मण्डन मिश्र को जानने का तरीका / देवशंकर नवीन
महामनीषी मण्डन मिश्र और मिथिला के सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रसंग में बात करते हुए सर्वप्रथम अनुवाद के विषय में थोड़ी चर्चा करनी पड़ेगी। अनुवाद की भारतीय परम्परा पर नजर दें तो स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगा कि हमारे यहाँ कभी अनुवाद का प्रयोजन हुआ ही नहीं। टीका, भाष्य और अनुवचन से काम चलता रहा। इस अर्थ में निश्चित रूप से भारत देश में अनुवाद-कार्य बौद्ध काल का अवदान है। अथवा, यूँ कहें कि समय विशेष के प्रयोजन को देखते हुए टीका, भाष्य और अनुवचन का विकास क्रम है, जो विभिन्न राजवंश के कार्यकाल को पार करता हुआ, उत्तरोत्तर विकसित होता गया। उपनिवेश-काल में थोड़ी यह उद्यम थोड़ी और समृद्ध हुई, और स्वातन्त्र्योत्तर काल में इसका पर्याप्त विकास हुआ। ये सारी बातें मिथिला के जनपदीय वातावरण में भी लागू हुईं।
हम सब जानते हैं कि मिथिला प्राचीन काल से ही विद्वानों का गढ़ रही है। पर लोक-भाषा में शास्त्र-चर्चा करना उन लोगों के लिए सर्वथा वर्जनीय था। लोक-भाषामें पढ़ने-लिखने की बात करना कितना अनर्गल माना जाता था, इसका उदाहरण महाकवि विद्यापति की भाषा सम्बन्धी घोषणा, और लोक-भाषा में लेखन कार्य करने के लिए चन्दा झा को कवीश्वर की उपाधि देने की किम्बदन्ती से स्पष्ट है। मण्डन मिश्र इस तथ्य के अपवाद नहीं हैं, उन्होंने जो कुछ लिखा, संस्कृत में लिखा; और वह भी प्रकाशित हुआ सन् 1907-1958 के बीच। लगभग तेरह सौ वर्षों तक उनके कृति-कर्म से मिथिला वंचित रही। इस बीच के सन्नाटे का नाजायज लाभ कुछ लोगों ने लिया। शंकराचार्य के कथित शिष्य(इस कथित शब्द का अर्थ आगे के अंश में स्वतः स्पष्ट हो जाएगा) माधवाचार्य द्वारा लिखी गई पुस्तक शंकरदिग्विजय की कल्पित कथाभूमि को इस तरह प्रचारित किया गया, कि मिथिला क्षेत्र तक के लोग भी उस फरेब के शिकार हो गए, लोगों ने उसे ही सत्य मान लिया। मिथिला के नागरिक आज भी भली-भाँति सत्य-कथा के निकट नहीं आ सके हैं। और की बात कौन कहे, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के शताब्दी समारोह में भाषण देते हुए, 25 नवम्बर 1966 को महामहिम राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे विद्वान ने भी उसी कथांश का उल्लेख किया।
महामनीषी मण्डन मिश्र का नाम मिथिला ही नहीं पूरे देश के लोग जानते हैं, पर विडम्बना है कि लोगों को यह संज्ञान मण्डन मिश्र के कृति-कर्म के लिए नहीं है। शंकरदिग्वजय शीर्षक पुस्तक की फरेबपूर्ण कथा इस कौशल से रची गई कि मिथिला के आम नागरिकों ने भी उसे ही सत्य मान लिया--कि मिथिला की विदुषी भारती ने ऐसे शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया जो मण्डन मिश्र जैसे विद्वान को हरा चुके थे!...और विद्वान वर्ग के लोग अपने अलस-भाव में लीन रहे। कहा नहीं जा सकता कि चेतना-हरण की ऐसी चातुरी माधवाचार्य ने कहाँ से सीखी, अथवा मैथिल नागरिक परिदृश्य की नस पकड़ने की ऐसी महीन क्षमता किस उद्योग से हासिल की। इतनी बात तो सत्य है कि यावज्जीवन हमलोग पूर्वजों को स्मरण करने हेतु जयन्ती और पुण्य-तिथि मनाते रहते हैं, पर वस्तुतः हमें अपने अतीत पर गौरव करने आता नहीं है। यदि आता तो क्या आज तक भी हम, मण्डन मिश्र के अवसान के तेरह सौ वर्ष बाद भी उनकी महिमा नहीं जान पाते, और असल कथा को जनमानस तक पहुँचाने में सफल नहीं हुए होते? अचम्भा तो तब और लगेगा, जब वेबासाइट के तन्त्रजाल में प्रवेश करेंगे! वैसे यह वेबसाइट भी आज के समय में बौद्धिक समाज के बीच अबूझ दृष्टकूट-सा बना हुआ है। विश्वसनीय भी नहीं है, पर उसकी सत्ता को नकार भी नहीं सकते; एकदम से ईश्वर की तरह! इसलिए इसके बारे में भला, या बुरा---स्व-विवेक से ही समझना पड़ेगा। जितने भी साइट पर जाएँगे, हर जगह मण्डन मिश्र, को केअर ऑफ शंकराचार्य, अथवा सुरेश्वराचार्य के अतीत के रूप में उपस्थित पाएँगे! जब कि मिथिला के हजारहाँ अंग्रेजीदाँ लोग वेब-दुनियाँ के बादशाह हैं। असल बात यह है कि सैकड़ो वर्ष से हमलोग इतने भर से सन्तुष्ट होते आए हैं कि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में हमारी भारती ने पराजित कर दिया, जब कि वह पूरी कथाभूमि ही कल्पित है।
मिथिला के सांस्कृतिक उत्कर्ष और मण्डन मिश्र से सम्बन्धित चर्चा को आगे बढ़ाते हुए, यही कहा जाना चाहिए कि यहाँ के लोगों को, मैथिल समाज को, उनके जीवन-कर्म से जितनी अधिक प्रेरणा मिली, उसी के परिणाम-स्वरूप हम मैथिल-जन समयानुसार ठोक-पीट कर जीवन-सन्धान करते चले आ रहे हैं। आज के समय तक आकर इतना अवश्य समझ गए हैं कि उनका वैचारिक-सन्धान जिस तरह का था, वह उनकी जीवन-पद्धति से ही उद्भूत था। मिथिला के नागरिक परिदृश्य में उनकी विचार-व्यवस्था और चिन्तन-परिदृश्य का सही स्वरूप तो आज तक भी प्रचारित नहीं हो सका है। हम लोगों ने उस दिशा में कोई उद्यम भी तो नहीं किया है।
मण्डन मिश्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं--ब्रह्मसिद्धि (1984), भावना-विवेक(1922), मीमांसानुक्रमणिका (1930), विभ्रम-विवेक (1932), विधि-विवेक (1907), स्फोट-सिद्धि (1931)। उनके सर्वप्रसिद्ध और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ब्रह्मसिद्धि के सम्पादक कुप्पूस्वामी ने मण्डन मिश्र का काल सन् 615-695 और शंकराचार्य का काल सन् 632-664 सुनिश्चित किया है। स्पष्ट है कि उम्र में शंकराचार्य से थोड़े बड़े होने के बावजूद दोनों लोग समकालीन ही थे। तथापि यह सच नहीं है कि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र, शंकराचार्य से पराजित हुए, और सुरेश्वराचार्य के रूप में शंकराचार्य के शिष्य बनकर शारदा पीठ के मठाधीश बने, यह पूरी तरह कपोल कल्पना है।
वस्तुतः दोनों ही लोग अद्वैत वेदान्त के आचार्य थे, अन्तर इतना था कि शंकराचार्य निवृत्ति-मार्ग के पोषक थे, जबकि मण्डन मिश्र प्रवृत्ति-मार्ग के। निवृत्ति-मार्ग की पद्धति संन्यासाश्रम है, और प्रवृत्ति-मार्ग की पद्धति गृहस्थाश्रम। गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में जिस तरह के उदारवादी विचार मण्डन मिश्र के थे, मिथिला में उसकी पुरानी परम्परा थी। ऐसी वैचारिक उदारता यहाँ जनक, याज्ञवल्क्य से लेकर वाचस्पति मिश्र होते हुए आगे तक बनी रही। बल्कि कहना चाहिए कि आज का समाज भी उसी उदारता का पक्षधर और पोषक है। अद्वैत वेदान्त की मिथिला-शाखा के प्रकाण्ड विद्वान मण्डन मिश्र की मान्यता है कि केवल ब्रह्म-चिन्तन करते रहने से तो मुक्ति मिल सकती है, पर इस कारण मोक्ष-प्राप्ति में गृहस्थाश्रम का महत्त्व कम नहीं हो जाता। कोई सद्गृहस्थ यदि ब्रह्म-चिन्तन के सााथ-साथ वैदिक कर्मानुष्ठान करे तो उन्हें शीघ्रता से मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने शंकराचार्य के संन्यासाश्रम का कहीं निषेध नहीं किया, उसकी अनिवार्यता का खण्डन किया। मनुष्य के जीवन में उन्होंने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के चार सोपान क्रमशः बताए, पर यह भी कहा कि तीव्र विरक्ति आने पर किसी भी सोपान से संन्यास ग्रहण किया जा सकता है, अथवा जिस आश्रम में मन रम जाए, वहीं डटा रहा जा सकता है। जबकि शंकराचार्य का कहना है कि आश्रम-कर्म के यज्ञ, दान तप आदि ब्रह्म-साक्षात्कार के साधन नहीं हैं।...इसी शंकराचार्य के शिष्य माधवाचार्य ने सैकड़ों वर्ष बाद शंकरदिग्विजय पुस्तक में मण्डन मिश्र को हेय और शंकराचार्य को प्रेय साबित करने के लिए ऐसा घृणित काम किया, कि अपने संन्यासी गुरु को पर-स्त्रीगामी तक बना दिया। कोई कितने भी मनस्वी हो जाएँ, द्वेष भाव के उदय होने पर कैसे नृशंस जानवर बन जाते हैं, एस बात का प्रमाण इसी कथा से मिलता है। बड़े-बड़े चिन्तकों ने सही ही कहा है कि विचार-व्यावस्था के यात्रा-क्रम में जिस धारा का विनाश उसका विरोधी तक नहीं कर पाता, उसके विचारों का सत्यानाश उसके अनुयायी उसकी पूजा करते हुए कर देते हैं। स्वयं माक्र्स इसके शिकार हुए हैं, कबीर तो हुए ही हैं। और, इस रास्ते शंकरदिग्विजय पुस्तक ने तो सहज ही शंकराचार्य को मटियामेट कर दिया।
अभिप्राय यह है कि जिन लोगों को आज भी उसी कथा पर विश्वास है कि मण्डन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पराजित हुए और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया, वे इस फरेब के शिकार हुए हैं। उस पुस्तक के अनुसार शंकराचार्य अद्वैत वेदान्त के आचार्य हैं, और मण्डन मिश्र द्वैतवाद के; जो सरासर गलत है। मण्डन मिश्र अद्वैत वेदान्त के प्रवृत्ति-मार्ग के आचार्य हैं। उस पुस्तक में कहा गया है कि मण्डन मिश्र के आश्रम में जब शंकराचार्य पहुँचे तो मण्डन मिश्र ने उनका स्वागत करने के बजाए अभद्रता से पूछा--कुतो मुण्डी?--अर्थात्, ओए गंजे! कहाँ आए हो?...मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि इस समय, इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में आकर, हमलोग जिस आचार-पद्धति से जीवन-बसर कर रहे हैं, उसमें उग्रता, असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है; दूसरों को सम्मान देने की आदत विलुप्त-सी हो गई है। मिथिला इसका अपवाद नहीं है। पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि घर आए मेहमान के साथ वैसा उद्दण्ड व्यवहार मिथिला में लोग आज भी नहीं करते, जैसा माधवाचार्य ने आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व मण्डन मिश्र से करवाया है।...आगे के पृष्ठों में उल्लेख मिलता है कि मण्डन मिश्र और शंकराचार्य के उक्त प्रस्तावित शास्त्रार्थ के निर्णायक मण्डन मिश्र की पत्नी भारती होंगी। तय किया गया कि शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान, विजित का शिष्यत्व स्वीकारेंगे। उसी पुस्तक के अनुसार थोड़ी देर बाद परम विदुषी भारती उस शास्त्रार्थ को छोड़कर दोनो विद्वानों की गरदन में माला पहनाकर, यह कहते हुए चली गईं कि मैं आश्रम के अन्य कामों को देखने जाती हूँ; आप दोनो में से जिनके गले की माला मुरझा जाएगी, उन्हें पराजित समझा जाएगा!...
आगे के प्रसंग में फिर जब भारती देखती हैं कि मण्डन मिश्र के गले की माला मुरझा जाती है तब शंकराचार्य से भारती कहती हैं कि आपने सिर्फ आधे मण्डन मिश्र को पराजित किया है, मैं उनकी अर्द्धांगिनी हूँ, मुझे पराजित किए बिना आप मण्डन मिश्र की विद्वता पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। अब आपको मुझसे शास्त्रार्थ करना पड़ेगा। और इसके बाद भारती शंकराचार्य से कुछ स्त्री विषयक सवाल करती हैं। जाहिर है कि संन्यासी शंकराचार्य के लिए वैसे प्रश्नों का जवाब देना सम्भव नहीं था। उस पुस्तक की कथा के अनुसार इसके बाद शंकराचार्य उनसे यह कहकर कर वापस होते हैं कि एक मास बाद आकर वे उन प्रश्नों का जवाब देंगे!...लौटते समय रास्ते में शंकराचार्य ने देखा कि कश्मीर के राजा का देहान्त हो गया है, उनकी अन्त्येष्टि के लिए लोग शवयात्रा में शामिल हुए जा रहे हैं। उन्होंने आनन-फानन अपने शिष्यों को हिदायत दी, और परकाया प्रवेश कर कश्मीर के राजा के रूप में पुनर्जीवित हो गए। और, राजमहल में जाकर भोग-विलास में लिप्त हो गए। इधर शंकराचार्य के शिष्य-भक्तगण उनकी काया को एक गुफा में रख कर अपने गुरु के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे। प्रतीक्षा में जब छह माह बीत गए तब उनके शिष्यों की चिन्ता बढ़ने लगी। वे कीर्तन मण्डली बनाकर राजदरबार पहुँचे और राजा के रूप में जी रहे अपने गुरु शंकराचार्य से कीर्तन गा-गाकर उनकी योजनाओं को याद दिलाने लगे। तब जाकर शंकराचार्य की भंगिमा बदली, और वे वहाँ से चलने को तैयार हुए।...राजमहल की पटरानियों में से एक पटरानी बड़ी बुद्धिमती थीं। वे इस पूरी प्रक्रिया को भाँप गईं। उन्होंने अपने दूत भेजकर उस गुफा में छुपाकर रखी हुई शंकराचार्य की काया में आग लगवा दी। पीछे से जब शंकराचार्य पहुँचे तो वे जलती हुई काया में ही प्रविष्ट हुए, और फिर अपने योगबल से उस काया में लगी आग को शान्त किया। वापस महिषी आकर अपने गार्हस्थ-जीवन के अनुभव के अधार पर भारती के सवालों का जवाब दिया और फिर घोषणा की कि अब अनुबन्ध के अनुसार मण्डन मिश्र को शंकराचार्य के साथ चलने के लिए वे मुक्त करें।...और इस पूरी प्रक्रिया के बाद मण्डन मिश्र को सुरेश्वराचार्य का नाम देकर शारदापीठ पर आसीन किया गया।...
भारतीय समाज की वर्तमान जीवन व्यवस्था में तो आज नैतिकता की परिभाषा बदल गई है। हर कोई नैतिकता की परिभाषा अपने पक्ष में सुनिश्चित करने और उसे वैधानिक साबित करने को आमादा है, पर यह कथा तो सैकड़ों वर्ष पहले वैसे व्यक्ति द्वारा रची गई है, जिन्होंने समाज-सुधार और धर्म-संस्थापन का दायित्व सँभाल रखा था। इतनी घृणित, कलंकित, और कृतघ्नता भरी बात सोचते समय उनकी चिन्तनशीलता को प्रायः लकवा मार गया था। यह विशुद्ध फिक्शन होता, तब की बात और होती, उन्होंने तो इसे सत्य-कथा कहकर प्रस्तुत किया!
अब सोचने की बात है कि मण्डन मिश्र और शंकराचार्य के उक्त प्रस्तावित शास्त्रार्थ के निर्णायक के रूप में भारती के नाम का मनोनयन निश्चय ही पर्याप्त सोच-समझ के साथ हुआ होगा। शंकराचार्य के मस्तिष्क में भी भारती के ज्ञान, विवेक, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता की स्पष्ट छवि अंकित रही होगी। भारती ने भी यह दायित्व अपने विवेक से स्वीकार किया होगा।...इन तमाम बातों की चिन्ता छोड़कर, मण्डन मिश्र और शंकराचार्य जैसे महान विद्वान के तर्क-वितर्क, और शास्त्र-चर्चा से पराङमुख होकर, भारती जैसी विदुषी कैसे किसी अन्य काम में तल्लीन हो जाएँगी? ऐसा कौन-सा काम रहा होगा? उनके लिए इस चर्चा को सुनने से अधिक महत्त्वपूर्ण काम और क्या रहा होगा? पर-पुरुष सम्भाषण की मर्यादा निभाने में जिस मिथिला का उदाहरण दिया जाता रहा हो, वहाँ की परम विदुषी नारी भारती ने शंकराचार्य जैसे संन्यासी से स्त्री विषयक प्रश्न कैसे पूछा होगा? उनकी तरह की विवेकशील स्त्री ने, सन्दर्भ से बाहर जाकर कोई सवाल कैसे रखा होगा?...यकीनन मिथिला भू-खण्ड में ऐसे आचरणों की कल्पना उन दिनों नहीं की जा सकती थी। इस पूरी कथा में विकृत सोच, भ्रामक समझ, और क्षेत्रीय पक्षपात से प्रेरित धारणा भरी हुई है। जिस व्यक्ति ने अपने गुरु तक को नहीं बख्शा, शंकराचार्य जैसे अद्वैत वेदान्त के मतावलम्बी और संन्यासी को परकाया प्रवेश करवाकर भोग-विलास में लिप्त करवाया। यह अनुभव किसे मिला?--काया को, या अत्मा को? अद्वैतवादी सोच के संन्यासी शंकराचार्य ने इस अनुभव की बात सोची भी कैसे होगी? अपनी मान्यताओं पर डटे रहने वाले शंकराचार्य ने तुच्छ-सी अहमन्यता प्राप्त करने हेतु ऐसी ओछी हरकत की कल्पना भी की होगी? उनके मन में सपने में भी यह बात आई होगी कि उनके देहावसान के बाद उन्हीं के शिष्य उनकी ऐसी दुर्गति कर देंगे? ऐसे शिष्य सम्प्रदाय की करतूतों से शंकराचार्य की कैसी छवि विकसित होगी, कहना कठिन है। किसी तरह ऐसी जुगत बैठ जाती कि यह पुस्तक वे पढ़ लेते, तो दिवंगत शंकराचार्य निश्चय ही अपना सिर पीटकर एक बार फिर दिवंगत हो जाते!
इस पूरे प्रकरण पर अन्हराठाढ़ी (मधुबनी) निवासी पण्डित सहदेव झा ने विस्तार से विचार किया है। और उनकी उस पुस्तक की भूमिका बड़ी ममता और उद्वेलन के साथ डॉ. तारानन्द वियोगी ने लिखी है। पण्डित सहदेव झा ने मैथिली की कुछ पत्रिकाओं में और कुछ अन्य लघु पत्रिकाओं में इस मसले पर लिखा भी है। पर उसका व्यापक प्रचार-प्रसार या कहिए कि उचित संज्ञान नहीं लिया गया। प्रयोजन है, शंकरदिग्विजय द्वारा फैलाए हुए भ्रम को तोड़कर सत्य कथा की स्थापना करने की। इसके दो रास्ते सम्भव हैं--पहला तो यह कि इस सम्पूर्ण प्रकरण को शोध-पूर्ण और तर्क संगत ढंग से अंग्रेजी, मैथिली और हिन्दी में लिखकर विभिन्न वेबासाइट पर अपलोड करवाया जाए और सभी दिशाओं से विद्वान लोग इस बात का संज्ञान लेते हुए इस दोषपूर्ण प्रचार का खण्डन करें। और, दूसरा यह कि नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया और साहित्य अकादेमी द्वारा मण्डन मिश्र की जीवनी छपे, जिसमें उनके जीवन और कृतिकर्म की सम्पूर्ण और सही सूचना हो; समस्त भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद प्रकाशित हो।
मित्रो! मैंने अपनी बात अनुवाद और भाषा प्रकरण से शुरू की थी। संस्कृत बनाम भाषा की चर्चा करते हुए अपनी प्रसिद्ध पुस्तक After Amnesia में गणेश एन. देवी ने ढेर सारी गुत्थियाँ सुलझाई हैं। मैं संस्कृत विरोधी नहीं हूँ, पर विद्वद्जनों की भाषा और लोकभाषा के बीच की फाँक से किस तरह नागरिक परिदृश्य अपने ही धरोहर से अलग-थलग पड़ा रहता है, इसका सीधा प्रमाण हमें इस घटना में मिलता है। जिन दिनों मण्डन-साहित्य उपलब्ध नहीं था, तब की बात और थी। अब पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों से मण्डन-साहित्य प्रकाशित है! तथापि हमलोग उस मूल पाठ के अवगाहन से वंचित हैं। मामला भाषा और अनुवाद का है। इसलिए एक प्रयास यह भी होना चाहिए कि मण्डन मिश्र की समस्त उपलब्ध रचनाओं का भाष्य मैथिली, हिन्दी आ अंगे्रजी में हो।
भाषा, भावाभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं होती, वह जनपदीय जीवन-पद्धति और संस्कार-व्यवस्था की वाहिका भी होती है। भाषा की स्वाधीनता, और उदारता से ज्ञान-व्यवस्था के क्षेत्र में फैली सामन्तशाही खण्डित होती है, और वैचारिक-सम्पदा दूर-दूर तक पहुँचती है। बुद्ध-वचन के व्यापक प्रचार-प्रसार इसके सबल उदाहरण हैं। सिद्ध-साहित्य और भक्ति आन्दोलन के काव्य-सन्देश इसके उदाहरण हैं। मण्डन मिश्र के ग्रन्थ यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो जाएँ, तो जीवन-पद्धति, गृहस्थाश्रम, और राष्ट्रवाद की छवि कितने स्पष्ट रूपों में सामने आएगी, यह सहज अनुमेय है।
बात सत्य है कि आज के नागरिक परिदृश्य के लिए ब्रह्मचिन्तन जैसा विषय मुख्य चिन्ता में नहीं है, हर युग के चिन्तकों के विचार किस कारण समकालीन, और किस कारण शाश्वत होते हैं, यह उसकी चिन्तन पद्धति से तय होता है, विषय मात्र से नहीं। हमलोग टीका, भाष्य, मीमांसा करते-करते वेदसे वेदान्त और अब उत्तरआधुनिकता से आगे तक पहुँच गए हैं। पर आज भी मिथिला के लोग जिस जीवन-पद्धति में चल रहे हैं, उसके सूत्र किसी न किसी रूप में गौतम के छान्दोग्योपनिषद, याज्ञवल्क्य के ईशावास्योपनिषद, एवं वृहदारण्यकोपनिषद, मण्डन मिश्र के ब्रह्मसिद्धि में मिलते हैं। यहाँ तक कि वाचस्पति मिश्र द्वारा किए गए ब्रह्मसूत्र के भाष्य (भामती) की पद्धति में भी वही बात विद्यमान है।
संस्कृत में लिखे रहने के बावजूद मण्डन मिश्र की विचार-व्यवस्था और चिन्तन-पद्धति लोक-मंगल की कामना से, और मानव जीवन की सहजता-सुविधा से इस तरह परिपूर्ण है कि वह स्वाभाविक ढंग से आकर्षक लगती है। ब्रह्मसिद्धि में स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा है कि संन्यासियों को केवल ब्रह्म-चिन्तन करने भर से मुक्ति मिल जा सकती है, पर वह एकमात्र रास्ता नहीं है। गृहस्थ लोग भी यदि ब्रह्मचिन्तन के साथ-साथ गृहस्थोचित यज्ञ, दान, तप आदि करें, तो वे कदाचित संन्यासियों की तुलना में शीघ्रता से मुक्ति पा सकते हैं। कर्म एवं ज्ञान के सामंजस्य के बारे में मण्डन मिश्र का अभिप्राय एकदम साफ है कि ज्ञान प्राप्ति से कर्ता सुसंस्कृत होता है, और फिर वह कर्म करने का अधिकारी होता है। धर्म-शास्त्रादि मेरा विषय नहीं है, पर इतना कह सकता हूँ कि आज भारतीय धर्म के जो दो मार्ग हैं--निवृत्ति मार्ग, और प्रवृत्ति मार्ग, उसमें प्रवृत्ति मार्ग की महत्त्वपूर्ण जीवन-पद्धति गृहस्थाश्रम है। यह सृष्टि चक्र उसी पद्धति से चलता है। कृष्ण-यजुर्वेद के अनुगामी शंकराचार्य की विचार व्यवस्था कभी भी मिथिला के लिए ग्राह्य नहीं हो सकती थी। अलग से कहने का प्रयोजन नहीं कि कृष्ण-यजुर्वेद, तैतरीयोपनिषद है, जिसे मिथिला के महान मनीषी और वैशम्पायन के शिष्य याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु से विवाद होने पर वमन किया था।
दुर्भाग्य की बात है कि पिछले तेरह सौ वर्षों तक अनुपलब्ध मण्डन मिश्र की ग्रन्थ ब्रह्मसिद्धि, लोकमान्य तिलक को उस समय तक भी प्राप्त नहीं हो सकी, जब वे राष्ट्र प्रेम की अवधारणा से परिपूर्ण होते हुए गीता का भाष्य कर रहे थे और गीता को कर्मयोग का शास्त्र मानते हुए उन्होंने कहा था कि कर्मयोग की इसी अवधारणा से भारत में नूतन जागृति आई है और नागरिक परिदृश्य स्वाधीन हुआ है, अंग्रेजों को भारत से भगाया जा सका है। लोकमान्य तिलक इस प्रवृत्ति मूलक अद्वैत वेदान्त के प्रबल आग्रही थे। उन्होंने गीता की भूमिका में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया कि अद्वैत वेदान्त पर इन दिनों जितने भी ग्रन्थ मिल रहे हैं, वे संन्यासियों द्वारा लिखे गए हैं। स्पष्टतया गीता के कर्मयोग को संन्यासियों के अद्वैत वेदान्त से समर्थन नहीं मिल सकता है। पूर्वकाल में गृहस्थों के अद्वैत वेदान्त के ग्रन्थ निश्चय ही लिखे गए होंगे, जो अभी प्राप्त नहीं हो रहे हैं।...
कल्पना की जा सकती है कि यदि ब्रह्मसिद्धि पुस्तक की प्रति लोकमान्य तिलक को उन दिनों मिल गई होती, तो उन्होंने कितनी प्रसन्नता और स्पष्टता से इसकी व्याख्या की होती। कल्पना इस बात की भी की जा सकती है कि इस ग्रन्थ के भाष्य से भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता था।
सन् 1919 में एक आलेख में मण्डन-शंकर शास्त्रार्थ के बारे में फैली भ्रान्तिपूर्ण दन्तकथा का खण्डन किया जा चुका था। बाद के दिनों में प्रो. एस. एन. दासगुप्ता ने अपनी पुस्तक ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी में इन समस्त हास्यास्पद प्रसंगों का खण्डन करते हुए एक आलेख लिखा, मगर इन सबसे बेफिक्र महामहोपाध्याय सर गंगानाथ झा मीमांसानुक्रमणिका का सम्पादन करते समय उसी पुरानी किम्बदन्ती का राग आलापते रहे।
असल बात यह है कि इन समस्त प्रकरण में मैथिलों की निश्चिन्तता, अपने अतीत और वैभव के प्रति उनकी निरपेक्षता, इसके लिए दोषी है। भविष्य में इस दिशा में मिथिलावासियों को सावधान रहने, और अपनी धरोहर की रक्षा के लिए अग्रसर होने की जरूरत है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि ऐसा होगा भी!