मंसूर खान की अद्भुत किताब / जयप्रकाश चौकसे

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मंसूर खान की अद्भुत किताब
प्रकाशन तिथि : 19 नवम्बर 2013


नासिर हुसैन ने चार दशकों तक मसाला मनोरंजन गढ़ा और वे फॉर्मूला के आदी गुरु शशधर मुखर्जी के सबसे सफल फिल्मकार रहे। उनके मार्गदर्शन में उनके भाई ताहिर हुसैन ने भी सफल फिल्में बनाईं। नासिर के सुपुत्र मंसूर खान ने अपने चचेरे भाई के सुपुत्र आमिर खान को लेकर 'कयामत से कयामत तक' बनाई। मंसूर खान ने पहली साइकिल रेस केंद्रित 'जो जीता वही सिकंदर' बनाई और शाहरुख खान तथा ऐश्वर्या राय के साथ 'जोश' भी बनाई। जब मंसूर खान की प्रतिभा का सिक्का जम गया और हर सितारा उनके साथ काम करने को तैयार था तथा पूंजी निवेशकों की कतार उनके घर के सामने खड़ी थीं। तब मंसूर खान ने अपना सारा राजपाट छोड़ दिया और बेंगलुरु से कुछ दूरी पर कुन्नुर में 32 एकड़ में ऑर्गेनिक खेती शुरू की। वे अपनी पत्नी व बच्चों के साथ प्रकृति की गोद में स्वाभाविक जीवन जी रहे हैं। उन्होंने नर्मदा विस्थापितों पर भी अनगिनत फोटोग्राफ लिए हैं। वे उनके दु:ख दर्द से परिचित हैं। उन्होंने अपना पॉली हिल मुंबई का कोठियों जैसा भव्य बंगला अपनी बहन के पुत्र इमरान को दे दिया। जो युवा लोग मीडिया के माध्यम से सिनेमा के सतही स्वरूप को उसका पूरा सच मान लेते हैं, उन्हें मंसूर खान के बारे में जानना चाहिए।

हाल ही में मंसूर खान की लिखी आंखें खोल देने वाली पुस्तक 'द थर्ड कर्व' का प्रकाशन हुआ है। यह पाठ्यक्रम में शामिल करने वाली किताब है और तमाम नेताओं को इसे अवश्य पढऩा चाहिए। चुनावी कुरुक्षेत्र में दोनों पक्षों ने अपने रथों पर जो विकास का ध्वज लगा रखा है, उसके विनाशकारी पक्ष की जानकारी आम जनता को होना चाहिए। मंसूर खान एक भयावह तथ्य को रेखांकित कर रहे हैं कि विगत डेढ़ सौ वर्षों में हमने इस सर्वभक्षी विकास के लिए पृथ्वी की आधी संपदा फूंक डाली है। सच तो यह जितनी संपदा विगत पांच हजार वर्षों में खर्च हुई, उतनी संपदा विगत डेढ़ सौ वर्षों में ज़ाया कर दी है। बाजार की ताकतों ने अजीबोगरीब मायाजाल रचा है, जिसमें खरीददार स्वयं सिक्के की तरह खर्च हो रहा है और चमक दमक से इतना मुग्ध है कि उसको अपना तिल-तिल नष्ट होना भी समझ नहीं आ रहा है। बाजार का यह खेल छठे दशक में शुरू हुआ और भारत में आर्थिक उदारवाद ने इसके लिए सारे दरवाजे खोल दिए। इस विकास ने सारी सीमाओं को तोड़ दिया और इसकी भागमभाग में पूरी मानवता कराह रही है। आज भारतवर्ष में चुनाव का माहौल है। अत: सत्ता के लिए व्यापक पैमाने पर झूठ बोले जा रहे हैं परंतु सच्चाई यह है कि आवाम का सारा असंतोष सरकारों के विरोध में दिखाया जा रहा है। यहां तक कि आम जनता भी यह मान चुकी है और कई जगह असंतोष का कारण विभिन्न धर्मों की विभिन्न परिभाषाओं को भी माना जा रहा है परंतु सच यह है कि इस तथाकथित विकास ने धरती की संपदा का निर्मम दोहन कर लिया है। यहां तक कि पेट्रोल और कोयला पचास प्रतिशत से अधिक खत्म हो चुका है। इसलिए महंगाई बढ़ रही है क्योंकि विकास के चक्र को घुमाने वाला ईंधन समाप्त हो रहा है।

मंसूर खान ने रेखांकित किया है कि वैकल्पिक ऊर्जा का निर्माण उसके व्यय से महंगा होता है। किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में धरती का दोहन बंद करना और उसे पुन: संवारने का जिक्र नहीं है। अगर ठगने के लिए कर भी लें तो धरती को बचाने की सोच ही नहीं है उनके पास। कीटनाशकों का प्रयोग और प्रदूषण के कारण महंगे दामों में भी खाने की खरीदी हुई चीजों में जहर मिला है। हम यह भी नहीं महसूस कर पा रहे हैं कि हमारे अनचाहे ही धरती मां के असंतोष का हम बिंब बन गए हैं। शायद इसी कारण हमारे असंतोष और क्रोध का कोई परिणाम नहीं निकल रहा है। व्यवस्था नहीं धरती की अवस्था मुद्रा है।

मंसूर खान ने अपनी इस किताब में क्यूबा का उदाहरण दिया है जहां समाज ने अपनी एकजुटता से धरती को पुन: उसकी गरिमा लौटाने का प्रयास किया है और ऑर्गेनिक खेती के कारण तथा आवागमन के लिए साइकिल प्रयोग करके आवाम की सेहत भी सुधर गई है। क्यूबा के सफल प्रयोग से यह भी सामने आया है कि समस्याओं के हाईटेक निदान नहीं, वरन् मनुष्यों के परस्पर सुधरे रिश्ते ऐसा विकास करते हैं जिसमें धरती लहूलुहान नहीं होती। परिवर्तन के सार को समझा चाहिए। ऊर्जा (पेट्रोल, बिजली इत्यादि) के सूखते स्रोतों का मुकाबला सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना से भी किया जा सकता है। अर्थशास्त्री को अजीब लग सकता है कि महंगाई और उजड़ते स्रोतों का मुकाबला मानवीय मूल्यों की स्थापना से कैसे दिया जा सकता है। दरअसल मंसूर खान तमाम गहरी उलझनों का निदान एक सादगी से करते हैं। महंगाई नहीं मानवीय मूल्यों का अभाव मुद्दा है। मंसूर खान साहब ने तमाम किताबों की सूची भी दी है, परंतु उनके निदान गांधीवादी हैं। ज्ञातव्य है कि आमिर खान की सत्यमेव जयते में उठाए गए मुद्दों में से अधिकांश गांधीवादी सोच और चिंता से उपजे थे। गांधी का ग्राम विकास हम क्यूबा के प्रयोग में भी देख सकते है। मंसूर खान हमें गांधी का स्मरण कराने के लिए धन्यवाद।