मतवालों की समझ / प्रताप नारायण मिश्र
विचार देखो तो शंकर स्वामी, रामानुज स्वामी, बल्लभ स्वामी, कबीर साहब, नानक साहब, दादू साहब, ऋषभदेव, बुद्ध तथा मसीह इत्यादि कोई साधारण पुरुष नहीं थे, बरंच ऐसे थे कि सब लोग उनका नाम बड़ी प्रतिष्ठा से लें और उनके सदुपदेशों पर चल के अपनी शारीरिक और मानसिक उन्नति करें, क्योंकि यह सभी महात्मा, परम भक्त एवं लोक हितैषी थे। यद्यपि साधारण बुद्धि को इनके उपदेशों में कहीं-कहीं भ्रांति प्रतीत होती है, पर सारग्राहियों को समझ लेना चाहिए कि वह विषय किसके लिए है, किसलिए हैं, कब के लिए हैं। यदि तब भी न संतोष हो तो जान लेना चाहिए कि मनुष्य की बुद्धि सदा सब बातों में यथावत नहीं पहुँच सकती। कदाचित् भूल ही हो पर वह भूल मनुष्यत्व का जाति स्वभाव है। आग्रह से वा किसी की हानि हो इस विचार से कदापि उन्होंने नहीं कहा। यह बात भी हमको तब कहना उचित है जब हमारी बुद्धि सुनते, समझते, विचारते, सर्वरूपेण स्थापित हो जाए। नहीं तो जिन्होंने अपने जीवन का अधिक से अधिक समय प्रेमानंद तथा परोपकार ही में बिताया है उनकी बातें प्राय: निर्दोष ही हैं।
उन सबका सिद्धांत केवत इतना ही रहा है कि लोग हानिकारक कर्मों को छोड़ें, अपनी तथा अपने सहवर्तियों की भलाई में तत्पर हों और हर से,लालच में चाहे प्रीति से, प्रेमस्वरूप जगदीश्वर के आश्रित बनें। यद्यपि इन महानुभावों के बचनों में कहीं-कहीं एक दूसरे से विरोध सा देख पड़ता है, पर मनस्वी की दृष्टि में वह वास्तविक विरोध कदापि नहीं है, क्योंकि "सौ सयाने एक मत" यह बात बड़े बुद्धिमानों ने बहुत सोच-समझ के कही है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जो पुरुष सैकड़ों बातें हमारे हित की कहे वह हमें धोखा देने के लिए कभी उद्यत हो। हाँ, हम स्वयं धोखा खारूँ वा हठवशात किसी के गुण में दोषारोपण कर लें तो उनका क्या दोष? इनके वाक्यों से प्रकट है कि यह किसी को अंधकार में रखना कभी न चाहते थे। तुच्छ बुद्धि कुछ का कुछ समझ लें वह दूसरी बात है, नहीं तो "बे वजह गुफ्तगू नहीं मर्दे फकीर की। सीधी ही समझते अगर उलटीं कबीर की।"
सच तो यह है कि प्रत्येक ज्ञानी का वचन वास्तव में कुछ भलाई ही सिखाता है। जिन्होंने कहा है "संसार झूठा है" वे निश्चय सच्चे थे। उनके इस कथन का तात्पर्य यह था कि सांसारिक विषय केवल थोड़े दिन के लिए हैं। अंत में वही "मूँद गई आँखै तब लाखैं किहि काम की।" अतएव उनके स्वादु में हमें ऐसा न लिप्त हो रहना चाहिए कि हम एंग्लोइंडियन लोगों की भाँति यह सिद्धांत कर लें कि "आप जियते जग जिए कुरमा मरे न हानि।" ऐसे ही जिन्होंने जगत् को सत्य माना है वे भी सच्चे हैं क्योंकि वे समझते थे कि जो संसार सर्वदा मिथ्या ही मान लिया जाए तो हम भी मिथ्या हो जाएँगे और हमारे अवश्य कर्तव्य धर्म कार्य भी मिथ्या ठहरैंगे।
यदि किसी बुद्धि के शत्रु ने सत्कर्म मिथ्या समझ लिया तो उसने अपना तथा अपने मित्रों का जन्म ही नष्ट कर दिया, जैसा राजर्षि भर्तृहरि जी का सिद्धांत है कि 'येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:। ते मर्त्य लोके भुविभारभूता मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति।' अब हमारे सर्वहितैषी सज्जन विचार लें कि उपरोक्त दोनों बातें यद्यपि परस्पर विरुद्ध-सी ज्ञात होती हैं पर वस्तुत: दोनों का झुकाव यही है कि यावज्जीवन मनुष्य को निरा निजस्वार्थी न होकर प्रसन्नतापूर्वक सद्नुष्ठानों में लगे रहना चाहिए। यों ही जिन्होंने कहा है कि सब ब्रह्म ही है उनकी मनसा थी कि ऐसा कोई काम तथा कोई स्थान नहीं है जहाँ हम प्रेम चक्षु से ब्रह्म केा न देख सकें; तथा जिन्होंने धर्मानुष्ठान ही के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया तथा जन्म भर 'सत्यंवद धर्मंचर' इत्यादि ही उपदेश करते रहे उनका यह तात्पर्य कदापि न होगा कि लोग निरे अनीश्वरवादी नास्तिक हो जाए। क्या जाने उन्होंने यह समझा हो कि यदि आत्मा शुद्ध नहीं है, यदि अहिंसादि सत्कर्मों में प्रीति एवं पूर्ण श्रद्धा नहीं है तो केवल मुख से ब्रह्म-ब्रह्म चिल्लाना व्यर्थ है।
ईश्वर के विषय में तो केवल गूँगे के गुड़ की भाँति अनुभव के बिना कुछ कहना सुनना बनता ही नहीं। अनुभव सिद्ध लोग जो कहते हैं सब सत्य ही है। क्या यह बात झगड़ालुओं की समझ में आ सकती है? वहाँ तो 'एक कि दोय'? न एक न दोय। 'वही कि यही?' न वही न यही है। 'शून्य कि स्थूल'? न शून्य न स्थूल। 'जहीं कि तहीं?' न जहीं न तहीं। 'मूल कि डाल?' न मूल न डाल। 'जीव कि ब्रह्म?' न जीव न ब्रह्म। 'तो है कि नहीं नहीं?' कुछ है न नहीं है। इसी भाँति उस अतर्क्य की उपासना भी उतर्क्य है। जैसा श्रीवल्लभाचार्य स्वामी की आज्ञा है कि सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिप:। सोई सब महानुभावों में देख पड़ता है। शंकर स्वामी ने 'अहंब्रह्मास्मि' कहा। सो प्रेम की पराकाष्ठा से आंकार व नास्तिक्य से नहीं। 'अनलहक' कहने को मंसूर के कोई नहीं समझा। वह खुद को भूल जाते हैं जो उसकी याद करते हैं। पर यह बात कहने व शास्त्रार्थ करते फिरने की नहीं है, केवल आत्मा में उस आश्चर्यमय का अनुभव करो। आनंद के जोश (उमंग) में जो निकलेगा सच ही है। इसके बिना वही 'कलौ बेदान्तिनों संति फाल्गुने बालका इव' की गति होनी है।
हमारे सर्वथा मान्य श्री भारतंदूजी ने कहा है 'जो हैं तुम से जुदा व' मेरे लेखे रब या राम नहीं। यार तुम्हारे सिवा दुनिया से मुझे कुछ काम नहीं।' अथवा 'प्यारे प्राण नाथ पिय प्रियतम सुनतहि हियो जुड़ात। ईश्वर ब्रह्मनाम हौ बासे कानन फारे खात'। क्या कोई सहृदय इन वचनों को नास्तिकता कह सकता है? यह भी प्रेम की सर्वोच्च पदवी में वक्तव्य है। सारांश यह है कि देशकाल तथा मनोवृत्ति के अनुसार महात्मा लोग अमृतवाणी कह देते हैं। वह उनकी और परमेश्वर की रहस्य बातें हैं। उनका अर्थ ठीक-ठीक वही समझ सकता है जो उन महात्माओं का सा मन रखता है। दूसरों को अधिकार नहीं है कि उन प्रेम वाक्यों का अर्थ बिगाड़ें। यह बात कुछ दिन आत्मानुभव का अभ्यास करने से समझ में आ सकती है। नानक जी पंजाबी खत्री ने (उनके यहाँ जिसे बहुत प्यार करते हैं उसे राजा अथवा गुरू कहते हैं, सो उन्होंने) प्रेमानंद में मत्त हो के परमेश्वर की अलौकिक छवि पर रीझ के 'बाह गुरू' कहा होगा, जिसको उनके बनावटी चेलों ने तथा दूसरे मतवालों ने कुछ कुछ ठहरा लिया है। इसी प्रकार अन्यान्य भक्तों की बातों का प्रयोजन खोजने से जान पड़ता है।
कहाँ तक कहें, बड़ों की बात में बड़े-बड़े अर्थ तथा बड़ी-बड़ी शिक्षा होती है पर उनका समझना सबका काम नहीं है। तैसे ही इनके चरित्र भी अधिकतर सो उत्तम ही होते हैं। हाँ, यदि किसी विशेष कारण से मनुष्य की निर्बल प्रकृत्यानुसार कोई काम ऐसे हो गए जो साधारण दृष्टि में बुरे हैं तो भी उचित नहीं कि हम उन्हें नीच व कुकर्मी कहें। निर्दोष अकेला परमात्मा है। पर सर्वसाधारण लोगों के दुष्कर्मों की अपेक्षा उन लोगों में कदाचित् शतांश बुराई भी न निकलेगी। चोरी, जारी, विश्वासघात, जीवबधादिक वास्तविक घोर पाप तो किसी के चरित्र में पाए ही नहीं जाते। फिर क्यों, उन्हें तुच्छ समझा जाए। चंद्रमा में कलंक सही पर उसकी अमृतमई किरणों तथा अपूर्व शोभा में उस कलंक से क्या हानि? यो भी न मानो तो उनके बचन बुराई सिखाते ही नहीं हैं।
रहे शारीरिक कर्म, सो अब उसमें तुम्हारी क्या क्षति? अब उनसे तुम्हें किसी प्रकार का संबंध नहीं रहा। फिर क्यों किसी की निंदा की जाए? कबीर जुलाहे थे तो हों, किसी कनवजिया से नातेदारी करने तो नहीं आवेंगे। हमारे इतने लंबे-चौड़े कथन का सारांश यह है कि दुराग्रह छोड़ के हर एक धार्मिक एवं विद्वान के सिद्धांत देखने से शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक सहस्त्रावधि उपकार हो सकते हैं, जिनके लिए चाहिए कि हम उन उपदेष्टाओं को कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद दें। उन्होंने अपने जीवन का अधिकतर भाग ऐसे कामों में बिताया है जो हमारे अनेक हित साधन में उपयोगी हैं। परंतु हाय, पक्षपाती, कलहप्रिय, संकीर्ण बुद्धि मतवालों! तुमने हार जीत की धुन में ऐसा अनर्थ उठाया कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया अथच उन पूजनीय पुरुषों का महत्व मिट्टी में मिलाने पर उद्यत हो गए। हाय-हाय क्या हमारे यतिराज श्री मद्रामानुजाचार्य, शिवस्वरूप सत्याचार्य शंकर स्वामी प्रभृति ऐसे थे कि उन्हें सड़े सड़े सांसारिक क्षुद्र कीट, माया के गुलाम (साधारण मनुष्य) मायावादी, पाखंडी, नास्तिक इत्यादि दुष्ट वाक्य कहें। शिव शिव!! ऐसे कुवाच्य किसी को कहना महा अनुचित है, न कि ईश्वारानुरागियों को। पर किया क्या जाए, उन्हीं के संप्रदायी उन्हें गालियाँ खिलाते हैं। यह लोग बुद्धिमान हों तो काहे को दूसरों को कहैं। क्यों अपनों को कहलावैं। क्या यह भी कोई धर्म है कि किसी समाज के मान्य पुरुष को व्यर्थ दोषी ठहराना और अपने गुरुओं की अप्रतिष्ठा कराना। वही अपने दोष देखते तो सब मतावलंबी तुम्हारे मित्र हो जाते और तुम्हारा तथा तुम्हारी मातृभूमि का अमित उपकार होता। भाइयो, बहुत दिन लड़ चुके, यदि भला चाहते हो तो अब भी हमारी सुनो।