मज़हब / कृष्णा वर्मा
बारिश ऐसी मुसलाधार कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही। लगता था जैसे आकाश फट गया हो। देखते-देखते बाढ़ का रूप ले लिया। पूरे गाँव में अपरा-तफरी मच गई. जाएँ तो कहाँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। बहुत से ढोर-डंगर भी बह गए थे। नसीब से कुछ बैलगाड़ियाँ बच गईं थीं सो बड़े बूढ़ों और बच्चों को उनमें लाद पीछे-पीछे मर्दों-औरतों का हुजूम चल पड़ा। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे गाँव घूमते लोग परेशान हो गए सभी गाँव का बुरा हाल था। कहीं ठौर नहीं, हार कर सब शहर की ओर चल पड़े। गाँव और शहर की सीमा के मध्य कई एकड़ खाली ज़मीन पड़ी थी और दूर से कहीं काला धुँआ उठता दिख रहा था। परिवारों को वहीं बिठा डरे-डरे सारे गवंई मर्द भौचक्के से उस ओर खोजने चल दिए कि आखिर वहाँ क्या हो रहा है। वह क्या जानें कि कुछ वर्ष पूर्व ही यहाँ कई फैक्टरियाँ और ईंटों के भट्ठे लगे थे और यह धुँआ उन्ही फैक्टरियों से निकल रहा है।
वहीं पास के भट्ठे के मालिक बलराम ने आवाज़ लगाई-अरे तुम सब मुँह उठाए यहाँ क्या रहे हो, काम की तलाश में हो क्या?
धनीराम बोल उठा हाँ कोई काम मिलेगा क्या?
हाँ—
क्या ईंटें बनाने का काम आता है —नहीं, पर सीख लेंगे।
ठीक है आ जाओ.
गंवैयों की खुशी का ठिकाना ना था। दो जून की रोटी का जुगाड़ तो हो गया जो ज़रूरी था बाकी जीवन तो कैसे भी कट जाएगा।
बलराम ने एक-एक से उसका मज़हब बताने को कहा, ताकि अलग-अलग तरफ को झोंपड़ियाँ बनवा दे, कहीं कल को जाति-पाँति मज़हब का कोई झगड़ा ना हो।
उनमें से एक बोला बोला-बाबू जी ईंटों की तरह मज़दूर की न कोई जाति होती है, न कोई मज़हब होता है। ईंट को जहाँ लगा दो, उसी की हो जाएगी। मज़दूर को जो भी दो जून की रोटी दे, वही उसका ख़ुदा। -0-