मताए कूचा में खड़े हैं गुनाहगारों की तरह / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 अक्तूबर 2015
फिल्मकार संजय गुप्ता ने हमेशा किसी विदेशी फिल्म की 'प्रेरणा' (नकल के इस रूप को प्रेरणा ही कहा जाता है) से हिंदुस्तानी फिल्में बनाई हैं और अपनी एक ऐसी ही फिल्म को अपने मित्र संजय दत्त के साथ भागीदारी में बनाने के लिए उन्होंने 45 दिन अमेरिका में शूटिंग की थी और वहां के भुगतान के लिए कुमार गौरव की बहन के पति परेल से लिया गया पैसा शायद आज तक नहीं लौटाया है परंतु गौरतलब यह है कि अमेरिका में उन्होंने मात्र एक गोडाउन में शूटिंग की जो मंुबई या खंडाला में कम खर्च में की जा सकती थी। उस असफल फिल्म का नाम 'कांटे' था। बहरहाल, हम किसी फिल्मकार पर विदेश से प्रेरणा लेने की शिकायत कैसे कर सकते हैं, जब देश ही भीख का कटोरा लिए अनेक देशों में घूम रहा है? इससे सर्वथा और गैर-संबंधित गुलजार की लिखी एक पंक्ति याद अा रही है, 'रात भिखारन चांद कटोरा लिए घूमती है।' विदेशी धन से बने फ्लाई ओवर और अन्य चीजों के टोल टैक्स के रूप में जनता, सरकार के कर्ज दशकों तक चुकाती रहती है। शायद इसी तरह की बात कुछ यूं भी बयां हुई है, 'लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई।' जब कोई गलती वाला लम्हा सत्ता का आकार ले लेता है या लम्हा नफरत के आंदोलन में जन-समर्थन पाने लगता है तो कितनी सदियों तक भुगतान चलेगा यह आकलन असंभव है। जब अवाम ही आकंठ अलिप्त हो किसी नशे में तब कोई क्या कर सकता है। इस पर 'तनु वेड्स मनु' के गीतकार राज शेखर की पंक्ति याद आती है, 'खाकर अफीम रंगरेज ये पूछ रंग का कारोबार क्या है।'
पहले भारतीय फिल्मकार हॉलीवुड से माल उठाते थे परंतु विगत कुछ समय से कोरिया की फिल्मों से प्रेरित होते हैं। इस समय ईरान और कोरिया श्रेष्ठ फिल्में बना रहे हैं। क्या यह मुमकिन है कि अमेरिकी लोभ के शिकार देश के फिल्मकार गहन मानवीय संवेदना की फिल्में गढ़ने लगे? अन्याय व शोषण आधारित समाज साहित्य व सिनेमा की गिज़ा (गुराक) होता है परंतु यह आश्चर्य है कि वर्तमान में कुछ कवि ही खूब जमकर अभिव्यक्त हो रहे हैं। इस सबसे ज्यादा भयावह यह है कि किसी के लिखे का कोई प्रभाव समाज पर नहीं पड़ रहा है। अजंता की कला एक हजार वर्षों में कई पीढ़ियों ने रची है। एक पीढ़ी ने जहां काम रोका, वहां से आगे दूसरी पीढ़ी ने बढ़ाया परंतु सामूहिक अवचेतन की फिसलन व सीलनभरी भीतों पर कोई कृति या छवि टिकती ही नहीं है। आज रचो, कल सब गायब है। यह फिसलन व सीलनभरी भीतें बाजारबाद का नतीजा है।
बहरहाल, ऐश्वर्या राय बच्चन, इरफान खान, शबाना आज़मी और जैकी श्राफ अभिनीत 'जज्बा' तलाकशुदा वकील साहिबा की अपनी मासूम बच्ची को अपहरणकर्ता से बचाने की कहानी है और रोचक थ्रिलर की तरह गढ़ी गई है। वकील साहिबा और उनके बाल सखा के बीच की प्रेम-कहानी के कुछ संकेत मात्र है। एक दुष्कर्म व कत्ल की गई कमसिन की मां असंभव-सा खेल रचती है कि अपनी बेटी के कातिल को अदालत छोड़े ताकि वह उसे अपने निर्मम ढंग से मार सके। यह प्लॉट ताश के खेल ब्रिज से भी कठिन है कि आपको शेष तीनों के हाथ के पत्तों और चाल का आकलन करना होता है। थ्रिलर ढांचे में ही यह निहित है कि कई बातों को गुप्त रखा जाए और दर्शक की रुचि बनाए रखने के लिए उसे आश्चर्यचकित करते रहना पड़ता है, भले ही उसके लिए झूठे संकेत रचना पड़े।
इस थ्रिलर में दर्शक की निगाहेें परदे पर ही लगी रहती है परंतु हमारे कलाकारों की छवि कुछ ऐसी है कि फिल्म में जैकी श्राफ और शबाना के प्रकट होने से कुछ अंदाज लग ही जाता है। इस तरह की भूमिकाएं हमेशा नए चेहरों को देनी चाहिए। परंतु फिल्म बनाने का अर्थशास्त्र ऐसा है कि जाने-पहचानों की भीड़ जुटाने पर ही माल के बिकने के अवसर बनते हैं। इस फिल्म के सारे प्रमुख पात्र गुनाहगार हैं। पहले ही दृश्य में वकील साहिबा ने मुकदमा जीतने के लिए एक साक्ष्य की चोरी करवाई है और इस बार जिस जरायम पेशा मुजरिम को बचाया है वह अपने वचन के अनुरूप बतौर शुकराना वकील साहिबा के अपनी बेटी के मुकदमे में असली मुजरिम को अदालत ले आता है। अत: वकील साहिबा बेदाग नहीं हैं। उनका बाल सखा एक सस्पेंडेड पुलिस वाला आदतन रिश्वतखोर है। इस तरह नायक और नायिका दोनों ही गुनाह कर चुके हैं। दुष्कर्म के बाद मरी हुई कमसिन नशे की आी थी और उसकी मां स्वयं एक लंबा षड्यंत्र रचती है। नशा करने वाले अअमीरजादे का नेता बाप भ्रष्ट है। सारांश यह है कि यह चार गुनाहगारों और कत्ल हुई नशाखोर कमसिन की कहानी है। यही कारण है कि इस फिल्म में परिस्थितियों द्वारा जन्मी कुछ संवेदना के क्षणों को जीने वालों के गुनाहगार होने के कारण सच्ची संवेदना भी झूठी-सी लगती है। ऐश्वर्या राय ने परिश्रम किया है परंतु परिश्रम प्रतिभा का पर्याय नहीं है।