मंटगोमरी से मास्को तक (ल्युदमीला वसिल्येवा) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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यह आलेख लेखिका की रूसी पुस्तक के एक अध्याय का हिंदी अनुवाद है। यह रूसी पुस्तक वस्तुतः ल्युदमीला वसिल्येवा द्वारा लिखित फ़ैज़ की जीवनी है। चूँकि लेखिका एक लंबे अरसे से तक सोवियत संघ में उनकी दुभाषिया के रूप में उनके क़रीब रही हैं, अतः जीवनी में दिये गए तथ्य विश्वसनीय और प्रामाणिक हैं।

दयार-ए-यार, तेरी जोशिशे-जूनूं पे सलाम मेरे वतन, तेरे दामान-ए-तार तार पे ख़ैर

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की क़ैद के दौरान, एक के बाद एक कई सरकारें बदलीं, लेकिन चेहरे बदलने के बावजूद न तो कोई ख़ास बदलाव आया था न ही बेहतरी की कोई सूरत नज़र आ रही थी। पाकिस्तान फ़ौजी ब्लाक में शामिल हो गया था और सबको समुद्र पार की सुपर पावर यानी अमरीका से आ रहे फ़रमानों का एहसास हो रहा था। तेज़ी से फ़ौज का ख़र्चा बढ़ने की वजह से सरकारी बजट कमज़ोर हो गया।

1955 में मंटगोमरी जेल से रिहाई के बाद जब फ़ैज़ लाहौर लौट आये तो शहर के माहौल में एक कशीदगीरी महसूस हो रही थी। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं थी। पाकिस्तान के कई इलाक़ों में अकाल पड़ा हुआ था। सनत के मैदान में जमूद का आलम था और इस वजह से अवाम की ग़रीबी और बढ़ गयी थी। बाज़ लोग मायूसी का शिकार हुए, बाज़ लापरवाही का। हमवतनों की मदद किस तरह की जाये? उनके दिलों में नयी उम्मीदें कैसे जगायी जायें? और उनमें आज़ादी की दी हुई क़ीमत की याद को किस तरह ताज़ा किया जाये? आज़ादी की तारीख़ के आमद के मौक़े पर फ़ैज़ की नज़्म ‘अगस्त 1955’ के उन्वान से शाया हुई। यह कड़वाहट भरी सही लेकिन एक उम्मीद अफ़्ज़ा ग़ज़लनुमा नज़्म है :

शहर में चाक गरेबां हुए नापैद अब के कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद अबके लुत्फ़ कर ऐ निगहे-यार, कि ग़मवालों ने आरज़ू की भी उठाई नहीं तमहीद अब के चाँद देखा तेरी आँखों में न होंठों पे शफ़क़ मिलती जुलती है शब-ए-ग़म से तेरी दीद अब के दिल दुखा है न वो पहले सा, न जान तड़पी है हम ही ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अब के फिर से बुझ जायेंगी शम्एं जो हवा तेज़ चली लाके रखो सर-ए-महफ़िल कोई ख़ुरशीद अबके

फ़ैज़ फिर से पाकिस्तान टाइम्स में काम करने लगे। वे पहले की तरह अख़बार के लेखों में दो टूक अंदाज़ में सरकारी सियासत के खि़लाफ़ आवाज़ उठा रहे थे। और हुकूमत की दाखि़ली पालिसी को अवाम दुश्मन और खारज़ा पालिसी को अमरीका-नवाज़ कहने से घबराते नहीं थे। साथ ही साथ उनका अख़बार साम्यवादी मुमालिक से ताल्लुक़ात की बेहतरी की तरफ़ हुकूमत के हर क़दम का खै़रमक़दम करता था। उस तरफ़ क़दम छोटे ही सही मगर उठाये जाते थे। आम तौर पर यह शक़ाफ़ती और साईंसी जानकारी का तबादला होता था।

अपनी ज़िदगी के इस मरहले पर फ़ैज़ ने बहुत कम शायरी की थी। लेकिन उस दौरान ख़ालिस अदबी हदों से निकल कर उन्होंने आलोचना के मैदान को ज़्यादा बढ़ाने की कामयाब कोशिश की। उन्होंने एक फ़िल्म की कहानी लिखी और फ़िल्म बनाने में भी शिरकत की थी। फ़िल्म का नाम एक लोक गीत की पहली पंक्ति पर रखा गया। जागो हुआ सवेरा। यह पुरआब दरिया के किनारे पुरवाक़मा माहीगीरों के एक छोटे गांव की ज़िंदगी की झलक और गांव वालों की कहानी थी। लंदन के अंतर्राष्ट्रीय समारोह में फ़ैज़ की फ़िल्म को पहला इनाम मिला।

जेल से फ़ैज़ की रिहाई के बाद उनके पुराने साथी, तरक़्क़ीपसंद मुसन्नफ़ीन की अंजुमन के मेंबर, उनको फिर से अंजुमन की सरगर्मियों में शामिल करने की कोशिशों में लग गये। वे अंजुमन की सफ़ों को मज़बूत करने की स़ख़्त ज़रूरत महसूस कर रहे थे। फ़ैज़ हमक़लम दोस्तों के बेहद शुक्रगुज़ार थे। ये वही थे जो कै़द के दिनों में ख़ुद शायर को और एलिस को रूहानी सहारा देते रहे थे और जिन्होंने इस ज़माने में दस्ते-सबा के बेमिसाल प्रकाशन का इंतज़ाम किया था। इसलिए फ़ैज़ ने उनसे तआवुन करने से इंकार तो नहीं किया लेकिन अख़बार के काम में निहायत मसरूफ़ियत का हवाला देकर माफ़ी चाही। उन्होंने अपने पुराने सामयिक मसलों से ताल्लुक़ बरक़रार रखा। मसलन वे दोस्तों की गुफ़्तगू और बहस-मुबाहिसों में हिस्सा होते और तरक़्क़ीपसंदों को दूसरे देशों के लेखकों से ताल्लुक़ क़ायम करने के बारे में अपने ख़यालात में शरीक करते थे। लेकिन ख़ुद अंजुमन की रहनुमाई और उसकी वसीअ सरगर्मियों में शामिल होने से कतराते थे।

1956 में हिंदुस्तान के तरक़्क़ीपसंद मुसन्नफ़ीन ने दिल्ली में एशियाई अदीबों की कांफ्ऱेंस का ऐलान किया। पहला दावतनामा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के नाम भेजा गया। यह आज़ाद हिंदुस्तान का उनका पहला दौरा था। फ़ैज़ बेहद ख़ुश थे क्योंकि आखि़रकार बरसों बाद उनको अपनी जवानी के दोस्तों से मिलने का मौक़ा मिला। अब फ़ैज़ दिल्ली में सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, कृश्न चंदर और दूसरे सब यार फिर से इकट्ठा हुए। वे 1936 की लखनऊ की कांफ्ऱेंस की यादों में खो गये, जिसमें हिंदुस्तानी तरक़्क़ी पसंद मुसन्नफ़ीन की अंजुमन क़ायम हुई थी। अब कितना दूर था वह ज़माना ! दिल्ली कांफ्ऱेंस में शरीक सभी अदीब इस राय पर सहमत हुए कि तीसरी दुनिया की नौज़ायदा रियासतों को क़ौमी अदब और शक़ाफ़त की तरक़्क़ी के मैदान में मशाबा मुश्किलात दरपेश हैं जो सबसे पहले एशिया और अफ्ऱीक़ा के मुमालिक के अवाम की रूहानी आज़ादी के मसले से वाबस्ता हैं और इस मसले का तसफ़िया सिर्फ़ संघबद्ध कोशिशों से किया जा सकता है। इस तरह से अफ्ऱीकी और एशियाई अदीबों के संगठन का ख़याल पैदा हुआ था।

1958 में फ़ैज़ और हफ़ीज़ जालंधरी पाकिस्तानी नुमाइंदों की हैसियत से एफ्ऱो-एशियाई लेखकों की दूसरी कांफ्रेंस में शिरकत के लिए ताशक़ंद तशरीफ़ लाये। इस तरह सोवियत यूनियन आने की फ़ैज़ की दिली इच्छा पूरी हुई। उस वक़्त भी सोवियत यूनियन के बारे में मुख़्तलिफ़ ख़यालात सुनने में आते थे इसलिए फ़ैज़ अपनी आंखों से यह मुल्क देखना चाहते थे। उसी दिन से फ़ैज़ के सोवियत देश से बिछोह और मिलन का प्रेम शुरू हुआ जो उनकी ज़िंदगी के आखि़र तक जारी रहा।

ताशक़ंद कांफ्रेंस में ‘एफ्ऱो-एशियाई लेखक संघ’ क़ायम हुआ जिसका मक़सद, उसके एक इक़रारकर्ता के शब्दों में, ‘नये आज़ाद हुए देशों और आज़ादी के संघर्ष में जुटी आबादी को दक़ियानूसियत के दबाव से निकालने में मदद करने के उद्देश्य से बुद्धिजीवियों को एक बड़े स्तर पर एकजुट करना था।’

ताशक़ंद क़रारनामा के मुसन्नफ़ीन में फ़ैज़ का नाम सर-ए-फेहरिस्त था।

अफ्ऱो-एशियाई मुसन्नफ़ीन की तहरीक में फ़ैज़ की सरगर्म शिरकत उनके आखि़री दिनों तक जारी रही। दरअसल यह हिंदुस्तानी और आज़ादी के बाद पाकिस्तानी तरक़्क़ीपसंद मुसन्नफ़ीन की तहरीक से शायर के जुड़ाव की एक नयी मंज़िल थी। हां इस तहरीक का पैमाना बेशक कहीं ज़्यादा फैला हुआ था और सतह भी ज़्यादा बुलंद थी।

अक्टूबर 1958 में जब ताशक़ंद कांफ्ऱेंस जारी थी पाकिस्तान में फ़ौजी ‘तख़्तापलट’ हुआ जिसके नतीजे में फ़ौजी अलग़ानी क़ायम हुई। सारा इक़दितार मुल्क के नये सरबराह जनरल अयूब ख़ां के हाथों में मरकूज़ हो गया। पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू हुआ और हर जीवन के पहलू में सख़्ती बढ़ने लगी। अब मुल्क के सारे शहरों में सोशल सेक्योरिटी एक्ट के सहारे से आम पैमाने पर गिरफ़्तारियां हो रही थीं और तरक़्क़ीपसंद घरों के अमलों की ‘सफ़ाई’ आम बात हो गयी थी। बायें बाज़् की तंज़ीमों की सरगर्मियों पर पाबंदी लगायी जा रही थी। फ़ैज़ के ज़्यादातर दोस्त इस सरकार के पहले दिनों में गिरफ़्तार हो गये। मेजर इस्हाक़ पहले थे जो जेलख़ाने में बंद हुए थे, लेकिन अब की बार उनको ‘अपने शायर’ का साथ नसीब नहीं हुआ।

ताशक़ंद कांफ्ऱेस ख़त्म हुई तो फ़ैज़ अपनी फ़िल्म ’जागो हुआ सवेरा’ के सिलसिले में इनाम लेने लंदन चले गये और दिसंबर में पाकिस्तान लौटे। फ़ैज़ के दोस्तों ने जो कराची एयरपोर्ट उनको लेने पहुंचे बताया कि उनकी गिरफ़्तारी का वारंट तैयार हो चुका है। सब दोस्तों का मशविरा था कि फ़ैज़ लाहौर जाने का नाम ही न लें और फिलहाल कराची में ठहर जायें। लेकिन फ़ैज़ यह सब सुनने को तैयार नहीं थे। सलीमा की सालगिरह होने वाली थी जिसके लिए उन्हें हर सूरत घर जाना था।

लाहौर में एलिस और सब अज़ीज़ दिल थाम कर फ़ैज़ का इंतज़ार कर रहे थे कि क्या उनको घर तक पहुंचने का मौक़ा मिलेगा या उनको रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया जायेगा? लेकिन फ़ैज़ सही सलामत घर पहुंचे और अपनी ‘तीन प्यारियों’ एलिस, और दोनों बेटियों से बड़े प्यार से मिले। वे बहुत खु़श थे और बड़े शौक़ से अपने सफ़र के क़िस्से बताते रहे।

फिर भी चार दिन बाद फ़ैज़ की गिरफ़्तारी हो ही गयी। शायर फिर से लाहौर जेल में क़ैद हुए जिसे वे मज़ाक़ में ‘खानदानी जेल’ कहते थे। अबकी बार गिरफ़्तारी से फ़ैज़ के दिल को पहली सी चोट नहीं लगी। अब्वल तो यह गिरफ़्तारी कोई ग़ैर मुतव्वको बात न थी और दूसरे जेल का माहौल भी बिलकुल जाना-पहचाना लगा। उनकी पिछली कै़द के दिनों से यहां कुछ नहीं बदला था। जेलर तक पुराने थे और फ़ैज़ से मिलते वक़्त बड़े ख़ुलूस से सलाम करते थे। क़ैदियों के दरमियान फ़ैज़ के कई दोस्त थे। जेल में शायर के आने से खलबली मच गयी। पुरशोर तरीक़े से ख़ुशी का इज़हार किया जा रहा था कि अब मुशायरे होंगे! और वाक़ई ऐसा ही हुआ। शुरू की नज़्मों में एक, जो फ़ैज़ ने जेल के एक मुशायरे में सुनायी ‘शोरिशे ज़ंजीर बिस्मिल्लाह’ थी। मुल्लाओं ने फ़ैज़ पर सख़्त तनक़ीद की और ऐलान किया कि शायर ने इस्लाम की तौहीन की है। अशआर की रदीफ़ है ‘बिस्मिल्लाह’ जिसे शायर ने बज़ाहिर ‘शुरू करने’ के मुहावरेदार मानी में इस्तेमाल किया है। लेकिन साथ ही इसमें मज़हबी कट्टरपपंथियों की तरफ़ साफ़ तंज़ और इशारा किया है। फ़ैज़ के दोस्तों और हमख़यालों ने इस नज़्म को बहुत सराहा :

हुई फिर इम्तिहान-ए-इश्क़ की तदबीर बिस्मिल्लाह हर इक जानिब मचा कोहराम-ए-दार-ओ-गीर बिस्मिल्लाह गली कूचों में बिखरी शोरशा-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह

फ़ैज़ का ख़ानदान लाहौर के जिस मकान में उस वक़्त रहता था। वह लाहौर के क़िले से दूर न था। एलिस दोनों बच्चों को लेकर फ़ैज़ से मिलने अक्सर आती थीं। लेकिन फिर भी शायर का दिल उदास रहता था। इस बार की गिरफ़्तारी से उनको वही दिन याद आये थे जब वे कराची जेल के हस्पताल की हरियाली में डूबी कोठरी से मंटगोमरी जेल की मायूसकुन चारदीवारी में लौहार गये थे। माहौल के एकदम बदल जाने का फ़ैज़ पर हमेशा बहुत बुरा असर होता था। लेकिन इस बार भी शायरी की देवी क़ैद के दिन काटने में मदद कराने आया करती थी। गा़लिबन वह ख़ुश होती होगी कि अपने शायर को फिर से तन्हा पाया और वे कहीं जाने की जल्दी भी नहीं कर रहे थे। फ़ैज़ के दिल में एक जाना-पहचाना दर्द करवटें लेता रहा :

दूर आफ़ाक़ पर लहराई कोई नूर की लहर ख़्वाब ही ख़्वाब में बेदार हुआ दर्द का शहर ख़्वाब ही ख़्वाब में बेताब नज़र होने लगी अदम आबाद जुदाई में सहर होने लगी क़ासाए दिल में भरी अपनी सुबूही मैंने घोलकर तल्ख़ी-ए-देरोज़ में इमरोज़ का ज़हर हसरते रोज़-ए-मुलाक़ात रक़म की मैंने देस परदेस के यारान-ए-क़दह ख़्वार के नाम हुस्न-ए-आफ़ाक जमालए-लब-ओ-रुख़्सार के नाम

फ़ैज़ की कोठरी का दरीचा क़िले के दामन में हरी चादर जैसे मैदान की तरफ़ ख़ुलता था। अपनी लड़कियों को लेकर एलिस उन दिनों यहां भी आती थी जो क़ैदियों से मुलाक़ात के दिन न होते थे। बच्चियां क़िले की ऊंची दीवार में छोटे-छोटे दरीचों को इस उम्मीद में तक रही थी कि उनके अज़ीज़ अब्बाजान उनको देख रहे होंगे। कई सारे लोग दरीचों की सलाखों से बाहर हाथ हिला हिला कर उनका ख़ैर मक़दम कर रहे थे। उनमें से कोई हाथ अब्बाजान का भी होगा।

मुलाक़ातों के वक़्त एलिस फ़ैज़ की हौसला अफ़जाई करने की कोशिश करते हुए उनको शहर की ख़बरें और वह अफ़वाहें भी सुनाती थीं जो फ़ैज़ की गिरफ़्तारी के सिलसिले में शहर में फैली हुई थीं। एक बार एलिस अपने शौहर की रिहाई के मुतालिक़ दौड़धूप करने के दौरान सी.आई.डी. के एक आला ओहदेदार जनाब मियां अनवर अली से मिलीं तो इस सज्जन ने उनको बताया कि फ़ैज़ पर सोवियत जासूसी इदारों से ताल्लुक़ का शक है और यक़ीन दिलाने लगे कि इस ताल्लुक़ के ‘पक्के सुबूत भी मौजूद हैं।’

पहले तो एलिस को हुकूमत की ‘जासूसी की बीमारी’ पर हंसी आयी थी। लेकिन बाद में पता चला कि अफ़सर का इशारा फ़ैज़ की एक तस्वीर की तरफ़ था जो उनके सोवियत दूतावास से निकलते वक़्त उतारी गयी थी। यह सच्ची बात थी कि ताशक़ंद जाने से पहले फ़ैज़ और हफ़ीज़ जालंधरी दोनों वीज़ा बनवाने सोवियत दूतावास गये थे। फ़ैज़ अपनी गा़यब दिमाग़ी की वजह से वहां अपना बैग छोड़ आये थे और उसे लेने के लिए लौट कर चंद एक मिनट तक दूतावास के अंदर अकेले रह गये थे। मुमकिन है फ़ैज़ उन दिनों शासकों की ज़ेरे नज़र रहे होंगे या सोवियत दूतावास के पास ड्यूटी करने वाले पहरेदार ने चौकसी के जोश में आकर अपनी रिपोर्ट में कुछ लिखा होगा। बहरहाल फ़ैज़ के सोवियत दूतावास लौटने की वजह से ही उन पर शक किया गया था। इस तरह यह गिरफ़्तारी हर सूरत में सोवियत दौरे से जुड़ी थी! उसका एक और सुबूत यह था कि एलिस को गवर्नर के यहां एक सरकारी गुफ़्तुगू के लिए बुलाया गया और उन से देर तक ‘रूस के पैसों पर ख़रीदी हुई गाड़ी के बारे में पूछताछ की जाती रही। बात दरअसल यह थी कि उसी साल के शुरू में एलिस दोनों लड़कियों के साथ लंदन गयी थीं और वहां उन्होंने एक गाड़ी ख़रीद ली थी। गाड़ी के पैसे उनको मरहूम वालिद की विरासत से मिले थे। यहां उसी गाड़ी की बात हो रही थी। एलिस को संबंधित काग़ज़ात लंदन भेज-भेज कर दस्तावेज़ात की बिना पर ‘रुपये आने से लेकर गाड़ी ख़रीदने तक’ के एक एक क़दम का सुबूत देना पड़ा था। लेकिन फिर भी हुकूमत के ओहदेदारों का यह शक दूर नहीं हुआ कि गाड़ी के पैसे फ़ैज़ को मास्को से किसी ‘ख़ास खि़दमत’ के मुआवज़े के तौर पर मिले थे।

फ़ैज़ की रिहाई आधे साल बाद हुई। पाकिस्तान टाइम्स में वे नहीं लौटे क्योंकि इस एक साल में लोकतांत्रिक ताक़तों का समर्थक यह अख़बार, अब फ़ौजी हुकूमत की कई महीनों की ‘सफ़ाई’ के नतीजे में अपने मजाहिदाना जोश से पूरी तरह ‘पाक’ हो चुका था। एलिस अभी तक अख़बार में अपने कालम चलाती थीं लेकिन उनको भी अब काम से कोई इत्मीनान नहीं मिलता था।

रिहाई के बाद फ़ैज़ की सेहत बहुत ख़राब होने लगी। लगातार सिगरेट पीने और किसी भी क़िस्म की वर्जिश से कतराने से उनकी हालत बेहतर नहीं हो सकती थी। उनकी सेहत एक नयी परेशानी की वजह बनी। उन दिनों के हालात का ज़िक्र फ़ैज़ ने इन अल्फ़ाज़ में किया: ‘जिं़दांनामा के बाद का ज़माना कुछ ज़हनी अफ़रातफ़री का ज़माना है जिसमें अपना अख़बारी पेशा छूट गया। एक बार फिर जेल गये, मार्शल लॉ का दौर आया और ज़हनी और गर्द-ओ-पेश की फ़िज़ा में फिर से कुछ इजदादे राह और कुछ नयी राहों की इच्छा का एहसास पैदा हुआ।’

1965 में फ़ैज़ का एक और मज़मुआ दस्ते-तहे-संग निकला। उसमें जिं़दांनामा के बाद की लिखी हुई कुल मिलाकर चालीस नज़में, क़तआत और ग़ज़लें शामिल हुईं। यह सब मुख़्तलिफ़ कैफ़ियतों का सृजन थीं। उनमें दुनिया में नेकी और इंसाफ़ की फ़तह की आरजू़ उम्मीद, और यक़ीन के मुख़्तलिफ़ रंग, हुस्न-ए-कु़दरत के नज़ारों की खु़शी और मरहूम दोस्तों के सोग जैसी कैफ़ियतें पायी जाती हैं।

दस्ते-तहे-संग में कई ऐसी नज़्में भी हैं जो फ़ैज़ ने विदेशों के ने दौरों से प्रभावित होकर लिखीं। इस संग्रह की भी कई चीज़ों का शुमार फ़ैज़ की बेहतरीन तख़्लीक़ात में होता है। एक ऐसी ही मिसाल और कु़दरती मंज़र की नफ़ीस तस्वीरकशी नज़्म ‘शाम’ है जो लाहौर जेल में वजूद में आयी। इस नज़्म के सिलसिले में फिर से फ़ैज़ के ख़तों की याद आती है जिनमें वे अपने दरीचे में से नज़र आने वाले मंज़र को तकने के अपने शौक़ का ज़िक्र करते थे और आसमान के पसंन्ज़र में उड़ने वाले बादलों की बदलती हुई फरज़ी ज़रूरतों की तस्वीकरकशी करते हैं :

इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है कोई उजड़ा हुआ, बेनूर पुराना मंदिर ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से चाक हर बाम, हर इक दर का दम-ए-आखि़र है आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले सरनिगूं बैठा है चुपचाप ना जाने कब से इस तरह है कि पस-ए-परदा कोई साहिर है जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूं सहर का दाम दामन-ए-वक़्त से पैवस्त हैं यूं दामन-ए-शाम अब कभी शाम बुझेगी ना अंधेरा होगा अब कभी रात ढलेगी ना सवेरा होगा आसमां आस लिये है कि यह जादू टूटे चुप की जं़जीर कटे वक़्त का दामन छूटे दे कोई शंख दुहाई कोई पायल बोले कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले

आने वाले सालों में भी फ़ैज़ ने मंज़रनिगारी पर क़ाफ़ी तवज्जो दी। उन नज़्मों में उड़े-उड़े से रंगों, मुबहम से कनाईयों और धुआं-धुआं से पैकरों की बदौलत, अधूरेपन का और राज़ भरा माहौल पैदा होता है और शेरों का सौतिआती हुस्न तासीर में मज़ीद इज़ाफ़ा कर देता है। कभी एक मुख़्तसर रूमानी नज़्म में पूरी दास्तान-ए-उल्फ़त समोई हुई मालूम होती है। एक ऐसी नज़्म ‘जब तेरी समंदर आंखों में’ है! नज़्म का नाम उसका एक मिसरा है :

यह धूप किनारा शाम ढले मिलते हैं दोनों वक़्त जहां जो रात न दिन, जो आज ना कल पल भर को अमर, पल भर में धुआं इस धूप किनारे पल दो पल होंठों की लपक बांहों की छनक यह मेल हमारा, झूठ ना सच क्यों राड़ करो, क्यों दोष धरो किस कारण झूठी बात करो जब तेरी समंदर आंखों में इस शाम का सूरज डूबेगा सुख सोयेंगे घर दर वाले और राही अपनी राह लेगा

इस मुख़तसर नज़्म में फ़नकार ने गोया चंद लम्हों को क़ैद कर लिया है। कई मिसरों में तास्सुराती (impressionistic) अंदाज़ में चंद घड़ियों के मिलन और ग़ालिबन लंबी तलाश की तस्वीरकशी की गई है। यहां कु़दरत के दो पात्रों (मैं-तुम शिक़-माशूक़) को केंद्र में रखा गया है यानी नज़्म के सभी अनासिर की पोशीदा वहदत को निहायत ख़ूबसूरत तरीके़ से नुमायां किया गया है।

लेकिन दस्ते-तहे-संग में दिलफ़रेब रूमानी नौईयत के अशआर की तादाद के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा ऐसी नज़्में शामिल हैं जो परागंदा हालात के सिलसिले में शायर की फ़िक्र का अक्स हैं।

जब फ़ैज़ जेल से निकले तो बायें बाज़ू के सभी संगठन जिनसे फ़ैज़ का गहरा ताल्लुक़ था बंद हो चुके थे: पाकिस्तान अमन काउंसिल, मुल्क की सबसे बड़ी रेलवे मज़दूरों की ट्रेड यूनियन और तरक़्क़ी पसंद मुसन्नफ़ीन की अंजुमन इन सब की सरगरमियों पर पाबंदी लगायी जा चुकी थी। फ़ैज़ को इन नागवार हालात का शदीद एहसास हुआ। 1959 में प्रोफे़सर पितरस बुख़ारी का इंतक़ाल हुआ, जिनसे फ़ैज़ का गहरा रिश्ता और बड़े प्यार और मोहब्बत का था और जिनको वे अपना एक उस्ताद भी मानते थे। इस महरूमी के दर्द से ग़म-ए-दौरां का बोझ और ज़्यादा बढ़ा। फ़ैज़ का जी इस क़दर घबराया हुआ था कि उन्होंने माहौल में कुछ तब्दीली लाने के मक़सद से कराची जाने का और वहीं रोज़गार तलाश करने का फ़ैसला किया। कुछ दिनों बाद एलिस भी फ़ैज़ के पास कराची पहुंचीं। दोनों बेटियां लाहौर में रह गयीं। अब सलीमा और मुनीज़ा काफ़ी बड़ी हो गयी थीं। उनको अपना स्कूल बहुत पसंद था जिसे वे बदलना नहीं चाहती थीं। और फिर वे अकेली तो नहीं रह रही थीं। लाहौर में दादी और दूसरे रिश्तेदार भी रहते थे।

कराची में फ़ैज़ फ़ौरन काम में जुट गये। उन्होंने कराची के एक कॉलेज को, ग़रीब ख़ानदानों के छात्रों के ख़ास कॉलेज में तब्दील कराने की कोशिश की और कामयाब रहे। उन्होंने ख़ुद इसी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। लेकिन कराची में उनका दिल नहीं लगा। उन्हें लाहौर की, अपनी बेटियों की, अज़ीज़ों, दोस्तों की और काला क़ादर की भी यानी अपने उस पुश्तैनी गांव की यादें सताने लगीं जहां वे बचपन के दिनों में जाया करते थे।

यूं तो पहली क़ैद के ज़माने में भी उनको गांव की याद आती थी। मंटगोमरी से रिहाई के बाद एक दिन फ़ैज़, एलिस और बेटियों को, पहली बार अपने गांव ले गये थे। लेकिन अगले ही रोज़ से वे लाहौर के रास्ते की तरफ़ नज़रें डालने और गाड़ी के पहिये चेक करने लगे थे। अब कराची में उन्होंने फिर से गांव को याद किया और गांव वाले रिश्तेदारों के पास जाने के मंसूबे बनाने लगे। एलिस ख़ामोशी से मुस्कुराते हुए शौहर की बातें सुनती रहीं।

जल्द ही पता चला कि कराची की आब-ओ-हवा फ़ैज़ को क़तई मुआफ़िक़ नहीं आ रही। एक अरसे से वे दमे के मरीज़ थे और अब उन पर खांसी के सख़्त दौरे पड़ जाते थे। दिल में भी काफ़ी तक़लीफ़ होने लगी। एलिस के इसरार पर दोनों वापस चले आये।

लाहौर लौटते ही फ़ैज़ बीमार हुए। डॉक्टरों ने कहा कि उनको दिल का हल्का दौरा पड़ा है और उन्हें मुस्तक़िल आराम करने की और हर तरह की परेशानी और बेक़रारी से बचे रहने की ज़रूरत है। पहली हिदायत की पाबंदी की जा सकती थी मगर दूसरी की बक़ौल ग़ालिब के ‘यह कहां बचें कि दिल है!’

कुछ वक़्त गुज़रा। इस दौरान फ़ैज़ की सेहत आहिस्ता-आहिस्ता ठीक होती रही। अभी उनको बाहर निकलने की इजाज़त नहीं मिली थी। एक दिन जब वे एलिस के साथ बरामदे में बैठे थे अचानक पाकिस्तान टाइम्स से फ़ोन आया। फ़ैज़ ने फ़ोन उठाया, बात सुन ली और कुर्सी की पीठ से टेक लगाये कुछ देर तक ख़ामोश रहे। फिर एलिस की सवालिया नज़रों का जवाब देते हुए बताया, ‘मुझे लेनिन अमन इनाम से नवाज़ा गया है’। ऐसे मौक़े पर कौन शांत रह सकता?

सोवियत यूनियन का आला इनाम दिये जाने की शानदार रस्म मास्को में होने वाली थी। लेकिन चूंकि पाकिस्तान में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का नाम हुक्काम के ज़ेरे नज़र अफ़राद की फ़ेहरिस्त में शामिल था, उनको अपनी मर्ज़ी से मुल्क से बाहर निकलना मना था। सिर्फ़़ सदर-ए-पाकिस्तान की इजाज़त से वे मास्को जा सकते थे।

उम्मीद के खि़लाफ़ यह इजाज़त उन्हें फ़ौरन मिल गयी। यह 1962 की बात थी जब अयूब ख़ां की हुकूमत ने अमरीका के मुकम्मल ख़ुशामदी टट्टू के रवैये से हट कर अंतर्राष्ट्रीय ताल्लुक़ात के मैदान में वह राजनीति अपनायी जो आज़ाद ख़ुद मुख़्तार, पाकिस्तान के क़ौमी फ़ायदों से ज़्यादा ताल्लुक़ रखती थी। उस वक़्त सोवियत यूनियन से ताल्लुक़ात में भी बेहतरी आयी हुई थी। इस तरफ़ हुकूमत की तरफ़ से फ़ैज़ के लिए मास्को जाने की राह में कोई रुकावट न थी।

यह फ़ैज़ का डॉक्टर ही था जिसने बहुत शोर मचाया और इस दौरे की सख़्त मुख़ालफ़त की। डॉक्टर का यह दावा था कि बीमारी के नतीजे में फ़ैज़ साहब का दिल काफ़ी कमज़ोर हुआ है, इसलिए फिलहाल हवाई जहाज़ में सफ़र करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तब फ़ैसला किया गया कि डॉक्टर की बात को मद्देनज़र रख कर फ़ैज़ हवाई जहाज़ से नहीं बल्कि समुद्री जहाज़ से इटली के शहर मिलान तक जायेंगे और वहां से रेल गाड़ी में बैठकर आगे मास्को तक पहुंचेंगे।

एलिस भी साथ जाने की तैयारी करने लगीं। उनके दोस्त उनको मना रहे थे कि वे उस वक़्त अख़बारी काम को न छोड़ें। लेकिन पाकिस्तान टाइम्स छोड़ने का उनका फ़ैसला बहुत पहले पुख़्ता हो चुका था। और अब उनको अच्छा बहाना भी मिला कि फ़ैज़ की सेहत के पेश-ए-नज़र हर वक़्त उनके साथ किसी अपने का होना ज़रूरी था।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को लेनिन अमन इनाम अता करने की रस्म, मास्को क्रेमलिन के मशहूर हाल के शानदार माहौल में अदा की गयी। लेनिन इनामयाफ़ता, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने रिवाज के मुताबिक़ एक तक़रीर की जिसका गर्मजोश तालियों से ख़ैरमक़दम किया गया था। यह तक़रीर दस्ते-तहे-संग में शायर के पेशलब्ज़ की हैसियत से शामिल हुई।

फ़ैज़ ने यह भी कहा कि मुझे यक़ीन है कि इंसानियत जिसने अपने दुश्मनों से आज तक कभी हार नहीं खायी अब भी विजयी होकर रहेगी।

आज इंसानियत की भावनाओं में डूबे इन शब्दों पर शायद कड़वी हंसी ही हो सकती है। लेकिन 1962 में इन ख़ूबसूरत अलफ़ाज़ ने दुनिया भर के उन बेशुमार वासियों की दिली इच्छा को आवाज़ दी थी, जिनके लिए वसीह पैमाने पर उन्नति तरक़्क़ीपसंद इंसानियत रायज थी। फ़ैज़ भी उन लोगों में से एक थे। उनको सियासी और समाजी बदी पर नेकी की जीत का यक़ीन था। वे यह भी मानते थे कि उस जीत की ख़ातिर जद्दोजहद करनी चाहिए लेकिन जद्दोजहद एक तजरीदी बात है जबकि हालात के मुताबिक़ जद्दोजहद के अपने नपे-तुले तौर-तरीक़े होते हैं। फ़ैज़ को इस बात पर कतई यक़ीन था इसलिए वह नेकी की ख़ातिर जद्दोजहद के ख़ुद अपने तरीक़ों की जुस्तुजू में रहते थे।

अब पाकिस्तान में काफ़ी तब्दीलियां आयीं। फ़ौजी निज़ाम के साढे़ तीन बरस के बाद, हुक्मरान हलक़ों ने मुल्क में आईन और सियासी पार्टियों और तंज़ीमों पर से पाबंदी उठा ली। उसकी बदौलत सियासी और समाजी जिं़दगी के मैदान में फ़ौरन सरगरमियां बढ़ीं।

फ़ैज़ ने अपने दोस्त सिब्ते हसन से मिलकर लैल-ओ-निहार निकालना शुरू किया। लेकिन उनके जैसे नज़रियात रखने वाले मुट्ठी भर लोगों के लिए मारशल लॉ की गिरफ़्त ढीली करने के बाद भी यह काम उनके बस से बढ़कर साबित हुआ। दो चार परचे निकलने के बाद इसे बंद करना पड़ा क्योंकि हुक्काम को वह ‘बहुत ज़्यादा बायें बाज़ू का’ नज़र आया था।

फिर फ़ैज़ अपनी पुरानी दिलचस्पी के मौज़ू शक़ाफ़त की तरफ़ मुतवज्जो हुए। उन्होंने क़ौमी थियेटर, क़ायम करने के मंसूबे बनाये। एलिस के साथ मिलकर उन्होंने उस वक़्त के अदाकारों के ग्रुपों को ड्रामे स्टेज करने में बहुत मदद दी। रेडियो प्रोग्रामों में नयी जान डालने के लिए फ़ैज़ ने कई रेडियो ड्रामे लिखे। (याद रहे कि लाखों पाकिस्तानी ख़ानदानों के लिए रेडियो प्रोग्राम एक वाहिद क़िस्म का मनोरंजन होता था।) उन दिनों पश्चिमी मुमालिक के साथ पाकिस्तान के तालुक्क़ात ज़्यादा फैलने लगे। ख़ुद पाकिस्तानियों के लिए अपनी सांस्कृतिक जड़ों का मामला पूरी तरह साफ़ नहीं था। मुल्क के नामी वैज्ञानिक, अदीब और फ़नकार पश्चिम के मासमीडिया की परायी सभ्यता के सिलसिले में फ़िक्र-ओ-परेशानी ज़ाहिर करने लगे। क़ौमी वैज्ञानिक के मसायल और उसकी जड़ों की जुस्तुजू समाजी हलक़ों की तवज्जो का केंद्र बने। पाकिस्तान एक इस्लामी रियासत की हैसियत से वजूद में आया जिसका मतलब यह है कि इस्लाम न सिर्फ़ उसका रियासती मज़हब है बल्कि मुल्क की आबादी की नज़रयाती और सांस्कृतिक बुनियाद भी। मज़हबी कार्यकर्ताओं और सरकारी ओहदादारों के हिसाब से इस्लामी संस्कृति और इस्लामी नज़रिया ही सबसे महत्वपूर्ण है। इसका अहमतरीन नुक़्ता था: सिर्फ़़ इस्लामी संस्कृति ही मुख़्तलि़फ़ ज़बानें बोलने वाले और जुदा-जुदा क्षेत्राीय रीति रिवाज की पैरवी करने वाले लाखों लोगों को एक वाहिद पाकिस्तानी क़ौम में जोड़ सकती है।

बुनियादी दावा यह था कि पाकिस्तानी अवाम की तहज़ीब-ओ-सभ्यता की सब जड़ें इस्लाम से ही निकलती हैं। लेकिन इस नज़रिये के मुताबिक़ इस्लाम से पहले के सांस्कृतिक विरसे को तर्क़ करना चाहिए। (फ़ैज़ के जेल के ज़माने में रेडियो प्रोग्रोमों में हिंदुस्तानी क्लासिकी मोसीक़ी पर पाबंदी याद करें।) गै़र मुल्कों से पायी गयी उन सारी कलात्मक और साहित्यिक दौलतों से भी इंकार करना चाहिए जो सदियों के दौरान अपनायी जाती रहीं। इस तरह का इस्लामी नज़रिया संरक्षकों की तरक़्क़ी में एक रुकावट था। वह समझदारी और तर्क के भी उलट था क्योंकि इस्लाम के उन गिने-चुने संरक्षकों का नज़रिया अपनाने की सूरत में यह सवाल उठता था कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की प्राचीन तहज़ीबों की मशहूर यादगारों, ब्राह्मणवादी और बौद्ध तहज़ीब से पहले की, ईरानी तहज़ीब के क़दीम, यूनानी तहज़ीब के और मग़रिबी तहज़ीबों के उन सारे नकूश से मुतालिक़ क्या रवैया अख़्तियार करना चाहिए जो पाकिस्तान की सरज़मीन पर मौजूद हैं? सरहदी हिंदुस्तान में सदियों के दौरान बनने वाली तहज़ीब में से ख़ालिस इस्लामी धाराओं को किस बिना पर और किस तरह निकाल कर अलग कर दिया जाये? और आखि़रकार पाकिस्तानी समाज के उस पूरे हलक़े का क्या किया जाये जो अंग्रेज़ी ढंग से पाले पोसे गये हैं?

क़ौमी सभ्यता और इस्लाम, क़ौमी सभ्यता के मसायल, ऐतिहासिक विरसे और वर्तमान के दरमियान क़ौमी असर का तालमेल, यह और कई दूसरे विषयों पर फ़ैज़ अक्सर अपने साथियों से गुफ़्तुगू और बहस करते थे। कल्चर के सवाल अख़बारों और पत्रिकाओं में उठाते थे और उन सब विषय पर अक्सर रेडियो और टेलीविज़न पर आलमी और दूसरे इदारों में तक़रीरें करते थे। 1978 में ‘हमारी क़ौमी सभ्यताएँ’ के नाम से फ़ैज़ की किताब शाया हुई। उसमें मिर्ज़ा ज़फर-उल-हसन की कोशिशों और मेहनतों से कल्चर के मसायल पर फ़ैज़ अहदम फ़ैज़ के बिखरे हुए मज़ामीन, तक़रीरें और अन्य गद्य जमा किये गये थे। इस किताब में क़ौमी शक़ाफ़त में इस्लामी असर के मक़ाम, सभ्यता में बढ़त और दूसरे अहम सवाल पर विस्तार से रौशनी डाली गयी। मसलन पाकिस्तानी तहज़ीब के सवालों को साफ़-साफ़ रखते हुए फ़ैज़ ने लिखा :

इस वक़्त जो हमारे इलाक़े का तहज़ीबी ढांचा है उसमें आपकी पुरानी दरबारी तहज़ीब भी शामिल है। उसमें मुख़्तलिफ़ अवामी तहज़ीबें भी शामिल हैं और एक सफ़ेदपोश तबक़े की आधी पश्चिमी आधी पूर्बी तहज़ीब भी शामिल है। अब यह सूरत-ए-हाल है और ये मसायल हैं। अब सवाल यह है कि उनसे कैसे निबटना चाहिए?

इसी किताब में पाकिस्तानी सभ्यता के भविष्य के हवाले से गुफ़्तुगू करते हुए फ़ैज़ ने एक ऐसा निज़ाम क़ायम करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जो हालात के मुताबिक़ हो, अवाम के लिए फ़ायदेमंद हो और मौजूदा तक़ाज़ों को पूरा करता हो। उन्होंने उन कार्यों पर भी रौशनी डाली जो उनके ख़याल में वर्तमान मुश्किलों से निबटने के लिए करना ज़रूरी था।

1976 में मास्को में एक मशहूर सोवियत रिसाले ‘ग़ैरमुल्की अदब’ के नामानिगार से मुलाक़ात में फ़ैज़ ने पाकिस्तान की शक़ाफ़त के ही मौज़्ाू पर गुफ़्तुगू करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। यह भी इसका एक सुबूत है कि उन दिनों शक़ाफ़ती मसला फ़ैज़ की नज़र में किस क़दर अहम था। इस रिसाले में छपी गुफ़्तुगू में बेशुमार सोवियत लेखकों ने बड़ी दिलचस्पी ली थी। इस विषय पर फ़ैज़ की वह नज़्म है जो शायद एक ख़ास मक़सद से अंग्रेज़ी ज़बान में लिख्ी गयी यानी पाकिस्तान के सब दानिशिवरों की अपनी दूसरी (और बाज़ लोगों की तो शायद पहली) ज़बान है। नज़्म का उन्वान है ‘दि यूनिकार्न एंड दि डासिंग गर्ल’।

यूनिकार्न एक फ़र्जी असातीरी जानवर है, एक सींग वाले बैल की शक्ल में इस जानवर की सबसे पुरानी तस्वीर उन मोहरों पर मौजूद है जो सिंधु घाटी के क़दीम तरीन शहरों की खुदाई के वक़्त मिली। एक ऐसी मशहूर मोहर मोहनजोदड़ो से ताल्लुक़ रखती है। उस पर एक नर्तकी के साथ उसी यूनिकार्न का ख़ुदा हुआ नक़्श है। हज़ारों बरस पहले यूनिकार्न का पैकर एक सबसे अहम और पवित्रा अलामत होता था। इसका जिक्र अथर्ववेद और महाभारत में मिलता है। मसलन आलमी सैलाब के बारे में असातीर में ऋषि मनु ने अपनी किश्ती को यूनिकार्न के सींग से ही बांधा था। बाद में यूनिकार्न की पताका पश्चिम के और यूरोप के शुरुआती असातीरी सिलसिलों में भी नमूदार हुई। दूसरी और तीसरी सदी के यूनानी राज्यों में यूनिकार्न ने पवित्राता और सतीत्व की अलामत की हैसियत अपनायी। इसी कड़ी से आधुनिक ईसाई परंपरा की जड़ें जुड़ती हैं और जिसकी रौ से यूनिर्कान का ताल्लुक़ हज़रत मरियम और हज़रत ईसा से किया जाता है। रेनासां की यूरोपीय चित्राकला में भी यूनिकार्न एक अहम अलामत की हैसियत से मशहूर था। यहां इसकी शक्ल बदल गयी: ज़माने-ए-बुस्त की मग़रिबी तस्वीरों में वह कभी घोड़े और कभी भेड़ की सूरत में नज़र आता है। लेकिन उसकी पहचान वही है एक बड़ा सा सींग। इन सब असातीरी और सृजनात्मक परंपरा से फ़ैज़ अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। यह कोई इत्तिफ़ाक़िया बात नहीं थी कि यूनिकार्न के निशान की तरफ़ उनका ध्यान गया। इस पैकर के ज़रिये शायर ने इंसानियत की हज़ारों साल पुरानी तारीख़ से पाकिस्तान के गहरे ताल्लुक़ पर ज़ोर देने का और विश्लेषण के तौर पर पाकिस्तान को यूरोप की तहज़ीबी परंपरा की तुलना में क़दीम वतन क़रार देने का मक़सद रखा। अफ़सोस कि इस तारीख़ी हक़ीकत से उन परंपराओं के बहुत ही कम वारिस आगाह हैं! नज़्म की शुरुआत इस तरह होती है :

यह कविता अंग्रेज़ी में लिखी गयी थी और हम इसका हिंदी अनुवाद दे रहे हैं :

पाकिस्तान में और एशिया के दूसरे इलाक़ों में और अफ्ऱीक़ा जहाँ गुज़रा वक़्त है आज का वक़्त और वो माज़ी वो अतीत जिसे आदमी ने न इतिहास ने याद रखा जब न था कोई वक़्त या बस लावक़्त उस मौत की नगरी का और अनाम संतों की मज़ारों का जिनके तार-तार पैकरों के तले न जुटता कोई किसी संघर्ष के लिए

अपनी सरज़मीन की तारीख़ को शायर ने यूनिकार्न और नर्तकी इन दो अलामती किरदारों में समो दिया है। शुरू में एक शहर का ज़िक्र हुआ है। उसे मौत का और बेवक़्ती का शहर बताया गया जिसका सदर यूनिकार्न था :

उस यूनिकार्न का लावक़्त बरतन भांडों पर शासन करता हथियारों और अहंकारों पर उस मौत की नगरी का

लेकिन फिर एक नर्तकी नमूदार हुई जो वक़्त की और गति की अलामत की हैसियत रखती है। उसके नृत्य से वक़्त की पैदाइश हुई और ज़माना हरकत में आया :

थिरकते अंग इस नर्तकी के ललकारते स्तब्ध यूनिकार्न को और उनके उत्सवों का चंचल जल लपकता समुद्र को और जन्म लेता समय

शायर की कलम की जुम्बिश के जादू से काम करने वालों की आंखों में क़दीम क़ौमों की जिंदगी की जानदार तस्वीरें झलक उठती हैं। सदियां गुज़र जाती हैं :

और नगर उपजे मैदानों पर जो मरकज़ बने अनंत कारवां के इनसानी क़दमों ने चाप धरी लावक़्त पर्वत पर दस्तक दी पाथियन, बैक्ट्रियन, हून और सीथियन अरब, तातार, तुर्क और गोरे जब खुला वक़्त का पहला धागा यूनिकार्न जो है अतीत अंधे खुरों से जकड़ उसे लपेट लिया और क़ैद किया अपने भीतर

किसी भेदभरी दास्तान के अंदाज़ में यूनिकार्न के दायरे में रहने वाले इनसानों की तारीख़ का क़िस्सा जारी रखते हुए फ़ैज़ ने बताया कि यूनिकार्न ने अपने देश में वक़्त को चक्र में बंद करके, तरक़्क़ी को रोक दिया था। नृत्य करने वाली लड़की अपने नृत्य के चक्करों में बंध कर रह गयी। इनसान चक्कर काटते हुए एक जगह पर रहते रहे। उसकी वजह इस तरह बतायी गई :

वह काल का चक्र और रीति रिवाज अनजानी शक्तियों का चक्र निर्धारित है जिसपर सुंदरता की मृत्यु, जीवन का अंत और महानगरों का ख़ाक में मिलना

इसी चक्कर को तोड़ने की इनसानों की कोशिश पहले नाकाम रही और उन्होंने हथियार डाल दिये थे :

चुपचाप बोझ स्वीकारे जीवन का, अंधे बैलों से गिने दिनों को जीते चक्र को ढोते चक्र जो था काल बोझ जो था कर्म डर और इच्छा और दर्द मुरझाती उम्र का जिससे आती मौत रहमत की तरह और ज़ालिम, दिल जिसका सदा रहम से ख़ाली

इसी तरह सदियां गुज़र गईं लेकिन आख़िरकार नया ज़माना आया :

फिर कोशिश और जतन से ग़म, ख़्वाब, जरस और तड़प से अनगिनत बंदों की अनकही सदियों में ज़ंजीर झटक के तोड़ के चक्र ताल की मस्त दीवानगी छूटी

और जब यह जादू का चक्र टूटा तो ज़माने की तरक़्क़ी होने लगी। जिं़दगी की खु़शी और नृत्य की फ़तह हुई और यूनिकार्न एक नक़्श बनकर रह गया जो अब पाकिस्तान में अक्सर कपड़े पर या दीवारों पर एक तस्वीर की सूरत में नज़र आता है। मोहनजोदड़ो का यूनिकार्न पाकिस्तान का एक क़ौमी सांस्कृतिक निशान और पाकिस्तान की तारीख़ की एक अलामत बन गया है। उस तारीख़ की जो दुनिया की तहज़ीब जैसी पुरानी है। इस नज़्म में यूनिकार्न की अलामत मग़रिबी मुमालिक से पाकिस्तान की बराबरी की तरफ़ ही नहीं बल्कि उन पर यूनिकार्न के वतन की बरतरी की तरफ़ भी साफ़ इशारा किया गया है :

जन्मा वक़्त तब लावक़्त से हर जन्म सा बेहतर हसरत, आशा, सुख, ख़ौफ लिये जन्म जिसका पाकिस्तान में या एशिया के नये आज़ाद देशों में या अफ्ऱीक़ा में है नन्ही सी पताका विद्रोह की डर, भूख, पीड़ा और चाहत और इनसानी दिलों की मौत के खि़लाफ़

यह नज़्म उर्दू में तर्जुमा करके उसे अपने नये मज़मुए में शामिल करने का फ़ैज़ का नेक इरादा तो था लेकिन हमेशा की तरह दूसरे फ़ौरन करने वाले काम शायर को अपनी तरफ़ खींचते रहे। आज रूस समेत कई मुमालिक के क़ारीन अपनी-अपनी ज़बानों में इस नज़्म का तर्जुमा पढ़ सकते हैं लेकिन उर्दू में इसका तर्जुमा अभी तक नहीं हुआ।

और अब फ़ैज़ की हयात की कहानी पर लौट आयें। उनको बाहर से एक बार फिर दावतनामा मिला और शेरगोई में फिर से रुकावट पड़ी। पहले की तरह अब भी समाजी सरगर्मियों ने शायरी का वक़्त ले लिया। ‘इश्क़’ के बरखि़लाफ़, जिसमें शेरगोई भी शामिल थी, समाजी और सियासी सरगर्मियों ने शायरी का वक़्त ले लिया। फ़ैज़ सियासी और समाजी गतिविधियों को कर्म या काम कहते थे। काम या इश्क़ (यानी शायरी) पर तरजीह के मुश्किल फैसले में फंसा होना फ़ैज़ के लिए एक मामूली हालत होती थी।

1984 में लिखी हुई मज़ाहिया नज़्म ‘कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया’ उनकी इस तरह की कैफ़ियत की आईनादार है :

वह लोग बहुत ख़ुशकिस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिक़ी करते थे हम जीते जी मसरूफ़ रहे कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया काम इश्क़ के आड़े आता रहा और इश्क़ से काम उलझता रहा फिर आखि़र तंग आकर हमने दोनों को अधूरा छोड़ दिया!!

लेकिन लेनिन शांति पुरस्कार के बाद अंतर्राष्ट्रीय मैदान में फ़ैज़ की इज़्ज़त ज़्यादा बढ़ी। अब उनको अदीबों की अंजुमनों, अमन काउंसिल और मुख़्तलिफ़ जम्हूरी तंज़ीमों की तरफ़ से दावतनामे आते रहे। उन दौरों के लिए तक़रीरों और तहरीरों की तैयारी पर भी फ़ैज़ को बहुत वक़्त लगाना पड़ता था। सोशलिस्ट मुल्कों में पाकिस्तानी शायर की ख़ास क़द्र की जाती थी। उन तक़रीबन सारे मुल्कों की ज़बानों में उनके कलाम का अनुवाद हुआ और इसकी बदौलत उनकी शोहरत को चार चांद लग गये। दुनिया के भ्रमण के फ़ैज़ के रास्ते चीन और क्यूबा, अमरीका और मंगोलिया से गुज़रते थे। अल्जीरिया, मिस्र, तियूनिख़, शाम, ईराक़ में इंक़लाब नवाज़ दास्तानों के नुमाइंदे अदीब और शायर फ़ैज़ के क़रीबी दोस्तों में शामिल हुए। लेबनान तो उनकी ज़िंदगी का ख़ास हिस्सा बना। कई बरस फ़ैज़ बैरूत में ज़िलावतन होकर रहे और लेबनान की बरबादी के चश्मदीद गवाह बन गये।

फ़ैज़ की यात्राओं में यूरोप के शहरों में से लंदन बेशक पहले नंबर पर था। यहां एलिस के रिश्तेदारों के अलावा फ़ैज़ के वे हमवतन भी रहते थे जिनका ताल्लुक़ अदबी हलक़ों से था। यहां हमेशा उनके आने का इंतज़ार रहता था। लेकिन फिर भी गा़लिबन यह सोवियत यूनियन ही था जहां फ़ैज़ का सबसे जुरखुलूस, सबसे गर्मजोश और मोहब्बत से स्वागत किया जाता था।

अनुवाद: नूर ज़हीर मो: 09811772361