मजबूरियां कई यहां बस एकला चलो रे / जयप्रकाश चौकसे

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मजबूरियां कई यहां बस एकला चलो रे
प्रकाशन तिथि : 09 मार्च 2021


लुमियर बंधुओं ने पेरिस में चलती-फिरती तस्वीरें लेने व दिखाने वाले कैमरे का प्रदर्शन किया। इसके मात्र 17 वर्ष पश्चात दादा फाल्के ने राजा हरिश्चंद्र नामक कथा चित्र का प्रदर्शन किया। सिनेमा कथा कहने का माध्यम है, इसलिए उसकी यात्रा और विकास तीव्र गति से हुआ।

भारत में कथाएं सुनना, सुनाना प्राचीन काल से ही लोकप्रिय है। सदियों पूर्व रचे गए रामायण व महाभारत की रोचकता आज भी कायम है। अर्थ की नई सतहें आज भी खोजी जा सकती हैं। एक दौर में कथा वाचक स्वामी हरिदास की रामायण सुनाने की शैली की चहुं ओर इतनी प्रशंसा हुई कि स्वयं हनुमान जी परीक्षा लेने वहां पहुंचे। उस दिन स्वामी हरिदास सुना रहे थे कि अशोक वाटिका में सफेद साड़ी पहने सीता मां श्री राम का स्मरण कर रही थीं। चहुं ओर सफेद फूल खिले थे। श्रोताओं में आम श्रोता जैसे बैठे हनुमान जी ने प्रतिवाद किया कि सीता मां लाल फूलों को निहार रही थीं। श्री राम का स्मरण करते हुए, उन्होंने साड़ी से अपना माथा ढंक लिया। स्वामी हरिदास ने उन्हें अनदेखा कर कथा जारी रखी। श्री हनुमान ने अपना विराट स्वरूप प्रकट किया। जिस घटना का विवरण सुनाया जा रहा था उसके समय हनुमान स्वयं वहां उपस्थित थे। इस अकाट्य से दिख रहे साक्ष्य को भी कथा वाचक ने अनसुना किया। स्वामी जी ने बताया कि सीता मां के अवसाद के कारण हनुमान को क्रोध आया इसी क्रोध से उनकी आंखों में खून आया और सफेद फूल उन्हें लाल दिखाई दिए। बहरहाल वी.एन सरकार द्वारा स्थापित न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी के सलाहकार गुरुदेव टैगोर के मार्ग निर्देशन में उनके रचित नाटक ‘नाटिर पूजा’ से प्रेरित फिल्म भी असफल रही, तो उन्हीं के परामर्श पर शिशिर भादुड़ी के सफल नाटक ‘सीता’ पर पृथ्वीराज कपूर और दुर्गाखोटे को लेकर बनाई गई फिल्म अत्यंत सफल रही। उसी समय निर्णय लिया गया कि साहित्य प्रेरित फिल्मों का निर्माण हो। के.एल सहगल अभिनीत ‘देवदास’ सफल रही। गुरुदेव की संस्था शांति निकेतन में प्रशिक्षित सत्यजीत राय की ‘अपुर संसार’ शृंखला ने विश्व सिनेमा को प्रभावित किया। सत्यजीत राय की 28 कथा फिल्मों में केवल ‘कंचनजंघा’ साहित्य प्रेरित नहीं है। ऋत्विक घटक की क्रांतिकारी फिल्में सत्यजीत राय की शैली से अलग रहीं, ज्ञातव्य है कि देविका रानी और हिमांशु राय द्वारा स्थापित बंबई टॉकीज फिल्म निर्माण कंपनी की फिल्मों के लेखक निरंजन पॉल का जन्म भी कोलकाता में हुआ था और अंग्रेजी भाषा में उनके लिखे नाटक भी इंग्लैंड में मंचित किए गए। फिल्म समालोचना के क्षेत्र में महारत प्राप्त करने वाले चिदानंद दासगुप्ता भी बंगाल में ही जन्मे थे। यह गौरतलब है कि अभिव्यक्ति के माध्यम के साथ ही उसकी समालोचना प्रस्तुत करने वालों का भी विकास होता है। जब मुंह बंद रखने का आदेश जारी होता है तब बंद मुंह में मनुष्य की विचार शैली सक्रिय रहती है। ये विचार जाने कैसे और कब दसों दिशाओं में गूंजते हैं। शिखर पर विराजित व्यक्ति नहीं जानता कि प्रतिध्वनि कब, किन अनजान चट्‌टानों से टकराकर लौटेगी। फिल्मकार मृणाल सेन, सत्यजीत राय और घटक समकालीन रहे परंतु उनकी शैलियां अलग-अलग रहीं। आपसी द्वंद्व के कारण न्यू थिएटर का विघटन होने लगा तो बिमल रॉय अपने साथियों सहित मुंबई पहुंचे और उन्होंने महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया। निरंजन पॉल की तरह पटकथा लेखक नवेन्दु घोष का योगदान भी महान रहा।

किसी समय नक्सलवादी रहे एक युवा ने मुंबई फिल्म उद्योग में अपार सफलता पाई। वह अपने क्षेत्र का मोनार्क बन गया। यह भारत का जादू है कि नक्सली रहा युवा पूंजीवादी बनकर अब संकीर्णता का बिगुल बजा रहा है। कौन, कहां कैसे मजबूर हो जाता है, यह तो मां की ममता भी नहीं जानती परंतु वह टैगोर की तरह एकला चलो रे गाती रहेगी। समय की मिक्सी में नक्सली, पूंजीवादी और पूंजीवादी, अपराध जगत की तरह कार्य करता है। व्यवस्था में सभी शैलियां समाई हैं।