मजदूर-दिवस पर / प्रमोद यादव

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डोर बेल बजने पर दरवाजा खोला तो सामने एक कृशकाय निरीह अधेड़ व्यक्ति को खडा पाया... चेहरा कुछ परिचित-परिचित सा लगा. मैंने विनम्रता से पूछा- ‘हाँ भई... कहिये... कौन हैं आप? आपको पहचाना नहीं... कैसे आये?’

‘जी... साबजी... .मैं आपके मोहल्ले का ही एक गरीब मजदूर हूँ- रामलाल... ’ उसने परिचय दिया फिर आगे बोला- ‘बीस सालों से यहाँ रहता हूँ... ’

मैंने उसे सादर कुर्सी पर बैठाया.

‘बीस साल पहले आप क्या थे?’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया.

‘अरे साब... तब भी मजदूर ही था... ’ उसने जवाब दिया.

‘नहीं रामलाल... वो क्या है न कि आजकल लोग जल्दी बदल भी जाते हैं... कोई बीस साल पहले राहुल होता है तो आज तारीख में राजीव हो जाता है... इसलिए पूछा... ’ मैंने गोल-मोल जवाब देते कहा.

‘छोटा आदमी हूँ साब... बड़ी बड़ी बातें मैं नहीं जानता... पर इतना जानता हूँ मजदूर जनम से ही मजदूर होता है.’ उसने अपनी अज्ञानता का रोना रोया.

‘अच्छा बताओ... .कैसे आना हुआ? ‘मैं सीधे मुद्दे पर आया.

‘वो क्या है साबजी... .हमने सुना है कि आप कुछ लिखते-विखते हैं... इसलिए चले आये... ’

‘अरे नहीं जी... .लिखता=विखता कुछ नहीं ... यूं ही अपना टाईम पास करता हूँ जैसे तुम मजदूर लोग मनरेगा में करते हो... ’ मैंने टालने के अंदाज में फेंका.

‘अरे नहीं साबजी... आप तो इस शहर के बड़े लेखक हैं... ऐसा कईयों ने बताया है... इसलिए आपसे उम्मीदें लेकर आया हूँ... ’ वह गिडगिडाया.

‘लेखक बड़ा हुआ तो क्या हुआ रामलाल... .आदमी तो बहुत छोटा हूँ... ’ डर गया कि कहीं कोई हजार-दो हजार चंदा न मांग दे.

‘अब एक मजदूर से तो ज्यादा छोटे नहीं होंगे न? ‘उसने अपनी बात रखी.

मुझे लगा - उलटे-सीधे सवाल कर खुद ही फंस गया. सामने वाला जिस दृढ़ता से पसरा बैठा था... लगा कि चूना लगा के ही जाएगा. सोचा कि सीधे रसीद-बुक मांगकर खुद ही भर देता हूँ-इक्कीस रुपये... सो उसकी ओर मुखातिब हो कहा- ‘अच्छा रामलाल... दो... बुक दे दो... ’

‘बुक? कौन सा बुक साबजी? हम लोग तो दूसरी क्लास के बाद आज तक कोई बुक न देखे ... न पढ़े ‘वह घबरा सा गया.

मुझे बड़ी राहत मिली उसके जवाब से... मैं तो घबरा ही गया था... चन्दा के नाम से ही मुझे बुखार चढ़ जाता है... भगवान् जाने किस शख्स ने “चंदा” नाम रखा... कितना शीतल होता है चंदा... और इसे देते वक्त उतनी ही गर्मी... .बदन तप सा जाता है... मैं अब रामलाल को और ज्यादा झेलना नहीं चाहता था इसलिए सीधे बिना किसी संकोच के पूछा- ‘रामलाल... बोलो... मुझसे आपको क्या चाहिए? ‘

‘केवल एक-दो मदद साबजी. कल.हम मजदूर-दिवस पर पहली बार इस मोहल्ले में कार्यक्रम करने जा रहे... चाहते हैं कि आप कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हों... ’

मुझे सुनकर बड़ा अच्छा लगा... कई दिन बीत गए... याद ही नहीं आ रहा कि पिछली दफा कब और कहाँ बना था... मैंने हौले से कहा- ‘रामलाल... इस दिन तो मेरा एक दूसरा ही कार्यक्रम है... कहाँ आ पाऊंगा? ‘

‘अरे नहीं साबजी... बड़ी उम्मीद से आपके पास आया हूँ... हमने तो आपके नाम से आपसे बिना पूछे पाम्प्लेट्स भी छपा लिए हैं... ’ उसने विनती करते कहा.

मैं खुश हुआ कि बन्दे ने पूरा बंदोबस्त कर ही लिया है... फिर भी उसे चमकाते हुए कहा- ‘अरे रामलाल... कम से कम पाम्प्लेट्स छपाने के पूर्व पूछ तो lenaलेना था? ‘

‘साबजी... घर की बात है... इसमें क्या पूछना?... हम जानते हैं... मोहल्ले के नाम से आप हमारे लिए अपने दसों कार्यक्रम छोड़ देंगे... ’ उसने मक्खन लगाया.

‘ठीक है... अब इतना कहते हो तो मोहल्ले के लिए तो करना ही होगा... और कुछ? ‘

‘बस एक मदद और साब... मैं मजदूर यूनियन का लीडर हूँ... तो मुझे भी मजदूर भाइयों के लिए कुछ तो बोलना ही होगा... एकाध भाषण तो देना ही होगा... ’

‘तो? ‘मैं चौंका.

‘तो साबजी... मेरे लिए एक बढ़िया सा भाषण बना कर दीजिये... मैं भला मजदूर – दिवस या आन्दोलन के बारे में क्या जानूं? ‘

‘अरे रामलाल... अब मैं तुम्हारे लिए लिखूँ कि अपने लिए? फिर इतना समय भी कहाँ है? ‘मैंने टालने के अंदाज में कहा.

‘इसमें क्या है साब... बोलना तो एक ही विषय पर है... एक भाषण बना लीजिये... मैं फोटो कापी करवा देता हूँ... बात ख़तम... एक आप रखिये... एक मैं. ‘बड़े ही सहज भाव से उसने कहा.

‘अरे रामलाल... पहले तुम सब बोल दोगे तो मैं फिर क्या बोलूँगा?’ मैंने उसे समझाने की कोशिश में कहा.

‘तो ठीक है न साब... .पहले आप ही बोल लेना... मुझे और भी बहुत से काम है... मैं चलता हूँ ... आप एकाध घंटे में भाषण तैयार कर दे... मैं लेने आता हूँ... थोडा जल्दी करेंगे... नहीं तो फोटो स्टेट वाला दूकान बंद कर देगा... और फिर मुझे तो भाषण भी याद भी करना है... .’ इतना कह वह निकल गया.

दूसरे दिन मजदूर-दिवस पर मैं भाषण पेलकर भाग आया... इस दौरान पूरे समय रामलाल मंच के पीछे भाषण याद करता रहा... आगे क्या हुआ... मजदूर ही जाने... मुझे नहीं मालुम.