मज़बूर / आदित्य अभिनव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"रश्मि! लो आ गया हेड क्वाटर्स से अल्टीमेटम। 21 मार्च को शिप रवाना होगा। अफ्रीका, द। अमेरिका, उ। अमेरिका, कनाडा होते हुए ब्रिटेन, फ्रांस आदि यूरोपीय देशों का चक्कर लगा कर 26 सितम्बर को मुम्बई आयेगा।" रविकांत ने मोबाइल के व्हाट्सएप पर आए मैसेज को पढ़कर कहा।

"चलो इस बार थोड़ा कम दिन का ट्रिप है। पिछली बार तो सात महीने का था।" रश्मि ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।

"ऐसा करते है इस बार होली घर पर मनाते हैं। वहाँ से आकर अमित का एल. के. जी. में एडमिशन करा देंगे। तुम्हारा भी तो इंटरव्यू अच्छा हुआ है। यही है कि थोड़ा दूर है कॉलेज। पहले हो तो जाए। तुम्हारे भारी भरकम पढ़ाई का कुछ उपयोग तो हो।" रविकांत के स्वर में आशा का भाव था।

यूँ तो रवि को जब अकेले आना होता था तो बक्सर स्टेशन उतरने के बाद बस से ही 30 किलोमीटर अपने गाँव के बाज़ार तक आता जहाँ उसके पिता खड़े मिलते थे। इस बार सपरिवार आ रहा था। उसने फोन कर बता दिया था कि वह बक्सर से ही जीप या बुलेरो लेकर घर आ जायेगा। बुलेरो दरवाजे पर पहुँची। राघव लाल जी दरवाजे पर कुर्सी लगाए बैठे दिखाई दिए मानों राह देख रहे हो। रवि, रश्मि और अमित ने पिता जी के पाँव छुँए। घर में प्रवेश करने के बाद दोनों चाचियों के चरण स्पर्श किए। आधे घण्टे बाद मँझले चाचा रत्नेश लाल भी आ गए थे। रश्मि दोनों चाचियों से बातों में मशग़ूल हो गई और अमित रवि के छोटे चाचा रूपेश लाल के इकलौते बेटे प्रदीप के साथ खेलने में मग्न हो गया।

फागुन का महीना। गर्मी पड़नी शुरु हो गई थी लेकिन रात को पतला कम्बल या मोटा सूती चादर ओढ़ना ही पड़ता था। रात को अमित दूध पीकर सो गया था।

"रश्मि! तुमने जिस कॉलेज में अप्लाई किया था वहाँ के प्रिंसीपल का फोन आया था। तुम्हे टी. जी. टी. (सोशल साइंस) के पद पर रख लिया गया है। छठीं से लेकर दसवीं तक के बच्चों को पढ़ाना है। महीने के पच्चीस हजार मिलेंगे।" बगल में लेटी रश्मि को अपने बाँहों में भरते हुए रवि ने कहा।

"ये सब तुम्हारें ही दौड़ धूप का असर है, माई डियर।" रवि के बाँहों में समाती हुई रश्मि बोली।

10 बजे के करीब रवि अपने अज़ीज़ मित्र अरुण प्रकाश से मिलने के लिए पड़ोस के गाँव जाने के लिए जूतें पहन रहा था। गाँव में नाश्ता न होकर सीधे भरपेट भोजन ही 10 11 बजे के आस पास होता है। राघव लाल जी द्वार पर ही खाना खा रहे थे। खाने में भात, अरहर की दाल और करैला की कलौंजी थी। उन्होंने प्रदीप को आवाज लगाया "बेटा! एक और कलौंजी हो तो लाना साथ में थोड़ा भात और दाल भी लेते आना।"

प्रदीप उठकर भीतर गया। पाँच मिनट तक वह नहीं आया तो राघव लाल जी थाली में ही हाथ धो पड़ोस के बैठका में गप शप करने चले गए। रवि ने ये सब देखा लेकिन कुछ बोल नहीं सका।

रात को सोते समय रवि ने रश्मि से कहा "ऐसा करते हैं पिताजी को भी अपने साथ ले चलते हैं। वहाँ तो मैं चला जाऊँगा शिप पर, तुम चली जाओगी अपने कॉलेज। आखिर अमित को कॉन्वेंट से ले आने और तुम्हारे आने तक ध्यान रखने वाला भी तो चाहिए। वैसे भी मुम्बई में जहाँ हम लोग हैं कामवाली बाई या आया कहाँ मिलती है?"

"वाकई तुम दूर की सोचते हो, रवि।" मुस्कुराते हुए रश्मि ने अपना दाहिना हाथ रवि के कमर पर रख दिया।

होली के सातवें दिन रवि का मुम्बई वापसी का रिजर्वेशन था। उसने एजेंट के माध्यम से पिता जी के लिए भी एक कंफर्म स्लीपर टिकट की व्यवस्था की। मुम्बई से आते वक्त भी बड़ी मुश्किल से स्लीपर टिकट का ही जुगाड़ हो पाया था। वापसी का भी रिजर्वेशन उसने मुम्बई में ही करा लिया था।

अगले दिन सुबह 10 बजे ट्रेन थी। रात में लगभग 10 बजे रवि सोने के लिए अपने कमरे में जा रहा था कि मँझली चाची के कमरे से छोटी चाची की आवाज सुनाई दी "अच्छा है, बुढ़वा जा रहा है मुम्बई। बोझ टला।" रवि कसमसा कर रह गया।

मुम्बई चलने की बात पर राघव लाल जी ने कोई हर्ष विषाद प्रकट नहीं किया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनका सारा हर्ष विषाद रवि के माँ के साथ ही चला गया हो। रवि के शादी के सात महीने बाद ही वह सर्प दंश से चल बसी थी। तब से वे वीतराग-सा जीवन जीने लगे थे। लेकिन इस वीतराग को पोते अमित ने तोड़ दिया था। अमित अपने दादा जी से इतना जुड़ गया था कि पूरे दिन दादा जी के साथ रहता केवल रात को सोते समय ही रश्मि के पास जाता था।

मुम्बई पहुँचने के चौथे दिन रवि ने अमित का नाम पास के कॉन्वेन्ट 'बाल विकास मंदिर' में एल. के. जी. में लिखवा दिया था। 'बाल विकास मंदिर' क्वाटर्स से मात्र 300 350 मीटर की दूरी पर था। 01 अप्रैल से रश्मि को भी कॉलेज ज्वाइन करना था। पिताजी सुबह साढ़े आठ बजे अमित को कॉन्वेंट छोड़ आयेंगे फिर एक बजे जाकर लेते आयेंगे। रश्मि भी अपने कॉलेज से तीन साढ़े तीन बजे तक आ ही जायेगी। रवि पिता जी के आने से निश्चिंत हो गया था।

शुरु–शुरु में दो तीन दिन तो अमित को स्कूल छोड़ जब राघव लाल आने लगते तो रोता था फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। रश्मि सुबह-सुबह उठकर नाश्ता और खाना बना लेती है। अमित को कॉन्वेंट के लिए तैयार करती है। फिर स्कूटी से 7 किलोमीटर दूर कॉलेज के लिए निकलती है।

रश्मि ने जिस कॉलेज को ज्वाइन किया था वह इस क्षेत्र का सबसे प्रतिष्ठित इंटर कॉलेज था। वर्तमान प्रबंधक श्री रमेशचंद्र मेहता के पिता श्री शैलचंद्र मेहता जी इसे बनवाया था। शैलचंद्र जी इस क्षेत्र के सबसे बड़े दाल व्यापारी थे। उनकी एक चटकल फैक्ट्री कलकत्ता में और दो सूती साड़ी की मीलें मुम्बई में थी। उनका सिक्का चलता था पूरे क्षेत्र में। अब वह रुआब तो नहीं लेकिन शान में कोई कमी नहीं आई है। रमेशचंद्र जी भी अस्सी पार कर चुके हैं। अब कभी-कभी ही कॉलेज आते हैं। इसालिए सारी व्यवस्था उनके इकलौते पुत्र रूपेशचंद्र यानी बबुआ जी संभालते हैं। सब लोग उन्हें बबुआ जी के नाम से ही पुकारते हैं।

रश्मि के कॉलेज ज्वाइन करने के एक महीना बाद ही रमेशचंद्र जी चल बसे थे। अब सम्पूर्ण भार बबुआ जी के कंधे पर आ गया था। कॉलेज में धीरे-धीरे रश्मि का प्रभाव जमने लगा था। रश्मि के पढ़ाने का अंदाज बच्चों को बहुत भाता था। प्रिंसीपल के पास बच्चों की रिपोर्ट पहुँचती रहती थी। प्रिंसीपल से प्रबंधक बबुआ जी को भी फीडबैक मिलता रहता था।

कॉलेज में वार्षिक क्रीड़ा महोत्सव का आयोजन था। एंकरिंग का दायित्व अंग्रेजी में इंग्लिश टीचर भुवन सर को एवं हिन्दी में मिसेज रश्मि को मिला है। मुख्य अतिथि हैं कॉलेज के प्रबंधक बबुआ जी। रश्मि के मन में एंकरिंग को लेकर अजीब-सी घबराहट हो रही है, हालाँकि उसने अपने कॉलेज के वार्षिकोत्सव में ऐंकरिंग किया था। लेकिन एक शिक्षिका के रूप में उसका यह पहला अवसर था। क्रीड़ा महोत्सव के दिन सुबह आठ बजे जब वह कॉलेज पहुँची तो नीले रंग की साड़ी और मैच करता हुआ सैंडल पहने बिल्कुल हीरोइन लग रही थी। रवि द्वारा पेरिस से लाया गया विदेशी स्प्रे उसके पास आने वालो को भीनी-भीनी सुगंध से सराबोर कर रहा था।

कॉलेज के बच्चें क्रीड़ा परेड के लिए कतारबद्ध खड़े थे। मंच पर भी सारी तैयारी हो चुकी थी। बबुआ जी की कार आते ही एंकर रश्मि ने अपने मधुर झंकारयुक्त स्वर में उनका स्वागत किया। एकाएक बबुआ जी का ध्यान एंकर की ओर खिंच गया। सत्ताइस साल का युवा दिल नील परिधान में सजे मोहक सौंदर्य को देखते ही जोर-जोर से धड़कने लगा। रश्मि ने भी पहली बार बबुआ जी को देखा था। क्या बाँकपन है? कोई भी युवती देखे तो बार-बार देखना चाहे। सफेद चूड़ीदार पाजामा, क्रीम कलर का चिकनवाला कुर्ता। उसी रंग का रेशमी अंगोछा। सजीली मूँछें। ताँबे-सा दमकता गोरा रंग। रश्मि भी उन्हें बरबस देखते रह गई। कार्यक्रम चलता रहा। बबुआ जी किसी न किसी बहाने उधर जरूर देख लेते थे जिधर रश्मि बैठी एंकरिंग कर रही थी। रश्मि का खनकता मधुर स्वर ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई बाँसुरी बजाकर उनको मदहोश किए जा रहा हो। कॉलेज के बेस्ट खिलाड़ी का अवार्ड देते समय प्रिंसीपल के साथ–साथ रश्मि भी खड़ी थी। रश्मि ने ट्रॉफी उठाकर बबुआ जी को थमाया। अचानक बबुआ जी की अंगुली ने उसके अंगुली को स्पर्श कर लिया था। फूल को किसी सजीले भँवरे ने छूँ दिया था।

रश्मि रात भर बबुआ जी के बारे में सोचती रही। अपने मन को उधर से हटाने का जितना ही वह प्रयास करती उतना ही ख्यालों में खोती जाती। नहीं-नहीं वह रवि की पत्नी है फिर उसके मन में किसी और के प्रति ऐसा ख्याल क्यूँ? दिल को बार-बार समझाती दबाती लेकिन कोई वश नहीं चल रहा था। आकर्षण के आँच से तप रहे शरीर को संयम के ठंडे झोकों से वह शांत करने का प्रयास कर रही थी लेकिन बबुआ जी हवा का झोका बन कर उस दबी आग को सुलगा दे रहे थे। उधेड़ बुन में पड़ी वह दोराहे पर खड़ी थी।

कॉलेज में सोशल साइंस इक्जिविशन की तैयारी चल रही थी। रश्मि को स्किट कराना है। वह सोच रही थी कि साम्प्रदायिक सद्भाव पर स्किट तैयार करवाए। वह प्रिंसीपल मैम से इस विषय पर बात करने के लिए गई। प्रिंसीपल मैम नहीं थी। सामने सोफा पर बबुआ जी बैठे कुछ सोच रहे थे। रश्मि ने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। देखते ही बबुआ जी खड़े हो गए।

"बैठिए बैठिए रश्मि जी! क्या आवाज है आपकी? बहुत ही दमदार एंकरिंग करती हैं भई। आपने तो मेरा दिल जीत लिया।" मुस्कुराते हुए बबुआ जी बोले।

"थैक यू, सर! आपको पसंद आया, मेरे लिए बड़ी बात है।" रश्मि ने सकुचाते हुए कहा।

"आप यहाँ पाँच महीने से हैं?"

"हाँ सर!"

"किस पोस्ट पर?"

"टी. जी. टी. (सोशल साइंस)"

" आपका क्वालिफिकेशन तो एम. ए. (हिस्ट्री) , बी.एड। है।

"हाँ सर!"

तब तक प्रिंसीपल भी आ गई। उन्होंने हाथ जोड़कर बबुआ जी का अभिवादन किया।

"अगले सत्र से रश्मि जी को पी. जी. टी. (हिस्ट्री) के पद पर रख लीजिए। अपने यहाँ एक पी. जी. टी. (हिस्ट्री) का पद रिक्त है न।" प्रिंसीपल की ओर देखते हुए बबुआ जी ने कहा।

"हाँ, है तो लेकिन मिसेज स्नेहलता, टी. जी. टी. (सोशल साइंस) ग्यारहवीं और बारहवीं का क्लास ले लेती हैं। काम चल जाता है।"

"काम चल जाता है नहीं। अगले सत्र से ये रहेंगी पी. जी. टी. (हिस्ट्री) ।" बबुआ जी के स्वर में आदेश था।

"हाँ, ठीक रहेगा। रश्मि मैडम की बच्चें भी बहुत प्रशंसा करते हैं।" प्रिंसीपल ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।

"मैम, ऐसा कीजिए इनका नौवीं वाला क्लास स्नेहलता मैम को दे दीजिए और इन्हें स्नेहलता वाला बारहवीं का क्लास दीजिए। मैं बारहवीं के लिए यंग इनर्जेटिक टीचर चाहता हूँ। वैसे भी स्नेहलता मैडम का दो साल बाद रिटायरमेंट भी है।" बबुआ जी अपने रौ में थे।

"बहुत सही और दूर की सोचते हैं आप सर।" प्रिसीपल के स्वर में खुशामद का भाव झलक रहा था।

रश्मि चुपचाप हो रही बातों को सुन रही थी।

"मैम! मैं सोच रही हूँ कि इस बार सोशल साइंस इक्जीविशन के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव पर स्किट करवाऊँ। आपका क्या विचार है?" प्रिंसीपल की ओर मुखातिब हो रश्मि ने कहा।

"ठीक रहेगा।"

"रश्मि जी! हमें भी आपका स्किट देखना है।" बबुआ जी ने रश्मि की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा।

"हाँ सर! जरूर।"

रश्मि दोनों का अभिवादन कर ऑफिस से बाहर आ गई।


दबी हुई आग अब सुलगने लगी थी। कॉलेज से आने के बाद खाना खाकर, अमित को सुला वह खुद आराम कर रही थी। शाम को लगभग पाँच बजे मोबाइल बजा। नया नम्बर था।

"नमस्ते रश्मि जी! कैसी हैं?"

"मैंने पहचाना नहीं।" रश्मि बोली।

"मैं आपके कॉलेज का प्रबंधक बबुआ जी बोल रहा हूँ।" स्नेहिल स्वर था।

"हाँ सर! हाँ सर! नमस्ते–नमस्ते।" रश्मि के स्वर में घबराहट थी।

"अरे! आप तो घबरा रही हैं। कॉलेज के लिए प्रबंधक हूँ, मैनेजर हूँ आपके लिए तो सिर्फ रूपेश हूँ रूपेश।" बहुत ही मुलायम स्वर उभरा।

"क्या मैं आपसे कुछ अनुरोध कर सकता हूँ।" अनुनय भरा स्वर था।

"हाँ–हाँ–कहिए।" रश्मि ने घबराहट को संभालते हुए कहा।

"परसों रविवार को आप हमारे साथ होटल एलिफिस्टन में लंच करें तो यह मेरी खुशनसीबी होगीं।"

"न–न—ह ह हाँ–हाँ–ठीक–ठीक है–सर–सोचती हूँ।" घबराहट के कारण हकलाते हुए रश्मि ने धीरे से कहा।

"रूपेश—आपका रूपेश पलक पाँवड़े बिछाए आपका इंतजार करेगा। जरूर आइएगा।" बबुआ जी के स्वर में प्रणय याचना थी।

दबी आग जो धीरे-धीरे सुलग रही थी, हवा के तेज झोके से प्रज्वलित हो उठी। रविवार सुबह उठते ही रश्मि ने अपने चेहरे का ब्लिचिंग किया। तंबई रंग दमकने लगा। अमित को नाश्ता कराकर सुला दिया। फिरोजी रंग के सलवार सूट में वह पूरी तितली लग रही थी। दुपट्टा डालते हुए राघव जी से बोली "पिता जी! कॉलेज में आज मीटिंग है। आते-आते 6 7 बज जायेगा। अमित सोकर उठेगा तो उसे खाना खिला दीजिएगा और आप भी खाना खा लीजिएगा।"

सँजा सजीला भँवरा बार-बार फूल को छूँ रहा था। फूल ने आखिर अपनी पंखुरियाँ खोल दी। भँवरा फूल का रस लेने लगा। पंखुरियाँ खिलखिला उठी।

अमित डेढ़ बजे जगा। मम्मी! मम्मी! की आवाज सुनकर राघव लाल जी ने उसे गोद में उठा लिया।

"दादा जी! दादा जी! मम्मी कहाँ है?"

"मम्मी कॉलेज गई है, बाबू, जरूरी मीटिंग है।" राघव जी उसे अपने सीने से चिपकाते हुए कहा।

अमित और राघव जी दोनों ने साथ-साथ खाना खाया। खाना खाने के बाद दोनों ड्रॉइंग रूम में टी. वी. देखने लगे। अमित अपना कार्टून चैनल पर 'डोरेमॉन' देखने में मग्न हो गया। 'डोरेमॉन' खत्म होने के बाद अमित कुरकुरे के लिए जिद करने लगा। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। राघव जी अमित को साथ लिए पास के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स चल पड़े। रास्ते में रश्मि के ही कॉलेज के पी. जी. टी. (फिजिक्स) रमन श्रीवास्तव जी मिल गये। रमन श्रीवास्तव ने राघव लाल जी को नमस्कार किया।

"अरे! आप नहीं गए कॉलेज, आज जरूरी मीटिंग है न आपके कॉलेज में।" राघव जी का प्रश्न था।

"नहीं–नहीं, कोई मीटिंग नहीं है।" रमन जी ने सफाई पेश करते हुए कहा।

"लेकिन बहू तो गई है। बता रही थी जरूरी मीटिंग है।" राघव जी के स्वर में दृढ़ता थी।

"नहीं—नहीं अंकल! मैं तो कल देर तक रुका था कॉलेज में। प्रिंसीपल मैडम से आते समय बात भी हुई थी। नहीं, कोई मीटिंग नहीं है पक्का।" रमन जी ने पूरे विश्वास से कहा।

"हो सकता है बहू को विशेष काम के लिए बुलाया गया हो।" राघव जी ने सुरक्षात्मक लहजे में कहा।

कुरकुरे दिलाकर आते समय राघव जी के पाँव बहुत ही धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। उनकी बूढ़ी आँखों में रश्मि का चेहरा धुँधला धुँधला–सा लगने लगा था।

रश्मि को घर आते-आते सात बज गए थे। आते ही उसने अमित को अमूल डेयरी का बड़ा-सा चॉकलेट थमा दिया। अमित गुस्से में था लेकिन चॉकलेट पाकर सब भूल गया। वेनिटी बैग अपने कमरे में रख रश्मि टॉवेल ले बाथ रूम में चली गई। रात का खाना बनाने के बाद टी. वी. देख रहे अमित और राघव जी को उसने खाना खाने के लिए बुलाया। रश्मि ने अभी खाने का प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखा ही था कि राघव जी बोले "बहू! शॉपिंग कॉम्प्लेस में रमन जी मिले थे। वे बोल रहे थे कि आज कोई मीटिंग नहीं थी तुम्हारे कॉलेज में।"

"पापा! उनको नहीं बुलाया गया था। कुछ खास टीचरों को ही बुलाया गया था।" किचेन से पानी का ग्लास लाते हुए रश्मि बड़े ही साफगोई से कहा।

राघव जी ने चुपचाप खाया और हाथ धोकर दाँतों में नीम का खरिका करने लगे।

रश्मि को आभास हो गया था कि बूढ़े राघव लाल की अनुभवी आँखें सब ताड़ गई हैं। उसे रात में नींद नहीं आ रही थी। दस बजे रात को वह सोने के लिए बिछावन पर आई थी। बाकी दिनों उसे बिछावन पर आते ही नींद आ जाती थी। लेकिन आज बार-बार उसके मन में 'रमन जी ने कहा था कि आज कोई मीटिंग नहीं है' ससुर जी द्वारा कही गई बात घुमड़ रही थी। वह कभी बाँये तो कभी दाये करवट सोने का प्रयास कर रही थी। रात के साढ़े ग्यारह बज गए। शाम को छ: बजे रवि का फोन आया था कि वह 26 सितंबर को आ रहा है। आज 7 सितंबर है। उन्नीस दिनों के बाद वह आ जायेगा। कहीं बूढ़े ने सब बता दिया तो? क्या करे कुछ समझ में नहीं आ रहा था? पसीना-पसीना हो गई वह।

एकाएक उसके मन में आया कि रवि को यदि ऐसा बताया जाए तो सब ठीक हो जायेगा। बाँस को ही हटा दिया जाए, न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

सुबह उठी तो आठ बज चुके थे। वह घबरा गई। जल्दी-जल्दी अमित को तैयार किया और नाश्ता करा उसका टिफ़िन पैक किया। जल्दी-जल्दी सूट पहना। तब तक 08.40 हो चुका था। अमित के पीठ पर बैग टाँगते हुए बोली " पापा! अमित को कॉन्वेंट छोड़ने के बाद चावल–दाल बना लीजिएगा, भुजिया बनी हुई है। इसके साथ ही अपना बैग झपट कर उठाया और स्कूटी स्टार्ट कर तेजी से निकल गई।

रश्मि भागी-भागी कॉलेज पहुँची। खैर, मोर्निंग असेम्बली अभी शुरु नहीं हुई थी। स्टॉफ रूम में जा बाल ठीक करने के लिए कंघी निकालने के लिए बैग खोला तो याद आया कि मोबाइल तो घर में डेसिंग टेबुल पर ही छूट गया।

रीसेस की घण्टी बजी वह स्टॉफ रूम में जा रही थी कि प्रिंसीपल मैम ऑफिस के सामने मिल गई।

"आप प्रबंधक सर के यहाँ जाइए। उनके बुआ की बेटी आई है। उसे प्रचीन इतिहास में कुछ जानना है। अभी-अभी सर का फोन आया था।"

"ठीक है मैम!" रश्मि ने मुस्कुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर आई चमक बता रही थी कि वह तितली की भाँति उड़ने को आतुर है।

खाना खाने के बाद राघव जी लेटे ही थे कि अमित मोबाइल लिए आ गया।

"दादू! दादू! देखो न मेरा विडियो गेम नहीं मिल रहा है कल ही मैंने डाउनलोड किया था।" अमित मोबाइल दादा जी को देते हुए कहा।

"लाओ देखते है। बेटा यह तो तुम्हारे मम्मी का मोबाइल है।" राघव जी ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा।

"हाँ! हाँ! दादू मम्मी का ही है, इसी में ही मैंने लोड किया था।" अमित ने अपनी अंगुली मोबाइल पर रखते हुए कहा।

मोबाइल लेकर राघव जी देखने लगे कि कहीं गैलरी में तो नहीं गया। गैलरी खोल कर देख ही रहे थे कि एक व्हाट्सएप इमेज दिख पड़ा। एक मैसेज था "जानू! आज का दिन मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत दिन रहा। फिर कब इनायत होगी।" उसके नीचे एक फोटो थी जिसमें रश्मि उस व्यक्ति के साथ बिल्कुल चिपकी हुई थी। राघव जी ने कुछ और पोस्ट पढ़ने की कोशिश की लेकिन ज्यादा पढ़ नहीं पाए। 'जानू' , 'डार्लिंग' , 'जानेमन' के सम्बोधनों से भरा था सारा पोस्ट। उनका सिर चकराने लगा। उन्होंने मोबाइल अमित को दे दिया और सिर पकड़ कर बैठ गए।

रवि 26 सितंबर के शाम को आ गया था। पिताजी का पाँव छूने के बाद उसने अमित को गोद में उठा लिया। अमित भी अपने पापा को पुच्ची लेने लगा। रश्मि वहीं खड़ी थी। वह अपने कमरे में चली गई। पीछे-पीछे रवि भी कमरे में आ गया। अमित पापा के लाए चॉकलेट खाने में मग्न था। रवि ने रश्मि को आगोश में भर लिया। रश्मि भी उससे लिपट गई थी लेकिन इस बार रवि को पहले जैसी तड़प रश्मि में नहीं दिखाई पड़ रही था।

सुबह सुबह रवि राघव जी से बातों में मशग़ूल हो गया। अलग-अलग देशों की अलग-अलग कहानियाँ थी। एक बड़ी दिलचस्प कहानी थी जिसे वह सुनाना चाहता था।

"पापा! पिछली बार जब मैं लंदन गया था तो एक दंपति से जुड़ाव हो गया था क्योंकि उस दंपति में पत्नी भारतीय मूल की थी। इस बार गया तो वह भारतीय महिला नहीं मिली केवल बिट्रिश पति मिला। बातचीत के दरम्याँ पता चला कि उसने एक धनाढ्य अमेरिकन से शादी बना लिया और अमेरिका चली गई। क्या बताऊ पापा! वहाँ यह आम बात है। इस मामले में अपना भारत बहुत अच्छा है।"

"हाँ, लेकिन यह बुराई अब यहाँ भी धीरे-धीरे पैर पसार रही है। खुल कर नहीं तो छुप-छुप कर ऐसा हो ही रहा है, बेटा।" गहरी साँस लेते हुए राघव जी ने कहा। उन्होंने एक असहाय की भाँति रवि को देखा। उनके आँखों में गहन पीड़ा थी।

रवि कुछ बदला बदला-सा महसूस कर रहा था। रात को सोते समय रश्मि अपना मोबाइल बंद कर देती थी। दिन में भी जब भी घंटी बजती वह दौड़कर मोबाइल उठाती। रात में बेड पर भी पहले जैसा आकर्षण नहीं था। जैसे कोई रूटीन वर्क किया जा रहा हो ऐसा लगता। वह पहले वाली रश्मि नहीं थी।

रवि को आए हुए सात दिन हो गए थे। रात को ग्यारह बज रहे थे। अमित गहरी नींद में सोया था। रश्मि रवि के बाँहों में सिमटती हुई बोली "रवि! कॉलेज ज्वाइन करते समय ही मैंने प्रिंसीपल मैम को आया के लिए कहा था। आज मैम कह रही थी कि उसे कब से आया चाहिए?"

"चलो, अच्छा हुआ। आया मिल जायेगी तो बढ़िया रहेगा।" रवि ने निश्चिंतता प्रकट की।

"रवि! पिताजी को आए हुए सात महीने हो गए हैं। गाँव को हमेशा याद करते रहते हैं। उन्हें घर भेज दो। अच्छा रहेगा। आया के मिल जाने से अब अमित को संभालने का तो झंझट है नहीं और तुम भी तो चार महीने के बाद ही ट्रिप पर जाओगे।" रश्मि ने रवि के छाती के बालों में अपनी उंगुलियाँ फेरते हुए कहा।

"चलो, तुम कहती हो तो देखते हैं।" रवि ने साँस भरते हुए कहा।

रश्मि के कॉलेज जाने के बाद रवि राघव जी से बातों के सिलसिले में गाँव जाने का जिक्र किया तो वे बोले "बेटा! मेरा भी मन गाँव जाने को कर रहा है लेकिन वहाँ भी मुझे तुम्हारी चिंता रहेगी।"

"कोई बात नहीं पापा! यहाँ सब संभल जायेगा।" रवि ने आहिस्ते से कहा।

नौ दिन बाद का रिजर्वेशन मिला था। रात साढ़े आठ बजे की ट्रेन थी। प्लेटफॉर्म सात पर ट्रेन लगी थी। नीचे वाला बर्थ था। रवि ने सारा सामान सीट के नीचे लगा दिया। पानी का दो बोतल खरीद लाया। रात और कल दिन के लिए रश्मि ने सत्तू पराठा और आलू की भुजिया बनाकर रश्मि ने रख दिया था। मूंगफली और चिउरा भी तेल में भून कर रख दिया था रश्मि ने रास्ते के लिए। आठ बजकर पच्चीस मिनट हुआ था।

' चलो, चलते हैं, अब ट्रेन सीटी दे रही है। " कहते हुए रश्मि ट्रेन से उतर गई। डिब्बे के सामने प्लेटफॉर्म पर खड़ी वह मोबाइल से बाते करने लगी।

रवि अपने पिता के आँखों में झलक रही अथाह पीड़ा को देख रहा था, लेकिन कारण नहीं समझ पा रहा था। ट्रेन धीरे-धीरे सरकने लगी। उसने पिताजी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया। राघव जी ने उसे अपने सीने से चिपका लिया। दो बूँद आँसू उसके कंधे पर गिर पड़े थे। वह जल्दी से अलग हो ट्रेन से उतर गया।

घर आते-आते साढ़े नौ बज गए। उसने पिता जी को रिंग किया।

"हैलो! कैसे हैं पापा?"

"मैं ठीक हूँ, बेटा! तुम अपना ख्याल रखना।" भर्राया हुआ स्वर था।

"यह क्या पापा! आप रो रहे हैं?" रवि ने आँखों में उमड़ रहे आँसुओं को पोछते हुए कहा।

"नहीं रे! ट्रेन में हूँ इसलिए ऐसा लग रहा होगा।" राघव जी ने उमड़ आए आँसुओं के सैलाब को रोकते हुए कहा।

"पापा! मैं आपको अपने से अलग नहीं करना चाहता लेकिन पापा मैं मज़बूर हूँ पापा पापा।" रवि का स्वर हिचकियों से भरा था।

"बेटा! एक पिता की मजबूरी क्या होती है तुझे क्या बताऊ? बस इतना ही–कि सच को सामने रख कर मैं तुम्हें और दुखी नहीं देखना चाहता। भगवान् तुम्हारे पारिवारिक जीवन को बनाए रखें। अब रखो बेटा रखो।" राघव जी फूट पड़े। उन्होंने मोबाइल काट दिया था।

रवि के बहते आँसुओं ने सब कुछ साफ कर दिया था। रश्मि का खिचा-खिचा रहना, आया के इंतजाम होने की बात, अगले सत्र से पी. जी. टी. होने की बात, रात में मोबाइल को ऑफ कर देना, बेड पर रश्म अदायगी सब कुछ उसके आँखों के सामने फिल्म की तरह गुजर रहे थे।