मणिमाला / इलाचन्द्र जोशी
रचनाकार | इलाचन्द्र जोशी |
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प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
वर्ष | १९८५ |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | |
पृष्ठ | 314 |
ISBN | |
विविध |
1
मसूरी में उस दिन जिस ईरानी जिप्सी लड़की की दुकान में मैंने चाकू खरीदा उसमें मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। पर वह एक ऐसी लड़की की याद मुझे अक्सर दिलाती रहती है जो कुछ ही वर्ष पहले तक उसी स्थान पर उसी की तरह बिसाती की दुकान खोले रहती थी और वैसी ही चंचल और ढ़ीठ थी। उम्र भी उसकी प्रायः उतनी ही थी जितनी ईरानी लड़की की। फिर भी दोनों की आकृति-प्रकृति में बहुत अंतर था। ईरानी लड़की के मुख की अभिव्यक्ति से मेरे मन में यह विश्वास, जगने लगता है कि वह जन्मजात अपराधिनी और क्रूर कर्मिणी है। पर जिस लड़की का किस्सा मैं कहने जा रहा हूँ उसकी ओर झलक देखने में ऐसा बोध होने लगता था कि उपानिषत्कार ने शुद्धं अपापबिद्धम् की कल्पना उसी के समान किसी लड़की का चेहरा देखकर ही की होगी। ईसा की माता मेरी के संबंध में ईसाई कवियों ने जिस ‘इम्मेक्युलेट कन्सेप्शन’ की बात कही है उसका पहला अनुभव मुझे उस लड़की को देखने पर हुआ।
वह लामा स्त्रियों का सा लंहगा पहने रहती थी और उन्हीं की तरह सिर पर एक विशेष ढंग का कपड़ा बाँधे रहती थी। पर उसकी आकृति से यह विश्वास, नहीं होता था वह लामा जाति की हो सकती है। उसकी आँखें छोटी अवश्य थीं और नाक भी किसी कदर छोटी और गोल थी, पर इस हद तक नहीं कि उसे मंगोल जातीय कहा जा सके। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि वह साड़ी पहने होती तो उसके पूर्णतः भारतीय होने में किसी को रंचमात्र भी संदेह न होता। मैं उस साल पहली बार मसूरी आया था। एक दिन यों ही टहलते हुए सहसा मेरी दृष्टि उस लामा वेषधारिणी लड़की पर जाकर ठहर गयी। उसके असाधारण रूप-रंग ने मुझे इस कदर आकर्षित किया कि मैं उसकी दुकान के पास जाकर ठहर गया। लड़की ने तीतर की तरह तीखे किन्तु स्निग्ध और मधुर स्वर में कहा-
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