मंजू माँ / मौसमी चन्द्रा
डोरबेल बजाने के साथ दरवाजा भी थपथपाया जा रहा था। मैं समझ गयी हमारी मेड होगी। इतनी जल्दबाजी उसे ही रहती है फिर भी आदतन मैंने होल से झांका तो वही खड़ी दिखाई दी।
मुझे हँसी आयी उसका पका चेहरा देखकर!
दरवाजा खोलते ही उसका जोरदार प्रश्न-
"हेतना देरी काहे लगा देहलू?"
"सो रही थी"-मैंने कहा और पेपर उठाकर पन्ने पलटने लगी
उसने मुझे (शायद घूरकर) देखा और बोली—
"हेतना देरी तक सुत्तल रहबू, त कब रोटी पकईबू...कब बच्चन सब खईहें...कब पूजा करबू...कब नहईबू!"
"सब हो जाएगा टाइम से...आप काम कीजिये न जाकर" -मैंने सिर झुकाए-झुकाए ही कहा और पेपर पढ़ने लगी।
इस बार मैंने उसका चेहरा नहीं देखा। ये पूरा एकता कपूर के सीरियल से निकल कर आई है, हर 2 मिनट पर फेसिअल एक्सप्रेशन चेंज होतें हैं इसके।
वो किचन गयी तो मैने राहत की सांस ली।
थोड़ी देर में आवाज़ आयी—
"चाय पिलईबू!"
"ऐसे बनाओ तो पीती नही! आज फरमाइश!"
मैं बुदबुद करके रह गयी।
"बनाती हूँ"
चाय उसके कप में डालने लगी तो बोली—
"हमरे कपे में कम्मे डलिहा..."
"इतना कम! पीना नहीं होता तो बोली क्यों...चाय पिलईबू!"
मैंने उसकी नकल उतारी तो वह दुलार से हंसकर बोली-
"तोहरे खातिर! न त तू पेपरे में घुसल रहबू।"
मैं भी हंस पड़ी। सही भी कह रही ये मुझे उठते के साथ चाय चाहिए लेकिन पेपर मिल जाये तो पहले बैठ जाती हूँ पढ़ने।
मैं कप लेकर बैठी।
उसके झाड़ू लगाने के पहले थोड़ी डस्टिंग करती हूँ। बनारस में ये नया देख रही, कामवाली सिर्फ एक बार झाड़ू लगाती है जबकि हमारे बिहार में दोनों वक़्त। हाल ही में बिहार छूटा था, रह-रहकर याद आता और जो रत्ती भर की भी कमी दिखती तो मेरा बिहार प्रेम जोर मारने लगता।
एक ठंडी सांस लेकर मैं उठी और चादरें झाड़ने लगी। तभी मोबाइल बजा!
कॉल छोटा था पर फोन हाथ में आते ही वाट्सअप, फेसबुक, इंस्टा, ट्वीटर न खोलो तो लानत है बुद्धिजीवी होने पर।
तब तक रानी जी झाड़ू लेकर कमरे में आई।
"ले लेलू टुनटुनिया हाथ में!"
कसम से उस वक़्त मुझे मेरे होस्टल की वॉर्डन याद आ गयी। मैंने बेचारगी से उसकी तरफ देखकर फोन साइड में रख दिया। फिर लग गयी दैनिक कार्य निपटाने।
धीरे-धीरे हर दिन का यही रूटीन होने लगा। वह आती और फिर उसके काम के साथ ही मेरा काम भी शुरू हो जाता।
मैंने नोटिस किया सुबह की दिनचर्या ठीक होने से मेरे पास काफी वक्त बचने लगा। अब मैं दिनभर अपने लेखन, पढ़ाई और बच्चों को समय देने लगी।
मेरी हमेशा से आदत रही मैंने अपने से बड़ी मेड को कभी नाम लेकर नहीं बुलाया, हमेशा एक सम्बोधन दिया। कभी चाची, कभी दीदी! पर पुराने शहर की एक कामवाली ने मेरी दरियादिली पर ऐसा रायता फैलाया कि तंग आकर मैंने ठान लिया था अब कभी इन्हें ज्यादा सिर नहीं चढ़ाऊंगी। समझ नहीं आ रहा था इसे क्या कहकर बुलाऊँ। बड़ी थी तो नाम लेना असभ्य-सा लगता, कोई सम्बोधन देने का मन भी नहीं होता। सामने से आप कहकर बोल देती और पीठ पीछे रानी, महारानी, डेली सोप क्वीन इसी से काम चला लेती।
अब तक मुझे यहीं लगता था कि सारे अच्छे लोग बिहार में ही बसते हैं, दिल के साफ...भोले-भाले मासूम से!
बाकी स्टेट में तो प्रैक्टिकल लोग ही बसते हैं। यूज एंड थ्रो टाइप! गलत थी मैं!
यहाँ आये 10 दिन भी नहीं हुए थे कि मैंने देर से आने पर फटाकदेनी से एक मेड हटा भी दी। कोई समझौता नहीं चलेगा।
गार्ड से कहा और उसने दूसरी का इंतज़ाम भी कर दिया जो कामवाली कम और वार्डेन ज्यादा थी। हसबैंड ने कड़े शब्दों में कह दिया था इस बार जरा-सी बात पर मत हटा देना नहीं तो...
ये लास्ट के "नहीं तो" में पता नहीं क्या था मैंने सोचा कर लूँगी थोडा कोम्प्रोमाईज़।
कोम्प्रोमाईज़ का सोचना और इधर इसका आना!
काम बहुत साफ करती थी, मन लगाकर। मैं सोचती बर्तन धुलने में मेरी नानी याद आती है और ये कैसे गुनगुनाते हुए काम करती रहती है। पूरे हाथ में कांच की चूड़ियाँ पहने, सलीके से साड़ी बाँधे, बड़ा-सा बालों का जूड़ा और मांग में चमकता सिंदूर। बड़ा अच्छा लगता मुझे उसका साज सिंगार! एक बार मैने तारीफ की तो मुझसे बोली—
"तू काहे नाहीं पहिनेलू भर हाथ चूड़ी! कान गल्ला सब खाली! ऊपर से लईकन वाला कपड़ा! अइसन भेषभूषा सुहागिन के!"
बदले में मैंने एक स्माइल चिपका दी और किचन से खिसक ली।
एक दिन मैने उसे अपने पति की शर्ट देकर कहा—
"देखिये तो आएगा आपके घर में किसी को? इनकी बहुत सारी शर्ट-पैंट पड़ी है अगर साइज आ जाये तो दे दूँगी"।
उसने हाथ में उठाकर शर्ट देखी-
"ई शर्ट केहू के ना होई हमरे घर में। हमार बिटवा अभईं छोट बा।"
"और पति को?" मैंने पूछा।
"पति! हमही छोड़ देहली। उ हमार कुल पइसा छीन लेत रहल ...उपर से मारपीट भी करत रहल! एतना देह खटा के काम करत रहली पर बच्चा लोग खातिर कछु न। अब त हम कम-से-कम आपन बच्चा खातिर सबकुछ कर सकत हई। भगा देहली मार के ओकरा।"
मैं चुपचाप उसे देख रही थी। उसने बताया उसके चार बच्चे हैं 3 बेटी 1 बेटा। बड़ी बेटी स्नातक करने के बाद स्कूल में पढ़ाती है।
बाकी के तीनों बच्चे भी पढ़ रहे।
बच्चों की पढ़ाई के बारे में बोलते वक़्त उसका चेहरा दमक रहा था।
"कभी जरूरत हो मदद की तो कहिएगा मुझसे।"
मेरे ये कहने पर उसने लाड़ से मेरे सर पर हाथ फेरा और अपनी उंगलियाँ चूम ली।
जाने क्यों मन भर आया! उस दिन के बाद से उनका टोकना बुरा नहीं लगता था। इसी बीच पति का विदेश जाना हुआ। करीब 15 दिन का टूर था।
उनके गए दो ही दिन बीते थे कि...अचानक रात में!
नींद खुल गयी। सांस ऊपर-नीचे! बेचैनी-सी लगनी लगी।
हाथ-पैरों में तेज़ जलन शुरू हुई, पूरा बदन टूट रहा था। पेनकिलर लेना भी बेकार रहा।
मन हुआ पति को कॉल लगाऊँ पर फिर लगा उन्हें क्यों परेशान करना! वे क्या ही कर लेंगे इतनी दूर से!
बताना उन्हें भी पेन किलर ही है जो मैं ले चुकी हूँ। हम हिन्दुस्तानी पत्नियाँ इतनी केयरिंग क्यों होती है मालूम नहीं!
रात करवटों में कट गई। सुबह होते-होते पूरे बदन पर बड़े-बड़े दाने उग आए! बुखार इतना तेज की आँखें खोलना मुश्किल।
ब्रेकफास्ट तो ब्रेड से हो गया बच्चों का लेकिन अब...?
कॉलबेल बजा और वह आयी।
मैं बेसुध-सी बिस्तर पर पड़ी थी। हिलने की भी ताकत नहीं बची थी। उसने हैरत से बच्चे को देखा क्योंकि जब से उसने आना शुरू किया था, उसे दरवाजे पर मुझे ही देखने की आदत थी।
ऐसे भी मेरी शादी के बाद से दरवाजा खोलने की डयूटी मुझे ही सौंप दी गई है। मेरे होते अगर कोई और खोल दे तो उसे पाप लगता है।
"बबुआ तोहार मम्मी कहाँ हई?"
उसने बेटे से पूछा।
तबतक मेरी मरी हुई-सी आवाज़ कमरे से आई
"कौन है बेटा?"
"मम्मी! मेड!"
मेरे बेटे में मेरे वाले संस्कार नहीं हैं चाहे मैं तलवार लेकर भी खड़ी हो जाऊँ कि मेड मत बोलो... आँटी बोलो, वह मेड ही बोलेगा।
रातभर कितनी ही बार रोना आया था पर बच्चे घबराएंगे ये सोचकर रोई नहीं थी, आवाज़ ने दर्द बयाँ कर दिया।
वो कमरे में आई.।मुझे देखकर पूछा-
"का भइल बबुनी"
"पता नहीं रात से फीवर है और अब शरीर पर ये दाने!"
"अरे माई! ई त माता आइल हई?"
"क्या! चेचक मतलब पॉक्स! गयी मैं अब तो! इन दानों के दाग तो जाने से रहे!"
मारे डर के मुझे रोना आने लगा। बादामी आँखों में मोती छलकने लगे। एक तो पतिदेव इतनी दूर हैं, दूसरा ये संक्रमण वाला रोग है एक को हुआ तो सबको होता ही है।
"रोअत काहे हऊ! एतना डरे क बात नाही हव, थोड़िके परहेज करे से जल्दीए ठीक हो जाई। ढेर दवईयो नाही खायल जाला एम्मे! चुप हो जा। अब माता आही गईल हईं त कुच्छो नाही कर सकल जाई। आपन समय पूरा करेके जइहैं। हिम्मत रखा सब नीक होई।"
मैं उसका चेहरा देख रही थी। अभी तो लंबे-लंबे डायलॉग मार रही पर कल से ये भी आना बंद करेगी ये तय था। मैं बहाने सुनने के लिए तैयार बैठी थी।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अपना काम निपटाने के बाद अपने आँचल से हाथ पोंछती मेरे सामने खड़ी हो गयी—
"का खइबू बता दा बना देई।"
"आप खाना बनाएंगी?"
"न त हम खईबू! तोहरे खातिर पूछत हई बबुनी...अब भुखाइल त नाही छोड़ देब न, जल्दी से बतावा का बनावे के हव देरी हो त हमके।"
कुछ देर बाद मेरे और बच्चों के सामने उपमा रखा था और किचन से खिचड़ी की खुशबू आ रही थी। मैंने ऊपर देखकर ईश्वर का धन्यवाद किया। सही कहते हैं पूरी दुनिया को आहार देने वाले आप ही हो! अपना रूप देकर कब किसे माध्यम बना दो ये बस तुम ही जानते हो।
दोपहर को मेरी नींद खुली तो देखा नीम की छोटी-छोटी टहनियाँ कोने में रखी है! पूछने पर बता चला-
"मेड रखकर गयी है मम्मा!"
अगले 7-8 दिन भारी थे। बुखार, दानों की जलन, बेचैनी पर इन सबके बीच एक शख्स जो पूरी निष्ठा से मेरी सेवा में लगा था। किसी अपने की तरह!
मेरे एक परिचित ने दवा बताई थी जिससे संक्रमण न फैले मैंने मंगवाकर दोनों बच्चों को दे दी। उसे देने लगी तो हंसकर बोली-
"हमके कुच्छू ना होई! बाबा हऊयें न!"
हर दिन समय पर सबकुछ मेरे सामने हाज़िर रहता, नाश्ता, खाना, जूस, कटे फल और यहाँ तक की नहाने के लिए नीम के पत्तों का पानी भी!
कष्ट के दिन कैसे कट गए पता ही नहीं चला। जब तक पतिदेव आये तब तक मैं ठीक हो चली थी।
इनकी आँखों से कृतज्ञता भरी बूंदे छलक पड़ी। शब्दकोश शून्य पड़े थे।
इन्होंने हाथ जोड़कर कहा
"आपका कैसे धन्यवाद करूँ! अंजाने शहर में आपने जितना किया कोई अपना भी न करता!"
"अब अइसन करके हमके रूआवा जिन बबुआ। ई आपन पराया का होला! जे पास वही आपन। जे मुसीबत में मुहंवा मोड़ ले उ आपन कैसे!"
बड़ी बात कह दी उसने। सही में अपनों की परिभाषा बदल गयी है, अब खून के रिश्ते कब मुंह मोड़ लें कहना मुश्किल। जो सामने हो, जो हमारे सुख दुख में काम दे वही अपना।
मैं न कहती थी ये पूरा एकता कपूर के सीरियल से निकल कर आई है सच ही कहती थी! हाँ... ये और बात है उस दिन इमोशनल सीन चला था मेरे घर। बाकी के दिन अब भी वैसे ही कट रहे हैं जैसे कटते थे, मेरा शॉर्ट्स पहनने पर उनका डांटना, समय पर काम करने की हिदायत...और मोबाइल लो तो कोमोलिका की तरह फेशियल एक्सप्रेशन देना...
पर इन सबके बीच एक चीज़ नयी हुई है... अब मैं उन्हें रानी, महारानी, डेली-शोप क्वीन या ड्रामा-क्वीन नहीं बोलती अब वह मेरी मंजू माँ है!