मंटो पर बायोपिक प्रबल संभावना है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :03 मार्च 2016
विगत वर्ष पाकिस्तान में सआदत हसन मंटो का बायोपिक प्ररदर्शित हुआ था और फिल्म सफल भी रही। मंटो की रचनाओं को उनके जीवन काल में भी युवा वर्ग बुजुर्गों से छिपाकर पढ़ता था और मंटो की रचनाओं के सत्य को झेलना पारंपरिक व दकियानूसी लोगों के लिए आसान न पहले था और न ही आज है। मंटो ने विभाजन की त्रासदी पर अनेक कहानियां लिखी हैं अौर उस अभिशप्त कालखंड के दर्द को महसूस करने के लिए मंटो को पढ़ना कुछ इस तरह है मानो बिना बेहोशी की दवा लिए स्वयं अपने मानस की चीरफाड़ करना। यूं भी मंटो आपको सुन्न कर देते है। अत: किसी किस्म के क्लोरोफार्म की आपको आवश्यकता नहीं है।
मंटो मनुष्य मन की रहस्यमयी कंदरा में जुगनू की रोशनी की तरह हमेशा रहे हैं और उनका जादू यह है कि उनका जुगनू किसी भी सर्चलाइट से ज्यादा रोशन है और भीतर तथा बाहरी अंधेरे को जूता मारता है। साहित्य, सिनेमा और समाज में 'जूता मारने' के इस साहस को सहन करना कभी भी आसान नहीं रहा। मंटो को कभी अपनी कुनैन को शकर में लपेटकर देना उचित नहीं लगा। उनकी एक कहानी का टाइटल है, 'खोल दो', जो कमोबेश उनके लेखन का सबसे संक्षिप्त परंतु सारगर्भित परिचय भी है। वे सारे परदे हटाकर मनुष्य को प्रस्तुत करते हैं। मनुष्य अपना निपट नंगा स्वरूप देखने से कतराता है। कबीर ने इस सत्य को रेखांकित भी किया है। 'घूंघट के पट खोल तोहे पिव मिलेंगे।' भारत में असंख्य पाठक आज भी मंटो के दीवाने हैं। अत: मंटो बायोपिक भारत में भी बन सकता है। इम्तियाज अली और रणवीर कपूर को यह प्रयास करना चाहिए। पाकिस्तान में बायोपिक की सफलता संकेत देती है कि भारत में भी इस तरह की फिल्म का स्वागत होगा, क्योंकि ये दोनों 'एक ही मांस के दो लोथड़ों के समान है।' रणवीर कपूर की अभिनय प्रतिभा का जमकर लाभ उन्हें इसी तरह की फिल्मों से मिल सकता है।
गौरतलब है कि दर्शक यथार्थ की घटनाओं पर बनी फिल्मों को भी पसंद करता है। हाल ही में 'नीरजा' की सफलता भी उत्साहित करने वाली है। दरअसल, ईमानदार प्रयासों की सफलता का प्रतिशत तथाकथित मसाला फिल्मों से अधिक है परंतु फिल्म उद्योग और उस पर लिखने वालों ने ऐसा भ्रम पैदा कर दिया है कि जीवन के यथार्थ से दूर काल्पनिक कथाओं को ही पसंद किया जाता है। इस तरह के साधारणीकरण को बार-बार अस्वीकृत किया जा चुका है। मंटो आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि केवल दिन ही सत्य नहीं है वरन रात के अस्तित्व में ही दिन का मूल्य समझ में आता है। पाकिस्तान के ही एक सीरियल का थीम गीत कुछ इस तरह है, 'सूरज की गठरी खोली, उसमें रोती रात मिली। मंटो की समकालीन इस्मत चुगताई की कहानी 'लिहाफ' पर भी फिल्म बन चुकी है। आश्चर्य है कि मंटो और शरत की जीवनियों पर अभी तक फिल्में नहीं बनी। इन लोगों ने बड़ा कष्टभरा जीवन भोगा है अौर जीवन के जंगली जानवर को उसके सींगो से ही पकड़ा है। इसकी दुम पकड़ने वालों को यह दूर फेंक देता है। इसी तरह सारा शुगुफ्ता का जीवन और काव्य भी फिल्म के लिए आदर्श विषय है। उसकी यह पंक्ति ही विचलित करने के लिए काफी है, 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ और भी है।' सिनेमा को जब भी 'बदन' से मुक्त किया जाता है, वह गहरा प्रभाव छोड़ता है और सफल भी होता है। पाठक और दर्शक को कमतर आंकना सृजन करने वालों का खोखला बहाना है और अपनी कमतरी को छिपाना है।