मकड़ी के जाले / कबीर संजय
कुएं दो थे। दोनों ही सूखे हुए। मल्लाहीटोला के पास वाले कुएं की मिट्टी है चिकनी। चूल्हा पोतने के लिए यहीं की मिट्टी सबसे ठीक है। एक डिब्बे में चिकनी मिट्टी का घोल तैयार रहता है। इसमें बोरे का एक टुकड़ा डूबा रहता है। दिन भर का खाना पकने के बाद इसी टुकड़े को चिकनी मिट्टी के घोल से भिगो-भिगोकर मां चूल्हे की पुताई करती है। घर का दुआरा, आंगन और कमरे में गोबर की लिपाई भी होती है। गाय के गोबर में पानी मिला दो तो वह काफी लिसलिसा हो जाता है। इसमें थोड़ा सा भूसा मिला कर पनैले से गोबर के इस घोल से घर के आगे का पूरा हिस्सा मां लीपती है। घर में नीम के तीन पेड़ हैं। बड़े-बड़े। ऊंचे। तीनों के नीचे चबूतरे से बने हैं। इन चबूतरों पर भी गोबर की लिपाई निश्चित है। गोबर, चिकनी मिट्टी, भूसा और पानी के घोल से तैयार लेप से लिपे-पुते चबूतरे वाले इन नीम के पेड़ों की शान निराली थी।
खपरैल के घर के बाद बरामदा था। जिसके बाद नीम के पेड़ों की छांव शुरू हो जाती। बीचो-बीच खड़े सबसे बड़े नीम के पेड़ के साथ आज अंची ने दुश्मनी कर ली है। नीम के तने से बिलकुल सटे हुए चींटे के बिल हैं। बिल तने से सटे हुए चबूतरे से नीचे सुराख करते हुए काफी नीचे तक गए थे। अंची ने चींटे के इन बिलों में पानी डालना शुरू किया। एक लोटा, दो लोटा, तीन लोटा। पानी के लोटे चींटे के बिल में खाली होते रहे। कुछ ही देर में चीटों के बिल में बाढ़ आ गई। काले रंग के बड़े-बड़े चींटे बाहर का मुआयना करने निकले। बड़े-बड़े सिर वाले। पीछे के पुट्ठे उठे हुए। सिर के आगे निकली दो मूंछों को ऊपर-नीचे करते हुए उन्होंने जानने की कोशिश की कि आखिर माजरा क्या है। अंची ने एक चींटे पर अंगुली रखकर उसे दबा दिया। चींटे का पुट्ठा तुरंत ही नीचे हो गया। मूंछे तेजी से ऊपर-नीचे होने लगी। ऐसे लगा जैसे किसी वीर योद्धा का किसी ने मान-मर्दन कर दिया हो। वह बौखला गया। अंची ने चीटों की अनुशासित सैन्य पंक्ति के आगे हाथ रख दिया। सेना की लाइन टूट गई। सेना बिखरने लगी।
एक चींटे ने खुराफात की जड़ का पता लगा लिया। उसने अंची की एक उंगली में तेजी से काटा। उसने अपने आरी नुमा दांतों की दोनों कतारों को अंगुली में चुभोया और उसे कस कर पकड़ लिया। एकबारगी तो अंची को तेज दर्द हुआ। लेकिन, उसने बर्दाश्त कर लिया। उसने चींटे को पीछे से पकड़कर खींचा। लेकिन, चींटे ने अपनी पकड़ ढीली नहीं की। अंगुली से खून की बूंदें चुहचुहाने लगी। अंची खिसिया गया। उसने तेजी से चींटे को खींचा तो चींटे का सिर उंगली से लगा रह गया और उसका धड़ नीचे से टूट गया। अंची ने उसका धड़ नीचे छोड़ दिया। चींटे का धड़ का सिर विहीन होने के बाद भी कुछ देर तक वहीं पर टहलता रहा। कभी वह गोल-गोल घूमने लगता, तो कभी इधर-उधर चक्कर काटने लगता। जैसे अपने सिर की तलाश कर रहा हो। अब अंची ने अपने नाखून फंसा कर उसके आरीनुमा जबड़ों को खोला। उसके दोनों आरी नुमा दांतों को अलग किया और अंगुली से छुड़ा दिया। सिर बेजान होकर गिर पड़ा।
अंची ने वहां घूम रहे एक बड़े से चींटे को पुट्ठे से पकड़ लिया। इस चींटे को वह अपनी आंखों के सामने ले आया। चींटा अपने दोनों स्पर्शकों को ऊपर नीचे कर अचानक गुरुत्वहीन होने का कारण तलाश रहा था। काले रंग के उसके सिर के आगे दो आरीनुमा दांतों की पंक्ति थी। इसी में फंसाकर वह बड़े से बड़ा सामान भी उठाकर अपने बिल तक ले जाता था। दोनों तरफ की आरियों में दांतों की पंक्तियां थीं। आगे पकड़ने के लिए हुक जैसा बना हुआ था। इन दांतों में फंसाकर वह किसी चीज को काटता तो उसके टुकड़े होने लाजिमी थे।
अंची ने इन हुकों में अपनी एक अंगुली का नाखून फंसा दिया। चींटें ने उसे काटने की कोशिश की। लेकिन, इतनी जल्दी नाखून को काटना उसके बूते के बाहर की बात थी। इसके बाद अंची ने दूसरे नाखून को फंसाते हुए चींटे का एक जबड़ा उखाड़ दिया। चींटा अगर चीख पाता तो शायद उसकी कराह बड़े-बड़ों के रोंगटे खड़े कर देती। लेकिन, अंची को दया नहीं आई। उसने चींटे का दूसरा जबड़ा भी उखाड़ दिया। जबड़ा विहीन करने के बाद उसने चींटे को जमीन पर छोड़ दिया। जबड़ा विहीन चींटा अधमरा सा होकर नीचे गिर पड़ा। उसे समझ भी नहीं आया कि ये मुंह लेकर वह अपने बिल में वापस जाए भी या नहीं।
अंची पानी का एक और लोटा भर लाया। उसने पानी बिल में उड़ेलना शुरू किया। बिल में पानी भर जाने के चलते अब उसमें से चींटियों की अनुशासित पंक्तियां बाहर निकलने लगीं। सबसे पहले कुछ कम उम्र के चींटे निकले। पतले-दुबले। किशोरों के जैसे। लंबाई खूब निखर आई हो, लेकिन हाड़ पर मांस नहीं चढ़ा हुआ। पुट्ठे नीचे झुकाए, कुछ घबराए से उनकी पंक्तियां नीम के पेड़ पर ऊपर चढ़ती गईं। इसके बाद अपने जबड़ों में अंडे दबाए चींटों की पंक्तियां निकली। सफेद, पारदर्शी ये अंडे ही हैं, यह समझने में अंची को जरा भी देर नहीं लगी। बल्कि कुछ में से तो काले रंग के चींटों की झलक सी भी मिल रही थी। सैकड़ों चींटे, सैकड़ों अंडे। इसके बाद ऐसे चींटे निकले, जिन्हें देखकर अंची भी आश्चर्य से भर उठा। चींटों के पंख निकले हुए थे। चीटों की एक लंबी कतार। सभी के पंख लगे हुए थे। चींटी की मौत आती है तो उसके पंख निकल आते हैं। तो हजारों-हजार की संख्या वाले इन चींटों की भी मौत नजदीक आ गई है। तभी इनके पंख निकल आए हैं।
इतनी देर में मां ने टिफिन तैयार कर दिया। एक अंची के लिए दूसरा मैडम दीदी के लिए। तिकोने पराठे तैयार किए। रोटी को गोल बेला, तेल में अंगुलियां डुबो कर गोल रोटी की सतह पर तेल लगाया। फिर रोटी को आधा मोड़ दिया। इसके बाद इस सतह पर फिर तेल लगाया। इसके बाद इसे आधा मोड़ दिया। अब एक तिकोन तैयार हो गया। इसी तिकोन को बेल लिया। तवे पर इसे तेल लगाकर सेंकने के बाद तिकोना पराठा तैयार। इस तिकोने पराठे की कई त्वचा थी। एक के नीचे एक। एक परत उठाओ तो दूसरी निकल आती थी। ऊपर की परत खूब अच्छी तरह से सिंकी हुई। लेकिन उसके अंदर जैसे गीले आटे की परत हो, जैसे कोई त्वचा हो। गरम हो तो इस त्वचा से भाप निकलती लगती है। तिकोने पराठे, सूखी सब्जी और अचार। दो टिफिन हो गया तैयार।
चींटों में उलझे अंची को मां ने पकड़ा। उसे स्कूल के लिए तैयार करने लगी। मां के हाथ खुरदुरे। बर्तनों पर राख और कोयला मलते-मलते हाथों की बिवाइयों में काली-काली रेखाएं उभर आई थीं। अंची को स्कूल की यूनिफार्म पहनाने के बाद उन्होंने सरसों के तेल की शीशी अपने एक हाथ में उलटकर दूसरे हाथ की अंजुरी में तेल निकाला। इसे अंची के सिर में डाल दिया। तेल पूरे सिर में अच्छी तरह से लग जाए, इसके लिए वह कुछ देर तक पूरे सिर के बालों को ऊपर-नीचे करती रहीं। अंची को बार-बार उलझन होती और वह अपना सिर हटा लेता। लेकिन, मां उसे सख्ती से पकड़कर सिर के बालों में तेल चुपड़ती। उसे लगा कि जैसे बाल उखड़ जाएंगे। लेकिन, मां ने छोड़ा नहीं। इसके बाद वे बालों में कंघी करने लगीं। अंची की ठुड्डी पकड़ी और मांग निकालने लगी। मां हमेशा सीधी मांग निकालतीं। यानी दाहिने हाथ वाले बच्चे के लिए बाईं तरफ से मांग निकाला जाता है। बाएं हाथ वाले बच्चे के लिए दाईं तरफ से। मांग निकालने का यही तरीका है। मां ने ठुड्डी पकड़ी, मांग पर ध्यान लगाया, तो अंची ठुड्डी छुड़ाकर दूसरी तरफ देखने लगा। मां ने फिर ठुड्डी को जोर से पकड़ा, इस बार अंची ने अपना चेहरा पीछे छिपा लिया। मां के खुरदुरे हाथों से चेहरे की त्वचा छिलने सी लगती। बाल झाड़ने में हमेशा ही यह कशमकश चलती है।
अंची ने आलमारी की दीवार में सबसे ऊपर टंगी घड़ी देखी। छोटी वाली सुई नौ पर पहुंचने वाली है और बड़ी वाली सुई आठ पर। बस स्कूल का टाइम हो गया। फिर आलमारी में सबसे ऊपर रखे दो तोतों पर उसकी निगाह टिक गई। ऊन से बने हुए। हरे रंग के। चोंच लाल रंग की। ये मैडम दीदी ने बनाए थे। उन्होंने ही दिए थे। तब से ही ये आलमारी में लगे हुए थे। भाई ने एक दिन कहा था कि मन करता है कि इस तोते की गर्दन मरोड़ दूं। उसने भाई से पूछा, इसके अंदर क्या है। भाई ने कहा भूसा।
खैर अंची तैयार हो गए। टिफिन बस्ते में रख दिया गया और अंची अपने स्कूल की तरफ चल पड़े।
पूरे घर में जगह-जगह अंची ने कई राज छिपा रखे थे। स्कूल से लौटने के बाद अपने जिस राज की सबसे ज्यादा फिक्र अंची को थी, वह उसी की तरफ भागा। घर एक कोने में घूर। घर भर का कूड़ा और गाय का गोबर यहीं फेंका जाता। इस घूरे के एक कोने में खड़ा करौंदे का पेड़ जैसे अंची के इंतजार से ही डरकर सिर झुकाए खड़ा था। खूब घना। करौंदे के इस पेड़ में लाल-सफेद करौंदे की झालरें सजी रहतीं। अंची ने एक करौंदा तोड़कर मुंह में डाल लिया। मुंह के अंदर चुम्हलाने में ही अंची का काफी समय लग गया। फिर वह धीऱे-धीरे करौंदे के पेड़ के अंदर की झाड़ियों की तरफ गया। यहां से पेड़ पर चढ़ने की भी राह बनी हुई थी। पेड़ में छोटे-छोटे लेकिन तेज कांटे लगे हुए थे। कांटों से बचते-बचाते अंची ऊपर चढ़ने लगा। पेड़ ज्यादा बड़ा नहीं था। लेकिन घना था और इसकी डालें इतनी पतली थी और निकलने का रास्ता इतना तंग कि इस पर चढ़ना आसान नहीं था। दो डालों को पार कर अंची पेड़ की फुनगी पर पहुंच गया। पेड़ ऊपर से छाते जैसा था। इन घनी पत्तियों के छाते के नीचे अंची बैठा हुआ था। इसी फुनगी के पास दो डालों के मिलन स्थल पर उसका सबसे गहरा राज छिपा हुआ था।
एक छोटा सा घोसला। घास के तिनकों को गोल-गोल घुमाकर घोसला बनाया गया था। सरपत या कासे के फूलों को इसके अंदर सजा कर गरमाहट की गई थी। अंची ने अपना हाथ घोसले के अंदर डाल दिया। अपनी कांपती अंगुलियों से वह घोसले के अंदर टटोलने लगा। वही तीन अंडे है। उसने अपनी अंगुलियों की मुट्ठी बनाई और तीनों अंडे बाहर निकाल लिए।
कभी भाई ने बताया था कि घोसले के अंडे को हाथ नहीं लगाना चाहिए। उसकी गर्मी खत्म हो जाती है। हाथ लगाने से अंडा बिरंडा हो जाता है। उसमें से बच्चे नहीं निकलते। लेकिन अंची से इतना धैर्य बर्दाश्त नहीं हुआ। गहरी ईंट के रंग के लाल छोटे-छोटे अंडे करौंदे के आकार के ही थे। अपनी हथेलियों को अलट-पलट के वह अंडों को देखने लगा। एक अंडे को उसने अपनी अंगुलियों में उठाया और गौर से देखने लगा। अंडे पर बहुत छोटी-छोटी चित्तियां थीं।
इतने में ही ललमुनिया आकर शोर करने लगी। लाल रंग की यह छोटी चिड़िया थी। इसके पंखों पर सफेद चित्तियां पड़ी हुई थीं। अपनी छोटी सी चोंच को उठाकर वह कीं-कीं करने लगी। इतने में ही उसका जोड़ीदार भी आ गया। वह भी अपनी चोंच उठाकर कीं-कीं करने लगा। दोनों कभी एक डाल पर बैठते तो कभी दूसरी। कीं-कीं। उन्हें देखकर अंची को ऐसा ही महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे चोरी करते रंगे हाथों पकड़ लिया हो। चुपचाप उसने तीनों अंडे घोसले में रख दिए। लेकिन ललमुनिया के जोड़े का शोर नहीं थमा। दोनों एक-डाल से दूसरी पर फुदक-फुदककर की-कीं का शोर करते रहे। इससे तंग होकर अंची ने एक को पकड़ने के लिए झपट्टा मारा। लेकिन, दोनों फुर्र हो गए। थोड़ी दूरी पर बैठकर वह और जोर-जोर से चिल्लाने लगे।
लेकिन, अंची हटा नहीं। वह ढिठाई से बैठा रहा। नहीं जाऊंगा, क्या कर लोगी। एक बार फिर उसने ललमुनिया पर झपट्टा मारा। लेकिन, वह फिर से फुर्र हो गई। और इस बार तो उसने कुछ ज्यादा ही लंबा झपट्टा मारने की कोशिश की थी। पेड़ से गिरते-गिरते बचा। वह कुछ देर वहीं बैठा रहा। अब ज्यादा देर दाल गलने वाली नहीं है। वह चुपचाप नीचे उतर आया।
करौंदे के पेड़ की निचली झाड़ियों में एक और रहस्य बैठा उसका इंतजार कर रहा था। घूर से सटी करौंदे की झाड़ियों में ढेरों जाले लगे हुए थे। मकड़ी के इन जालों में भी कमाल छिपा हुआ था। किसी जाले के कोने में तो किसी जाले के बीच में मकड़ी बैठी अपने शिकार का इंतजार कर रही थी। एक मकड़ी अपने जाले की मरम्मत करने में जुटी हुई थी। सुनहरे-नीले रंग की एक बड़ी मक्खी उसके जाल में फंस गई थी। लेकिन, उसने जाले को तोड़ दिया। अब इस जगह की मरम्मत करने में मकड़ी जुटी हुई थी। लंबे-लंबे पैर। पीठ पर धारियां बनी हुई। अपनी पूंछ से वह एक धागा का सा निकालती जाती और उसके पतले-पतले तंतुओं से पहले लकीरें खींचती, फिर उन पर गोल-गोल छल्ले बनाकर चिपकाती जाती।
अंची ने उसके जाले के एक तंतु को खींचा। पूरा जाला हिलने लगा। मकड़ी अपने जाले से भागने लगी। उसने जाले के तंतु को तोड़ दिया। पूरे जाले की शक्ल बिगड़ गई। अब वह मकड़ी को पकड़ने की तरफ बढ़ा। मकड़ी तुरंत ही भागकर पत्तियों के पीछे छिप गई। उसने पत्तियों को खंगालना शुरू किया। मकड़ी को मारने में खास सावधानी बरतनी पड़ती है। एक बार उसने दीवार पर बैठी हुई मकड़ी को पूरा पंजा मार दिया था। मकड़ी की चटनी बन गई। लेकिन, मकड़ी के शरीर पर छोटे-छोटे रोएं जैसे, कांटे जैसे फांस थी। उसकी पूरी हथेली पर उसके फांस गड़ गए। काफी देर तक दर्द होता रहा, खुजली होती रही। इसके बाद से ही मकड़ी को पकड़ने और उसे मारने में अंची खास सावधानी बरतने लगा।
मकड़ी पत्तियों के पीछे छिपी हुई थी। अंची ने पूरी टहनी को पलट दिया। पेड़ों की पत्तियां उलटी होकर दिखने लगीं। अरे यह क्या, कुछ पत्तियों पर रुई के छोटे गोले जैसे चिपके हुए थे। उसने रूई के गोले को निकालना शुरू किया। नहीं ये रूई के गोले नहीं, ये तो मकड़ी के जाले जैसे ही थे। मकड़ी ने अपने जाले से ये गोल-गोल थैलियां सी बनाई थी। अपनी दो उंगलियों के बीच उसने एक थैली को दबाई तो पिच्च हो गई। उस थैली से कुछ गाढ़ा-गाढ़ा सा, पीला सा पदार्थ निकला। उसके हाथ में यह पिच्च लफंद गई। मन घिन से भर गया। पेड़ की डाली पर वह इसे पोंछने लगा।
अपनी अंगुलियों को पेड़ की डाली के साथ लपेट-लपेट कर पोंछने के बाद उसने मकड़ी के जाले से बनी एक बड़ी सी थैली को पेड़ की पत्ती से नोंच लिया। इस बार उसने उसे पिच्च नहीं किया। धीरे-धीरे कर उसने थैली की एक-एक परत खोलनी शुरू कर दी। ये परतें उधड़ने लगीं। पूरी थैली खुल गई। उसके अंदर से मकड़ी के ढेर सारे बच्चे निकल आए। थैली का मुंह खुलते ही मकड़ी के बहुत ही छोटे-छोटे बच्चे अपने आठ पैरों पर चलते हुए भागने लगे। जैसे किसी अंधेरे बंद कमरे में बैठे बच्चे सिर्फ दरवाजा खुलने का ही इंतजार कर रहे थे। अंची की अंगुलियों में अजीब सी झुरझुरी होने लगी।
छोटे-छोटे मकड़ी के बच्चे। इनके पैर भी मकड़ी के जाले जैसे पतले और पारदर्शी लग रहे थे। चीटिंयों के अंडों की तरह पारदर्शी उनके पेट थे। उसकी हथेलियों पर मकड़ी के बच्चे फैल गए। कुछ हथेली से लुढ़ककर नीचे गिर गए। कुछ उसकी हथेली से होते हुए उसकी कोहनी की तरफ बढ़े। अजीब सी झुरझुरी हुई। उसने अपने शरीर पर चढ़ते मकड़ी के बच्चों को झाड़ना शुरू किया। किसी तरह से सबको नीचे गिराया। एक बच्चे को अपनी हथेली पर एक अंगुली से हल्के से दबाकर उसने रोक लिया। अंगूठे और तर्जनी से उसे पकड़कर उसने पीठ से पकड़ा और ऊपर ले आया। मकड़ी का बच्चा सीधा होने के लिए अपने दोनों पैरों को हवा में फेंक रहा था। शायद ऐसे ही उसे कोई ठोस चीज पकड़ पाने की उम्मीद हो जिसे पकड़कर वह चल सके। उसने मकड़ी के बच्चे को वहीं से हवा में छोड़ दिया। लेकिन मकड़ी के बच्चे को नीचे गिरकर चोट नहीं लगी। वह हवा में किसी पेड़ के पत्ते की तरह लहराता हुआ सा नीचे गिरा। उसके आठों पैर हवा में पैराशूट की तरह लहराने लगे। नीचे उतरते ही वह दोबारा पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करने लगा।
तो यह मकड़ियों का घोसला है। अब अंची ने पत्ती पर चिपके एक और घोसले को पत्ती की उलटी तरफ से खींचा। इसकी एक-एक परत उसने धीरे-धीरे कर हटाई। इस थैली में ढेर सारे अंडे थे। छोटे-छोटे। सरसों या बाजरे के दानों से भी छोटे। लेकिन सरसों के दानों की तरह काले नही। बाजरे के दानों की तरह सफेद भूरे नहीं। पारदर्शी से। उनके बाहर-भीतर झांका जा सकता था। उसने अंडे अपनी हथेली पर बिखेरने की कोशिश की। कुछ अंडे बिखरे और कुछ चिपके रहे। उसने अपनी अंगुली से एक अंडे को उठाने की कोशिश की तो वह पिस गया। पिच्च। अंडा फूट गया। लेकिन उसकी अंगुली में एक अंडा चिपक गया था। अपनी अंगुली को आंखों के पास लाकर उसने देखा। यह अंडा छोटा था। पारदर्शी। लेकिन, इसमें मकड़ी का बच्चा क्यों नहीं दिख रहा है। बच्चा तो इसमें ही होगा। उसने उसको देखने की खूब कोशिश की लेकिन कुछ नहीं दिखा।
अंडे में बच्चे आते कहां से हैं। इस अंडे में तो कुछ नहीं दिखता। अंडे को खोलकर देखे तो। उसने अपने नाखूनों में फंसाकर अंडे को खोलने की कोशिश की। लेकिन अंडा फूट गया। उसका द्रव बाहर आ गया। अब उसने दोबारा मकड़ी की तरफ अपना ध्यान लगाया।
मकड़ी टहनी के एक तरफ छुपी हुई अपने जाले और अपने बच्चों की तबाही देख रही थी। अंची ने हाथ घुमाकर टहनी के एक तरफ से उसे निकाला और पीठ की तरफ से पकड़ लिया। अब वह गौर से उसे देखने लगा। जाला कहां से निकलता है। उसने मकड़ी को धीरे से जमीन पर छोड़ दिया। मकड़ी तुरंत ही एक जाले के सहारे नीचे गिरने लगी। जैसे किसी रस्सी से नीचे उतर रही हो। उसके जमीन पर पहुंचते ही अंची ने दोबारा उसे उठा लिया। इस बार फिर धीरे से छोड़ा। मकड़ी फिर से एक तंतु के सहारे नीचे उतरने लगी। इस बार अंची ने उसे फिर से उठा लिया। ये जाला निकलता कहां से है। पीठ से पकड़कर वह मकड़ी को अपनी आंखों के पास ले आया। उसने उसके मुंह की तरफ देखा। कुछ खास समझ नहीं आया। इसका मुंह कहा हैं। मुंह के पास भी पैर जैसे ही दीख रहे हैं। हां कुछ हुक जैसा है तो। फिर उसने उसकी पूंछ की तरफ देखा। हां, इसी पूंछ से जाले पैदा होते हैं। उसने अपनी दोनों अंगुलियों से उसका पेट दबाना शुरू किया।
अब निकलेगा जाला। अपने से निकालती है तो पतला जाला निकलता है। मैं दबाकर मोटा जाला निकालूंगा। अंची ने उसे तेजी से दबाया तो मकड़ी का पेट पिच्च से फूट गया। उसके अंदर से सारा तरल पदार्थ बाहर आ गया। अंची की अंगुलियां एक बार फिर से उस घिनावने पीले-गाढ़े द्रव से सन गई। अपनी अंगुलियों को वह पेड़ की डाल से पोंछने लगा।
अब उसने दूसरी मकड़ी के जाले को देखा। इस जाले में एक लंबे पैरों वाली मकड़ी एकदम बीच में बैठी हुई थी। एक कोने पर एक मक्खी फंसी हुई थी। उसने मक्खी को धीरे से जाले से नोंच लिया। लेकिन, मक्खी में जान नहीं थी। जान ही नहीं उसमें कुछ भी नहीं था। मक्खी सूखी हुई थी। उसके अंदर जो कुछ भी था, उसे मक्खी पी चुकी थी। मक्खी को पूरी तरह से चूस लेने के बाद मकड़ी ने उसे अपने जाले के एक कोने से चिपका हुआ छोड़ दिया था। मकड़ी की इस हरकत पर अंची को गुस्सा आ गया। उसने अपने दोनों हाथों की तलवार बनाई और दोनों तलवारों से जालों को काटने लगा।
तलवार के वार से जालों का जंगल तहस-नहस होने लगा। अंची की हथेलियों पर जाले की एक परत जम गई। उसने सारे जाले काट डाले। उसकी तलवार के एक वार से ही जाले का क्रियाकर्म हो जाता। अब उसने अपने हाथों पर चढ़ी जाले की पूरी परत उतारी। जाले की एक मोटी परत। जो उसकी अंगुलियों को बांधने लगी थी। उसने पूरे जाले को अपने हाथों से नोंचा। नोंच-नोंचकर उसे गोल करने लगा। जालों की गोलियां बनाकर उसने उन्हें नीचे फेंका। अरे वाह, ये तो मजेदार है। जाले गोलियां बन गए हैं। लेकिन अभी भी चिपकते हैं। गोली एक हाथ पर चिपक जाती तो उसे हल्के से छुड़ाकर वह नीचे कर देता। ये गोलियां भी चिपक रही थीं।
ये खेल अभी न जाने कितनी देर चलता कि मां बुलाने आ गई। स्कूल की पूरी ड्रेस गंदी हो गई थी। नीले रंग की हाफ पैंट और सफेद रंग की कमीज। दोनों पर जगह-जगह जाले लग गए। पैंट और कमीज धूल से अटी हुई थी। करौंदे के पेड़ से निकलने वाले दूध की बूंदे भी कपड़ों पर चिपकी हुई थीं। सफेद रंग की कमीज पर तो नहीं लेकिन, पैंट पर दूध की गंदगी भी साफ पता चल रही थी।
मां ने उसके कपड़े उतारे। उन्हें एक बालटी में भिगो दिया। खाली बालटी नल के नीचे लगाई। नल की टोंटी खोल दी पानी आने लगा। नल के पास शरीफे का पेड़ लगा हुआ था। खिली हुई धूप थी। मां नल के बगल में बैठकर कपड़े धुलने लगी। अंची बालटी के पानी से खेलने लगा। बीच-बीच में उसकी निगाह शरीफे के पेड़ पर बैठे गिरगिट पर जाकर टिक जाती। गिरगिट रंग बदलता है। कैसे। देर तक वह देखता रहा। लेकिन नहीं रंग नहीं बदला। इस बीच गिरगिट अपना मुंह हिलाने लगा। ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे। जैसे किसी बात पर हामी भर रहा हो।
मां ने टोंका, पानी क्यों नहीं डाल रहे। पानी काट रहा है क्या। नहाओ।
अंची ने लोटे से अपने ऊपर पानी डाला। ठंडे पानी की सुबकी सी लगी। उसने जल्दी-जल्दी कर लोटे में पानी भर-भर कर अपने ऊपर डालना शुरू किया। अब मां चिल्लाई, छींटा न उड़ाओ। धीरे-धीरे पानी डालो। सब भीग रहा है।
अंची ने हाथों की रफ्तार थोड़ी धीमी की। साबुन की बट्टी निकाल ली। अपने हाथों पर रगड़कर झाग बनाने लगा। ढेर सारा झाग बन गया। उसने अपने मुंह के पास ले जाकर झाग में फूंक दिया। झाग उड़ने लगा। उसके साथ साबुन के एकाधे बुलबुले से भी उड़ने लगे। ये खेल तो और मजेदार था। उसने फिर ढेर सारा झाग अपनी हथेलियों से बनाया। साबुन को देर तक हथेलियों पर मलता रहा। उसके बाद झाग उड़ाना शुरु कर दिया।
खेल बंद नहीं होगा तुम्हारा, मां चिल्लाई। अंची के कपड़े अब तक वह धो चुकी थीं। उसने लोटे में पानी लिया और अंची के सिर पर उड़ेल दिया। उसके बाद उसने पूरे शरीर पर साबुन लगाया। साबुन से अंची का पूरा शरीर चिकना हो गया। मां ने उसकी मैल छुड़ानी शुरू की।
देखो तो गर्दन के पास कितनी मैल जमा हो गई है, रोज साफ करो तब भी गर्दन साफ नहीं होती। पता नहीं कितनी गंदगी आकर जमा हो जाती है। मां ने तेजी से गर्दन रगड़ना शुरू किया तो अंची को रोना आने लगा।
अम्मा बस करो, बस करो अम्मा। दर्द हो रहा है।
अरे तो देखों कितनी मैल छूट रही है। मां ने उसके दोनों हाथों को पकड़ा और उसमें से मैल छुड़ाने लगी। फिर पीठ की मैल छुड़ाई। मैल छुड़ाने के बाद अम्मा ने लोटे से पूरे शरीर पर पानी डालना शुरू किया। नहलाने के बाद तौलिए से पूरा शरीर पोंछा और ठुड्डी से मुंह पकड़कर बालों में कंघी करने लगीं। कपड़े पहनने के बाद अंची राजा बेटा होकर बैठ गए। अम्मा ने खाना निकाल दिया। थाली में एक तरफ चावल, उसके साथ दाल-सब्जी और चटनी। अंची अपने हाथों से चावल-दाल सानकर खाने लगे।
मां की आंखे भीग गईं। अंची खाते जा रहे थे। अंची बोलते कितना कम हैं। कोई बात पूछो तो सिर्फ हां-नहीं में जवाब देते हैं। इतना चुप क्यों रहते हैं। पेड़ों से बतियाते हैं। हर दम पेड़ पर चढ़े रहते हैं या फिर घर के किसी कोने में दुबके रहते हैं। बोलते क्यों नहीं। खेलते क्यों नहीं।
छह महीने हो गए। बड़ा भाई घर से भाग गया। छठवीं क्लास में पढ़ता था। रक्षाबंधन के दो दिन बाद की बात है। एक बार गया तो लौटा ही नहीं। पता नहीं कहां गया। दोनों साथ बैठकर खाते थे। बगल का पीढ़ा खाली है। पता नहीं खाना खाया भी होगा या नहीं। कहां होगा। कैसे होगा। कहीं हाथ-पैर काटकर कोई भीख तो नहीं मंगवा रहा। कैसा होगा मेरा बेटा। मां की आंखें भीगती रहीं।
अंची ने पूछा, क्या हुआ अम्मा।
कुछ नहीं, मां ने आंखों के किनारे से आंसू पोंछ लिए।
बस ऐसे ही स्कूल से आए थे नंदू और अंची। नदूं छठवीं में गए थे और अंची पहली में। दोनों का पीढ़ा अगल-बगल लगा हुआ था। दोनों साथ बैठे खा रहे थे। अरहर की दाल, चावल, भिंडी की सब्जी और आम की चटनी। अरहर की दाल में छौंके गए लहसुन तैर रहे थे। फिर क्या हुआ। पता नहीं। बस शाम को कब निकल गया। पता नहीं। कहां गया। कैसे गया। जब काफी रात हो गई और वह नहीं आया तो खोज शुरू हुई। आसपास पता किया। लेकिन कहीं मिला।
इसके पापा को बताया तो उलटे बिगड़ने लगे। बहुत आवारागर्दी चढ़ गई है। आने दो। हाथ-पैर तोड़कर घर में बैठा दूंगा।
जब दो दिन हो गए तब ललन को चिंता हुई। आसपास के लोगों से पूछा। हालांकि, साथ में बड़बड़ाते जाते, आजकल के लड़कों के दिमाग चढ़ गए हैं। आने दो साले को। खुद जब भूख लगेगी और खाने को नहीं मिलेगा तब पता चलेगा। लेकिन नंदू नहीं आया।
तब से मां को हर खड़के पर लगता कि नंदू आया है। रात में नींद खुल जाती। नंदू आया है। मां हर दिन कम से कम एक बार जरूर उस दिन को याद करती। कैसे नंदू ने खाना खाया था। फिर कहीं चला गया। उसके बाद तो उसको दोबारा खाना खिलाना भी नसीब नहीं हुआ।
मां खिड़की के उस ताके की तरफ बार-बार निगाह दौड़ाती। इसी ताके पर कभी-कभी दिन-दिन भर बैठा रहता था नंदू।
ललन को नंदू की चिंता से ज्यादा उस पर गुस्सा आ रहा था। पता नहीं कहा भाग गया। लेकिन मां की परेशानी बढ़ रही थी। कौन उठा कर ले गया मेरे बच्चे को। मां ने अपनी जान सबकुछ किया। मंदिरों में मनौतियां मानी। गंगा मइया की पूजा की। तुलसी पर रोज जल चढ़ाया। मजार के पास एक बाबा बैठते थे। वो काजल की डिबिया में देखकर हाल बताते थे। मां उनके पास भी गई। बाबा ने काजल की डिबिया खोली। मां के सामने रखा और पूछा। कुछ दिख रहा है। मां को कुछ नहीं दिखा।
बाबा ने बताया कि चिंता न करो, यहां से पश्चिम दिशा में है। सब ठीक है। खाना मिल रहा है।
मां ने पूछा, बाबा कब आएगा वो।
बाबा बोले, जब उसका मन होगा लौट आएगा।
क्यों चला गया वो घर से
उसे किसी बात की चिंता खाए जा रही है
कौन सी चिंता
पता नहीं
बाबा, उसका पता बता दो, हम खुद ले आएंगे
बस, अभी इतना जान लो कि पश्चिम दिशा में है
बाबा को काजल की उस डिबिया में साफ-साफ सबकुछ दिखाई दे रहा था। लेकिन मां कुछ नहीं देख पाई। लेकिन, मन के किसी कोने में एक छोटी सी दिलासा लेकर लौटी। चलो, जहां भी है ठीक है।
लेकिन मां के दिल को तसल्ली कहां।
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अंची ने खाना खा लिया।
मां उसके बैग से टिफिन निकालने लगी। अंची का टिफिन निकाला। टिफिन खाली था। मैडम दीदी का टिफिन निकाला। टिफिन भरा हुआ था।
ये टिफिन मैडमजी को दिया नहीं, मां ने अंची से पूछा।
नहीं, आज स्कूल में वो नहीं आई थीं।
अच्छा क्या हुआ।
पता नहीं।
अम्मा टिफिन खाली करने लगी। टिफिन में रखे पराठे पसीज कर गीले हो गए थे। अम्मा ने पराठे निकाले और उसकी गीली हुई परत निकालकर उसे बाहर कर दिया। बाकी पराठे अपनी थाली में रख लिया। अपना खाना निकाला और खाने लगीं।
अम्मा, मैडम दीदी का टिफिन हम क्यों ले जाते हैं। अंची ने धीरे से पूछा।
उनका घर दूर है न बेटा, इसलिए। ये मां की एक और दुखती रग है। उसने मरे हुए स्वर में जवाब दिया।
मैडम दीदी मेरी बुआ लगती हैं, अंची ने पूछा।
हां, इससे ज्यादा मां कुछ न कह सकी।
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अंची बाहर नीम के पेड़ के पास चला आया। यहीं पर खाट लगी हुई थी। वह लेट गया।
एक किनारे धूप में गेहूं सुखाए जा रहे थे। गेंहू लाने के बाद पहले तो मां उसमें से कंकड़-पत्थर निकालती थी। फिर गेहूं धोकर सूखने के लिए डाल दिए जाते। जब गेहूं सूख जाता तो उसे एक कनस्तर में भरकर आटा चक्की पर ले जाया जाता। दयाराम आटा की चक्की। अंची ने नया-नया पढ़ना सीखा था, पलट तेरा ध्यान किधर है, आटा पीसने की चक्की इधर है। नंदू साइकिल स्टैंड पर खड़ी करता और संभाले रहता। अंची पीछे से साइकिल का कैरियल खींचता और मां उस पर गेहूं का कनस्टर रख देती। नंदू साइकिल की हैडिल संभाले और अंची पीछे से कैरियल पर हाथ लगाए, दोनों कनस्तर को दयाराम की आटा चक्की पर पहुंचाते।
अब नंदू नहीं है। आटा पिसवाने में मेहनत बढ़ गई है। अंची साइकिल का हैंडल पकड़ लेता है। पीछे से मां कनस्तर रखकर, उसे पकड़े हुए चलती। दयाराम की चक्की पर गेहूं की तौल होती। इसके बाद गेहूं पीसा जाता। चक्की के सबसे ऊपर लगे बड़े से बर्तन में दयाराम गेहूं उलट देता। नीचे बने एक सुराग से गेहूं धीरे-धीरे नीचे गिरता रहता। नीचे बने दो पत्थरों के बीच गेहूं पिसता। वहां से मोटे कपड़े के एक मोटे से पाइपनुमा फनल से वह बाहर आता, इस फनल के एक सिरे पर कनस्तर रखा रहता। ऊपर से गेहूं डाला। पिसकर आटा कनस्तर में पहुंच जाता। अंची इस मजेदार खेल को देखता और आटा पिस जाने के बाद अपनी मां के साथ आटा लेकर चला आता।
लेकिन, अभी तो गेंहू सूख रहा था। खाट पर लेटे-लेटे अंची ऊंघने लगा। नींद उसकी तब टूटी जब पप्पू की अम्मा भी अपना गेहूं लेकर उसे पछोरने के लिए वहीं आ गईं। पप्पू की अम्मा के किस्से बड़े डरावने हैं। बात भूतों की चल रही थी। वो जोर दे-देकर सुना रही थीं।
एक बार जिउराम निकल गए तो फिर किसी के नहीं। यही गनीमत है कि वो सीधे भगवान के घर पहुंचे। अगर कहीं आत्मा भटक गई तो फिर जाने क्या हो।
अब कितना सच कितना झूठ। अंची की अम्मा ये जान लेओ। हमरे गांव की तरफ दीनानाथ के आजा की मौत हो गई थी। उनके बड़े भाई उस समय इलाहाबाद गए थे। अब मिट्टी कैसे ले जाएं। सबलोग उनका इंतजार करने लगे। लेकिन, ये हुआ कि मिट्टी को घर में नहीं रखना चाहिए। बांस की टिकटी तैयार हुई। मिट्टी उस पर रख दी गई। पैर की तरफ अगरबत्ती सुलगा दी गई। भाई को आते-आते शाम के चार-पांच बज गए। लोगों ने कहा कि मिट्टी लेकर चल ही दिया जाए। रात भर घर में रखना ठीक नहीं। ट्रक आते-आते और उस पर मिट्टी को लादकर चलते-चलते शाम हो गई। लेकिन फिर भी सब लोग चल पड़े कि मिट्टी को जलाकर 10-11 तक घर लौट आएंगे।
गंगाजी की तरफ जाने लगो तो रास्ते में एक कब्रिस्तान पड़ता है। वहीं, पर ट्रक का टायर पंचर हो गया। ड्राइवर पंचर बनाने लगा तो सब लोग भी नीचे उतर गए। मिट्टी ऊपर अकेली रह गई। सड़क के किनारे ही चाय की दुकान थी। सब लोग वहीं पर हुक्का पानी के लिए चले गए। जब ड्राइवर ने टायर बदल लिया और सब लोग ऊपर चढ़ने लगे तो देखा कि टिकटी खड़ी हो गई है। अब सब लोग डरने लगे। दीनानाथ अपने बाप आजा का पैर पकड़ने गए तो देखा कि पैर पीछे की तरफ मुड़ गया है। टिकटी से आवाज भी आने लगी। जैसे कोई नकनका कर बोल रहा हो। टिकटी आगे-आगे चलने लगी। टिकटी चल तो आगे रही थी। लेकिन उसके पैर के पंजे थे पीछे की ओर मुड़े हुए। अब क्या करें। वहीं पर रोना पिटना मच गया। दीनानाथ अपने आजा के आगे हाथ-पैर जोड़ने के लिए पास गए तो मिट्टी ने अपना हाथ निकालकर नाखून से उनका मुंह नोंच लिया। अब सब भगवान को मनाने-चुनाने लगे। लेकिन, उसी में एक बुजुर्ग रहें, फिर उन्होंने बताया कि अब ई तुमार न हएन, जब एक बार इनके जिउराम निकल गएन तो अब एम्मे तुमार का है। अब इनका छोड़कर तुम लोग जाओ।
सब लोग किसी तरह से वहां से जान छुड़ाकर आए। कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि टिकटी ट्रक से उतरकर वहीं से कब्रिस्तान की तरफ चली गई। वहां पर एक कबर पहले से खुदी हुई थी। उसी में जाकर लेट गई।
अब जेका जहां पर चैन आवै। ये कहकर पप्पू की अम्मा ने किस्सा खत्म कर दिया।
किस्सा खतम होते ही अंची ने सबसे पहले सिर उठाकर उनके पैर के पंजे की तरफ ही देखा। नहीं, पैर के पंजे सीधे हैं। फिर अम्मा के पैर के पंजे देखे। वो भी सीधे हैं। उसने अपने पंजों को भी देखा। वो भी सीधे हैं। उसे थोड़ी राहत हुई। लेकिन, भूत के पंजे तो रात में उलटे होते हैं। दिन में तो उसके भी पंजे सीधे ही रहते हैं। उसे फिर से थोड़ी घबराहट होने लगी।
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नंदू के जाने के बाद से अंची की नींद उखड़ने लगी थी। रात को अचानक नींद टूट जाती। वह अपने बगल में नंदू की तलाश करने लगता। मां से पूछता। अम्मा भाई कहां गया है। भाई अब कभी नहीं आएगा। अम्मा क्या बताती। बस चुप करा देती। अब अंची के बगल में नंदू की चारपाई नहीं लगती थी।
भाई की खाट बगल में नहीं है, नींद में भी अंची इस अहसास को भुला नहीं पाता। घर की दालान में उसकी खाट लगी हुई थी। मच्छरों के दिन थे। कान में भिन्न-भिन्न होती रहती। मां ने उसके सोने के बाद मच्छरदानी लगा दी थी। मच्छर अंदर तो नहीं घुस रहे थे। लेकिन उनकी भिन-भिनाहट कान से ज्यादा दूर नहीं थी। हवा चलने लगी। रात में नीम की एक डाल जामुन की डाल से रगड़ खाने लगी। चींईंईंची-चींईंईंची। फिर थोड़ी देर रुककर चींईंईंचीं-चींईंईंची। रात में आसमान से टिटिहरी का एक झुंड गुजरने लगा। टिट्-टिट् टीं-टिट्-टिट् टीं। जंगल जलेबी की डाल पर बैठा उल्लू अचानक ही बोलने लगा। खींहींखींहीं—खींहींखींहीं।
घर के बाहर कई सारे कुत्ते एक साथ रोने लगे। मुंह ऊपर उठाकर। हूंऊं—हूंऊं। अंची की नींद उखड़ गई। उसने आंख नहीं खोली। जामुन की डाल नीम की डाल से रगड़ खा रही थी। उसे लगा कि जैसे कोई अपने नाखून से पेड़ की डाल को खरबोट रहा है। तेजी-तेजी से। थोड़ी देर रुक-रुक कर। कभी रुक कर देखने लगता फिर पेड़ को खरबोटने लगता। अचानक लगा कि जैसे कोई बिल्ली आकर सीने पर बैठ गई है। अब अपनी लाल-पीली आंखों से उसे देख रही है। उसके पैने दांत निकल रहे हैं। उसने अपना पंजा उठाया। अंची की सांसे तेज चलने लगीं। क्या करे। आंख खोल दे। नहीं। आंख खोलने पर तो ये बिल्ली उसकी जान ले लेगी। उसके सीने पर बिल्ली भारी होने लगी। उसकी सांस बंद होने लगी। गले से तेज आवाज निकलने लगीं, गूं-गूं-गूं-गूं।
वो तेजी से भागना चाहता है लेकिन उसके पैर नहीं उठ रहे हैं। वो तेजी से चिल्लाना चाहता है लेकिन आवाज नहीं निकल रही है। बिल्ली ने उसका दम घोंट दिया है। बिल्ली के पीछे वही है टिकटी वाला। वह खड़ा हो गया है और उसकी आवाज नकनकाती हुई सी है। और जब वह ऊपर आया तो सबसे पहले अंची ने उसके पैरों की तरफ गौर से देखा। उसके पंजे उलटे थे। अंची जान छोड़कर भागने लगा। लेकिन दो कदम ही वह भागा था कि गिर पड़ा। उसके पैर जैसे कई मन भारी हो गए। वह भाग नहीं पा रहा था। चिल्लाने लगा। लेकिन आवाज नहीं निकल रही है। गूं-गूं—गूं-गूं। सांसे तेज चलने लगी। अब बस जान निकलने वाली है।
तभी अम्मा ने मच्छरदानी हटाई और उसे उठा दिया। क्या हुआ अंची, क्या हुआ बेटा।
वह जोर-जोर से रोने लगा। क्या हुआ बेटा।
अंची कुछ नहीं बोला। बस रोता रहा। उसका पूरा शरीर थर-थर कांप रहा था। थराथराहट की लहर पर लहर आ रही थी। कंपकंपी रुकने का नाम नहीं लेती।
मां खुद डर गई, क्या सपना देखा, डर गए। कुछ नहीं होगा बेटा। क्या हुआ।
अंची बस रोता रहा। रोता रहा। पहले जोर-जोर से। फिर सुबकियां लेता हुआ। फिर उन्हीं उठती-गिरती सुबकियों के बीच उसने मां से पूछा, अम्मा भाई कहां गया। अब मां का भी बांध टूट गया। वह भी सुबकियां ले-लेकर रोने लगीं।
आह कहां गया मेरा बेटा। कहां गया। क्या कर रहा होगा। पता नहीं कहां है।
मां-बेटे के ऐसे ही रोते हुए यह रात कट गई। मां अपनी गोद में ही अंची को संभाले रही। रोते-रोते अंची की आंखें सूख गई। धीरे-धीरे से नींद ने उसे घेर लिया। वो सो गया।
रोते-रोते मां के भी आंसू सूख गए। गालों पर सूखे हुए आंसुओं की लकीर सी बन गई। सुबह का धुंधलका सा होने को था कि मां की आंख लग गई।
अचानक अंदर कुछ खड़का सा हुआ। मां की नींद टूट गई। दरवाजे के पास पहुंची तो देखा कि सिकड़ी हटी हुई है। दरवाजा उड़का हुआ था। सुबह हो गई थी। बाहर उजाला हो चुका था। लेकिन घर के अंदर अभी भी अंधेरा था। इस अंधेरे कमरे के एक कोने में, गेहूं रखने का बड़ा सा ड्रम रखा हुआ था। इसमें कभी-कभी घुसकर नंदू छिप भी जाता था। उसी ड्रम के एक कोने में नंदू खड़ा था। नहीं-नहीं जैसे कोई नंदू की परछाई।
मां को यकीन नहीं हुआ। वो तुरंत उसके पास गई। उसने उसे छुआ। हां, ये नंदू ही था। लेकिन, ये क्या हालत हो गई। आंखें कोटरों में घंस गई थी। बाल एक-दूसरे में बेतरह उलझे हुए थे। चेहरे पर मैल और कालिख की मोटी परत चढ़ी हुई थी। एक ढीली सी पैंट पहन रखी थी उसने। कमर से खिसक न जाए, इसके लिए बेल्ट की जगह सुतली से बांधी हुई। सफेद कमीज का रंग मैल और कालिख से काला हो चुका था। सुतली से बंधी होने के बावजूद पैंट कमर से खिसक रही थी। शरीऱ हडिड्यों का ढांचा भर रग गया था। अचानक ही नंदू को जोर-जोर से खांसी आने लगी। वो खांसने लगा।
मां अपने सहज भाव से उसकी पीठ सहलाने लगी। खांसते-खांसते नंदू बाहर भागा। बाहर आकर उसने गला खंखारकर थूक दिया। तो उसके बलगम के साथ खून की बूंदें भी बाहर आ गईं। उसके गले से निकले लाल-लाल बलगम को देखकर मां के होश उड़ गए। क्या हुआ नंदू, क्या हो गया तुझे। इतनी खांसी क्यों आ रही है बेटा। तुझे क्या हो गया।
नंदू को टीबी हो गई थी।
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एक दिन पहले रक्षा बंधन था। मां राखी बांधने मामा के यहां गई थी। घर पर ललन के साथ नंदू और अंची ही रह गए थे। अमरूद के तीन पेड़ों के बाद चहारदीवारी के पास ललन की बैठक का कमरा था। बैठक का मुख्य दरवाजा सड़क पर से खुलता था। जबकि, एक दरवाजा पीछे की तरफ था।
नीम के पेड़ के नीचे अंची और नंदू की खाट लगाकर ललन अपनी बैठक में चले गए। रात के किसी समय अचानक नंदू की नींद टूट गई। अंची बगल में सोया हुआ था। नंदू को डर सा लगा। किसी अज्ञात प्रेरणावश नंदू पापा की बैठक की तरफ चला गया। अंदर से कुछ हंसी की आवाज आई। वह दरवाजे पर दस्तक देने वाला था कि रुक गया। उसने दरवाजे की झिर्री से देखा। अंदर पापा के साथ मैडम दीदी थी। दोनों पता नहीं कौन सा खेल खेल रहे थे। नंदू का पूरा शरीर थरथराने लगा। हाथ कांपने लगे। थराहट की एक लहर सी उठती, वो खतम नहीं होती थी कि दूसरी चढ़ जाती।
तभी कुत्तों के भौंकने की कुछ आवाज हुई। ललन को दरवाजे पर किसी के होने का आभास हुआ। वो दरवाजा खोलने बढ़े। इतने में नंदू वहां से भागकर अपने बिस्तर पर पहुंच चुका था।
उन्होंने कड़क आवाज दी, नंदू।
नंदू कुछ नहीं बोला, बस सोने का बहाना सा कर लेटा रहा।
रात बीत गई। किसी अनजान अवसाद में डूबकर नंदू की आंखें रात भर भीगती रहीं। अगला दिन हुआ। जब तक वह जागा मैडम दीदी घर पर नहीं थीं। शाम तक मां भी आ गई। लेकिन, नंदू कुछ नहीं बोला। पर किसी अज्ञात भय ने उसे जकड़ लिया।
इसी धुन में वह घर से बाहर निकल आया। घर से निकलने के बाद नंदू सबसे पहले इंजीनियरिंग कॉलेज गया। यहां के मैदान तक वह कभी-कभी घूमने आ जाता था। यहीं पर एक जगह पर खड़े होकर नंदू और उसके दोस्त पटरी से गुजरने वाली ट्रेन के डिब्बे गिना करते थे। उस दिन नंदू बहुत उदास था। वह चुपचाप बस ट्रेन की पटरी के किनारे-किनारे चलता रहा। चलता रहा। वह अपने घर से दूर और दूर होता जा रहा था। बीच में पुल भी पड़े। कुछ ट्रेन आती हुई दिखाई पड़ी तो कुछ ट्रेन जाती हुई। जब ट्रेन को दूर से देख लेता तो वह किनारे खड़ा हो जाता। जब ट्रेन गुजर जाती तो वह फिर से पटरियों पर चलने लगता। इन्हीं पटरियों पर कभी वह दस पैसे का सिक्का रखकर उन्हें चिपटा करता था। इन्हीं पटरियों पर कान रखकर नंदू और उसके दोस्त पता लगाते थे कि ट्रेन कितनी दूर है। लेकिन उस दिन नंदू को इस सबसे कोई मतलब नहीं था। वह बस चलता गया था।
ट्रेन की पटरियों पर चलते-चलते ही वह रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। यहां पर एक ट्रेन जाने को तैयार खड़ी थी। बस वह भी उसी में बैठ गया। ट्रेन चलती गई। वह दरवाजे और टॉयलेट के पास वाली जगह पर बैठा रहा। कभी ऊंघता था तो कभी सो जाता। ऐसे ही गाड़ी मुंबई पहुंच गई। मुंबई स्टेशन पर उतरा। दो दिन से भूख-प्यास से लाचार। स्टेशन से बाहर निकला ही था कि लड़खड़ाकर गिर पड़ा। सड़क के किनारे चाय की दुकान चलाने वाले ने उसे उठाया। चाय बिस्कुट खिलाया।
फिर जब नंदू से उसका पता पूछने लगा तो नंदू की हिचकियां टूटने लगीं। वो जोर-जोर से रोने लगा। अब कहीं जाकर उसे अहसास हुआ था कि वह अपने घर से कितनी दूर आ चुका था। वो रोता रहा। सबने उससे घर का पता पूछा। लेकिन वह बता ही नहीं सका। शहर पूछा तो बस इलाहाबाद बता पाया। अब इतने से पते से कौन उसे घर पहुंचाए। कुछ दिन चाय वाले के साथ ही रहा। उसके बर्तन साफ करता। उसके यहां चाय टोस खाता और उसी बेंच पर सो जाता। जब घर की याद आने लगती तो रोने लगता।
फिर चाय वाले ने ही उसे गुटखा और बीड़ी का बंडल खरीदवाया। वो ट्रेन में घूम-घूम कर गुटखा और बीड़ी बेचने लगा। लेकिन घर की याद परेशान कर देती थीं। मां की याद आती थी। अंची की याद आती थी। और पापा की भी याद आती थी। उन्हीं पापा की जिनकी मार से डरकर वह घर से चला गया था।
एक दिन बलगम के साथ मुंह से खून निकला तो वह डर गया। बस इसी तरह एक दिन उसने इलाहाबाद की ट्रेन पकड़ी और वापस घर आ गया। ट्रेन रात में ही स्टेशन पहुंच गई थी। पैदल चलते-चलते वह तड़के कहीं जाकर घर पहुंचा। और दबे पांव जाकर घर में छुपने लगा।
उसके हाथ में एक पन्नी अभी भी मौजूद थी। इसी पन्नी में गुटखा, बीड़ी के बंडल आदि मौजूद थे।
अंची की नींद भी टूट गई। वह चुपचाप घर के अंदर चला आया। अंदर उसने नंदू की छाया सी देखी। एक कोने में नंदू बैठा हुआ था। वह रो रहा था। मां उसे चुप करा रही थी। अंची चुपचाप जाकर मां से सटकर खड़ा हो गया। नंदू रोए जा रहा था। मां उसे चुप करा रही थी। नंदू के भूरे बाल बेतरतीब से बिखरे हुए थे। उसके गाल पिचके हुए थे। हां ये नंदू की छाया जैसी ही लग रही थी। अंची चुपचाप अपनी मां से सटकर खड़ा रहा। मां ने किसी तरह से नंदू को चुप कराया। हाथ-मुंह धुलाया। नहलाया। थोड़ा खाने को दिया। खाने के बाद नंदू चुपचाप एक कमरे के कोने में बिछी चारपाई पर लेट गया। न जाने कितनी रातों का थका हुआ था। लेटते ही उसे नींद आ गई और वो सो गया।
अंची हाथ-मुंह धोने चला गया। वहां से आया तो मां बालों में कड़वा तेल लगाकर बाल झाड़ने लगी। इतने में पापा भी आ गए।
मां ने पापा को नाश्ता दिया। ललन नाश्ता करके दफ्तर चले गए। मां ने पापा से नंदू के बारे में कुछ नहीं बताया। नंदू चुपचाप एक कमरे में पड़ा रहा। मां ने दो टिफिन तैयार किए। एक अंची के लिए और एक मैडम दीदी के लिए। दोनों टिफिन अंची के बस्ते में रख दिए। अंची चुपचाप स्कूल चल दिया।
रास्ते में बृजेश मिल गया। दोनों साथ-साथ स्कूल जाने लगे। बृजेश ने पूछा, ये स्कूल वाली मैडम तुम्हारी कौन लगती हैं। बुआ। अंची ने जवाब दिया। बुआ तो क्या वो तुम्हारे घर रहती हैं। नहीं वो सगी बुआ नहीं है। इसमें कोई अनजान शर्मिंदगी छिपी है, यह अंची भी जान चुका था। उसने किसी तरह से बात टाली।
दोनों स्कूल पहुंच गए। लंच का समय हुआ। अंची दोनों टिफिन लेकर आठवीं की क्लास में पहुंच गया। मैडम दीदी इसी क्लास में लंच करती थीं। मैडम दीदी मेज के सामने बैठी थीं। अंची ने चुपचाप जाकर उन्हें टिफिन दे दिया। अपना टिफिन भी उसने खोल लिया। और खाने लगा। इस क्लास में आते ही अंची पर मुर्दनी सी छा जाती थी। वह मैडम दीदी को देखता भी चोर निगाहों से था। उनकी तरफ देखता रहता लेकिन जैसे ही वो उसकी तरफ देखती, वह तुरंत ही निगाह नीची कर लेता था। कुछ देर बाद फिर चोरी-छिपे उन्हें देखता।
क्लास में एक तरफ सुभाष चंद्र बोस की फोटो लगी थी। इसके दूसरी तरफ बाल गंगा धर तिलक की। गांधीजी, भगतसिंह, हेडगेवार सभी की फोटो एक कतार से लगी हुई थी। दीवार के एक तरफ बच्चों के बनाए हुए पोस्टर लगे हुए थे। एक पोस्टर पर जाकर उसकी निगाह टिक गई। ऐसा हमेशा होता था। खाते समय वह उस पोस्टर से नजर चुराता रहता। लेकिन, आंखे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर से खिसकते-खिसकते वहां पर तक पहुंच ही जाती।
आठवीं क्लास के बच्चे ने इस पोस्टर में आहार नाल बनाई थी। एक आदमी के चेहरे के एक साइड की फांक कटी हुई थी। आधा मुंह बना हुआ था। आधी फांक कटी हुई थी। आधे दांत, फिर यहां से मुंह के अंदर से नली, गले से होते हुए नीचे जाते हुए। यहां पर एक के ऊपर एक चढ़ी हुई आंते, फिर नीचे छोटी आंत, बड़ी आंत, पित्ताशय, मलाशय और न जाने क्या-क्या।
यहां तक आते-आते अंची का मन वितृष्णा से भर जाता। उसे उबकाई आने लगती। वह खाना छोड़ देता। धीरे-धीरे टूंगता रहता। मैडम दीदी उसे टोंकती। खा क्यों नहीं रहे हो। वह बस हूं करके रह जाता। उसकी आंख से वह आहार नाल उतरती ही नहीं थी। घर पर भी खाना खाते समय अगर वो आहार नाल आंख पर चढ़ गई तो फिर उससे खाया नहीं जाता।
भोजनावकाश खत्म हो गया। घंटी बज गई। उसने जल्दी से अपना टिफिन बंद किया। मैडम दीदी टिफिन पहले ही बंद कर चुकी थीं। वह चुपचाप दोनों टिफिन लेकर अपनी क्लास में चला आया। दोनों टिफिन उसने बस्ते में डाल दिए।
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अंची स्कूल से घर आया तो देखा कि घर में मातम पसरा हुआ है। चूल्हा बुझा पड़ा है। मां एक तरफ पड़ी रो रही है। उनके बाल खुले हुए हैं। नंदू एक कोने में खड़ा थर-थर कांप रहा है। उसके पास पापा की छड़ी टूटी हुई पड़ी है। वो कांप रहा है लेकिन उसकी आंखों में आंसू नहीं है। इन छह महीनों में नंदू कई साल बड़ा हो गया था। उसके होंठ भिचे हुए थे। पापा की पिटाई खाकर भी वह कुछ नहीं बोला। बस उसने अपने होंठों को भींच लिए और उसकी आंखें बस घूरती रहीं।
पापा चिल्ला रहे थे, सुअर की बच्ची, हरामजादी, मैं तुझे भीख मंगवाकर छोड़ूंगा। मुझसे बिना पूछे तूने इसको घर में घुसने कैसे दिया।
अब मां क्या बताती। मां के लिए मरना तो आसान था लेकिन नंदू को घर में घुसने न देना आसान नहीं था।
मां ने कह दिया कि उसकी हालत तो देखिए। कितना कमजोर हो गया।
पापा ने पलटते ही कहा, कहां भाग के चला गया था। कहां रहा इतने दिन। क्यों आ गया वापस। हमारे लिए तो मर ही गया। इससे अच्छा तो पैदा होते ही गला दबा देता मैं।
नंदू चुपचाप पड़ा रहा। पापा ने अपनी छड़ी से उसके पूरे शरीर पर नीले-काले निशान बो दिए। मां ने रोकने की कोशिश की तो मां के शरीर पर भी काली-नीली धारियां पैदा उगने लगीं।
अंची चुपचाप एक कोने में खड़ा-खड़ा थर-थर कांपने लगा। चुपचाप। पापा की छड़ी टूट गई। वो गालियां देते हुए घर से बाहर चले गए। अम्मा चुपचाप बिस्तर पर पड़ी सिसकती रही। उसमें इतनी भी हिम्मत न रही की अपने बच्चों को ढांढस बंधाए। पता नहीं कौन किसको ढांढस बंधा सकता था। नंदू एक ओर पड़ा था। चुपचाप। वो रो भी नहीं रहा था।
अंची का पूरा शरीर कांपने लगा। वो चुपचाप बाहर निकल आया। कहां जाए। धीरे-धीरे वह करौंदे की झाड़ियों में घुस गया। पेड़ पर चढ़ने लगा। ललमुनिया के घोंसले में हाथ डालकर उसने तीनों अंडे बाहर निकाल दिए। ललमुनिया का जोड़ा आकर उसके सिर पर चीखने लगा। उसने अपने हाथ से तीनों अंडे छोड़ दिए। नीचे गिर कर अंडे फूट गए। उनसे पीला और पारदर्शी तरल बाहर निकल आया। ललमुनिया का जोड़ा चीखने लगा। उसके सिर पर आकर मंडराने लगा। लेकिन पास आने की हिम्मत किसी की न हुई। अपने होठों को भींचे हुए अंची चुपचाप नीचे उतर आया।
उसने नल खोल दिया। बाल्टी में ढेर सारा पानी भर दिया। उसके बाद नीम के पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने चींटे के बिल में ढेर सारा पानी डालना शुरू किया। और पानी। और पानी। इतना कि चींटे के बिल में बाढ़ आ गई। चींटें बाहर निकलने लगीं। पहले जवान चींटें, फिर अपने अंडों को संभाले बड़े चीटें। फिर ऐसे चींटे जिनके पंख निकल आए थे। अंची इन चींटों को मसलने लगा। उसने कई चीटों को मसल दिया। इसके बाद वह नीम के पेड़ पर चढ़ने लगा। एक डाल पर चढ़ा। फिर उसके ऊपर। फिर उसके ऊपर। नीम के एकदम फुनगी के पास कौव्वे ने घोसला लगा रखा था। अंची नीचे से ही उसे देखा करता था। यहां तक चढऩे की उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन, आज वो चढ़ आया। यहां कौव्वे के घोसले में दो अंडे पड़े थे। कुछ-कुछ हरे-नीले रंग के। उसने दोनों अंडे बाहर निकाल लिए। कौव्वों का पूरा झुंड उसके सिर पर कांव-कांव करने लगा। उसने दोनों अंडों को अपने हाथों पर लिया और उन्हें छोड़ दिया। अंडे नीचे गिर पड़े। फच्च की आवाज हुई और अंडों में पल रहे जीवन की संभावना खत्म हो गई। कौव्वो के झुंड ने अंची के ऊपर हमला बोल दिया।
कौव्वे उसके सिर पर मंडराने लगे। वह अपने दोनों हाथों से उन्हें हड़ाने लगा। एक कौव्वे ने अंची के सिर पर तगड़ी ठूंग मारी। और अंची के हाथ से पेड़ की डालियां छूट गईं।