मखमल का पैबंद / ट्विंकल तोमर सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"अरे अरे अरे...सँभालकर लाना। दरवाजा थोड़ा छोटा है।" चारु ने एक एंटीक भारी भरकम मेज- कुर्सी उठाकर कमरे में लाते हुए तीन लेबर से कहा। कमरा बहुत बड़ा नहीं था। एक साधारण सा नवदम्पति का कमरा जैसा होता है ठीक वैसा ही था। एक तरफ पलंग पड़ा था, एक तरफ एक छोटी सी श्रृंगार मेज रखी थी। दूसरी ओर एक पुराने चलन की कपड़े रखने वाली लोहे की अलमारी खड़ी थी। एक किनारे खिड़की के पास ही थोड़ी जगह शेष थी। चारु ने उसी स्थान की ओर एक उँगली से इशारा करते हुए कहा- "बस बस वहीं रख दो इसे, संभालकर।" लेबर ने मेज- कुर्सी चारु की बताई जगह पर रख दी। चारु ने उन्हें उनका मेहनताना दिया , फिर वे वहाँ से चले गए।

चारु कमरे में अकेले रह गई। उसने एक ठंडी साँस लेकर उस कुर्सी- मेज पर दृष्टि डाली, फिर अपने कमरे को देखा। कैसे बेमेल लग रहे हैं दोनों। एक बिल्कुल निम्न मध्यम वर्गीय कमरे में एक राजसी कुर्सी मेज का जोड़ा। दोनों में कोई साम्य ही नहीं था। कमरे का हर सामान जैसे उसके आगे अपने को हीन अनुभव करने लगा हो।

चारु धीरे से उठकर उस कुर्सी-मेज के पास पहुँची। उसने कुर्सी की नक्काशी पर बड़े प्रेम से हाथ फिराया। बहुत ही बारीक और कलात्मक नक्काशी की गई थी। इसके उभरे हुए एक एक बेल बूटे का उतार चढ़ाव उसे याद है। न मालूम कितनी बार अपनी कला की पुस्तिका में उसने इसी की आकृति उकेरी थी और सदा अच्छे अंक पाए थे। मेज की लकड़ी की चमक उसकी मज़बूती और स्वास्थ्य का पता दे रही थी।

चारु ने मन ही मन अनुमान लगाया-" कम से कम सौ साल पुरानी कुर्सी होगी ये।" गहरे कत्थई रंग की मजबूत शीशम की लकड़ी की बनी ये कुर्सी- मेज उसकी दादी माँ की निशानी है। बचपन से ही उसे इसी कुर्सी - मेज पर बैठकर पढ़ना पसंद था। अपनी दादी को इस कुर्सी से हटा कर वो स्वयँ बैठ जाती थी। तब दादी बगल के सोफे पर बैठकर उसके लिये स्वेटर बुना करतीं थीं। जब वो बहुत छोटी थी, तब इसी पर सिर टिकाये-टिकाये सो भी जाती थी। उसकी दादी हँस कर कहती थी "तेरे दहेज में यही कुर्सी मेज बाँध दूँगी तुझे।" और देखो हँसी में कही गई बात वास्तव में सच हो गई।

चार भाई बहनों में अकेले उसे ही ये कुर्सी- मेज मिली। वो भी इसीलिए क्योंकि उसका दादी से और इस कुर्सी मेज से अत्यधिक लगाव था। बाकी सारे भाई-बहनों को तो पिता की संपत्ति में हिस्सा भी मिला। पर उसे ? उसे तो धिक्कार के साथ बस ये कुर्सी-मेज भिजवा दी गई थी।

बस अब मायके से मिले स्त्री-धन के नाम पर यही शीशम की कुर्सी-मेज उसकी अभिभावक थी। न माँ का आँचल मिलना था अब , और न ही पिता की गोद। बस सारे सुख दुःख उसे इसी कुर्सी मेज पर बैठकर काटने थे।

चारु अचानक जैसे स्वयं को बहुत शक्तिहीन अनुभव करने लगी। उसके पैरों से जैसे किसी ने सारा बल खींच लिया हो। वो खड़ी न रह सकी, धम्म से उसी कुर्सी पर बैठ गई और मेज पर उसने अपना सिर टिका लिया। एक क्षण के लिए उसे लगा जैसे उसने वास्तव में किसी अभिभावक की गोद में सिर रखकर आत्मसमर्पण कर दिया हो।

कितना मुश्किल था पिता का घर छोड़ना। पिता भी पिता से अधिक ठाकुर रघुवीर प्रताप सिंह थे, जिनकी आन बान शान ही उनके लिये सब कुछ थी। पिता के कहे अंतिम शब्द आज भी उसके कानों में गूंजते हैं- "अपनी मर्ज़ी से शादी कर रही हो, उस दूसरी जाति के लड़के से, जो कभी हमारे यहाँ बीस हज़ार पर नौकरी करता था। पलटकर इस घर में वापस पाँव मत रखना अब। हमारे लिए आज से तुम मर गई>न।"

कहाँ राजसी धनी ठाकुर परिवार में पली-बढ़ी चारु और कहाँ ये निम्न मध्यम वर्गीय परिवार ? रजत के प्रेम में पड़कर उसने विवाह करके कहीं गलत निर्णय तो नहीं ले लिया ? निभा तो पाएगी न? कहीं वो इस परिवार में ऐसे ही बेमेल न लगे, जैसे ये राजसी मेज-कुर्सी इस कमरे में कहीं खप ही नहीं पा रही।

अभी थोड़े ही दिन हुए हैं उसके विवाह को, पर उसे इस परिवार में स्वयँ का असंगत लगना प्रारम्भ हो चुका था। दरवाजे पर गृह प्रवेश के लिये आरती उतारती सास अपनी बहू के रूप पर रीझकर बलैया लिये जा रहीं थीं। वहीं आस पड़ोस की सब पड़ोसिनें और बच्चे उसे कौतूहल से देखे जा रहे थे। अंत में पड़ोस वाली रामा चाची, जो एक हाथ से आँचल मुँह में दबाये विस्मय से उसका मुख ताके जा रहीं थीं, बोल ही पड़ी," बहू तो परी जैसी ले आये हो लल्ला। पर अब इसके लिये परी महल खड़ा करना पड़ेगा। तुम्हारी खाट के खटमल देख लेना, इसका अधिक खून न पिये।" बस उनका इतना कहना था कि पास पड़ोस में एक ठहाका गूँज उठा।

"चल चल रामा ज़्यादा खींसे न निपोर। अधिक चिंता है तो , एक पलंग तू ही उपहार में दे दे। अब बहू अगर परी है, तो अपनी जादू की छड़ी भी लायी होगी। ख़ुद ही बना लेगी अपना परीस्तान।" उसकी सास ने बात को बनाया और उसे अंदर पैर धरने को कहा। पैर अंदर धरा तो उसने पाया एक तरफ फर्श का सीमेन्ट उखड़ा हुआ है। उसका गोरा ,चिकना सुंदर पैर काले,उखड़े, टूटे फूटे फर्श पर रखते ही मैला हो गया। अपने घर में कभी उसने संगमरमर के अतिरिक्त कोई अन्य प्रकार का फर्श देखा ही न था। इसके बाद नित्य नये अनुभव उसके सामने आते गए। हल्की स्टील के सस्ते,कहीं कहीं से दबे पिचके बर्तनों में खाना खाने से उसे अच्छे से अच्छे भोजन में भी तृप्ति नहीं मिलती थी। खाने पीने की चीज़ों में भी वो क्वालिटी नहीं थी। सुबह चाय के साथ पड़ोस के हलवाई से मंगवाई हुई सस्ती सी दालमोठ और बिस्किट आ जाते थे, जो उसके गले से नीचे नहीं उतरते थे। बाथरूम सबका एक ही था। वहाँ एक सस्ता सा साबुन नहाने के लिये रखा रहता था। अपने घर में तो वो विदेशी ब्रांड के साबुन से नहाती थी।

पर अब जो होना था हो चुका...अब एक नये जीवन की शुरुआत है। उस घर के दरवाजे तो उसके लिये सदा के लिये बन्द हो ही चुके हैं। कुछ रास्तों पर बढ़ने के बाद ही पता चलता है कि वो मात्र जाने के लिये बने थे, लौटकर आने के लिये उनमें कोई संभावना नहीं होती। जब वो रजत का हाथ थामकर अपने मायके की गलियाँ छोड़ आयी थी, तब उसने ये नहीं सोचा था कि वो गलियाँ अब सदा के लिये परायी हो जायेंगी। अब तो रजत के प्रेम के साथ उसे अपने इसी छोटे से घर को सजाना है, सँवारना है। ससुराल की आर्थिक तंगी में ही उसे संतोष और सुख के धन को जोड़ जोड़कर रखना है। ये उसके पिया का घर है, और वो रानी है इसी घर की।

चारु की आँखों में आँसू झिलमिला उठे। माँ-पिता, भाई-भाभी, बहन सबके चेहरे उसकी मन में बारी बारी से झलक रहे थे। क्या अपनी मर्ज़ी से विवाह करना इतना बड़ा पाप था कि बस इसी कारण से पिता का स्नेह सिमटकर शून्य हो गया है? माँ की आँखों के लाल लाल डोरे उसे बरबस याद आने लगे। जब अन्तिम घड़ी आ गई थी और वो हवेली के फाटक पर खड़ी अपना सूटकेस लिये,जाने के लिये पैर बढ़ाने वाली थी। पिता ने तो अंतिम बार पैर छूने का मौका तक नहीं दिया। जैसे ही वो और रजत पैर छूने चले उन्होंने पैर पीछे हटा लिये। पर माँ....?? माँ की आँखों से तो अश्रुओं का बाँध टूट गया था। रोती हुई माँ का विदा में उठा हाथ कितनी देर तक हिलता रहा था, उसने मोटरसाइकिल के पीछे बैठे बैठे तब तक देखा था , जब तक वो दृश्य उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया था। पर अब जो डोर टूट चुकी तो टूट गई।

बाहर अँधेरा घिर आया था। चारु अभी भी मेज पर सिर टिकाये थी। अतीत में विचरते विचरते आप कितने पीछे समय में चले जाते कुछ पता नहीं चलता। चारु की आँखों के नीचे काजल की लकीरें फैल गयीं थीं। मन का सारा अन्धकार जैसे उसकी आँखों के नीचे ही जम गया हो। आधे घंटे तक मानो वो एक अंधेरे थिएटर में बैठी रही थी, जहाँ उसका मन एक कुशल निर्देशक की तरह उसे उसके अतीत का चलचित्र दिखाये जा रहा था।

फिर चारु ने मन ही मन कुछ निर्णय किया। उसने उठकर अपने कमरे की बत्ती जलाई। पूरे कमरे में प्रकाश जगमगा गया। एक बार पुनः वही छोटा कमरा और उससे तनिक भी मेल न खाता हुआ कुर्सी-मेज का जोड़ा मुँह चिढ़ाते हुए दृष्टि के सामने आकर जम गया, "अब क्या करोगी, चारु?"

चारु ने अपने आँसू पोछ डाले। रजत के आने का समय हो रहा था। सामने रखी कपड़ों की अलमारी को चारु ने खोला। सबसे ऊपर के खाने में वो चादर, तकिया के गिलाफ़ रखा करती थी। वहीं से उसने कुछ पुरानी और थोड़ा कम प्रयोग में आने वाली दो चादरें निकालीं। एक उसने कुर्सी पर डाल दी और दूसरी को उसने फैलाकर मेज को ढक दिया।

कुर्सी मेज के शीशम की ठसक, उसकी राजसी चमक , उसका नक्काशीदार अभिमानी सौंदर्य, उसका श्रेष्ठता का भाव, उसका मूल्यवान होने का दर्प सब कुछ उन चादरों के आवरण के नीचे ढक चुका था। अब कुर्सी - मेज उसके मध्यम वर्गीय कमरे से पूरी तरह मेल खा रहा था। अब कोई नहीं कह सकता था कि ये टाट की पट्टी में लाल मखमल का पैबंद है।

तभी रजत लौट आया था। चारु कुर्सी-मेज की ओर ही मुँह किये खड़ी थी। अभी भी उसी ओर ताक रही थी। कमरे में घुसते ही रजत की सबसे पहले दृष्टि किनारे रखे कुर्सी-मेज पर ठहर गई फिर उसने चारु को लक्ष्य करके कहा," अरे वाह , लेक्चरर साहिबा, आपने अपने पढ़ने-लिखने के लिये कुर्सी-मेज का इन्तज़ाम भी कर लिया? " उसने चहकते हुए कहा। उसे पता था चारु बिना कुर्सी-मेज के कुछ पढ़ लिख ही नहीं पाती है। वो कुर्सी मेज लाने का मन बना ही रहा था। उसने सोचा था कि किसी दिन वो चारु को अचानक से उपहार देकर अचंभित कर देगा। पर यहाँ तो चारु ने उसे ही सरप्राइज़ दे दिया। रजत चारु के बिल्कुल निकट आकर खड़ा हो गया, और कुर्सी मेज को चारु के साथ ही खड़े होकर देखने लगा।

चारु ने उधर से अपनी दृष्टि उठाई और रजत की आँखों में देखा। फिर बोली- "हाँ जी, पति महोदय जैसे राजा बिन सिंहासन अधूरा होता है न, वैसे ही एक अध्यापक बिन पढ़ने लिखने वाली एक कुर्सी - मेज के अधूरा होता है। यही आज से मेरा सिहांसन है।"

"अच्छा जी, मतलब आप नाईट लैम्प जला कर यहाँ देर रात पढ़ा करेंगी और मैं वहाँ पलंग पर करवटें बदल बदलकर आपकी प्रतीक्षा करूँगा? " रजत ने अपना बैग एक कोने में फेंका और शरारत के साथ चारु को अपनी बाहों में ले लिया।

चारु मुस्कुराई-" ये सब तो पहले सोचना था न? अब रिसर्च का काम होता ही इतना जटिल है, मैं क्या करूँ? "

"हूँ... जानता हूँ भई। और इस पर ये चादर क्यों डाल रखी है? हटाओ ज़रा, देखूँ तो इसकी क्वालिटी।" रजत ने चादर हटाने के लिये हाथ बढ़ाया। पर चारु ने उसका हाथ रोक लिया।

"क्या हुआ?" रजत ने पूछा।

" आपको बताया था न, दादी की एक कुर्सी- मेज थी जो मुझे बहुत प्रिय थी।" चारु ने कहा।

"हाँ। जानता हूँ। बहुत बार देखा है उसे मैंने तुम्हारे घर पर। ये भी देखा था कि तुम उस पर बैठी पढ़ती रहती थीं मोटी मोटी किताबें।" रजत के स्वर में अभी भी विनोद झलक रहा था।

"पिता जी ने भिजवाई है।" चारु के स्वर में विषाद का भाव उतर आया था।

"ओह.." रजत को जैसे ही बात समझ में आई वो गंभीर हो गया। फिर बोला- "तो इस पर चादर क्यों डाल दी? ये तो ऐसे ही बड़ी सुंदर दिखती थी। क्या ठाठ थे इसके तुम्हारे घर में। हटा दो न चादर।"

"नहीं...इसे ऐसे ही रहने दीजिए।".चारु भावुक होकर रजत के गले लग गई। "मुझे अब आपके साथ ही अपने जीवन को सुंदर बनाना है। मैं अपने अतीत पर चादर डाल आई हूँ।"