मकसीम गोरिकी और समाजवादी क्रान्ति / अनिल जनविजय
इतिहास का एक पन्ना
मकसीम गोरिकी और समाजवादी क्रान्ति
रूसी साहित्य में जहाँ च्येख़फ़ को आलोचनात्मक यथार्थवाद का मुख्य प्रतिनिधि माना जाता है, वहीं गोरिकी को लेनिन ने समाजवादी यथार्थवाद का प्रणेता बताया था। समाजवादी यथार्थवाद उनका तात्पर्य था -- दुनिया और मनुष्य के बारे में समाजवादी नज़रिए से सौन्दर्यशास्त्रीय अभिव्यक्ति की अवधारणा। लेनिन गो्रिकी से बहुत प्रभावित थे। हालाँकि लेनिन ने गोरिकी की जिस रचना को समाजवादी यथार्थवाद का मुख्य प्रतीक बताया है, उस उपन्यास ’माँ’ (मात्च) रचना गोरिकी ने अमरीका में की थी और वहीं यह सबसे पहले अँग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद इटली में प्रकाशित हुआ और फिर रूस में प्रकाशित हुआ। 1930 में लेनिन को याद करते हुए गोरिकी ने एक लेख लिखा था -- ’लेनिन के बारे में’, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ’माँ ’ (मात्च) उपन्यास में कहीं-कहीं कच्चापन रह गया है, और उसका कारण यह है कि वह उपन्यास मैंने अमरीका में बैठकर लिखा था।
वैसे गोरिकी मार्क्सवादी नहीं थे। इसीलिए 1917 की क्रान्ति होने के बाद अन्य लेखकों की तरह भागकर गोरिकी भी यूरोप चले गए थे और इटली में जाकर रहने लगे थे। गोरिकी मार्क्सवाद से प्रभावित नहीं हुए थे, बल्कि उन्हें तो नई दुनिया और नए मानव के सपने ने आकर्षित किया था। इसीलिए गोरिकी के उपन्यास ’माँ’ में ’परमपिता’ की जगह ’परममाता’ की कल्पना की गई है।
गोरिकी तो दरअसल तत्कालीन विश्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे। उन्हें रूसी समाज की तत्कालीन सामन्तकालीन व्यवस्था पसन्द नहीं थी। रूस में नया-नया पूंजीवाद आया था। 1860 में रूस में ज़ार ने दासप्रथा की समाप्ति की घोषणा कर दी थी। सभी कृषिदासों को आज़ाद कर दिया गया था। उन्हें आज़ादी तो मिली, लेकिन उनके पास आगे जीवन जीने का कोई साधन नहीं था क्योंकि जीवन जीने के लिए नौकरी या रोज़गार का होना ज़रूरी है या अपने खेत होने चाहिए। कृषिदासों को आज़ाद करते हुए सामन्तों ने उन्हें कृषिजोतें या ज़मीनें नहीं दी थीं। किसान या कृषिदासों के परिवार आज़ादी पाकर अपनी पूर्व जीविका भी खो बैठे थे और भूखों मरने लगे थे। ज़मीन सामन्तों और जागीरदारों के पास रह गई थी। रूस में तब चार-पाँच शहर ही अच्छी तरह से विकसित थे, जिनमें कुछ ही कारख़ाने बने हुए थे। नीझनी नोवगरद रूस का सबसे विकसित शहर था, जहाँ कई बड़े-बड़े कारख़ाने थे। ज़्यादातर अनपढ़ कृषिदास उन कारख़ानों में ही काम करने के लिए पहुँचे। लेकिन काम कम था, उसे करने की इच्छा रखने वाले लोग सौ गुना ज़्यादा थे। ऐसे दौर में च्येख़फ़ और गोरिकी ने लिखना शुरू किया था।
अनतोन च्येख़फ़ तात्कालिक सामाजिक यथार्थ का चित्रण करते थे। अपनी रचनाओं नें वे दिखा रहे थे कि कैसे कृषिदासप्रथा की समाप्ति के बाद रूस की तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था बिखर रही है। रूस का जीवन बिखर रहा है और वे उस यथार्थ की खरी-खरी आलोचना अपनी रचनाओं में करते थे। इसीलिए आलोचकों ने च्येख़फ़ को आलोचनात्मक यथार्थवाद का प्रणेता कहा है। उनके लेखन में भावी मनुष्य का भावी समाज का कोई चित्रण नहीं है। वे भावी दुनिया कैसी होगी, इसका कोई सपना नहीं देख रहे थे। जबकि गोरिकी अपनी रचनाओं में भावी दुनिया का रोमाण्टिक चित्र उतारने की कोशिश कर रहे थे।
1906 में रूस के एक प्रसिद्ध लेखक और आलोचक दिमित्री मिरिझकोफ़्स्की ने अनतोन च्येख़फ़ और मकसीम गोरिकी के बारे में लिखा था -- च्येख़फ़ और गोरिकी वास्तव में "पैगम्बर" हैं, लेकिन उस अर्थ में पैगम्बर नहीं है, जिस अर्थ में लोग उन्हें पैगम्बर माने बैठे हैं या वे ख़ुद ख़ुदको पैगम्बर समझते हैं। वे इसलिए पैगम्बर हैं, चूँकि वे उन चीज़ों को शाप दे रहे हैं, जिन्हें वे आशीर्वाद देना चाहते थे और उन चीज़ों को आशीर्वाद दे रहे हैं, जिन्हें वे शाप देना चाहते थे। वे दिखलाना चाहते थे कि ईश्वररहित मनुष्य ही ईश्वर है। लेकिन उन्होंने दिखाया कि ईश्वर को खोने के बाद मनुष्य जानवर बन गया है, जानवर से भी बदतर हो गया है। वह शव हो गया है, बल्कि शव से भी बदतर ’अशव" (कुछ भी नहीं) हो गया है।
गोरिकी हमारी इस पृथ्वी पर मृत्यु से लड़ना चाहते थे और धरती पर जीवन को अमर कर देना चाहते थे। मृत्यु से दो दिन पहले घोर बीमारी की हालत में बिस्तर पर पड़े-पड़े गोरिकी बुदबुदाए थे -- "अभी मैं ख़ुद ईश्वर से बहस कर रहा था। हमारी भयानक बहस हुई।" गोरिकी की लड़ाई जीवन और मृत्यु की लड़ाई थी। वे विश्व व्यवस्था और मनुष्य को बदलने के पक्ष में थे। वे सिर्फ़ समाज को ही नहीं बदलना चाहते थे, बल्कि गोरिकी एक नया मानव बना चाहते थे। गोरिकी ने 1892 में एक काव्य-कथा लिखी थी -- लड़की और मौत. जिसके बारे में स्तालिन ने कहा था -- यह रचना तो फ़ाउस्त से भी बड़ा मज़ाक है, जिसमें प्रेम की मृत्यु पर विजय दिखाई गई है।
लेनिन ने ही गोरिकी को एक बड़े प्रोलितेरियन लेखक या सर्वहारा के लेखक के रूप में प्रतिष्ठापित किया था। लेनिन ने ही यह कहानी बुनी थी कि गोरिकी लेनिन के गहरे दोस्त हैं और उनकी कम्युनिस्ट विचारधारा के वाहक हैं। लेनिन को एक ऐसे लेखक की ज़रूरत थी, जिसका वे अपने काम में इस्तेमाल कर सकें और लेनिन ने गोरिकी के नवमानव, नवसमाज और नवविश्व के सिद्धान्त को अपने कम्युनिज्म का मूल सिद्धान्त बताना शुरू कर दिया और इस तरह ज़बरदस्ती गोरिकी को ’हड़प’’ लिया । लेनिन ने ख़ुद को समाजवादी यथार्थवाद का नेता घोषित किया और गोरिकी जैसे लेखकॊं और रेपिन जैसे चित्रकारों को साहित्य और कला में समाजवादी यथार्थवाद का प्रणेता बताना शुरू कर दिया। हाँ, लेनिन अक्सर मकसीम गोरिकी से मिलने जाते थे और गोरिकी के साथ अपना बहुत-सा समय बिताते थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे गोरिकी के दोस्त थे।
1918 में सोवियत समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न होने के बाद गोरिकी ने क्रान्ति के बारे में एक किताब लिखी थी, जिसका शीर्षक था -- ऐसे विचार, जो आज उचित नहीं हैं। इस किताब के छपने के बाद सांक्त पितिरबूर्ग (सेण्ट पीटर्सबर्ग) के तत्कालीन पार्टी-नेता (कम्यु० पार्टी के नेता) और सांक्त पितिरबूर्ग सोवियत (नगर परिषद) के अध्यक्ष ग्रिगोरी ज़िनअव्येफ़ ने गोरिकी के ऊपर दबाव बनाना शुरू कर दिया। गोरिकी के सामने जान का ख़तरा पैदा हो गया और वे रूस छोड़कर इटली जाने के लिए मजबूर हो गए और अगले 12 वर्ष तक इटली में ही रहे। तब लेनिन भी ज़िनअव्येफ़ के दमन से गोरिकी को बचाने के लिए आगे नहीं आए थे।
1930 में स्तालिन ने बहुत आग्रह करके गोरिकी को वापिस रूस बुला लिया और साहित्य की नीतियाँ निर्धारित करने से सम्बन्धित सारा काम गोरिकी के ऊपर छोड़ दिया। स्तालिन वास्तव में मकसीम गोरिकी का सम्मान करते थे। इस दौरान बहुत-सी ऐसी अफ़वाहें सामने आईं, जिनमें यह कहा जाता है कि स्तालिन और गोरिकी के बीच तनाव रहने लगा था। स्तालिन ने गोरिकी को हलका ज़हर दिलवाना शुरू कर दिया था। स्तालिन ने ही गोरिकी के बड़े पुत्र की हत्या करवा दी थी। लेकिन रूस के तत्कालीन लेखकों और आलोचकों का कहना है कि ये सब बातें अफ़वाहें हैं, अफ़वाहों के अलावा और कुछ नहीं।
हाँ, लेकिन यह बात सच है कि गोरिकी की वह किताब , जो उन्होंने क्रान्ति के बाद छपवाई थी और जिसकी वजह से उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा था -- 1990 तक दोबारा कभी नहीं छपी। 1990 में सोवियत संघ के पतन के बाद ही वह किताब फिर से छपकर सामने आई, जिसमें गोरिकी ने समाजवादी क्रान्ति से असहमति व्यक्त की थी और यह कहा था कि क्रान्ति का मतलब नरसंहार करना नहीं है।
इटली से बुलाकर स्तालिन ने गोरिकी को जो साहित्यिक सत्ता और सम्मान दिया था, वह सत्ता और सम्मान गोरिकी लेनिन के सामने भी प्राप्त नहीं कर पाए थे। गोरिकी के समकालीन लेखकों का यह भी कहना है कि मकसीम गोरिकी स्तालिन की चापलूसी किया करते थे। स्तालिन के नाम लिखे गए गोरिकी के पत्र और तत्कालीन लेखकों के संस्मरण इसका प्रमाण हैं। 1937 में मास्को में यह अफ़वाह फैल गई थी कि गोरिकी के पुत्र की तरह ही गोरिकी की भी हत्या की गई है। अफ़वाह यह थी कि गोरिकी के सचिव प्योतर क्र्युचकोफ़ और उनका इलाज करने वाले तीन डॉक्टरों ल्येफ़ लेविन, इग्नात कज़अकोफ़ और दिमित्री प्लितनेफ़ ने तत्कालीन सोवियत गृहमंत्री गेनरिख़ यागद के कहने पर दवाइयों के रूप में हलका ज़हर दिया है। बाद में गेनरिख़ यागद ने यह बयान भी दिया कि उसने त्रोत्स्की के कहने पर गोरिकी को इसलिए मरवा दिया था ताकि स्तालिन को सत्ताच्युत करने के बाद गोरिकी सत्ता अपने हाथ में न ले लें। लेकिन ये सब अफ़वाहें ही थीं। बाद में एक अफ़वाह यह भी फैली थी कि ख़ुद स्तालिन ने गेनरिख़ यागद से गोरिकी की हत्या करने के लिए कहा था। एक अफ़वाह यह भी थी कि स्तालिन ने ख़ुद ही ज़हरीली मिठाइयों (चाकलेट) का एक डिब्बा गोरिकी के लिए भिजवाया था, जिसकी चॉकलेट खाकर गोरिकी की मौत हो गई। लेकिन जानकार लोगों का कहना है कि गोर्की चाकलेट और मिठाइयाँ नहीं खाते थे। वे सारी मिठाइयाँ हमेशा घर के सदस्यों और सेवकों में बाँट देते थे। इस तरह इस बात का कोई पक्का सबूत नहीं मिल पाया कि गोरिकी की हत्या की गई है।
लेकिन स्तालिन ने इन अफ़वाहों का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया और उन्होंने त्रोत्स्की और उनके सहयोगी ज़िनअव्येफ़ की हत्या करवा दी। दूसरी तरफ़ स्तालिनविरोधी लोग आज भी यह मानते हैं कि गोरिकी स्तालिन के षड़यन्त्र का शिकार हुए थे।
— अनिल जनविजय