मणिकांचन योग: कुंदन शाह और गढ़ा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मणिकांचन योग: कुंदन शाह और गढ़ा
प्रकाशन तिथि : 27 जुलाई 2013


जयंतीलाल गढ़ा की विद्या बालन अभिनीत 'कहानी' को बॉक्स ऑफिस सफलता के साथ समीक्षकों की प्रशंसा भी प्राप्त हुई और अब गढ़ा साहब 'कहानी-२' कुंदन शाह के निर्देशन में बनाने जा रहे हैं, क्योंकि मूल के लेखक, निर्देशक सुजॉय घोष की अपेक्षाएं उनके अनुकूल नहीं हैं। ज्ञातव्य है कि जयंतीलाल गढ़ा ने ताउम्र अपनी शर्तों पर ही काम किया, जो अत्यंत व्यावहारिक होती हैं। इस प्रकरण में अत्यंत हर्ष की बात यह है कि कुंदन शाह जैसा प्रतिभाशाली फिल्मकार लंबे वनवास के बाद सिनेमा में लौट रहा है। ज्ञातव्य है कि उसने साधनों के अभाव में नए कलाकारों के साथ 'जाने भी दो यारो' नामक अत्यंत मनोरंजक व्यंग्य फिल्म भ्रष्टाचार पर बनाई थी, जिसे अब कल्ट फिल्म का दर्जा हासिल हो गया है और आज भ्रष्टाचार के शिखर दिनों में उनका लौटना किसी सिनेमाई शरद जोशी, हरिशंकर परसाई या श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' की तरह हो सकता है।

आज बाजार में 'युवा-वय' को बेचा जा रहा है और ऐसा वातावरण बनाया गया है कि एक पद के लिए योग्य पैंतालीस वर्षीय व्यक्ति के बदले कमजोर बाईस वर्षीय को नौकरी दी जाती है और युवा वय के युवा होने के अहंकार की यह हद है कि उसे मालूम ही नहीं कि जिस बाजार का वह अपने को केन्द्र समझ रहा है, वहां वह स्वयं खर्च हो रहा है। यह विचारधारा इतनी प्रबल है कि नरेन्द्र मोदी का सारा प्रचार भी युवा एवं मध्यम आर्थिक वर्ग पर केन्द्रित है और कांग्रेस युवा राहुल गांधी की बात करती है, परंतु उनके आला नेताओं को युवा-वय के सपनों, महत्वाकांक्षा और भय का अभी तक अनुमान ही नहीं होने पाया है। नई सदी का चुनाव विगत सदी के चुनाव से भिन्न है। यह बात अलग है कि राजनीति के इस सागर-मंथन से केवल जहर ही निकलेगा। सागर में सभी तरह की विचारहीनता के कीटनाशक तत्व विभिन्न क्षेत्र से बहकर आई नदियों ने डाल दिए हैं।

जयंतीलाल गढ़ा बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने किसी 'युवा' के बदले अपनी फिल्म की बागडोर अनुभवी एवं प्रतिभाशाली कुंदन शाह के हाथों में दी है। गढ़ा वय नहीं, वयस्कता देखते हैं। कुंदन शाह की फिल्म महाराष्ट्र की सीमा रेखा पर बसे छोटे शहर पर एक राजनीतिक व्यंग्य कथा है और इसका 'कहानी' से कोई संबंध नहीं है। यह उसका अगला या पिछला भाग न होकर एक स्वतंत्र फिल्म है और एकमात्र समानता यह है कि महिला केन्द्रित विषय है। कुंदन शाह की प्रिटी जिन्टा अभिनीत 'क्या कहना' भी नारी केन्द्रित फिल्म थी और एक बेहतरीन सामाजिक प्रतिबद्धता वाली मनोरंजक फिल्म भी थी। अभी तक नई फिल्म की नायिका का चयन नहीं हुआ है और विद्या बालन को भी लिया जा सकता है, परंतु शायद वे अगले पंद्रह माह तक व्यस्त हैं और जयंतीलाल गढ़ा सितारे के इंतजार में दिन गिनने वाले व्यक्ति नहीं हैं। कुंदन शाह किसी भी कलाकार को मांज सकते हैं और अपने नाम के अनुरूप किसी भी सोने को कुंदन बना सकते हैं। जब उन्होंने 'जाने भी दो यारो' बनाई थी, तब ओम पुरी, सतीश शाह, नसीरुद्दीन शाह इत्यादि सभी युवा संघर्षरत कलाकार थे। कुंदन शाह और सईद अख्तर मिर्जा ने दूरदर्शन के लिए 'नुक्कड़' नामक यादगार सीरियल रचा था और इसमें भी अनेक कलाकारों को मांजा था।

कुंदन शाह की यह बात समझना कठिन है कि उनकी नायिका की भूमिका में ऐसा कुछ है कि जीवन में किसी कलाकार के लिए इस तरह का अवसर बार-बार नहीं मिलता। यहां तक समझ आता है, परंतु अगला वाक्यांश है कि नरगिस अभिनीत 'मदर इंडिया' का विलोम है। क्या हम यह मानें कि गांधीजी के आदर्शवाद की प्रतीक मां अपने डाकू बेटे को गोली मार देती है और कलयुग के इस चरण में डाकू बेटा मां को मार दे। यह संभव नहीं है। इस प्रसंग से स्मरण आता है कि ऑस्कर के चुनावकर्ताओं को 'मदर इंडिया' की नायिका मूर्ख लगी, जो पति के पलायन के बाद महाजन के शादी के प्रस्ताव को ठुकराकर बच्चों और स्वयं को जानवरों से बदतर जीवन जीने के लिए बाध्य करती है। ऑस्कर के चयनकर्ताओं को भारतीय नारी ही समझ नहीं आई। दरअसल, कुंदन शाह की सृजन प्रक्रिया का अनुमान लगाने का प्रयास हीगलत है, वे तो मृत शरीर की द्रोपदी के चीरहरण का अविस्मरणीय दृश्य बना सकते हैं।

आज के दौर में किसी भी फिल्म का नाम 'कहानी' होना कबीर की उलटबांसी की तरह है। बहरहाल, वनवास से लौटे कुंदन शाह की फिल्म का इंतजार रहेगा। यह संयोग है कि विद्या बालन की दो महत्वपूर्ण फिल्मों - 'परिणीता' और 'कहानी' में दक्षिण की इस बाला ने बंगालन का चरित्र विश्वसनीय ढंग से निभाया। सुजॉय घोष की कहानी में विद्या और कोलकाता का समान महत्व रहा है। स्मरण आता है मीना कुमारी का, जिन्होंने बिमल रॉय की 'परिणीता' और गुरुदत्त की 'साहब, बीवी और गुलाम' में एक बंगालन की भूमिका बखूबी अभिनीत की थी और ज्ञातव्य है कि उनकी मां या नानी बंगालन थीं। यह अत्यंत महीन रेखा है। कलाकार का अभिनय उसकी प्रतिभा से अधिक लेखक-निर्देशक के काम पर निर्भर करता है।