मंडरा रहे हैं भौरें गली-गली, कली-कली / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 जनवरी 2015
बिपाशा बसु का कहना है कि वह आैर उनके वर्तमान समय में अंतरंग मित्र करण ग्रोव्हर अपने-अपने शरीर को बहुत प्यार करते हैं आैर इतना ही प्रेम उन्हें भोजन से भी है। अत: चुस्त-दुरुस्त रहने के लिए नियमित कसरत करते हैं। बिपाशा बसु आैर जॉन अब्राहम ने अपना कैरियर महेश भट्ट की फिल्मों से शुरू किया था। उनके बीच गहरी मित्रता अंतरंगता में बदली आैर लंबे समय तक उनका रिश्ता चला। जॉन अब्राहम तो फिल्मों में आने के पहले ही जिम में विशेषज्ञ की तरह काम करते थे। उन्हीं के सान्निध्य में बिपाशा ने कसरत करना प्रारंभ किया। गौरतलब है कि पांचवें दशक में बंगाल से आई सुचित्रा सेन, छठे दशक में आई शर्मिला टैगोर तथा सातवें दशक में आई राखी कभी जिम नहीं गई आैर शरीर की चुस्ती के प्रति उनका कोई रुझान नहीं था परंतु बिपाशा बंगाल की होती हुई उनसे अलग रही आैर कमोबेश मुंबइया कन्या ही रही। दरअसल विगत दो दशकों में समाज इतना बदला है कि अब कही से भी आई कन्याएं महानगरीय ही लगती है। अत्यंत छोटे शहर से आई कंगना रनावत भी महानगरीय हैं परंतु उसकी सनक उसे आज भी अलहदा स्थान पर खड़ा करती है। क्या आधुनिक महानगरीय मिक्सी सारी क्षेत्रिय कन्याआें को एक ही तरह बनाती है। टेक्नोलॉजी ने दूरदराज के कस्बों आैर अंचलों तक पहुंचकर बहुत कुछ बदल दिया है।
एक इसी तरह का परिवर्तन यह है कि युवा वर्ग अधिकांश समय प्रेम में रहना चाहता है आैर अब बचपन की मोहब्बत को सीने से लगाए कोई देवदास पारो की ड्योढ़ी पर दम नहीं तोड़ता। बिपाशा को ही देखिए, जॉन अब्राहम के बाद वे हरमन बावेजा की मित्र रहीं आैर अब करण ग्रोव्हर की मित्र हैं गोयाकि आजकल यात्रा भले ही चंद गजों मात्र की हो परंतु रास्ते में सराय आैर मुसाफिर खाने बहुत हैं। यात्रा मुसाफिरखाना दर मुसाफिरखाना तय होती है परंतु कोई दरवेश नहीं है।
यह सचमुच विचार करने योग्य है कि युवा वर्ग मुसलसल प्रेम में क्यों पड़े रहना चाहता है आैर 'तू नहीं तो कोई आैर सही' की मानसिकता कैसे बनी है। यह मामला केवल कन्या तक सीमित नहीं, आजकल युवा नौकरियां भी जल्दी-जल्दी बदलते हैं। उनके सारे निर्णय पैकेज आधारित हैं। क्या यही 'पैकेज' केंद्रित मानसिकता उसे ऐसा भंवरा बनाती है जो फूल दर फूल मंडराता रहता है? क्या यही मानसिकता उसे बार-बार मोबाइल बदलने को प्रेरित करती है? यह भी संभव है कि बाजार क्षण प्रति क्षण इतने नए आकर्षण रचता है कि प्रलोभन रोकना संभव नहीं होता आैर यही बात नौकरियां बदलने से भी जुड़ी हो सकती है। क्या संचार आैर आवागमन के साधनों में क्रांति के कारण फासलों के साथ रिश्ते भी बदल गए हैं? टेक्नोलॉजी सिर्फ 'चिप' आैर चंद तारों का जाल नहीं है, वह मनुष्य के मन में समाने की क्षमता भी रखता है। आलू से बनी 'चिप्स' आैर मोबाइल इत्यादि यंत्रों की 'चिप' के बीच कौतुक से अचंभित युवा लगातार गति के चक्र में फंसता जाता है।
गति से संचालित मति में एक बेचैनी सदैव कसमसाती रहती है। आजकल मनुष्य तन्हाई के आइने में खुद को नहीं देखना चाहता। वह खामोशी के संगीत को भी नहीं सुन पाता क्योंकि उसके कानों में हमेशा मशीनों की गड़गड़ाहट गूंजती है। वह अपने आप से हमेशा भागता रहता है। उसके भीतर का शून्य ही उसे निरंतर प्रेम में डूबे रहने को मजबूर करता है। इस तरह प्रेम उसका नशा है, उसकी एलएसडी है अब जो युवा ड्रग्स के आदी होते हैं, उन्हें लेबल पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। पंजाब के उम्रदराज दोस्त ने मुझसे कहा कि लस्सी पीने वाला, भांगड़ा करने वाला युवा आज ड्रग्स का लतियड़ हो चुका है। दरअसल नशीले ड्रग्स के व्यापारी बहुत गहरा षड्यंत्र रचते हैं आैर मनुष्य के मनोविज्ञान से परिचित हैं। सच तो यह है कि ड्रग्स का संसार सारी व्यवस्थाआें को अपनी जेब में लेकर चलता है।
यह भीतर का शून्य मनुष्य को भंवरा बना देता है, वह दफ्तरों के ऊपर से छलांग लगाकर किसी अदृश्य 'पैकेज' की तलाश में भटकता रहता है। वह उस मृग की तरह हो गया है जिसे अपने भीतर छुपी कस्तुरी का ही ज्ञान नहीं है। यह सारा खेल प्रेम नहीं, उसके भ्रम का है। असल प्रेम हमेशा प्रतिबंधित होता रहा है। आज पंजाब की ड्रग्य व्याधि का कारण क्या है? हीर-रांझा हर कालखंड में मारे जाते रहे हैं।