मकड़ी का तार / अंकुतागावा

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जापानी साहित्य के मध्यकाल में जो युद्ध-साहित्य लिखा गया उस पर बौद्ध दर्शन का विशेष प्रभाव पड़ा है। अंकुतागावा (1892-1927) भी बौद्ध दर्शन से विशेष प्रभावित थे, इसका प्रमाण उनकी यह कहानी है। जापानी लेखकों में अंकुतागावा की रचनाओं का अनुवाद सबसे अधिक हुआ है।

एक दिन बुद्ध स्वर्ग के पद्म सरोवर के किनारे अकेले भ्रमण कर रहे थे।

सरोवर में खिलनेवाले पद्म मोतियों-से सफेद थे और उनका सुनहरी पराग उड़-उड़कर आसपास की सारी हवा को मादक सुगन्ध से भर रहा था।

स्वर्ग में सवेरा हो चुका था।

अन्त में बुद्ध सरोवर के किनारे शान्त खड़े हो गये और सरोवर को ढँकनेवाले पत्तों के बीच से अचानक वह नीचे का दृश्य देखने लगे।

नरक की जमीन स्वर्ग के पद्म सरोवर के एकदम नीचे थी, अतः अनन्त अन्धकार की ओर ले जानेवाली त्रिपथगा नदी तथा सूची पर्वत की बेधक चोटियाँ शुभ्र जल में से स्पष्ट दिखाई दे रही थीं।

तब उनकी नजर कन्दत नामक आदमी पर पड़ी जो अन्य पापियों के साथ नरक के तल में यातना भोग रहा था।

यह कन्दत बहुत बड़ा डाकू था जिसने बहुत-से बुरे काम किये थे, हत्याएँ की थीं और घरों में आग लगायी थी, लेकिन उसने एक अच्छा कर्म भी किया था। एक बार जब वह घने जंगल में से गुजर रहा था तो उसने मार्ग के साथ-साथ एक मकड़ी को रेंगते हुए देखा। पाँव को जल्दी से उठाकर वह उसे कुचलने ही वाला था, जब अचानक उसे ध्यान आया-नहीं, नहीं भले ही यह बहुत छोटी है, फिर भी इसकी भी आत्मा है। इसे बिना सोचे-समझे मार डालना शर्म की ही बात होगी, और उसने मकड़ी की जान बख्श दी।

नीचे नरक की ओर देखते हुए बुद्ध को ध्यान हो आया कि कैसे इस कन्दत ने मकड़ी की जान बख्श दी थी। और उस पुण्य के बदले में, उन्होंने सोचा, यदि सम्भव हुआ तो उसे वह नरक से छुटकारा दिलवाएँगे, सौभाग्यवश, जब उन्होंने इधर-उधर देखा तो उन्हें स्वर्ग की एक मकड़ी नजर आ गयी जो पद्म-पत्रों पर सुन्दर, रजत तार बुन रही थी।

बुद्ध ने खामोशी से उस तार को अपने हाथ में उठा लिया। फिर मोतियों-से सफेद पद्मों के बीच से उन्होंने उसे नीचे की ओर छोड़ दिया-सीधे नरक के तल की ओर।

नरक के तल पर कन्दत अन्य पापियों के साथ रक्त-सरोवर में डूब-उतरा रहा था। हर तरफ गहन अन्धकार था और जब कभी भी उस अन्धकार में से उभरने वाली किसी चीज की झलक दिखाई देती तो वह केवल भयावह सूची पर्वत की चोटियों की चमक ही होती। कब्र की-सी खामोशी हर तरफ छायी हुई थी। बस कभी-कभार पापियों की आहों की अस्पष्ट ध्वनि जरूर सुनाई दे जाती थी। इसका कारण यह था कि यहाँ आनेवाले पापी नरक की अनेक यातनाएँ भोग चुके थे और इस कदर टूट चुके थे कि उनमें जोर से चीखने की ताकत तक नहीं रह गयी थी।

अतः कन्दत भले ही वह बहुत बड़ा डाकू था - रक्त के कारण दम घुटता महसूस कर रहा था और किसी मरते हुए मेढक की तरह सरोवर में संघर्ष करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था।

लेकिन उसका समय आ गया। इस दिन, जब कन्दत ने भाग्यवश अपना सिर ऊपर उठाया और उसने रक्त सरोवर के ऊपर के आसमान की ओर देखा तो नीली ऊँचाइयों से उसे एक रजत मकड़ी का तार अपनी ओर आता दिखाई दिया जो उस निस्तब्ध अन्धकार में हलके-हलके चमक रहा था - जैसे उसे आदमी की आँखों से डर लग रहा हो।

जब उसने उसे देखा तो उसके हाथ खुशी से स्वयं ही ताली बजा उठे, अगर वह इस तार को पकड़कर उसके साथ-साथ ऊपर चढ़ता जाए तो वह निश्चित रूप से नरक से छूट जाएगा, बल्कि अगर सब ठीक-ठाक रहा, तो सम्भव है वह स्वर्ग में ही जा पहुँचे। तब उसे सूची पर्वत पर कभी नहीं घसीटा जाएगा।

न ही कभी रक्त सरोवर में डुबोया जाएगा।

जैसे ही उसके दिमाग में ये विचार आये, उसने तार को दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी पूरी सामर्थ्य के अनुसार ऊपर की ओर बढ़ने लगा। क्योंकि वह एक बहुत बड़ा डाकू था, इसलिए ऐसे कामों में तो वह माहिर था। पर कौन जाने नरक स्वर्ग से कितने मील दूर है। वह संघर्ष कर रहा था, लेकिन नरक से निकल पाना आसान नहीं था, थोड़ा-सा चढ़ पाने के बाद वह पूरी तरह शिथिल पड़ गया। अब उसके लिए एक इंच भी ऊपर चढ़ पाना सम्भव नहीं था।

अब चूँकि वह और कुछ नहीं कर सकता था, इसलिए वह थकान मिटाने के लिए रुक गया, और तार से लटके-लटके ही उसने अपने नीचे की ओर दूर तक नजर दौड़ायी। अब चूँकि उसने अपनी समस्त सामर्थ्य से चढ़ाई की थी, इसलिए वह यह देखकर हैरान हुआ कि वह रक्त-सरोवर, जिसमें वह अब तक रहा था, अन्धकार के गह्वर में छुप गया था। और भयावह सूची पर्वत उसके नीचे धीरे-धीरे चमचमा रहा था। अगर वह उसी गति से ऊपर चढ़ता गया तो नरक से छूटना उससे भी ज्यादा आसान हो जाएगा, जितना उसने सोचा था।

अपने हाथ को मकड़ी के तार में उलझाये-उलझाये ही कन्दत हँसने लगा और ऐसे स्वर में चिल्लाने लगा, जैसे स्वर में यहाँ आने के बाद वह कभी नहीं बोला था - सफलता। सफलता।

परन्तु अचानक उसने देखा कि नीचे तार पर अनेकानेक पापी बड़ी उत्सुकता लिये उसके पीछे-पीछे चढ़े आ रहे थे - ऊपर और ऊपर चींटियों के छोटे-मोटे जुलूस की तरह।

जब कन्दत ने ऐसा देखा तो एकक्षण के लिए तो वह आँखें ही झपकाता रह गया और उसका बड़ा-सा मुँह आश्चर्य और भय से मूर्खों की तरह खुला का खुला लटका रह गया।

यह कैसे मुमकिन था कि वह मकड़ी का तार जो उसके अकेले के भार से ही टूटता-सा लगता था, इतने सारे लोगों के भार को झेल रहा था?

अगर यह तार हवा में बीच से ही टूट गया तो यहाँ तक पहुँचने में लगा श्रम तो व्यर्थ जाएगा ही, वह स्वयं भी सीधा मुँह के बल नरक में जा गिरेगा!

लेकिन इस बीच सैकड़ों हजारों पापी अन्धकारमय रक्त-सरोवर में से निकल-निकलकर उस पतले, चमकीले तार पर पूरी शक्ति से चढ़ते चले आ रहे थे। अगर वह जल्दी ही कुछ नहीं करता तो तार निश्चित रूप से दो टुकड़े हो जाएगा और गिर पड़ेगा। इसलिए कन्दत ऊँचे स्वर में चिल्ला उठा - ओ पापियो! यह मकड़ी का तार मेरा है। इस पर चढ़ने की इजाजत तुम्हें किसने दी? उतरो। नीचे उतरो!

बस उसी क्षण वह तार, जिसमें टूटने के आसार अब तक तो दिखाई दिये नहीं थे, वहीं से टूट गया, जहाँ से कन्दत ने उसे थाम रखा था, और इसके पूर्व कि वह चिल्ला भी पाता, किसी लट्टू की तरह चक्कर खाता हुआ वह अँधेरे में मुँह के बल जा गिरा।

कुछ देर बाद, स्वर्ग की मकड़ी का पतला और चमकीला टूटा हुआ तार ही चन्द्र-तारकविहीन आकाश में लटक रहा था।

स्वर्ग के पद्म सरोवर के किनारे पर खड़े-खड़े बुद्ध ने, जो हुआ था, सब देखा था और जब कन्दत रक्त-सरोवर के तल में किसी पत्थर की तरह डूब गया तो उदास मुख लिये वह फिर घूमने लगे।

निस्सन्देह कन्दत का दयाहीन हृदय - जो केवल उसे ही बचा सकता था - और नरक में उसका पुनः पतन बुद्ध की आँखों को अत्यन्त करुण लगा। किन्तु स्वर्ग के पद्मसरोवर के पद्मों को ऐसी चीजों की परवाह नहीं थी। मोतियों-से श्वेत फूल बुद्ध के पाँवों के निकट झूम रहे थे। उनके झूमने से उसका सुनहरी पराग उड़-उड़कर समस्त वायु को सुगन्धित बनाये दे रहा था। स्वर्ग में लगभग दोपहर हो चुकी थी।