मत्स्यगंधा के देश में / प्रताप दीक्षित
सहाय साहब शेविंग कराने के लिए किसी सैलून की तलाश में निकले थे। सुबह जल्दी उठ वाशबेसिन पर लगे आइने में चेहरा देखा। निरी, असहाय ओर वृद्ध। तीन-चार दिनो में चेहरे सफेद झाड़ियाँ-सी उग आई थीं। दो दिन तो टेªन में ही बीत गए थे। देखा तो सामान में शेविंग-किट नहीं थी। घर में छूट गई होगी। पहले उन्होने पत्नी को जगा कर दरयाफ्त करना चाहा। घर पर होते तो लापरवाही के लिए स्पष्टीकरण भी मांगते। वह जब्त कर गए। अब तो हर कहीं यही करना पड़ता है। पहले उनमें बर्दास्त का माद्दा था भी कहाँ। यह बदलाव तो रिटायरमेट के बाद आया था।
बेटी जानती थी कि बेटे-बहू के विदेश जाने ओर वहीं बस जाने के बाद पापा-मम्मी नितांत अकेले पड़ गए हैं। दामाद ने भी इसरार किया था। वातानुकूलित शयनयान के टिकट कूरियर कर दिए थे। बेटी-दामाद स्टेशन पर लेने आ गए थे। स्टेशन से घर दूर था लेकिन दामाद की गाड़ी थी, अतः कोई असुविधा नहीं हुई।
जहाँ तक बात नफासत की है, विद्यार्थी जीवन में जब उनके पास एक पतलून-कमीज होती थी, रात में धोकर सुबह इस्तरी कर लेतें। पुराने लेकिन पालिश से चमकते जूतों में वह सहपाठियों में अलग ही दिखते। अब तो पत्नी ने सब सम्हाल लिया थां रात में सोने के पहले वह नियमित रूप से स्नान करते। बाहर बिस्तर पर धुला, कलफ-प्रेस किया हुआ कुर्ता-पाजामा रहता। चाय, पानी पीते, चाते समय सुड़कने, चप-चप की आवाज़ करने वालों को वह ज़ाहिल, गंवार कहते। बेकारी, गरीबी, पिछड़ेपन आदि समस्याओं के लिए उनके अनुसार शास्वत कारण थे- आलस्य, गैर जिम्मेदारी, अनुषासनहीनता और बढ़ती जनसंख्याँ। वह स्वयं कड़े परिश्रम ओर अध्यवसाय से निचले पायदान से इस स्तर तक पहुँचे थे।
उनका रक्तचाप बढ़ा रहने लगा था। पत्नी और बड़े होते बच्चे उन्हे समझाने की कोशिश करते। वह फट पड़ते- इस सब को अनदेखा कर मूक दर्शक बना रहूँ? फिर इनमें और मुझमें अंतर क्या रह जाएगा? ढोरों के बीच मैं भी ढोर बन जाऊँ? उन्हे लगता समय के साथ परिस्थितियाँ और विषम होती जा रही हैं। रिटायरमेंट पास आ रहा था। दफ्तर में लगता उन्हे देख अभी अभी कानाफूसियाँ रुकी हैं। किसी अनियमितता पर डांटने के बाद, उन्हे प्रतीत होता, लोग मुस्कराहट दबाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस महीने उन्हे रिटायर होना था, उन्होने महसूस किया कि बाढ़ ने नियमों के तटबंध तोड़ दिए हैं। काम पेंडिंग रहता, सीटों से लोग गायब रहने लगे। लेन-देन की प्रक्रिया चोरी छिपे चालू हो गई है। यद्यपि ऊपर से सबकुछ सामान्य और यथावत दिखने का प्रयास चल रहा था।
रिटायरमेंट के बाद सरकारी बंगला, गाड़ी तो जानी ही थी। वह एक फ़्लैट में शिफ्ट हो गए थें। पुरानी मारुति 800 घर में थी। जाना भी कहाँ था। शुरुआती दिनो में कभी कभी क्लब, गिने-चुने मित्र, यदा-कदा पुराने दफ्तर चले जाते। दफ्तर में उनका स्वागत होता, लेकिन वहाँ दिनचर्या देख वह क्षुब्ध हो जाते। उनके हमउम्र मित्र उन्हे निराश बूढ़े नज़र आते होते। क्लब, लायब्रेरी सभी जगह एक ही-सी हालत थी। वहाँ बरसों से नई किताबे नहीं आई थीं। उन्हे लगता कि पुरानी किताबों की धूल भरी सीलन सभी जगह फैल गइ्र हैं बर्फ की चट्टानो में तब्दील एक अदृष्य शीतलहर से घिरे हुए पातें धीरे धीरे उनका बाहर निकलना बंद-सा हो गयाँ। माॅर्निंग वाक पर वह सुबह जल्दी ही निकल जाते। बाद में लिफ्ट में अफरा तफरी रहतीं। लोग निर्धारित से कहीं जयादा संख्या में भर जाते। मुंह से कुछ देर पहले किए गए नास्ते-आमलेट, लहसुन अथवा पान मसाले की तेज गंध, पसीने की बदबू दबाने के लिए उसे ओर उद्धत करती डिओडोरेण्ट की बेधती लहर उन्हे बेचैन कर देती। ऐसे वक़्त यदि जाना ज़रूरी होता तो वे सीढ़ियों का उपयोग करते। बहुत पहले एक बार उनका ड्राइवर, उनके आने तक, शायद बीड़ी पी रहा होगा। उनके अति संवेदनषील नासारन्ध्रों में हवा में उपस्थित बीत चुकी गंध असह्य हो गई। उन्होने उसे इस बुरी तरह डंाटा था कि उनकी जानकारी में, उसने भविष्य में फिर कभी धूम्रपान नहीं किया था।
सुरुचि, स्वच्छता, वार्तालाप ओर छोटी छोटी बातों में भी आभिजात्य के प्रचिलित तरीके उनकी जीवन शैली का अविभाज्य अंग बनते गए। यह उनकी परिवेशगत विवशता थी या बचपन से युवावस्था तक किए गए संघर्षों की विपरीत प्रतिक्रिया, उन्हे स्वयं नहीं मालूम। लेकिन यह सच था कि उन्हे इसमें अनुचित कुछ भी न लगता।
यादों की पिटारी खोल वे कितनी देर चलते रहे पता ही न चला। वे वर्तमान में लौटे। उन्होने देखा कि चटख धूप निकल आई है। घर से निकले देर हो गई थी। जाने कितनी देर वे चलते रहे थें। चैेराहे से मुड़ कर सामने ‘केश कर्तनालय’ का द्वि-भाषी बोर्ड दुकान पर लगा थां। शीशे के बड़े दरवाजे पर पर्दे। अंदर सोफों पर अपनी बारी के लिए लोग प्रतीक्षारत थे। उन्हे लगा कि देर लगेगी। नई जगह मजबूरी थी। वे बैठ गए। एक काउण्टर पर हाथ का काम ख़त्म कर सैलून के मालिकनुमा व्यक्ति ने नम्रता से उनसे आने के लिए कहा। तीन-चार लोग पहले से बैठे थे। उन्हे आश्चर्य हुआ। लेकिन उनसे ही कहा गया था। बैठे लोगों ने भी सहमति में सिर हिलाते हुए उन्हे जाने के लिए कहा। उनको लगा उन लोगों ने उनकी उम्र का लिहाज किया है। हजामत के बाद उनका चेहरा जैसे बदल गया था खिला खिला सा। उन्होने कुर्ते की जेब में हाथ डालते हुए प्रष्नवाचक दष्टि से उसकी ओर देखा।
‘पांच टाका, सर!’ उसने कहा थां उन्हे लगा कि दुकान की हैसियत देखते हुए रेट बहुत कम थे।
दुकान से निकलते समय वह मुदित थे। उन्हे बहुत दिनो बाद छोटी-सी ख़ुशी -यथोचित मान-सम्मान- प्राथमिकता मिली थी। वह उसी में मग्न चलते हुए चौराहे तक आ गए। चौराहे से बाएँ मुड़े, कुछ दूर तक सीधे चलने के बाद उन्हे लगा कि वह किसी दूसरे रास्ते पर आ गए हैं। सुबह वाली रास्ते की पहचान गडमड हो गई थी। वह फिर लौटे, दूसरी दिशा की ओर चल दिए। दूर तक चलने के बाद दूसरा चौराहा था, अनजान सा। एक सड़क से दूसरी, फिर एकदम नई। वह भ्रमित हो गए। एक तो सुबह जब वे निकले थे दुकाने बंद थीं। इस समय दुकाने खुल चुकी थीं। सड़कों की सुबह वाली पहचान गुम हो गई थी। दूसरे, वह चल ज़रूर इन सड़कों पर रहे थे, लेकिन पूरे समय वे बीत गए कल की तलाश में रत रहे थें। अवकाश ग्रहण के बाद अकसर ऐसा होता। वह वर्तमान के रथ पर सवार अतीत की यात्रा पर निकल जाते। उन्होने लौटना चाहा, परंतु इस बार बिल्कुल नए रास्ते पर आ गए। अब किसी से पूछना ही पड़ेगा। लेकिन उन्हे तो अपने दामाद का एपार्टमेंट, लेन का नाम कुछ भी याद नहीं था। कल ही रात तो आए हैं। ईडेन, जेनेक्स, प्रान्तिक ऐसा या कुछ और? उन्होने ध्यान ही नहीं दिया। उन्हे दामाद के एपार्टमेंट का बाहरी द्वार ओर मूँछों वाले दरबान का चेहरा ही धुंधला-सा याद था। बेटी ने फ़ोन पर पता बताया ज़रूर होगा। उन्होने तवज्जो नहीं दी थीं। डायरी में पत्नी ने लिख भी लिया था। लेकिन उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। वे लोग तो उन्हे स्टेशन पर लेने आ गए थे। डायरी भी सामान के साथ घर पर ही थी।
उन्होने दामाद का फ़ोन नम्बर याद करने की कोशिश की, परन्तु नया तो दरकिनार, उन्हे तो उसके पुराने शहर का नम्बर भी नहीं याद था। दरअसल, इस तरह की सभी जिम्मेदारियाँ पत्नी ने सम्हाल रखी थीं। ज्यादातर तो, लगभग प्रतिदिन, बेटी ही फ़ोन कर लेती। मोबाइल तो उन दिनो थे नहीं। वह थक गए थे। ज़्यादा पैदल चलने की आदत भी तो नहीं थी। उन्होने प्रयास किया कि शायद कोई दामाद को नाम से जानने वाला मिल जाए। अभी कुछ दिनो पहले ही तो तबादले पर आया है। स्टील कम्पनी में बड़ा अफसर है। लेकिन असफलता ही हाथ लगी। हजारों तो मल्टी नेशनल कम्पनियाँ हैं यहाँ।
उनका दिशा ज्ञान ही नहीं, समय बोध भी समाप्त हो गया। कितनी देर हो गई घर से निकले। वह एक भूल-भुलैया में फंस से गए थे। पत्नी, बेटी, दामाद अलग से परेशान हो रहे होंगे। उनके पास पैसे भी अधिक नहीं थे। सुबह घर से चलते समय पर्स से निकाल, थोड़े नोट-फुटकर पैसे, जेब में डाल लिए थे। उन्होने एक आटो-रिक्शा रोका। उसे अपनी समस्या बताई- मैं अभी कल ही यहाँ आया हूँ। रास्ता भूल गया हूँ। मैं अपना एपार्टमेंट देख कर पहचान लूंगा। पैसे जो भी होंगे वहीं चल कर दे दूंगा।
वह आटो पर कई घण्टों तक घूमते रहे। बस इस चैराहे से बांएँ, अच्छा ज़रा-सा वापस चल कर दाएँ घूम कर चलो। उन्हे याद-सा आता लगता- इस पार्क से घूम कर सीघे। उन्हे लगता इस मोड़ के बाद वाला ही एपार्टमेंट है, परंतु पास जाकर वह दूसरा निकलता। वह दुकानो, मकानो पर लगे होर्डिंग्स पढ़ते जाते- कुलिया, माझेर पारा, हेमचन्द्र नस्कर रोड, सुरेश चन्द्र बनर्जी स्ट्रीट आख़िर कैनिंग स्ट्रीट पार हो गई। बेली घाट से काफ़ी दूर जाकर उसने आटो रोक दिया - बस साहब मेरा पेमेण्ट कर मेरी छुट्टी करें। अब आप दूसरा आटो कर लें। चार बजे गाडी जमा करने का वक़्त हो गया है।
सहाय साहब हलकान हो गए थे- लेकिन भाई मैने तो पहले ही कह दिया था कि भाड़ा घर चल कर दूंगा। तुम मुझे घर तक पंहुचा दो। थोडा वक़्त और लगेगा। लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उन्होने असहायता से इधर उधर देखा। आसपास ढलवां छतों वाली पुरानी बस्ती थी। विवाद सुन कर लोग इकट्ठे हो गए। पुरुषों के साथ बच्चे और औरतें भी। उनकी जेब में, उन्होने गिने, कुल मिला कर सत्तर के करीब रुपए थे। वह डेढ़ सौ मांग रहा था। आख़िर भीड़ के बीच कुछ लोगों ने स्थिति समझी। उन्होने आटो वाले को समझाया। वह उतने ही लेकर भुनभुनाता चला गया। सहाय साहब ने आश्वस्तिकी सांस ली। अनुग्रहीत नजरों से उनकी ओर देखा। लगभग सभी आबनूस से काले, अर्द्ध नग्न, स्वस्थ देह यष्टि के। उनका गला प्यास से सूख रहा था। बस्ती में घरों के बाहर चारपाइयाँ, मोढ़े, बेतरतीबी से पड़े हुए थे। थकावट के कारण उनके लिए खड़ा होना मुश्किल था। वह उधर बढ़े, बैठना चाहते थे। वह अपनी परेशानी बताते, इसके पहले उन्हे एक युवक और दूसरी ओर से एक युवती ने सहारा दिया। वह एक चारपाई पर ढह से गए। युवती एक लोटे में पानी और एक गिलास ले आई थी। उन्होने मुंह धोया, आंखों पर पानी के छींटे मारे और बिना गिलास के लोटे से पानी गट गट पी खाली कर दिया। अब उन्होने देखा। बस्ती शायद मछुआरों की थी। घरों के दालानो, उसके सामने और फैले हुए मैदान में जाल फैले हुए थे। टोकरियों में छोटी-बड़ी मछलियाँ सूख रही थीं। जिनकी बास पूरे वातावरण-हवा में घुली हुई थी। लेकिन इस समय वह उन्हे असहनीय नहीं लगी। तब तक युवती अल्युमीनियम की एक साफ़ थाली में चावल और झोलदार सब्जी के साथ दूसरी रकाबी में सन्देश ले आई थी। उन्होने मछलियों के ढेर की ओर देख कर बेबसी से कहना चाहा- ‘आमि निरामिष!’
युवती हंसी। गहरे काले रंग के बीच दूध-सी उजली हंसी झलकी- ‘एते माछ नेई - -।‘
वह खाने पर टूट पड़े थे। उंगलियाँ ही नहीं, ठोढ़ी, नाक सब लिथड़ गए थे। खाना खतम कर उन्होने ज़ोर से डकार ली, नजरें उठाईं। युवती के होंठों पर मुस्कान, आंखों में महले कौतूहल फिर वात्सल्य झलका था। बिना कुछ कहे कितना कुछ कहती हुई । उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि अभिव्यक्ति कभी भाषा की मोहताज नहीं होती। वह रात उनकी बस्ती में ही बीती। अंदर कमरे में उनका बिस्तर लगा दिया गया था। मेहमान के लिए धुली चादर-गिलाफ निकले थे। उन्हे याद आया- उनके समाज में अजनबी तो दूर, निकट के अतिथि भी अब होटल में ठहरने लगे थे। खुली खिड़की से कमरे में चांदनी के साथ साथ मछलियों की गंध भी समाई हुई थी। शरीर के क्लांत होने पर भी मन गहरी विश्रांति में डूब चुका था। कब सो गए? ऐसी नींद उन्हे बरसों से नहीं आई थी।
दीगर बाते महत्त्वहीन हैं। देर रात तक लड़कों ने, जहाँ वे मछलियों की पैकिंग के लिए स्टील के क्रेट्स लेते, तमाम संपर्कों के माध्यम से, स्टील कम्पनी में कार्यरत उनके दामाद का पता मालूम कर लिया था। अगले दिन देर से जागने के बाद वे चलने के लिए तैयार हुए। आटो-रिक्षा में उनके दोनों ओर दो युवक, सहारा देने के लिए, बैठ गए थे। बादल घिर आए थे। बूंदे गिरीं थीं। सूखती मछलियों, युवकों के बदन से बहते पसीने ओर न जाने कब से न बदले गए कपड़ों के साथ साथ ज़मीन पर मौसम की पहली बारिस से उठी सोंधी महक से मिल कर सृजित एक नई मनोरम गंध ने उन्हे सम्मोहित कर लिया था। आटो के बाहर उनकी मेजबान युवती के उज्ज्वल दांतों की बिजली-सी कौंधी थी। उन्हे आश्चर्य हुआ, कामाख्या में देवी की मूर्ति के रंग बदलने की सुनी गई किवदंती की भांति, युवती की आंखों में कल के कौतूहल, फिर वात्सल्य के बाद इस समय विदाई के विषाद के भाव उपजे थे। उन्हे कुछ धुंधला-सा दिखा। गला भी कुछ भर-सा आया था, रात में ठंडक भी तो थी। उन्होने चश्मा उतार कर पोंछा, अभी पिछले महीने तो नम्बर बदला है। शायद उम्र का असर होगा। युवती की आंखों में, आकाश के बादलों की तरलता उतर आई, उन्हे महसूस हुई थी। वे गणित के मेधावी छात्र रहे थे, परंतु यह समीकरण सुलझाना उनके लिए कठिन था। उनके मन में कौंधा था, इस एक पल को संजोने के लिए क्या पूरे जीवन का मूल्य भी कम नहीं है?