मण्टो मेरा दोस्त / इस्मत चुग़ताई / प्रगति टिपणीस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एडेल्फ़ी चैम्बर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे घबराहट-सी हो रही थी, जैसे कभी इम्तिहान के हाल में दाख़िल होने से पहले हुआ करती थी। मुझे वैसे ही नए आदमियों से मिलते घबराहट हुआ करती थी, लेकिन यहाँ तो वो “नया आदमी” मण्टो था, जिससे मैं पहली बार मिलने जा रही थी। मेरी घबराहट वहशत की हदों को छूने लगी। मैंने शाहिद से कहा “चलो वापिस चलें, शायद मण्टो घर पर न हो।” मगर शाहिद ने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया ।

“वो शाम को घर पर ही रहता है, क्योंकि वो रोज़ शाम को पीता है।”

यह लीजिए, मरे पर सौ दर्रे, एक तो मण्टो और वो भी पीता हुआ मण्टो । मगर मैंने जी कड़ा कर लिया। ऐसा भी क्या, मुझे खा तो नहीं जाएगा, होने दो जो उसकी ज़ुबान की नोक पर डाँक है, मैं बुलबुला तो हूँ नहीं, जो फूँक मारी तो बैठ जाऊँगी। चरचराती, गर्द-आलूदा सीढ़ियाँ तय करके हम दोनों दूसरी मंज़िल पर पहुँचे, फ़्लैट का दरवाज़ा नीम-वा (आधा खुला हुआ) था, ड्रॉइंगरूम नुमा कमरे में एक कोने में सोफ़ा सेट पड़ा था। दूसरी तरफ़ एक बड़ा सा सफ़ेद और सादा पलंग पड़ा था। खिड़की से मिली हुई एक लदी-फदी बड़ी सी मेज़ के सामने एक बड़ी सी कुर्सी में एक बारीक मकोड़े की शक़्ल का इनसान उकड़ूँ मारे बैठा हुआ था। “आएँ आएँ” बड़ी खंदा-पेशानी (हँसमुख भाव) से मण्टो खड़ा हो गया । मण्टो हमेशा कुर्सी पर उकड़ूँ बैठा करता था और बहुत मुख़्तसर नज़र आता था, लेकिन जब खड़ा होता था तो खिंचकर उसका क़द ख़ासा निकल आता था। और बाज़ वक़्त जब मण्टो यूँ रेंगकर खड़ा होता था, तो बड़ा ज़हरीला मालूम होता था। उसके जिस्म पर खद्दर का कुरता-पैजामा और जवाहरकट सदरी थी।

‘अरे, मैं समझता था कि आप निहायत काली-दुबली, सूखी मरियल सी होंगी ।’ — उसने दाँत निकालकर हँसते हुए कहा।

‘और मैं समझती थी आप निहायत दबंग क़िस्म के, गल्हैर चिंघाड़ते हुए पंजाबी होंगे ।’ — मैंने सोचा, रसीद देते चलो, कहीं यह एकदम न हाप्टे पर ले ले ।

और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तन देही से जुटकर बहस करने लगे, जैसे इतने अरसे एक-दूसरे से नावाक़िफ़ रहकर हमने बड़ा घाटा उठाया हो और उसे पूरा करना हो। दो तीन बार बात उलझ गई, लेकिन ज़रा सा तकल्लुफ़ बाक़ी था लिहाज़ा, दूसरी मुलाक़ात के लिए उठा रखी । कई घण्टे हमारे जबड़े मशीनों की तरह मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर जुमले करते रहे। और हमने जल्दी मालूम किया कि मेरी तरह मण्टो भी बातें काटने का आदी है। पूरी बात सुनने से पहले वो बोल उठता है। और जो रहा-सहा तकल्लुफ़ था वो भी ग़ायब हो गया। बातों ने बहस और बहस ने बा-क़ायदा नोक-झोंक की सूरत इख़्तियार कर ली और सिर्फ चन्द घण्टों की जान-पहचान के बल-बूते पर हम ने एक-दूसरे को निहायत अदबी क़िस्म लफ़्ज़ों में अहमक़, झक्की और कज-बहस कह डाला।

घमसान के बीच में मैं ने एक बार किनारे होकर ग़ौर से देखा। मोटे-मोटे शीशों के पीछे लपकती हुई बड़ी-बड़ी स्याह पुतलियों वाली आँखें, जिन्हें देख कर मुझे बेसाख़्ता मोर के पर याद आ गए । मोर के पर और आँखों का क्या जोड़? यह मुझे कभी न मालूम हो सका, मगर जब भी मैंने उन आँखों को देखा मुझे मोर के पर याद आ गए । शायद र’ऊनत (अकड़) और गुस्ताख़ी के साथ-साथ उनमें बेसाख़्ता शिगुफ़्तगी (ख़ुश-मिज़ाजी) मुझे मोर के पैरों की याद दिलाती थी। उन आँखों को देखकर मेरा दिल धक् से रह गया। इन्हें तो मैंने कहीं देखा है । बहुत क़रीब से देखा है क़हक़हा लगाते संजीदगी से मुस्कुराते तंज़ के नश्तर बरसते और फिर निज़ा (मौत, मरने के पहले की हालत) के आलम में पथराते ! वही नाज़ुक हाथ पैर, सिर पर टोकरा भर बाल, पिचके ज़र्द - ज़र्द गाल और कुछ बेतुके से दाँत, पीते - पीते अचानक मण्टो को उच्छू लगा और वह खाँसने लगा, मेरा माथा ठनका । यह खाँसी तो जानी - पहचानी सी थी। उसे तो मैंने बचपन से सुना था। मुझे कोफ़्त होने लगी। न जाने किस बात पर मैंने कहा — “यह बिलकुल ग़लत।” और हम बाक़ायदा लड़ पड़े।

“आप कज-बहसी (बेकार की बहस) कर रही हैं।”

“हिमाक़त है यह।”

“धांदली है इस्मत बहन ।”

“आप मुझे बहन क्यों कह रहे हैं?” — मैंने चिढ़ कर कहा।

“बस यूँ ही। अमूनन मैं औरतों को बहन कम कहता हूँ। मैं अपनी बहन को भी बहन नहीं कहता।”

“तो फिर मुझे चिढ़ाने को कह रहे हैं ।”

“नहीं तो वो कैसे जाना आप ने ?”

“इसलिए कि मेरे भाई मुझे हमेशा जलाते, चिढ़ाते और मारते-पीटते रहे या पकड़कर पिटवाते रहे।” मण्टो ज़ोर से हँसा ।

“तब तो मैं ज़रूर आपको बहन ही कहूँगा ।”

“तो इतना याद रखिए कि मेरे बारे में मेरे भाइयों के ख़यालात भी कुछ ख़ुशगवार नहीं हैं। यह आपको खाँसी है, इसका इलाज क्यों नहीं करते ?”

“इलाज ? डॉक्टर गधे होते हैं । तीन साल हुए, डॉक्टरों ने कहा था साल भर में मर जाओगे, तुम्हें टीबी है। साफ़ ज़ाहिर है कि मैंने न मरकर उन की पेशे-गोई को सच्चा साबित न होने दिया। और अब तो, बस, मैं डॉक्टरों को अहमक़ समझता हूँ। उनसे तो मेस्मेरिज़्म और जादू करने वाले ज़्यादा अक़लमन्द होते हैं।”

“यही आपसे पहले एक बुज़ुर्ग फ़रमाया करते थे ।”

“कौन बुज़ुर्ग?”

“मेरे भाई, अज़ीम बेग़, नौ मन मिटटी के नीचे आराम फ़रमा रहे हैं ।”

थोड़ी देर हम अज़ीम बेग़ के फ़न पर बहस करते रहे। आए थे सिर्फ़ मुलाक़ात करने, लेकिन बातों में रात के ग्यारह बज गए । शाहिद जो हमारी झड़पें अलग-थलग बैठे देख रहे थे, भूख से तंग आ चुके थे। मलाड़ पहुँचते- पहुँचते एक बज जाएगा, लिहाज़ा खाना खा ही लिया जाए । मण्टो ने मुझे अलमारी से प्लेटें और चमचे निकालने को कहा और ख़ुद होटल से रोटी लेने चला गया ।

ज़रा, उस बरनी से आचार निकाल लीजिए। मण्टो ने तेज़ी से मेज़ पर खाना लगाया और कुर्सी पर उकड़ूँ बैठ गया । वही मेज़ जो दमभर पहले अदबी कारगुज़ारियों का मैदान बनी हुई थी, एक दम खाने की मेज़ की ख़िदमात अंजाम देने लगी और बग़ैर किसी से “पहले आप” कहे हम लोगों ने खाना शुरू कर दिया ।

बरसों से इसी खाने की आदी हूँ ।

खाने के दरमियान गर्मागर्म मुबाहिसा चलता रहा। घूम फिरकर वो “लिहाफ़” के बख़िया उधेड़ने लगता, जो उन दिनों मेरी दुखती रग बना हुआ था । मैंने बहुत टालना चाहा मगर वो ढिटाई से अड़ा रहा और उसका एक-एक तार घसीट डाला। उसे बड़ा धक्का लगा यह सुनकर कि मुझे “लिहाफ़” लिखने पर अफ़सोस है, उसने जो जली-कटी सुना डालीं और मुझे निहायत बुज़दिल और कम नज़र कह डाला।

मैं “लिहाफ़” को अपना शाहकार मानने को तैयार नहीं थी और मण्टो मुस्सिर (अपनी बात पर अड़ा) था। थोड़ी ही देर में “लिहाफ़” से भी बढ़-चढ़ कर हमने बहस कर डाली निहायत खुलकर। और मुझे ताज्जुब हुआ कि मण्टो गन्दी से गन्दी और बेहूदा से बेहूदा बात धड़ से इस माक़ूलियत और भोलेपन से कह जाता है कि ज़रा झिझक महसूस नहीं होती या वो मोहलत देता ही नहीं। उसकी बातों पर घिन्न या ग़ुस्सा नहीं आता। चलते वक़्त उस ने सफ़ीया का ज़िक्र किया। इतनी देर हम बैठे रहे और मण्टो को सफ़ीया की याद ने कई बार सताया ।

“सफ़ीया बहुत अच्छी लड़की है ।”

“आप उससे मिलकर बहुत ख़ुश होंगी ।”

“बहुत याद आ रही है तो उसे बुला क्यों नहीं लेते?” — मैंने कहा ।

“अरे…. क्या समझती हो, उसके बग़ैर सो नहीं सकता।” वो अपनी असलियत पर उतरने लगा ।

“नींद तो सूली पर भी आ जाती है।” — मैंने बात टाली और वो हँस पड़ा ।

“आपको सफ़ीया से बहुत मुहब्बत है ?” — मैंने राज़दारी के अन्दाज़ में पूछा ।

“मुहब्बत !” — वो चीख पड़ा, जैसे मैंने उसे गाली दी हो ।

“मुझे उस से क़तई मुहब्बत नहीं।” — उसने कड़वा मुँह बनाकर बड़ी पुतलियाँ घुमाईं। मैं मुहब्बत का क़ायल नहीं ।

“अरे आपने कभी किसी से मुहब्बत ही नहीं की?” — मैंने मस्नू’ई (बनावटी) हैरत से कहा — “नहीं ।”

“और आपके कभी गुलसए भी नहीं निकले। ख़सरा भी नहीं हुई। मगर काली खाँसी तो ज़रूर हुई होगी ।”

वो हँस पड़ा ।

“मुहब्बत से आपका मतलब क्या है? मुहब्बत तो एक बड़ी लम्बी-चौड़ी चीज़ है। मुहब्बत माँ से भी होती है । बहन और बेटी से भी… बीवी से भी मुहब्बत होती है । मेरे एक दोस्त को अपनी कुतिया से मुहब्बत है । हाँ, मुझे अपने बेटे से मुहब्बत थी।

वो बेटे के ख़याल पर उचककर कुर्सी पर ऊँचा हो गया । ख़ुदा की क़सम ! इतना सा, पैरों चलता था। बड़ा शरीर था। घुटनों चलता था तो फ़र्श की दराज़ों में से मिटटी निकालकर खा लिया करता था। मेरा कहना बड़ा मानता था।

आम बापों की तर्ज़ मंटो ने अपने बेटे का अजीबो-ग़रीब होने का यक़ीन दिलाना शुरू किया। “आप यक़ीन कीजिए कि छह-सात दिन का था कि मैं उसे अपने साथ सुलाने लगा। मैं उसे ख़ुद तेल मलकर नहलाता। महीने का भी नहीं था कि ठहाका मार कर हँसने लगा। बस सफ़ीया को कुछ नहीं करना पड़ता था। दूध पिलाने के सिवा उस का कोई काम न करती। रात को बस पड़ी सोई रहती। मैं चुपचाप बच्चे को दूध पिलवा देता। दूध पिलवाने से पहले यूडी-कूलन से या स्परिट से साफ़ कर लेना चाहिए, नहीं तो बच्चे के मुँह में डेन हो जाते हैं।” - वो बड़ी संजीदगी से बोला और मैं हैरत से उसे देखती रही कि यह कैसा मर्द है जो बच्चे पालने में मुश्ताक़ है। “मगर वो मर गया।”, मंटो ने मस्नूई मसर्रत (बनावटी ख़ुशी) चेहरे पर लाकर कहा, “अच्छा जो मर गया। मुझे तो उसने आया बना डाला था। अगर वो आज ज़िंदा होता तो मैं उसके पोतड़े धोता होता, निकम्मा हो कर रह जाता, मुझ से कोई काम थोड़े होता। सचमुच इस्मत बहन मुझे उस से इश्क़ था।” चलते-चलते उस ने फिर कहा कि सफ़ीया आने वाली है, बस जी ख़ुश हो जाएगा आपका उस से मिल कर।” और वाक़ई सफ़ीया से मिलकर मेरा जी ख़ुश हो गया। मिनटों में हमारी इतनी घुट गई कि सिर जोड़ कर पोशीदा बातें होने लगीं, जो सिर्फ़ औरतें ही कहती हैं, जो मर्दों के कानों के लिए नहीं होतीं। मुझे और सफ़ीया

को यूँ सिर जोड़ के खुसर-पुसर करते देख कर मंटो जल गया और ताने देने लगा। उसने पिछले कमरे की चूबी दीवार (लकड़ी की दीवार) से कान लगाकर हमारी सारी सरगोशियाँ सुन ली थीं। वो शरीर बच्चे की तरह बोला, “तौबा, तौबा! मेरे फ़रिश्तों को भी ख़बर नहीं कि औरतें भी इतनी गन्दी-गन्दी बातें करती हैं।”

सफ़ीया के शर्म से गाल लाल हो गए। और आप से तो इस्मत बहन मुझे क़तई उम्मीद थी कि यूँ मुहल्ले की जाहिल औरतों की तरह बातें करेंगी। कब शादी हुई, शादी की रात कैसे गुज़री, बच्चा कब और कैसे पैदा हुआ। तौबा है, वो चिढ़ाने लगा। मैंने फ़ौरन लगाम लगाई। हद्द है मंटो साहब, मैं आपको इतना तंग नज़र न समझती थी। और आप भी इन बातों को गन्दी बातें कहते हैं। इन में गन्दगी क्या है? बच्चे की पैदाइश दुनिया का हसीन तरीन हादिसा है और यह कानाफूसी ही तो हमारा ट्रेनिंग स्कूल है। क्या समझते हैं आप, क्या कालेज में बच्चे देना सिखाया गया है। वहाँ के बूढ़े प्रोफ़ेसर भी आप की तरह नाक-भौं चढ़ा कर तौबा-तौबा कहते रहे, मुहल्ले की औरतों ही से हमने ज़िन्दगी के अहमतरीन राज़ जाने हैं। “यह सफ़ीया सख़्त ज़ाहिल है। अदब-वदब कुछ नहीं समझती, हर बात पर थू-थू करती है। आपकी तहरीरों से सख़्त ख़फ़ा है। आपका जी नहीं घबराता, इससे घंटे बातों कर के कि क़ोरमे में कितनी हल्दी, उरद की दाल के दही बड़े… “ ऐ मंटो साहब, क़ोरमे में हल्दी कहाँ पड़ती है। सफ़ीया ने हैबतज़दा (आतंकित) होकर कहा। और मंटो लड़ पड़ा। वो बज़िद था कि हल्दी हर खाने में पड़नी चाहिए और जो नहीं पड़ती तो यह सरासर ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी है। “मेरा एक राजपूत दोस्त था, वो घी और हल्दी पी कर जाड़ों में कसरत किया करता था। पूरा पहलवान था।” और हम मुसिर्र (अड़े हुए) थे कि आपका दोस्त घी और हल्दी छोड़ कर कीचड़ पीता था। हम किसी शर्त पर हल्दी डालने को तैयार नहीं और मंटो को क़ायल होना पड़ा।

मैं और सफ़ीया अगर पॉँच मिनट के इरादे से भी मिलते तो पाँच घंटे का प्रोग्राम हो जाता, मंटो से बहस करके ऐसा मालूम होता जैसे ज़हनी क़ुवत्तों पर धार रखी जा रही है। जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग़ में झाड़ू-सी दी जा रही है और बाज़ औक़ात (वक़्त का बहुवचन) बहसें इतनी तवील और घनदार हो जातीं कि मालूम होता बहुत से कच्चे सूत की पूनियाँ उलझ गई हैं और वाक़ई सोचने और समझने की क़ुव्वत पर झाड़ू फिर गई। मगर दोनों बहसे जाते, उलझे जाते, बदमज़गी पैदा होने लगती। मुझे शिकस्त को छुपाने का मलका (हुनर) था मगर मंटो रुआँसा हो जाता। आँखें मोर पंखों की तरह तन कर फैल जातीं, नथुने फड़कने लगते। मुँह कड़वा-कसैला हो जाता और वो झुँझला कर अपनी हिमायत में शाहिद को पुकारता। और जंग अदब या फ़लसफ़े से पलट कर घरेलू सूरत अख़्तियार कर लेती। मंटो भन्ना कर चला जाता। शहीद मुझ से लड़ते कि तुम मेरे दोस्त से इतनी बदतमीज़ी से क्यों बातें करती हो। मंटो आज ख़फ़ा हो कर गया है, अब वो हमारे यहाँ नहीं आएगा और न मेरी हिम्मत है कि उसके यहाँ जाऊँ, वह बद्तमीज़ आदमी है। कुछ कह बैठेगा तो मेरी उस की पुरानी दोस्ती ख़त्म हो जाएगी। और मुझे कभी महसूस होता कि वाक़ई मैंने मंटो को कड़वी बात कह दी। मुमकिन है रूठ जाए और सफ़ीया की दोस्ती भी ख़त्म हो जाए। जो अब मंटो से ज़्यादा गहरी हो गई थी। मंटो की ख़ुद्दारी र’उनत की सरहदों को पहुँची हुई थी। वो अपने दोस्तों पर रौब जमाने का बड़ा शौक़ीन था। और अगर… दोस्तों के सामने जिन को वह मरऊब (मुतास्सिर, प्रभावित) कर चुका हो कोई उस का मज़ाक़ बना दे तो वह बुरी तरह चिढ़ जाया करता था। उस का ख़याल था कि आपस में वह और मैं एक दूसरे को कह-सुन सकते हैं मगर “आम लोगों” के सामने एक दूसरे पर चोटें नहीं करनी चाहिएँ। वह ज़्यादातर अपने मिलने वालों की ज़हनी सतह को अपने से नीचा समझता था।

लेकिन सुब्ह लड़ाई होती और इत्तिफ़ाक़ से शाम को फिर मुलाक़ात हो जाती तो वह इस क़दर जोश से मिलता जैसे कुछ हुआ ही न हो! वैसे ही घुलमिल कर बातें होतीं। थोड़ी देर हम एक दूसरे से बड़े और ज़रूरत से

ज़्यादा नरमी से बोलते। हर बात पर हाँ में हाँ मिलाते। मगर मेरा जल्दी ही इस तस्बी से दिल उकता जाता और उस का भी और फिर चलने लगती दोनों तरफ से आतिशबाज़ी और गोलियों की मुस्तैदी आ जाती। कभी लोग हम दोनों को यूँ उलझा कर मज़ा लेने लगते और हम सुलह कर एक दूसरे से मिल जाते। हम बहस करते थे अपनी दिलचस्पी के लिए न कि इस के लिए कि बटेर बन के लुत्फ़ पैदा करते। मंटो की यही राय थी कि घर पर चाहे जितनी उलटी-सीधी बहस कर लें मगर मह्किलों में हमें मोर्चा बना कर जाना चाहिए और हमारा मोर्चा इतना मज़बूत होगा कि लोगों के छक्के छुड़ा देगा। मगर मुझे अमूनन मोर्चे से अपनी वफ़ादारी का एहसास न रहता और मोर्चा भिड़ों के छत्ते की तरह फुंकारने लगता।

यह मुझे कभी न मालूम हो सका कि मंटो पीकर बहकता है या बहक कर पीता है।मैंने उस की चाल में लड़खड़ाहट या ज़बान में लकनत न पाई। मुझे तो कभी कोई फ़र्क़ ही नहीं महसूस हुआ। हाँ बस इतना मालूम होता था कि जब ज़्यादा पिए तो यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता था कि वह बिलकुल नशे में नहीं और जान को आ जाता था। “मैं आप से सच कहता हूँ इस्मत बहन। मैं बिलकुल नशे में नहीं और मैं आज पीना छोड़ सकता हूँ। मैं जब चाहूँ पीना छोड़ दूँ आप शर्त लगाएँ।” “मैं शर्त नहीं लगाऊँगी क्योंकि आप हर जाएँगे। आप पीना नहीं छोड़ सकते… और आप नशे में हैं।” क्या-क्या मंटो सबूत देता कि वह नशे में नहीं और इसी वक़्त पीना छोड़ सकता है। सिर्फ़ शर्त लगाने की देर है। एक दिन तंग आकर मुझे शर्त लगनी पड़ी और मंटो शर्त हार गया। मैं जीत गई। मगर क्या? शर्त तो लगी थी लेकिन कोई मुक़र्रर न हुई थी। उस के बाद मंटो को जब बहुत चढ़ी जाती और वह शर्त लगाने पर अड़ जाता और सिवाय लगा ने के गलू ख़ुलासी नज़र न आती तो हार कर मुझे शर्त लगाना ही पड़ती।

मंटो को ख़ुद-सताई की आदत थी। मगर अमूनन मेरे सामने होने पर साथ मुझे भी घसीट लिया करता था।

और उस वक़्त मेरे और अपने सिवा दुनिया में किसी को अदीब न मानता। ख़ास तौर पर कृष्ण चन्दर और देवेन्द्र सत्यार्थी के ख़िलाफ़ हो जाता। अगर उन की तारीफ़ करो तो सुलग उठता। मैं कहती आप कोई तनक़ीद-निगार आलोचक) तो हैं नहीं जो आप की बात मानी जाए और वह तनक़ीद निगारों को जली-कटी सुनाने लगता। एक सिरे से उनके वजूद को कम क़ाइल समझता ख़ास तौर पर अदब के लिए। “बकवास करते हैं यह लोग।” वह जल कर कहता। जो यह कहते हैं बस उसका उल्टा करते जाओ यही लोग जो एतराज़ करते हैं छुप-छुप कर मेरी कहानियाँ पढ़ते हैं और उन से कुछ सीखने के बजाय लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं और फिर उस लुत्फ़ की याद पुर नादम हो कर ऊलजुलूल लिखते हैं। वह कभी इतना चिढ़ जाता कि मैं उसे तसल्ली देने को कहती जब आप को यक़ीन है कि यह उलजुलूल लिखते तो आप उन का जवाब क्यों देने लगते हैं। अगर तनक़ीद से आप को मदद नहीं मिलती तो न लीजिए मगर राय-ए-उलमा को मत’ऊन (रुसवा) न कीजिए। मगर वो भन्नाता रहा। एक दिन बड़ी संजीदा सूरत बनाए आए और कहने लगे। “मुक़दमा दायर करेंगे।” मैंने कहा, “क्यों” कहने लगे “हम यानी मैं और आप इस मर्दवर्द ने मेरी और आप की कहानियाँ एक मजमूए (संकलन) में यह लिख कर छापी हैं कि फ़हश अश्लील) हैं; ऐसे अदब से मुल्क को बचाना चाहिए। अब उस कमबख़्त से पूछो कि कैसी उलटी बात कर रहा है। एक तो वो उन्हें किताब में छाप कर मुश्तहर कर रहा है दूसरे पैसे कमाने का अलग इंतज़ाम कर रहा है। उस ने हमारी इजाज़त के बग़ैर क्यों कहानियाँ छापी हैं उसे नोटिस दिलवा रहा हूँ कि हरजाना दे। फिर न जाने भूलभाल गए। मंटो अपनी डींगों से ज़्यादा मेरे सामने दोस्तों की शेख़ी बघारा करता था। रफ़ीक़ ग़ज़नवी से कुछ अजीब क़िस्म की मुहब्बत थी जो समझ में न आती। जब उस का तज़किरा (ज़िक्र) किया यही कहा, “बड़ा बदमाश लफ़ंगा है एक-एक कर के चार बहनों से शादी कर चुका है। लाहौर की कोई रंडी ऐसी नहीं जिस की उस ने अपने जूते पर नाक न घिसवाई हो।”

बिलकुल रफ़ीक़ का ऐसे ज़िक्र करता जैसे बच्चे बड़े भैया का ज़िक्र करते हैं। उस के इश्क़ों के क़िस्से तफ़सीलियों से सुनाया करता। एक दिन मुझे उस से मिलाने को कहा। मैंने कहा क्या करुँगी मिल कर, आप तो कहते हैं लफ़ंगा है वो। कहने लगे अरे जब ही तो मिला रहा हूँ। यह आप से किस ने कहा कि लफ़ंगा और बदमाश बुरा आदमी होता है। रफ़ीक़ निहायत शरीफ़ आदमी है। मैंने कहा, “मंटो साहब लफ़ंगा, शरीफ़, बदमाश यह आख़िर कैसा आदमी है, मेरी समझ में नहीं आता। आप मुझे जितना ज़हीन और तजरबेकार समझते हैं, शायद मैं वैसी नहीं। “आप बनती हैं।” मंटो ने बुरा मान कहा कि जभी तो आप को रफ़ीक़ से मिलाना चाहता हूँ..... बड़ा दिलचस्प आदमी है। कोई औरत बग़ैर आशिक़ हुए नहीं रह सकती। “मैं भी तो औरत हूँ।” मैंने फ़िक्रमंद बन कर कहा। और वह खिसियाना हो गया। “मैं आप को अपनी बहन समझता हूँ।” “मगर आप की बहन भी तो औरत हो सकती है।” मंटो ने क़हक़हा लगाया। “हो सकती है! यह ख़ूब कहा” मगर मंटो को ज़िद हो गयी। “आप को उस से मिलना पड़ेगा। देखिए तो सही।” “मैं उसे स्टेशन पर देख चुकी हूँ। आप ने कान भर दिए थे कि मैं भाग आई कि कहीं कमबख़्त पर आशिक़ न होना पड़े।” और रफ़ीक़ से मिलने के बाद मुझे मालूम हो गया कि मंटो का मुतालआ कितना गहरा है। बावजूद दुनिया के सातों ऐब करने के रफ़ीक़ में वह सारी खूबियाँ मौजूद हैं जो एक मुहज़्ज़ब इनसान में होना चाहिएँ। वह एक अजीब बदमाश हो सकता है। साथ ही निहायत ईमानदार और शरीफ़ भी। यह कैसे और क्यों? यह मैंने समझने की कोशिश न की यह मंटो का मैदान है वह दुनिया के ठुकराई घूरे पे फेंकी हुई ग़लाज़त में से मोती चुन कर निकाल लाता है। घोरा कुरेदने का उसे शौक़ है क्योंकि दुनिया के सँवारने वालों पे उसे भरोसा नहीं। उन की अक़्ल और फ़ैसले पर भरोसा नहीं। उन की शरीफ़ और पाकबाज़ बीवियों के दिल के चोर पकड़ लेता

है और कोठे में रहने वाली रंडी के दिल के तक़द्दुस (पवित्रता) से मवाज़ना (तुलना) करता है। इत्र में डूबी हुई ऐश पसंद दुल्हन से मैल और पसीने सड़ती हुई घाटिन ज़्यादा ख़ुशबूदार मालूम होती है। “बू” में हालाँकि जिस्म ही जिस्म है। ग़ौर से देखिए तो जिस्म के अंदर रूह भी है। बेश परस्त तब्क़ा की फटे हुए दूध की तरह फुलकेदार रूह और कुचले हुए तबक़े की तसन्नु (दिखावा) से दूर असलियत। अगर तब्क़ाती तफ़रीक़ (वर्गीय भिन्नता) का सवाल नहीं तो हम इसे क़त्तई तौर पर जिस्मानी सवाल भी नहीं कह सकते। मंटो के ज़हन में ज़रूर दो तबकों के फ़र्क़ का ख़याल था और वह उस बुत को जिसकी दुनिया पूजा करे, ज़मीन पर पटख़ने में बड़ी बहादुरी महसूस करता था। वो हमेशा अपने बदमाश दोस्तों के कारनामे फ़ख़्रिया सुनाया करता। एक दिन मैंने जलाने को कह दिया लोग झूठ बोलते हैं। असल में न हज़ारों रंडियों से उन का ताल्लुक़ रहा और न ही उन्होंने कभी किसी औरत की आबरू-रेज़ी की और वो तरह-तरह से मुझे यक़ीन दिलाने लगा कि यह लोग वाक़ई बदमाशियाँ करते हैं इतनी ही नहीं, बल्कि उस से ज़्यादा। “सब झूठ!” मैं धांधली करने लगी। “अरे आप को यक़ीन क्यों नहीं आता। बाज़ार में जो चाहे जा सकता है।” “मगर उन लोगों की हिम्मत नहीं जो तवायफ़ों के कोठे पर जा सकें। बहुत करते होंगे गाना सुन कर चले आते होंगे।” “मगर मैं ख़ुद गया हूँ रंडी के कोठे पर।” “गाना सुनने।” मैंने चिढ़ाया। “जी नहीं। अपने दाम वसूल करने, और हमेशा मेरे दाम वसूल हो गए। फिर भी मैंने कहा, “मैं नहीं यक़ीन करती।” “वो क्यों?” वो उठकर बिलकुल मेरे सामने क़ालीन पर उकड़ूँ बैठ गया। “बस मेरी मर्ज़ी। आप मेरे ऊपर रोब डालना चाहते हैं।” “भई ख़ुदा की क़सम मैं कहता हूँ मैं गया हूँ।”

“ख़ुदा पर आप को यक़ीन नहीं बेकार उसे न घसीटिये।” ख़ूब क़हक़हे लगाए और फिर चुपके से कहा, “मगर अब तो मान जाओ।” मैंने कहा, “क़तई नहीं।” मुझे नहीं मालूम मंटो को तजुर्बा था या जो कुछ उसने रंडी के बारे में लिखा वो उसके अपने उसूल और यक़ीन की बिना पर है क्योंकि अगर वो रंडी के कोठे पर गया भी होगा तो वहाँ रंडी से ज़्यादा उस ने एक औरत का दिल देखा होगा जो बावजूद यह कि मोरी का कीड़ा है मगर ज़िन्दगी की क़द्रों को प्यार करती है। अच्छे और बुरे को नापने के जो पैमाने आम तौर पर बना दिए गए हैं वो उन्हें तोड़-फोड़ कर अपनी बनाई तौल से उन का अंदाजा लगाता था, ख़ोशिया जैसे ढीट और निकम्मे इनसान की रगे-हमीयत (निष्ठा भाव- sense of honour) भी फड़क सकती है। “गोपी नाथ” जैसा रक़ीक़ (नरम, कोमल) इनसान भी देवताओं पर बाज़ी लगा सकता है, बुलंद-ओ-महान देवता भी सरनिगूँ (झुक) हो सकते हैं। क़ौमी रज़ाकार बदकार भी हो सकते हैं और लाश से ज़िना (सम्भोग) करनेवाला ख़ुद लाश भी बन सकता है। कभी-कभी मेरा और मंटो का झगड़ा इतना सख़्त हो जाता कि डोर टूटती मालूम होती। एक दिन किसी बात पर ऐसा चिढ़ा कि आँखों में ख़ून उतर आया, दाँत पीस कर बोला, “आप औरत हैं वरना ऐसी बात कहता कि दाँत खट्टे हो जाते।” “दिल का अरमान निकाल लीजिए, मुरव्वत की ज़रूरत नहीं।” मैंने चिढ़ाया। “अब जाने भी दीजिए कोई मर्द होता तो बताते।” “बता भी दीजिए। ऐसे कौन-कौन से तीर तरकश में बाक़ी रह गए हैं निकाल भी दीजिए।” “आप झेंप जाएंगी।” “क़सम ख़ुदा की नहीं झेपूँगी।” “तो आप औरत नहीं।”

“क्यों क्या औरत के लिए झेंपना अशद (बहुत) ज़रूरी है। चाहे झेंप आए या न आए? बड़ा अफ़सोस है मंटो साहब आप भी औरतों और मर्दों के लिए अलग-अलग उसूल बनाते हैं। मैं समझती थी आप “आम लोगों” की सतह से बुलंद हैं।”, मैंने मस्का लगाया। “तो फिर कहिये न वो झेंपा देने वाली बात।” “अपने मरहूम (मृत) बच्चे की क़सम खाता हूँ मैं एक बार नहीं बल्कि…” “मरहूम बच्चे को अब झूठी क़सम खा कर क्या नुक़सान पहुँचा सकते हैं।” और मंटो वहीं फसकड़ा (पालथी) मारकर बैठ गया कि आज तो मनवा कर रहूँगा कि मैं रंडीबाज़ हूँ। सफ़ीया की गवाही दिलवाई। मैंने दो मिनट में सफ़ीया को चित कर दिया कि मुमकिन है यह तुमसे कह कर गए हों कि रंडी के यहाँ जा रहे हैं। और अगर गए भी हों तो सलाम कर के चले आए होंगे। सफ़ीया चुप-सी हो गयी। “अब यह तो नहीं कह सकती कि सलाम कर के आ गए या…” वो अजब गोमगो (असमंजस) में रह गयी। मंटो ने जोश में कुछ ज़्यादा तेज़ी से पी डाली और बुरी तरह लड़ने लगा कि यह तो आज मनवाकर छोड़ूँगा कि मैं पक्का रंडीबाज़ हूँ और मैंने कह दिया आज इधर की दुनिया उधर हो जाए मैं मान के दूँगी नहीं। एक तो नशा दूसरे मंटो के मिज़ाज की जबिल्ली (स्वाभाविक) तल्ख़ी। अगर बस चलता तो मेरा मुँह नोच लेता। सफ़ीया ने बिसूरकर (सिसककर) कहा, “बहन मान जाओ।” शाहिद ने कहा बस अब घर चलो। मगर मंटो ने शाहिद की टाँग लेनी शुरू की और कह दिया कि बग़ैर क़ायल हुए जाने नहीं दूँगा। ख़ासा हंगामा हो गया। बड़ी संजीदगी से मंटो ने शाहिद से कहा चलो रंडी के यहाँ अभी इसी वक़्त आज मैं क़ायल न कर दूँ तो मैंने माँ का दूध नहीं, सुअर का दूध पिया। मगर मैंने और चिढ़ाया, “आप जाएँ-वाएँगे नहीं यहीं भायकला ब्रिज पर घूम कर आ जाएँगे और हम यक़ीन नहीं करेंगे क्या फ़ायदा।” अब तो मंटो के सिर में लगी एड़ी में जाकर शायद ही बुझी हो। ग़ुस्सा ज़ब्त करके पूछा, “फिर कैसे यक़ीन दिलाया जाए?” मैंने कहा, “हमें यानी मुझे और सफ़ीया को भी साथ ले चलिए।”

“मैं नहीं जाऊँगी,”, सफ़ीया बिगड़ी। “तुम्हारा तो दिमाग़ खराब हुआ है तुम ही जाओ।” “जाएगी कैसे नहीं,” मंटो ग़ुर्राया। “चलो, चलो” …. सफ़ीया को हमने आँख मारी और चारों चले। दरवाज़े से हम दोनों तो निकल आए। मंटो को सफ़ीया ने न जाने कैसे क़ाबू में किया। दूसरी दफ़ा जब मुलाक़ात हुई तो मैंने पूछा, “अभी भी ग़ुस्सा हैं? “नहीं। अब ग़ुस्सा उतर गया।”, वह हँस कर बोला। अच्छा दोस्ती में ही बताइए वो कौन सी ख़तरनाक बात थी। “कुछ नहीं अब कुछ याद नहीं रहा। कोई ख़ास बात नहीं थी। शायद कोई मोटी-सी गाली देता बस।” “बस?”, मैंने नाउम्मीद हो कर कहा। “या शायद किसी के झाँपड़ मारता।” नादम हो कर बोला। “मुझ पर कुछ असर न होता मैंने ऐसी खेम-शेम गालियाँ सुनी हैं कि हद नहीं और मेरे थप्पड़ भी ख़ासे ज़ोर के पड़ जाते हैं। मगर पहली दफ़ा आप ने औरत समझ कर रिआयत की मेरे भाई तो लगा चुके हैं कई बार।” और हमारा मिलाप हो गया। एक दिन दफ़्तर में गर्मी से परेशान होकर मैंने सोचा जाकर मंटो के यहाँ आराम कर लूँ फिर वापस मलाड़ जाऊँ। दरवाज़ा हस्बे-मामूल (हमेशा की तरह) खुला हुआ था, जाकर देखा तो सफ़ीया मुँह फुलाए लेटी है। मंटो हाथ में झाड़ू लिए सटासट पलंग के नीचे हाथ मार रहा है। और नाक पर कुर्ते का दामन रखे मेज़ के नीचे झाड़ू चला रहा है। यह क्या कर रहे हैं। मैंने मेज़ के नीचे झाँक कर पूछा। क्रिकेट खेल रहा हूँ। मंटो ने बड़ी-बड़ी मोरपंख जैसी पुतलियाँ घुमा कर जवाब दिया। “यह लीजिए! हमने सोचा था ज़रा आप के यहाँ आराम करेंगे तो आप लोग रूठे बैठे हैं। मैंने वापस जाने की धमकी दी। “अरे!” सफ़ीया उठ बैठी। “आओ, आओ।” “काहे का झगड़ा था?” मैंने पूछा।

“कुछ नहीं मैंने कहा खाना पकाना गृहस्थी वग़ैरह मर्दों का काम नहीं। बस जैसे तुमसे उलझते हैं मुझ से भी उलझ पड़े कि क्यों नहीं मर्दों का काम मैं अभी झाड़ू दे सकता हूँ। मैंने बहुत रोका तो और लड़े, कहने लगे ऐसा ही है तो तलाक़ ले ले।” सफ़ीया ने बिसूरकर कहा। मंटो से झाड़ू छुड़ाने के लिए मैंने बनकर खाँसना शुरू किया। “सुबह ही सुबह म्युनिसिपेलिटी के भंगी ने सहन (चौक, आँगन) साफ़ करने के बहाने धूल हलक़ में झोंकी अब आप अरमान निकाल लीजिए।” “गर्मी से जान निकल रही है।” जल्दी से झाड़ू छोड़कर मंटो होटल से बर्फ़ लाने चला गया। सफ़ीया हंडिया बघारने चली गयी। बर्फ़ लाकर मंटो ने तौलिया दीवार पर मार-मारकर बर्फ़ तोड़ी और प्लेट में भरकर सामने रख दी और उकड़ूँ बैठ गया। “और सुनाइए।” उसने हस्बे-आदत कहा। हांडी के बघार से मुझे ज़ोर से उबकाई आयी। “उफ़्फ़ुह सफ़ीया क्या मुर्दा जला रही है।” मैंने नाक बंद करके कहा। मंटो ने चौंक कर मुझे देखा सिर से पैर तक बड़ी-बड़ी पुतलियाँ घुमाईं और छलांग मार कर झपटा। बावर्चीख़ाने में सफ़ीया चीख़ती रही और उसने फिर लोटा पानी पतीली में झोंक दिया। वापस आकर वो सहमा-सहमा सा कुर्सी पर बैठ गया और फिर झेंप कर हँस दिया। मैं बेवक़ूफ़ों की तरह देखती रही। सफ़ीया बड़बड़ाती आयी तो उसे ज़ोर से डाँटा और फिर बड़े शर्मीले अंदाज़ से बोला, “आप के पेट में बच्चा है? जैसे बच्चा मेरे नहीं ख़ुद उनके पेट में हो।” “मैंने फ़ौरन ताड़ लिया। जब सफ़ीया के पेट में बच्चा था तो उसे भी बघार से उबकाई आती थी।” “मंटो साहब ख़ुदा के लिए दाइयों जैसी बातें बातें न करें।” मैंने चिढ़ाकर कहा। वो ज़ोर से हँसा। “अरे वाह। इस में क्या बुराई है। अरे आप को खटई जैसी चीज़ें भाती होंगी। मैं अभी कैरियाँ लाता हूँ।” वो लपक कर नीचे गया और कुर्ते के दामन में बच्चों की तरह कैरियाँ भर के ले आया। कैरियाँ छीलकर बड़ी नफ़ासत से नमक-मिर्च लगाकर मुझे दीं और ख़ुद उकड़ूँ बैठ मुझे ग़ौर से देखकर मुस्कुराता रहा।

“सफ़ीया अरे सफ़िया” वो चिल्लाया। सफ़ीया धुँए से अटी आँखें आँचल से पोंछती आयी। “क्या है मंटो साहब कितना चिल्लाते हो।” “अरे बेवक़ूफ़। इनका पैर भारी है।” उसने सफ़ीया की कमर में हाथ डालकर कहा। “उफ़ गन्दगी की इंतिहा है। जभी तो आप को लोग फ़हश-निगार कहते हैं।”, मेरे इस बिगड़ने पर मंटो ख़ूब चहका और बड़ी-बूढ़ियों जैसे मशवरे देने लगा। पेट पर ज़ैतून के तेल की मालिश से खरोंचे नहीं पड़ेंगी।” “निहार (बासी) मुँह सेब का मुरब्बा खाने से उबकाई नहीं आती।” “खोपरा खाने से बच्चा गोरा होगा और आसानी से होगा।” “जाड़े में बर्फ़ न चबाइएगा, नले सूख़ जाते हैं। क्यों सफ़ीया?” “हटो मंटो साहब कैसी बातें करते हो।” सफ़ीया खिसिया कर रह गयी। और जब सीमा पैदा हुई तो सफ़ीया मेरे पास बैठी काँपती रही। मगर बच्ची को देखकर मंटो को अपना बेटा बहुत याद आया। वो देर तक मुझे उसकी छोटी-छोटी शरारतें बताता रहा। सफ़ीया का दिल पिघल गया और साल के अंदर-अंदर मंटो की बड़ी बेटी पैदा हो गयी। पूना से आने के बाद मुझे मालूम हुआ, मैं फ़ौरन गई, पर मंटो ने मकान बदल लिया था। ढूँढ़ढांढ़ कर नए मकान पहुँची तो देखा ड्राइंग रूम में अलगनी पर पोतड़े निचोड़-निचोड़ कर फैला रहे हैं। नया मकान बहुत छोटा और बग़ैर हवा का था। मंटो ने इसलिए बदल लिया कि उसका फ़र्श गन्दा था, बच्ची घुटनों चलती तो फाँस लग जाती। और मिट्टी चाट जाती। यहाँ निकहत मज़े से फ़र्श पर खेल सकेगी। हालाँकि निकहत चंद हफ़्तों की थी।

मुझे बच्चे सख़्त नापसंद हैं। मंटो संजीदगी से कहता। जान को चिमट जाते हैं, मुझे उन से इसलिए डर लगता है। हर वक़्त उन्हीं का ख़याल रहता है, किसी काम में दिल नहीं लगता। वो दूध की बोतल धोकर फ़लसफ़े छाँटता। मेरी भतीजी मीनू उसे बड़ी प्यारी थी। घंटों उस के साथ गुड़ियों और हिंडोलों की बाते किया करता। फ़रमाइश पर खिड़की से बाँस डालकर उसके लिए इमलियाँ तोड़कर नीचे से कुर्ते के दामन में समेट लाता।

सीमा को पॉट पर बैठाकर शी-शी करता। और बच्चों का बहुत शाकी (किसी अप्रिय आचरण या व्यवहार या बात के विरूद्ध अप्रसन्नता या खेद प्रकट करने वाला) था क्योंकि वो उनकी मुहब्बत में बेबस हो जाता था।

एक दिन जब हम मलाड़ में रहते थे, रात के कोई साढ़े बारह होंगे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मालूम हुआ सफ़ीया साँस फूली हुई सी खड़ी हैं। मैंने पूछा क्या हुआ? बोली, “मैंने मना किया कि ऐसी हालत में किसी के घर नहीं जाना चाहिए मगर वो कहाँ सुनते हैं। मंटो निदा जी और ख़ुर्शीद अनवर के साथ आ गए। “यह सफ़ीया कौन होती है मना करने वाली।” हाथ में बोतल और गिलास लिए तीनो अंदर आए। शाहिद ने पार्टी को लाबेक (एक प्रार्थना- मैं आपकी ख़िदमत में हाज़िर हूँ) कहा। तय हुआ बहुत भूखे हैं, होटल सब बंद हो चुके हैं। रेल का वक़्त गुज़र गया। कुछ मिल जाए तो ख़ुद पका कर खा लें। बस आटा-दाल दे दो। ख़ुद बावर्चीख़ाने में जाकर पका लेंगे। सफ़ीया को मर्दों का रोटी पकाना न भाया। मगर वो कहाँ मानते थे। बावर्चीख़ाने पर चढ़ाई कर दी। मंटो आटा गूँधने लगे। निदा जी अंगीठी पर टूट पड़े और ख़ुर्शीद अनवर को आलू छीलने के लिए दे दिए गए जो छीलने से ज़्यादा कच्चे खाने पर मुस्सिर (तुले हुए) थे और फिर बोतल भी बावर्चीख़ाने में आ गई। यह लोग चौका मर कर वहीं बैठ गए और कच्चे-पके पराठे पकाते गए, खाते गए। मंटो ने आटा बहुत अच्छा गूँधा था और बड़े सलीक़े से रोटी पका ली और फिर झट से पुदीने की चटनी में डाली। खाना खाकर यह लोग वहीं फैल कर सो भी जाते अगर ज़बरदस्ती बरामदे तक न घसीटा जाता। यह ज़िन्दगी थी जो मंटो को सब से ज़्यादा दिलचस्प मालूम होती थी। उस ज़माने में लाहौर गवर्नमेंट ने मेरे और मंटो पर मुक़दमा चला दिया। मंटो की देरीना (पुरानी) आरज़ू बर आई। लाहौर में भी लुत्फ़ आ गया। ख़ूब दावतें उड़ाईं। इसी बहाने लाहौर की ज़ियारत (तीर्थयात्रा) हो गई। ज़री के जूते ख़रीदने हम दोनों साथ गए। मंटो के पैर नाज़ुक और सफ़ेद थे। जैसे कँवल के फूल, ज़री के जूते बहुत जँचने लगे। “मेरे पैर बड़े भद्दे हैं। मैं नहीं ख़रीदूँगी। इतने ख़ूबसूरत जूते।”, मैंने कहा। “और मेरे पैर इतने ज़नाने हैं कि मुझे इन से शर्म आती हैं।” मगर हमने कई जूते ख़रीदे।

“आप के पैर बहुत ख़ूबसूरत हैं।” — मैंने कहा ।

“बकवास हैं मेरे पैर। लाइए बदल लें ।”

“बदलना ही है तो लाइए सिर बदल लें,” — मैंने राय दी ।

“बख़ुदा मुझे कोई एतराज़ नहीं” — मण्टो ने चहककर कहा ।

मुहब्बत के मसले पर कितनी ही झड़पें हुईं, मगर हम किसी फ़ैसले पर नहीं पहुँच सके ।

वो यही कहता — “मुहब्बत क्या होती है। मुझे अपने ज़री के जूते से मुहब्बत है। रफ़ीक़ को अपनी पाँचवीं बीवी से मुहब्बत है ।”

“मेरा मतलब उस इश्क़ से है जो एक नौजवान को एक दोशीज़ा से हो जाता है ।”

“हाँ…. मैं समझ गया ।” — मण्टो ने दूर माज़ी के धुँधलके में कुछ टटोलकर सोचते हुए ज़रूर कहा ।

“कश्मीर में एक चरवाही थी ।“

“फिर ?”, मैंने दास्तान सुनने वालों की तरह हुंकारा दिया ।

“आप मुझे इतनी गन्दी बातें तो बता देते हैं और आज आप शरमा रहे हैं ।”

“कौन गधा शरमा रहा है ।” — मण्टो ने वाक़ई शरमाकर कहा… बड़ी मुश्किल से उसने बताया कि बस. जब वो मवेशी हाँकने के लिए अपनी लकड़ी ऊपर उठाती थी तो उसकी सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाती थी ।

“मैं कुछ बीमार था । रोज़ एक कम्बल लेकर पहाड़ी पर जाकर लेट जाया करता था। और साँस रोके उस लम्हे का इन्तज़ार करता था, जब वो हाथ ऊपर करे तो आस्तीन सरक जाए और मुझे उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाए।”

“कुहनी ?”, मैंने हैरत से पूछा।

"हाँ, मैंने सिवाय कुहनी के उसके जिस्म का और कोई हिस्सा नहीं देखा। ढीले-ढाले कपड़े पहने रहती थी, उसके जिस्म का कोई ख़त नहीं दिखाई देता था । मगर उसके जिस्म की जुम्बिश पर मेरी आँखें कुहनी की झलक देखने के लिए लपकती थीं ।

“फिर क्या हुआ?”

फिर एक दिन मैं कम्बल पर लेटा था । वो मुझसे थोड़ी दूर आकर बैठ गई । वो अपने गिरेबान में कुछ छिपाने लगी। मैंने पूछा, मुझे दिखाओ तो शर्म से उसका चेहरा गुलाबी हो गया । और बोली कुछ भी नहीं । बस, मुझे ज़िद हो गई. मैंने कहा जब तक तुम दिखाओगी नहीं, जाने नहीं दूँगा। वो रुआँसी हो गई, मगर मैं भी ज़िद पर अड़ गया। और आख़िर को रद-ओ-कद (हुज्जत) के बाद उसने मुट्ठी खोलकर हथेली मेरे सामने कर दी और ख़ुद शर्म से घुटनों में मुँह दे लिया।

क्या था उसकी हथेली पर — मैंने बेसब्री से पूछा ।

“मिस्री की डली ! उसकी गुलाबी हथेली पर बर्फ़ के टुकड़े की तरह पड़ी झिलमिला रही थी ।”

“फिर आपने क्या किया।”

“मैं देखता रह गया । वो कुछ सोच में डूब गई ।"

“फिर ?”

फिर वो उठकर भाग गई । थोड़ी दूर से पलट आई और मिस्री की डली मेरी गोद में डालकर नज़रों से ओझल हो गई। मिस्री की डली बहुत दिनों तक मेरी क़मीज़ की जेब में पड़ी रही। फिर मैंने उसे दराज़ में डाल दिया और कुछ दिन बाद चीटियाँ खा गईं।

“और लड़की ?”

“कौनसी लड़की ?”— वो चौंका ।

“वही जिसने आप को मिस्री की डली थमाई थी ।”

“उसे मैंने फिर नहीं देखा ।”

“किस क़दर फसफसा है आपका इश्क़ !” — मैंने नाउम्मीदी से चिढ़ के कहा। मुझे तो बड़े किसी शोला-बादामान क़िस्म के इश्क़ की उम्मीद थी ।”

“क़त्तई फसफसा नहीं।” — मण्टो लड़ पड़ा ।

“बिलकुल रद्दी था, थर्ड रेट, मरघुल्ला इश्क़ । मिस्री की डली लेकर चले आए । बड़ा तीर मारा ।”

“तो और क्या करता । उसके साथ सो जाता। एक हरामी पिल्ला उस की गोद में छोड़कर आज उसकी याद में अपनी मर्दानगी की डींगें मारता।” — वो बिगड़ा ।

“ठीक कहते हैं आप । मिस्री की डली किड़किडा के खाने की नहीं, धीरे-धीरे चूसने की चीज़ है ।”

यह वही मण्टो था । फ़हश (अश्लील) निगार । गन्दा ज़हन । जिस ने “ठण्डा गोश्त” लिखा था । लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब में चौदहवीं बेग़म मिर्ज़ा ग़ालिब की महबूबा हो या न हो, उस का फैसला नहीं किया जा सकता, मगर मण्टो के ख़यालों की लड़की ज़रूर है, जिसे वो हाथ नहीं लगाना चाहता । जिस की कुहनी की झलक देखने के लिए वो सारी ज़िन्दगी बैठ सकता है। यह था वो तज़ाद (विसंगति) जो मंटो की मुख़्तलिफ़ कहानियों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में ज़ाहिर होता था । एक तरफ़ वो “नया क़ानून” लिखता है और दूसरी तरफ़ “बू”... दोनों में वो खुद को ग़र्क़ (बरबाद) करके लिखता है। लोगों को एक फ़हश निगार याद रह जाता है और वाक़्या निगार को वो भूल जाते हैं । क़सद (साज़िश, षडयन्त्र) क्या हुआ! ? एक ही बात है ।

मुल्क में फ़साद शुरू हो गए । बटवारे के बाद उस को भी पयाम किए जाने लगे । मण्टो उस वक़्त फ़िल्मिस्तान में क़रीब-क़रीब मुस्तक़िल था। वो बड़ा ख़ुश नज़र आता था। मद्दाह सराई (स्तुतिगान) जो उसकी ज़िन्दगी का सहारा थी उसे मिलती थी कि उसकी फ़िल्म ’आठ दिन’ कामयाब न हुई । न जाने क्यों वो फ़िल्मिस्तान छोड़कर अशोक कुमार के साथ बम्बई टाकीज़ चला गया । उसे अशोक कुमार बहुत पसन्द था। मुखर्जी ने न जाने उस से क्या कह दिया था कि वो एकदम उसके ख़िलाफ़ हो गया — बकवास है मुखर्जी, फ्रॉड है पक्का ! — वो तल्ख़ी से कहता ।

बम्बई टाकीज़ में जाकर उसने मुझे भी कम्पनी में एक साल के बाद सीनियर यू डिपार्टमेण्ट में काम दिलवा दिया और बहुत ही ख़ुश हुआ — “अब हम दोनों मिलकर कहानी लिखेंगे । तहलका मचेगा । मेरी और आपकी कहानी, अशोक कुमार हीरो । बस, फिर देखिएगा ।”

एक कहानी मण्टो की ज़ेरे-ग़ौर थी। अशोक कुमार को वो पसन्द थी। उससे पहले उसे “मजबूर” की कहानी पसन्द थी फिर दिल से उतर गई और मण्टो की कहानी पसन्द आई। मेरे आने के बाद उसे मेरी कहानी ’ज़िद्दी’ पसन्द आ गई। ख़ैर, मण्टो को नागवारा न गुज़रा। अब अशोक कुमार ने मुझे मण्टो की कहानी पर काम करने को कहा और मण्टो को मेरी कहानी पर ! नतीजा यह कि मण्टो मुझे और मैं मण्टो से शाकी होने लगे। उधर कमाल अमरोही “महल” की कहानी लेकर आ गए और अशोक कुमार को पसन्द आ गई और हम दोनों की कहानी खटाई में पड़ गई। अब सिर्फ़ इज़्ज़त का सवाल होता तो और बात थी, वहाँ तो यह हाल हो गया कि हमारी कहानी नहीं बन रही है तो हम किसी शुमार-ओ-क़तार ही में नहीं । हमसे कह दिया गया था कि चैन से बैठो । तनख़्वाह मिलती रहेगी, क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट हो चुका है, लेकिन कहानी हमारी नहीं बनेगी। लिहाज़ा मेरी और शाहिद की पूरी कोशिशें अपनी कहानी ’ज़िद्दी’ को बनवाने की तरफ़ लग गईं और बग़ैर अशोक कुमार के दूसरे दर्जे की तस्वीरों की क़तार में ज़िद्दी बनाई जाने लगी। मगर मण्टो की कहानी रह गई ! मण्टो दिन भर अपने कमरे में बैठा अपनी कहानी की उधेड़बुन किया करता, कभी अंजाम को आग़ाज़ बनाकर लिखता, कभी आग़ाज़ को अंजाम बनाकर, कभी वस्त (बीच) से शुरू करके आग़ाज़ पर ख़त्म करता और कभी वस्त को अंजाम बना देता। बावजूद हज़ारों आपरेशनों के कहानी की कोई शक़्ल अशोक कुमार को पसन्द न आई। मगर मण्टो यही कहता —

“आप गांगुली को नहीं समझतीं, मैं समझता हूँ। वो मेरी कहानी में ज़रूर काम करेगा।”

“आप की कहानी में उसका रोल रोमाण्टिक नहीं, बाप का है, वो कभी नहीं करेगा।”

और मण्टो से फिर लड़ाई होने लगती । मगर अदबी ज़बान से यहाँ अपनी फ़िक्र पड़ी थी। और वही हुआ कि ’ज़िद्दी’ और ’महल’ बन गईं । मण्टो की कहानी रह गई । मण्टो को इस की उम्मीद न थी और उसे बड़ी ज़िल्लत महसूस हुई । वो सब कुछ झेल सकता था, बेक़द्री नहीं झेल सकता था । उधर मुल्क के हालात बिलकुल ही बद्तर हो गए । उसके बीवी-बच्चे उसे पाकिस्तान बुलाने लगे। मण्टो ने हमसे भी चलने को कहा। पाकिस्तान में हसीन मुस्तक़बिल है। वहाँ से भागे हुए लोगों की कोठियाँ मिलेंगी। वहाँ हम ही हम होंगे। बहुत जल्द तरक़्क़ी कर जाएँगे। मेरे जवाब पर मण्टो मुझसे वाक़ई बद-दिल हो गया। इतनी लड़ाइयाँ और झगड़े मेरे उससे हुए मगर यों किसी संजीदा उसूल पर बहस न हुई।

और उस वक़्त मुझे मालूम हुआ कि मण्टो कितना बुज़दिल है। किसी क़ीमत पर भी वो अपनी जान बचाने को तैयार है। अपना मुस्तक़बिल बनाने के लिए वो भागे हुए लोगों की ज़िन्दगी की कमाई पर दाँत लगाए बैठा है। और मुझे उस से नफ़रत-सी हो गई।

और एक दिन वो बग़ैर इत्तिला किए और मिले पाकिस्तान चला गया । मुझे बड़ी हतक (अपमान) महसूस हुई । फिर जब उसका ख़त आया कि वो बहुत ख़ुश है, बहुत उम्दा मकान मिला है, कुशादा (खुला हुआ) और ख़ूबसूरत, क़ीमती सामान से आरस्ता (सुसज्जित) । हमें उसने फिर हिलाया था । “ज़िद्दी” ख़त्म हो गई थी और हमने आरज़ू शुरू कर दी थी। बुरे वक़्त आए थे और चले गए थे । उसके फिर दो ख़त आए। उस ने बुलाया था ।

एक सिनेमा अलॉट करवाने की उम्मीद दिलाई थी । मुझे बड़ा दुख हुआ। उसकी मुहब्बत का पहले भी यक़ीन था। मगर अब तो और भी मान जाना पड़ा। मगर मैंने उसके ख़त फाड़ दिए, इस बात से चिढ़कर कि वो मेरे उसूलों की क़द्र क्यों नहीं करता । मैंने उसे जाने से नहीं रोका, फिर वो मुझे अपने रास्ते पर क्यों घसीट रहा है ।

फिर सुना मण्टो बहुत ख़ुश है ।

मकान छिन गया, मगर दूसरा भी ख़ासा अच्छा है ।

एक लड़की और पैदा हुई ।

और साल गुज़रते गए। एक लड़की और पैदा हुई । मण्टो का एक ख़त आया — “कोशिश करके मुझे हिन्दुस्तान बुलवा लो।”

फिर मालूम हुआ मंटो पर मुक़दमा चला और जेल हो गई । हम हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे । किसी ने एहतिजाज (विरोध) भी न किया । बल्कि कुछ ऐसा लोगों का रवैय्या था कि अच्छा हुआ जेल हो गई । अब दिमाग़ दुरुस्त हो जाएगा। न कहीं जलसे हुए, न मीटिंगें हुईं, न रेज़ॉल्यूशन पास हुए ।

फिर मालूम हुआ कि दिमाग़ चल निकला और पागलख़ाने में यार-दोस्त पहुँचा आए हैं। मगर एक दिन मण्टो का ख़त आया। बिलकुल होशो-हवास में लिखा था कि अब बिलकुल ठीक हूँ । अगर मुखर्जी से कहकर बम्बई बुलवा लो तो बहुत अच्छा हो । उस के बाद अरसे तक कोई ख़ैर-खबर नहीं मिली । न ही मेरे ख़त का जवाब आया। फिर सुना कि दोबारा पागलख़ाने चले गए । अब मण्टो की ख़बरों से डर-सा लगने लगा। पूछने की हिम्मत न पड़ती थी। ख़ुदा जाने उसका अगला क़दम कहाँ पड़ा हो। मगर पागलख़ाने से आगे जो क़दम पड़ता है, वो लौट कर नहीं आता। पाकिस्तान से आने वाले लोगों से भी इतनी कड़वी ख़बरें सुनीं कि जी ऊब गया। बेतरह पीने लगे हैं। अपने-पराए हर-एक से पैसा माँग बैठते हैं। अख़बारवाले बिठाकर सामने मज़मून लिखवाते हैं, पेशगी पैसा दो तो सब खा जाते हैं।

मण्टो का आख़िरी ख़त आया, जिसमें एक मज़मून अपने ऊपर लिखने को कहा था। बेसाख़्ता, मेरी मनहूस ज़बान से निकल गया कि अब तो मरने के बाद ही मज़मून लिखूँगी ।

और आज मण्टो के मरने के बाद लिख रही हूँ । मण्टो ही नहीं, अरसा हुआ, मेरे और मण्टो के दरमियान बहुत कुछ मर चुका था। आज सिर्फ एक कसक ज़िन्दा है । यह पता नहीं चलता कि किस बात की कसक है । क्या इस बात की नदामत (शर्मिंदगी) है कि वो मर चुका है और मैं ज़िन्दा हूँ ? यह मेरे सीने पर फिर क़र्ज़ जैसा बोझ क्यों है ? मुझे तो मण्टो का कोई क़र्ज़ा याद नहीं। और उस का क़र्ज़ा भी क्या था, यही न कि उस ने मुझे बहन कहा था। मगर बहनें तो खड़ी भाइयों को दम तोड़ता देखती हैं और कुछ नहीं कर पातीं। मरने वाले ज़ख़्म लगा जाते हैं जो न दिखता है न रिसता है, ख़ामोश सुलगता रहता है ।

आज मुझे सफ़ीया बेतरह याद आ रही है । जी चाहता है एक बार सिर जोड़कर हम दोनों बातें कर सकें जैसे बरसों हुए एडल्फ़ी चेम्बर में किया करते थे। मगर वो थी सुहागरात और पहलू बैठी के बच्चे की बातें, यह हैं मौत की बातें। इसीलिए डरती हूँ और मेरा क़लम ख़ुश्क हो जाता है — न जाने, इन चन्द सालों में उस पर क्या गुज़री है । किस दिल से पूछूँ कि जब सारी दुनिया ने मण्टो को फ़रामोश कर दिया, तब भी तुम्हारी मुहब्बत उस तूफ़ानी हस्ती को सहारा चट्टान बनकर देती रही। या तुम्हारा प्यार थककर निढाल हो चुका था। क्या ये बारह-तेरह बरस का भूचाल तुम्हें झिंझोड़ कर पस्त कर गया या तुम अब भी अपने मण्टो साहब की सफ़ीया रहीं। पास- पड़ोस के मुहज़्ज़ब (शालीन) लोग और रिश्तेदार, जब उस की बद-रवी (बुरी राह चलना) पर नाक-भौं चढ़ाते थे, तो तुम क्या करती थीं ? उन खामोश गेसुओं का तुम्हारे पास क्या जवाब था, जो बेमुरव्वती और लापरवाही से तुम्हारे इर्द-गिर्द मण्डलाया करती थीं। दम तो घुट जाता था। क्या उसने तुम्हारी प्यार भरी गोद में दम तोड़ा या वो तनहा और भरे ख़ानदान में अकेला ही सिधारा। क्या बच्चियाँ अपने बाप को पागल. मुफ़लिस, शराबी समझती थीं। उसने तुम्हें तंगदस्ती और नदामत के सिवाय क्या कुछ भी नहीं दिया। मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम। न जाने क्यों, उस की तहरीरों में अपनी ज़िन्दगी का धुंधला-सा भी अक्स नहीं है। वो अपनी मुश्किलों को अपनी कमज़ोरी पर महमूल (लादता) करता रहा। उसने उन्हें ऐब की तरह छिपाया उसे गज़्वा (धर्मयुद्ध) था कि चाहे तो वो दमभर में लाखों कमा कर फेंक दे। जभी तो उसे यक़ीन न आया था कि वो फ़ाक़े भी कर सकता है और उसका क़लम बेकसी से घुटता रहता है। तुम आजिज़ तो नहीं आ गईं अदीबों से ! यों ही ख़ुद घुटते हैं और अपनों को दलदल में घसीटते हैं ! …. और फिर एक दिन अकेला छोड़कर चल देते हैं ।

तो बहन, यह अदीबों की ही आदत नहीं, हमारे देश के लाखों करोड़ों इनसान इसी तरह ज़िन्दगी में नाकामी और नामुरादी का शिकार होते हैं। चाहे वो अदीब हों या क्लर्क ! उनकी यही ज़िन्दगी है और कम-ओ-बेश यही अंजाम । जो ज़्यादा हस्सास (ख़ुद्दार, संवेदनशील) होते हैं, वो पागल हो जाते हैं और ढीट सिसकते रहते हैं ।

न जाने दिल क्यों कहता है कि मण्टो की इस जवाँमिर्गी में मेरा भी हाथ है । मेरे दामन पर भी ख़ून के नज़र न आने वाले छींटें हैं, जो सिर्फ़ मेरा दिल देख सकता है । वो दुनिया जिस ने उसे मरने दिया मेरी ही तो दुनिया है । आज उसे मरने दिया और कल यों ही मुझे भी मर जाने की इजाज़त होगी । और फिर लोग मातम करेंगे । मेरे बच्चों का बोझ उनके सीने पर चट्टान बन जाएगा। जलसे करेंगे, चन्दा जमा करेंगे और उन जलसों में अदीम- उलफ़ुरसती (व्यस्तता) की वजह से कोई न आ सकेगा। वक़्त गुजर जाएगा। सीने का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता हलका हो जाएगा और वो सब कुछ भूल जाएँगे ।

उर्दू मूल से लिप्यान्तरण : प्रगति टिपणीस