश्य हाथ मेरी ही आँखों के सामने उसकी माँग में सिन्दूर की लकीर खींच रहा है। मुझ पर एक पागलपन-सा तारी होने लगा। मेरे हृदय में अब ईष्र्या की आग-सी भडक़ गयी। मैंने एक ओर मुँह में धुले हुए लड्डू को जोर से थूक दिया। सुनयना ने सिर उठाकर देखा। उसकी बरसती हुई आँखों से चमकती हुई एक दृष्टि निकली, जैसे बरसती हुई घटा में बिजली कौंध गयी हो।
मैंने अपने दोनों हाथों में सुनयना का मुँह मजबूती से ले अपनी ओर घुमाया। उसकी आँखों में जैसे शोला लपलपा रहा था। उसके नथुने जैसे काँप रहे थे। लेकिन मैं तो जैसे और दुनिया में था। मेरे हृदय में ईष्र्या की जलन और तेज हो रही थी। मेरी साँसें गरम हो टूटने लगीं। पिण्डलियों में एक थर्राहट-सी हुई। मैंने अपना सिर झुकाकर उसके मुँह को अपने मुँह की ओर खींचा कि वह हिरनी की तरह उछलकर अपनी आँखों से आग बरसाती मुझसे दूर जा खड़ी हुई। मैं आवेश में ही उसकी ओर लपका कि उसने दाँत पीसकर कहा—‘‘किशन!’’
मेरे पैर जैसे धरती से सट गये।
‘‘तुम यहाँ से चले जाओ। तुम्हारी आँखों में ... ’’ कहकर उसने अपनी आँखों पर हाथ रखे कमरे में जा दरवाजों को अन्दर से बन्द कर लिया।
मेरी आँखों के सामने जैसे चौहदों तबक रोशन हो गये। लगा, जैसे धरती फट रही है, और मैं उसमें घुसा जा रहा हूँ। ऊफ! यह मैं क्या करने जा रहा था? मेरे ललाट से पसीने की धारे बह चलीं। ...’’
‘‘देखिए वहाँ जो रोशनी दिखाई दे रही है न, वहीं मेरी झोंपड़ी है,’’ युवक ने मेरी ओर मुडक़र कहा।
मैं जैसे एक भयंकर सपने से उचक-सा गया। मेरा सारा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। मैंने उँगलियों से ललाट का पसीना पोंछा।
‘‘हवा बिलकुल बन्द हो गयी है। मालूम होता है कि फिर आँधी आएगी,’’—युवक ने कहा।
‘‘हाँ, बड़ी उमस है! मारे पसीने के जान निकल रही है,’’ मैंने बाहों का पसीना पोंछते हुए कहा। और फिर अतीत में डूब गया ...
इस घटना ने मेरे जीवन में अपने ही प्रति एक विचित्र-सा विक्षोभ भर दिया। अब मेरे जीवन में जो एक कभी अन्त न होने वाली भटकन आ गयी है उसकी प्रेरणा इसी विक्षोभ से मुझे अनजाने रूप में मिली थी। यह विक्षोभ मेरे जीवन की सारी कोमल भावनाओं, प्रेम, सौन्दर्य तथा सुख की कल्पनाओं को जैसे अपने में आत्मसात कर गया।
एक साल और बीत गया।
अभी तक मैं अपने विवाह की बात टालता आ रहा था। मेरे बी.ए. पास करते ही अम्माँ की जिद बढ़ गयी। मेरे लिए विवाह में अब कोई आकर्षण नहीं रह गया था। पर अम्माँ का मन तोडऩे की शक्ति मुझमें नहीं थी। उन्हें घर बसाने के लिए एक बहू चाहिए थी। मेरा दिल तो जैसे हमेशा के लिए वीरान हो चुका था। उसे फिर कोई बसा सकेगा, इसकी कल्पना तक मेरे दिमाग में न आती। फिर किसी के भी बहू बनकर अम्माँ के घर में आने से मुझे क्या दिलचस्पी या गुरेज होती।
आखिर एक दिन प्रेमा दुलहन बनकर हिना की खुशबू बिखेरती हुई मेरे घर में आ गयी। अम्माँ की खुशी का ठिकाना न रहा चाँद-सी बहू पाकर। प्रेमा के रूप-लावण्य ने घर के अँधेरे कोनों में चाँदनी की सुषमा बिखेर दी। उसके नूपुरों की रुनझुन से घर का सूना वातावरण संगीतमय हो उठा। अम्माँ के अरमान पूरे हुए। मगर प्रेमा की मद-भरी आँखें मेरी सूखी आँखों में शराब न उँड़ेल सकीं, उसकी मृदु मुस्कान मेरे भावना शून्य हृदय में बिजली बनकर न उतर सकी।
अगले साल मेरी एम.ए. की पढ़ाई शुरू हुई। इसी समय शेखर से मेरी जान-पहचान हुई। वह साहसिकता, शौर्य और जाँबाजी की अद्भुत कहानियाँ मुझे सुनाता। मुझे उसकी बातों में बड़ा मजा आता। घण्टों हम एक साथ बैठकर राजनीति पर बातें करते, और देश के दुर्दिन पर आठ-आठ आँसू रोते। शेखर के हृदय में देश-सेवा की सच्ची लगन थी। वह देश को आजाद देखना चाहता था। गरीबों को खुशहाल देखना चाहता था। उसकी हर बात दिल की इतनी गहराई से निकलती थी कि उसमें जादू का असर होता था। उसके कहने का ढंग इतना मार्मिक होता था कि उसकी बातें मेरे दिल व दिमाग पर छा जातीं, और सहसा कुछ कर गुजरने की एक तीव्र भावना मन में जाग्रत हो उठती थी। मुझे अब जीवन का मोह नहीं था। साधारण जीवन के सुख की आकांक्षा न थी। एक अन्तर की प्रेरणा मुझे शेखर की ओर खींचने लगी। मेरी आँखों में भी जीवन-उत्कर्ष के सपने पलने लगे। हृदय में देश-सेवा की उमंगे जोर मारने लगीं। आखिर एक दिन मैंने शेखर का हाथ पकडक़र कहा—‘‘शेखर, मुझे तुम्हारी राह पसन्द है। तुम कोई योजना बनाओ। मैं जीवन-पर्यन्त तुम्हारा साथ दूँगा।’’
मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। फिर बोला—‘‘किशन, अग्नि-पथ पर कदम रखने के पहले अपने को अच्छी तरह तौल लो। ऐसा न हो कि क्रान्ति की ज्वालाओं को देखकर तुम्हारा हृदय काँप जाय, और कदम लडख़ड़ाने लगें।’’
उसकी मुस्कान में मेरे यौवन के प्रति अवहेलना का भाव न था, बल्कि उसकी अपनी सफलता का अव्यक्त उल्लास था। मैं ताड़ गया। उसके कन्धों को हाथों से पकडक़र मैं बोला—‘‘शेखर, मुझ पर विश्वास करो। मैं जवानी के नाम पर कलंक न लगने दूँगा। मुस्कराते हुए ज्वालाओं का आलिंगन करूँगा।’’
उसने मेरी बात सुनकर हँसते हुए मेरी पीठ थपथपायी। फिर कहा—‘‘अच्छा, आज यूनिवर्सिटी के बाद मेरे साथ चलना।’’
उसी शाम को उसके दल के नायक के साथ एक घने जंगल में मेरा परिचय हुआ। प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद और साथियों के साथ मेरी भी प्रारम्भिक तैयारी की शिक्षा शुरू हुई। साहसिकता के कार्यों, खतरे के प्रयोगों और जवानी के खेलों ने शरीर में असीम शक्ति, हृदय में अदम्य उत्साह और जवानी में बला का जोश भर दिया। जीवन में महान आकांक्षाओं का स्रोत फूट पड़ा। नेत्रों में शूरता का खून उतर आया। उमंगों से अंग-अंग फडक़ने लगे।
आखिर पूरे एक साल के बाद दीक्षा का समय आया। जीवन से जूझने वाले को परीक्षा का भय कैसा! बाँध तोडक़र आगे प्रलयंकर वेग दिखाने के लिए धारा मचल रही थी। यूनिवर्सिटी से अलग हुआ। अम्माँ और प्रेमा का सम्बन्ध-सूत्र सदा के लिए कट गया। उसी रात अलग-अलग हमारा दीक्षासंस्कार होने वाला था। मैं नायक के शिविर में अकेले भेजा गया। नायक की आँखों में स्थिर दृढ़ता और चेहरे पर गम्भीर मुस्कान उसके पास खड़ी मशाल की रोशनी में चमक रही थी। उसने बैठे ही मेरी ओर रोबीली दृष्टि से देखा। मेरा सीना तन गया। उसने दृढ़ स्वर में कहा—‘‘युवक, दीक्षा के लिए तैयार हो?’’
मैंने मजबूत लहजे में कहा—‘‘हाँ।’’
वह बिजली की तरह तड़पकर उठा, और हाथ में मशाल ले मेरी ओर बढ़ाकर बोला—‘‘अपना बाँया हाथ मशाल की ज्वाला में घुसेड़ दो।’’
मैंने इंकलाब का नारा लगाया। और तलवार की तरह अपना बाँया हाथ मशाल की लपटों में घुसेडक़र अडिग खड़ा हो गया। कलेजे की मजबूती के सामने आग पानी बन गयी।
एक मिनट के बाद नायक ने मशाल हटाया। मेरी बाँह वैसे ही तनी रही। शरीर वैसे ही अचल रहा। आँखें वैसे ही उठी रहीं।
‘‘शाबाश!’’ कहकर नायक ने अपनी बगल से पिस्तौल निकाला और इंकलाब का नारा लगाकर हवा में फायर किया।
मैंने सिर की एक जुम्बिश से उसका अभिवादन किया। उसने पिस्तौल मेरे कन्धे से लटकाकर मुस्कराते हुए मुझसे हाथ मिलाया। ...
मेरा पैर छपाक् से पानी में पड़ गया। युवक मुडक़र, मेरा बायाँ हाथ पकडक़र बोला—‘‘देखिए, गड्ढे में पानी भरा है। अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं देता। जरा इधर से मुडक़र आइए। अब थोड़ी दूर और चलना है।’’
‘‘अच्छा!’’ जैसे नशे में एक क्षण को होश में आकर पानी से पैर निकालते हुए मैंने कहा, और फिर नशे ही में डूब गया। तीन साल तक खून और आग से खेले हुए भयंकर खेल, आँधी और तूफान की खतरनाक जिन्दगी, जोखिमों और आपत्तियों की हृदय हिला देने वाली घटनाएँ मेरे स्मृति-पट पर तारों की तरह जगमग-जगमग करने लगीं। हमारे फौलादी कदम जिधर भी उठ जाते, जमीन थर्रा उठती। हमारी लाल आँखें जिधर भी चमक जातीं, कहर बपरा हो जाता। हमारे साथ आग की लपटें चलती थीं, प्रलय का विध्वंस चलता था, बज्र का जय-घोष होता था। इलाके की सरकार हमसे काँपती थी। गरीब खुश थे। अमीरों की जान पर बन आयी थी। लूट और हत्या हमारा पेशा था। प्रेम और दया का हमारे लिए कोई अर्थ न था।
किन्तु उस दीर्घ, साहसिक और भयंकर जीवन-रात्रि में भी एक तारा सदा मेरी आँखों के सामने चमका करता था। उससे मैं लाख आँखें बन्द करता, पर उस तारे की चमक मेरी आँखों के सामने से न हटती। वह तारा सुनयना थी। उसे मैं कभी भूल न सका।
एक रात की बात है। हम एक लम्बा हाथ मारकर अलग-अलग रास्तों से अपने गुप्त स्थान पर वापस लौटे। सब तो आ गये, किन्तु नायक का अब तक पता न था। यह एक असाधारण बात थी, क्योंकि हमेशा वह सबसे पहले ही नियत स्थान पर पहुँच जाता था। हमने कुछ देर तक और इन्तजार किया। सुबह तक जब वह वापस न आया, तो हमारा माथा ठनका। हमारा उपनायक गुप्त रूप से नायक का पता लगाने शहर गया। उसके लौटने पर पता चला कि नायक अचानक रात को ही गिरफ्तार हो गया है, और सी.आई.डी. तथा पुलिस हमारे फिराक में भी सरगर्मी से काम कर रही है। हमने आदेश के लिए उपनायक की ओर देखा। उसने कुछ सोच-विचार के बाद छ: महीने के लिए हमें तितर-बितर होकर गुप्त रूप से जीवन व्यतीत करने की आज्ञा दी। फिर मिलने के लिए एक स्थान और समय नियतकर हम अलग-अलग हो गये।
छ: महीने बाद जब हम मिले, तो हमारे एक साथी ने बताया कि हमारे उपनायक के साथ-साथ हमारे तीन और साथी भी गिरफ्तार हो चुके हैं। अब क्या हो? हमने बहुत सोच-विचार के बाद फिलहाल कोई कार्यक्रम बनाना उचित न समझकर दल के कार्यों को स्थगित कर देना ही ठीक समझा।
जीवन-धारा जैसे एक बहुत मजबूत चट्टान से टकराकर पीछे को मुड़ी। अम्माँ की याद आयी। बेचारी प्रेमा का ख्याल आया। ...
‘‘ज़रा झुक जाइए। दरवाजा बहुत छोटा है।’’ अपने घर के दरवाजे पर ठिठककर युवक ने कहा।
‘‘हाँ मैं देख रहा हूँ।’’ वर्तमान में आकर मैंने कहा—‘‘तुम चलो।’’
क्षणों के अन्दर सुनयना मेरे सामने होगी, यह सोचकर जैसे मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गयी। किन्तु इस वेश में नयना क्या मुझे पहिचान सकेगी?
युवक के पीछे-पीछे मैं घर में दाखिल हुआ। सुनयना बड़ी बेचैनी के साथ युवक की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे देखते ही वह उससे कितने ही सवाल एक साथ पूछ बैठी। उन सवालों में सुनयना के प्रेममय पत्नीत्व का जो रूप मेरी आँखों के सामने डोल गया, उससे मैं क्षण भर को विचलित-सा हो गया। मैंने सोचा था, सुनयना अपने मन का पति न पाकर दुखमय जीवन काट रही होगी। उसके यौवन और सौन्दर्य पर एक गहरी विषाद की छाया पड़ी रही होगी। उसके स्वस्थ शरीर हृदय की व्यथा से घुल गया होगा। किन्तु ऐसी कोई बात न थी। इस सुनयना और पाँच साल पहले की सुनयना में यदि कोई अन्तर था, तो यह कि अब वह कुछ मोटी हो गयी थी, और उसके अल्हड़पन का स्थान शील और घर के उत्तर-दायित्व ने ले लिया था। मैंने एक सन्तोष की साँस ली।
थोड़े से शब्दों में ही युवक ने सुनयना के सारे प्रश्नों की बड़ी खूबी के साथ समाधान कर दिया। जहाँ प्रेम और विश्वास की छाया में जीवन बीतता है, वहाँ सन्देह और कटुता का अंकुर कैसे फूट सकता है? सुनयना खुश-खुश पास से एक लोटा उठा पानी लाने को मुड़ी कि युवक ने मेरी ओर घूमकर उससे कहा—मेरे साथ एक मेहमान भी हैं।
नयना अचकचाकर मेरी ओर देखते हुए सिर का आँचल ठीक करने लगी। मैंने आँखें नीचे कर लीं। आज मैं सुनयना के सामने पर पुरुष था। वे दिन क्या अब उसे याद होंगे, जब मुझे अकेले में देखकर उसे अपने आँचल के सरकने तक की सुधि न रहती थी। मेरे मन में पुरानी बातों को यादकर एक व्यथा-सी उभर आयी।
दोनों ने यथा-शक्ति हर तरह से मेरा सम्मान किया। मैं दूसरे दिन सुबह ही चला जाने वाला था, पर सुनयना की मीठी बातों में जो एक अव्यक्त आनन्द का अनुभव कर रहा था। उसके कारण युवक से एक-आध बार अपने जाने की बात कहकर भी उसके रोकने पर दूसरे दिन रुक गया। मैं खुश था कि सुनयना मुझे पहिचान न सकी।
आज इनके यहाँ मेरी तीसरी शाम थी। आज हमारा भोजन परसते समय सुनयना अधिक खुश मालूम पड़ती थी। उसकी आँखों की चमक में उसके हृदय का कोई छिपा हुआ उल्लास जैसे रह-रहकर फूट पड़ता था। मैंने सोचा, कई दिन हो जाने से अब सुनयना की झिझक कम हो गयी है।
भोजन करके युवक के साथ ही मैं भी उठ पड़ा। युवक हाथ-मुँह धोकर एक ओर खड़ा हो गया। सुनयना ने मुझे लोटे का पानी देकर युवक की गोद में मुन्ना को देते हुए न जाने क्या फुसफुसाया। युवक मुन्ना को गोद में लिये मुस्कराता हुआ बाहर चला गया। सुनयना मेरे पास आ खड़ी हो गयी। मैंने जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोकर लोटा सुनयना की ओर बढ़ा बाहर जाने को पग बढ़ाया कि सुनयना बोल पड़ी—‘‘किशन भैया।’’
मेरे हाथ से लोटा छूटकर धरती पर गिर पड़ा—मेरी हालत ठीक वही हुई जो कि पर्दानशीन युवती की सडक़ पर चलते वक्त अचानक खुलकर सर से बुरका गिर जाने पर होती है। मैं बँगले झाँकने लगा।
‘‘यह क्या भेष बना रखा है तुमने? मेरा हाथ पकडक़र सुनयना बोली—सोचा होगा सुनयना पहचान न सकेगी। है न?’’
मेरे सारे शरीर में एक कँपकँपी-सी व्याप्त हो रही थी। यह वही शरीर था, जिसकी भुजाएँ लोहा, वक्षस्थल चट्टान, क्रोध आग की लपट, जो सरापा एक कहर था।
उसने मेरा हाथ खींचकर कहा, ‘‘आओ, तनिक बैठो।’’
मैंने खटोले की ओर पाँव बढ़ाते समय एक नजर बाहर दरवाजे की ओर फेंकी।
‘‘उधर क्या देख रहे हो? अरे, हाँ, तुमने उनसे क्यों अपने बारे में कुछ बताने को मना कर दिया था?’’
मैं कुछ स्वस्थ हो खटोले पर बैठ गया। सुनयना मेरे पाँवों के पास धरती पर बैठकर बोली—‘‘भैया, कहाँ रहे इतने दिनों तक? भला कोई अपने लोगों को भी यों भुला बैठता है। अपने ब्याह के पाँच साल बाद किसी तरह उनसे कह सुनकर मैं अपने माँ के घर गयी थी। क्या करती, वह एक पल को भी मुझसे अलग होने को तैयार ही नहीं होते थे। वह तो माँ के बीमार होने का समाचार आया, तब उन्होंने जाने दिया। वहाँ जाने पर माँ से पता लगा कि तुम अपने ब्याह के बाद शहर पढऩे गये। फिर तुम्हारी कोई खबर तब से न मिली। तुम्हारी अम्माँ ने कई बार शहर में आदमी भी भेजे मगर तुम्हारा पता कहीं भी न लगा। आखिर उन्होंने अपना सिर पीट लिया। बेचारी भाभी रोते-रोते निढाल हो गयीं। मुझे यह सब जानकर बड़ा दुख हुआ। माँ से कहकर मैं तुम्हारे यहाँ गयी। वहाँ पूरे घर में मातम का सन्नाटा-सा छाया था। तुम्हारी अम्माँ तो जैसे तुम्हारे वियोग में दीवानी हो गयी थीं। रह-रहकर ‘‘किशन-किशन’’ कहकर वह चिल्ला पड़ती थीं। कभी-कभी भाभी को सामने देख उसे अपनी गोद में समेट, उसके सिर पर अपना मुँह रख, घण्टों सिसक-सिसककर रोती रहती थीं। कभी तुम्हारे कमरे में जाकर तुम्हारे छोड़े हुए कपड़ों और जूतों को बार-बार छाती से लगा, बिलख-बिलख पड़ती थीं। मुझसे उनका हाल ... ’’ कहते-कहते सुनयना सिसक पड़ी।
मेरे कलेजे में जैसे कुछ चुभने-सा लगा। मेरे मस्तिष्क में अम्माँ की करुण पुकार गूँजने लगी। मेरी आँखों से उनके प्यार की स्मृतियाँ आँसू की धारें बन बरस पड़ी।
‘‘किशन भैया, तुम इतने निर्मोही कैसे हो गये? तुम तो ऐसे न थे। आँचल से अपनी आँखें पोंछकर सुनयना बोली—‘‘भाभी तुम्हारे वियोग में जैसे निर्जीव पत्थर की मूरत बन गयी हैं। न बोलना, न हँसना, चुपचाप न जाने शून्य में क्या देखा करती हैं। रात-रात भर दिया जलाये तुम्हारी राह में अपनी आँखें फाड़-फाडक़र देखने लगती हैं। कुछ न देख फिर जैसे समाधि लगाकर बैठ जाती हैं। विरह की आग में उनकी जलती हुई जवानी, जैसे बसन्त के उपवन में आग की वर्षा हो रही हो, नहीं देखी जाती, भैया।’’ ... कहकर सुनयना अपनी दोनों आँखों को हाथों से ढँकती फफक पड़ी।
मुझे लगा, जैसे निरीह गुलाब की कली-सी प्रेमा अनजाने में मेरे फौलादी हाथों में पडक़र मसल गयी हो। शादी के दिनों की भोली-भाली, मुस्कराती प्रेमा जैसे अपनी आँखों में असीम व्यथा के अश्रु भरे मेरे सामने खड़ी हो कह रही हो—‘‘बेदर्द, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, जो मेरी उठती जवानी को एक बार छेडक़र जीवन भर बेदर्दी से तड़पने को छोड़ दिया? मेरा हृदय उसकी व्यथा की कल्पना-मात्र से काँप गया। मैंने उठते हुए भर्राए स्वर में कहा—‘‘अच्छा, सुनयना, अब मैं जा रहा हूँ। जाते-जाते मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे उस दिन के पागलपन को दिल से निकालकर मुझे माफ कर देना। शायद यह हमारी-तुम्हारी आखिरी मुलाकात है।’’
सुनयना ने लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया। फिर वह भीगे स्वर में बोली—‘‘किशन भैया, तुम्हें मालूम नहीं कि उस दिन तुम्हारे चले जाने पर मैं कितनी रोयी और तड़पी थी। मेरे दिल में एक कसक अब तक बनी हुई है कि उस दिन अगर मैंने उस तरह तुम्हारा दिल न तोड़ा होता, तो आज तुम्हारी अम्माँ का बिलखना, भाभी का इस तरह तड़पना, और तुम्हारे जीवन में यह भटकन तो न देखनी पड़ती। लेकिन मैं उस वक्त विवश थी, किशन! मेरा शरीर मेरे पास दूसरे की अमानत के रूप में था। उस पर मेरा अधिकार नहीं रह गया था। नहीं तो जिसकी मोहिनी सूरत मैंने बचपन से अपने हृदय में बसा रखी थी, उसके चरणों पर इस शरीर का उत्सर्ग होना क्या मेरे लिए सौभाग्य की बात न होती? किन्तु अब उन बातों को सोचने से क्या फायदा? आज मैं दूसरे की हूँ, और तुम देख रहे हो कि खुश भी हूँ। मैं जानती हूँ कि यह खुशी मेरे जीवन की सबसे बड़ी छलना है, फिर भी उनके भोले प्रेम की अवहेलना करने की मुझमें शक्ति नहीं है। भैया, क्या मेरी ही तरह तुम भाभी के साथ खुश नहीं रह सकते? मैं जानती थी कि तुम एक-न-एक दिन मेरे यहाँ अवश्य आओगे। मन-ही-मन मैंने प्रतिज्ञा भी की थी कि उस दिन तुम मुझसे जो भी चाहोगे; मैं दूँगी; तुम्हारे टूटे दिल को जैसे भी हो सकेगा, जोडऩे का प्रयत्न करूँगी। फिर आँचल पसारकर तुमसे भाभी के उजड़े दिल की बस्ती बसाने की भीख माँगूगी। किशन भैया, आज वह सुनयना का शरीर भी तुम्हारे चरणों पर है। भले ही आज उनकी अमानत लुट जाय, मेरे जीवन की पवित्रता पर कलंक लग जाय, किन्तु अब मैं तुम्हें यों दर-दर भटकने न दूँगी।’’ कहकर सुनयना गिड़गिड़ाती हुई मेरे पैरों पर गिर पड़ी।
मेरी आँखों के सामने जैसे एक स्वप्न-आलोक खुल गया। वर्षों के सूने हृदय में जैसे सहसा भौरों की गुँजार भर गयी। जीवन आप में ही पूर्ण-सा हो उठा। झुककर हाथों से सुनयना को उठाकर श्रद्धा-भरे स्वर में मैंने कहा—‘‘सुनयना, तुम्हारे इस त्यागमय समर्पण में आज मुझे सब कुछ मिल गया। हृदय की जिस काँटे की चुभन को मैं अपने को ज्वाला में झोंककर भी न मिटा सका, आज उसे तुमने अपने हृदय के सच्चे स्नेह से सहलाकर सदा के लिए दूर कर दिया। मुझ अन्धे की आँखों में आज तुमने जो ज्योति भर दी है, उससे मेरा जीवन-पथ सदा आलोकित रहेगा। तुम खुश रहो। अम्माँ को उसका बिछुड़ा लाल मिल जाएगा, प्रेमा का उजड़ा संसार बस जाएगा।’’ कहकर मैंने पैर उठाया।
‘‘किशन भैया, आज मैं अपनी जिन्दगी में पहिली बार इतनी खुश हूँ।’’ कहते हुए विह्वल-सी सुनयना मुझसे लिपट गयी। उसकी आँखों से हर्ष के आँसू बह चले।
‘‘पगली! छोड़ेगी भी मुझे।’’ कहकर मैंने उसके गालों को फूल के हाथ से थपथपा दिया।
उसने अलग होकर कहा—‘‘तो कब जा रहे हो घर?’’
‘‘अभी, इसी वक्त।’’
‘‘इसी भेष में? मैं तुम्हें यों न जाने दूँगी। मेरी नन्हीं-सी भाभी तुम्हें इस भेष में देखकर डर जाएगी। आज रात भर आराम कर लो, कल तुम्हें दूल्हा बनाकर भाभी के यहाँ उनके साथ भेज दूँगी। आओ, चलो।’’ उसने मेरा हाथ पकडक़र खींचते हुए कहा।
उसके पीछे-पीछे मैं मर्दानी झोंपड़ी में आया। युवक सोये मुन्ना को गोद में लहराते हुए सुनयना की ओर मुस्कराकर देखते बोला—‘‘क्यों, मना लायी रूठे भैया को?’’
‘‘और नहीं तो क्या? मेरा भैया तुम-सा बुरा थोड़े ही है, जो मेरा कहना न मानता। अच्छा, सो रहो अब कल जाना है तुम्हें अपनी बहन के यहाँ।’’
सुनकर खिलखिलाकर हँस पड़ा युवक मुन्ना को चटाई पर सुलाते।
सुनयना चली गयी। दिन भर का मिहनत का मारा युवक मुन्ना को गोद में दुबकाये मिनटों में ही गहरी निद्रा में डूब गया। पर मेरी आँखें वर्षों तक अन्धकार के खोहों में मँडराने के बाद जिस जीवन-आलोक में खुल गयी थीं, अब एक क्षण को भी बन्द न होना चाहती थीं। मैं सोच रहा था कि मेरे जीवन की भटकन में भी एक बलवती प्रेरणा थी, जिसने आखिर मुझे मंजिल तक पहुँचा दिया, जहाँ विरहिणी, प्रेमा, जिसके जीवन की हर घड़ी इन्तजार की घड़ी होगी दीप जलाये बैठी हुई, उसकी शिखा में मेरी तस्वीर देखती, मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी, और शायद कह रही होगी ...
‘‘निर्दयी प्रीतम!’’ तुम हो कि आते ही नहीं। रात भर मेरा दीया जलता रहता है। कितनी ही बत्तियाँ मैं तैयार कर रखती हूँ। एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, एक-एक कर न जाने कितनी बत्तियाँ जल जाती हैं। फिर भी तुम नहीं आते। निर्दयी प्रीतम!