मक्कार कोयल / रंजना वर्मा
एक थी कोयल। रंग से इतनी काली कि बस कौवे की छोटी बहन लगती। किंतु कहाँ गंदगी के ढेर पर बैठने और चोंच मारने वाला कौवा और कहाँ आम तथा अन्य रसीले फलों के वृक्षों पर फुदकने वाली कोयल। दोनों के आचरण में अत्यधिक भिन्नता थी। कौवे की कांव-कांव की कर्कश ध्वनि जहाँ कानों को कष्ट पहुंचाती थी वहीं कोयल की मधुर तान सुनने वालों के दिलों को मुग्ध कर लेती थी।
नन्ही-सी कोयल पूरे बाग में डाल-डाल फुदकती फिरती और जब जी चाहता मीठी 'कुहू कुहू' से सारी बगिया को गुंजार देती। लेकिन थी वह बड़ी खिलाड़ी। न घर बनाने की चिंता न भोजन इकट्ठा करने की परवाह। जब भूख लगती तो कहीं भी किसी पेड़ पर जा कर उसके मीठे फलों से पेट भर लेती और जब नींद आती तो किसी भी वृक्ष की डाल पर घने पत्तों के बीच छुपकर सो जाती। ऐसे ही मस्ती में गाते फिरते उसके दिन बीत रहे थे।
उसी बाग में एक कौवा भी रहता था। वह जब तब कोयल को समझाया करता-
"हर समय घूमती फिरती हो। कभी भविष्य की भी चिंता किया करो। घर बना लो तुम भी।"
"लेकिन मैं घर क्यों बनाऊँ?" कोयल ने तुनक कर पूछा।
"रहने के लिये और क्यों? और फिर जब घर बना लोगी तो उसमें थोड़ा बहुत खाने की चीजें भी इकट्ठा कर लेना। बरसात में जब बाहर नहीं निकल पाओगी तो आराम से घर में बैठकर मौसम का आनंद उठाया करोगी।"
"ना बाबा! कितना मुश्किल है घर बनाना। एक-एक तिनका इकट्ठा करो तो कहीं जाकर घोंसला बन पायेगा। मैं तो ऐसे ही ठीक हूँ।" कोयल ने उत्तर दिया और उड़ कर दूसरी डाल पर जा बैठी।
बेचारा कौआ गहरी सांस लेकर रह गया। कुछ दिनों बाद कोयल को एक साथी मिल गया तो उसने फिर समझाया-
"अब तो घोंसला बना ही लो। कुछ दिन बाद तुम्हारे अंडे रखने के लिए घर की ज़रूरत पड़ेगी। फिर बच्चे निकलेंगे तो उन्हें भी सुरक्षा के लिए घर चाहिए. आलस छोड़ कर अब घोंसला बना ही डालो।"
"मुझसे नहीं होगा भाई!" कोयल ने कहा। "अब तो तुम्हें एक साथी भी मिल गया। दोनों मिल कर घोंसला बनाओ. मैं भी मदद कर दूंगा।"
"ठीक है। सोचूंगी।" कोयल अनमनी होकर बोली और अपने साथी के साथ कुहू-कुहू करती उड़ गई.
कुछ दिन और बीत गए. कोयल वैसे ही मस्ती से गाती और यहाँ वहाँ घूमती रही। उसके अंडे देने का समय आ गया। अब वह बड़ी परेशान हुई. क्या करे? कहाँ जा कर अंडे दे जहाँ वे सुरक्षित रहें। कौवे की बात मान ली होती तो अपना घोंसला बन गया होता अब तक। पर अब क्या हो?
अचानक उसके नटखट और चालाक दिमाग में एक उपाय आया। वह कौवे के घोंसले पर जा पहुंची। उस समय कौआ अपने साथियों के साथ कहीं बाहर गया हुआ था। उसके घोसले में दो प्यारे-प्यारे से अंडे रखे थे। बस कोयल ने वही अंडे दे दिए और फिर दूसरे पेड़ पर जाकर बैठ गई.
कुछ देर बाद कौवा अपनी पत्नी के साथ वापस लौटा तो घोसले में चार अंडे रखे थे। किंतु उन्हें गिनती तो आती नहीं थी इसलिए उन्हें अपने अंडे समझ कर उनको भी सेने लगा। कोयल यह देख कर उड़ गई.
अब वह मस्त होकर फिर गाती फिरती थी। कुछ दिन बाद अंडे फूट गये और उनमें से नन्हे-नन्हे बच्चे निकल आये। कौआ कौई उन्हें भी अपने बच्चे समझ कर प्यार से पालने लगे।
दोनों दिनभर घूम-घूमकर खाने की वस्तुएँ चोंच में भर-भर कर ले आते और उन बच्चों को खिलाते। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए और उनके सुंदर काले-काले पंख निकल आए. माता पिता को आते देख कर बच्चे कांव-कांव करने लगे। कोयल के बच्चों ने भी उन्हें देख कर पुकारना चाहा लेकिन उनके मुख से काँव-काँव के बदले कुहू-कुहू की आवाज निकलने लगी। यह देख कर कौआ चौक पड़ा। उसकी समझ में कोयल की सारी मक्कारी आ गई. गुस्से में भरकर उसने मार-मार के कोयल के बच्चों को अपने घोंसले से निकाल दिया।
कोयल दूसरे वृक्ष पर बैठी यह देख रही थी। उसके बच्चे अब उड़ने योग्य हो गए थे। वह उन्हें अपने साथ उड़ा ले गई. कुछ दिनों में बच्चे भी कोयल के समान हो गए और घूमने के आदी हो गए.
अब भी जब अवसर मिलता है कौआ कोयल को समझाता रहता है लेकिन न वह अपना आलस छोड़ती है और न मक्कारी। अभी भी उसके बच्चे कौवे के घोंसले में ही पलते हैं।