मदर्स डे / अंजना वर्मा
सवेरे-सवेरे टेलीफोन की घंटी बजी। नीता शर्मा ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया, “हलो, मैं नीता शर्मा बोल रही हूँ।”
“हलो ममा! हैप्पी मदर्स डे!” उधर से उनकी बेटी अमिता की चहकती हुई आवाज सुनायी पड़ी।
“थैंक यू-थैंक यू बेटा। बोलो कैसी हो? मुन्ना कैसा है?” नीता शर्मा ने खुश होकर जवाब दिया।
फिर नीता शर्मा के लंबे वार्तालाप की शुरुआत हो गयी जिसे अभी कम-से-कम पन्द्रह-बीस मिनटों तक तो चलना ही था। आज मदर्स डे पर बेटी की ओर से उनके मातृत्व के लिए उन्हें हार्दिक बधाई मिली थी। जिससे उनका मन गद्गद हो उठा था। उन्हें लगा था कि दुनिया की सबसे खुशनसीब माँ वही हैं। बातें करते हुए खुशनसीबी का एहसास उनके शब्द-शब्द से झर रहा था। उनकी बेटी नयी-नयी माँ बनी थी। फोन पर उस नन्हे सदस्य की बातें ही अधिक हुईं। बात-चीत जब खत्म हो गयी तो रिसीवर रखकर नीता शर्मा सोफे पर बैठी-बैठी बड़ी देर तक तरह-तरह की बातें याद कर सुखी होती रहीं।
अभी तीन महीने पहले अमिता को बेटा हुआ था। खबर मिलते ही नीता शर्मा अपने पति के साथ विमान से दिल्ली पहुँच गई थीं। नर्सिंग होम में प्यारे-से नवासे को देखकर शर्मा दम्पत्ति हर्षित हो गये थे। घर आने पर सबकी ममता का केन्द्र वह नवजात सबसे महत्त्वपूर्ण सदस्य सिद्ध हो रहा था। घड़ी के संकेत पर उसके सारे काम असीम वात्सल्य के साथ से निपटाये जाते थे। अमिता और उसके पति प्रवीर के लिए जीवन का यह नया अंकुर एक खिलौना बन गया था। दोनों हर समय उसी की चिन्ता में लगे रहते। प्रवीर बच्चे के पास अपना दिल छोड़कर दफ्तर जाता और दफ्तर से भी दिन में दो बार फोन करके उसके बारे में पूछता। जब तक वह घर में होता बच्चे की देख-रेख में सहायता करता। लेकिन कभी-कभी रात में वह नन्हा इतना रोने लगता कि दोनों उसे सुलाने की कोशिश करते बेहाल हो जाते। तब अमिता बच्चे को ले लेती और प्रवीर को सोने देती! बच्चे को गोद में लिए किस तरह अधमुँदी पलकों से सोते-जागते रात बीत जाती, पता भी न चलता। उस समय नीता शर्मा उनके जागरण में हिस्सा नहीं बँटा पाती। सुख-सुविधा में पला हुआ उनका शरीर बच्चे को सुख देने के लिए थोड़ा-सा भी दुख उठाने को तैयार नहीं होता था। अब इस बच्चे वाले घर का माहौल उन्हें काम से भरा दिखायी देने लगा था। इसलिए हफ्ते-भर के भीतर ही वह ऊब गयीं। उन्हें लगता कि सारे काम की जिम्मेवारी उन्हीं पर है। इसलिए बच्चे की छट्ठी समारोह के बाद शर्मा दम्पति चले गये। नौकरीपेशा होने के कारण भी इससे अधिक समय दे पाना नीता शर्मा के लिए संभव नहीं था। वह अमिता से दो-एक बार कह चुकी थीं कि एक नौकरानी के बिना काम चलनेवाला नहीं है।
नीता शर्मा की दिनचर्या में फुर्सत के क्षण बहुत कम थे। दफ्तर से आने के बाद वह बिस्तर पर लेट जातीं और कुछ अंग्रेजी पत्रिकाएँ उलटने-पुलटने लगतीं। उनकी सोसायटी में अक्सर पार्टियाँ होती रहती थीं जिनमें शरीक होना भी ज़रूरी होता था। जब पार्टी होती थी तो दिमाग का अच्छा-खासा व्यायाम हो जाया करता था। उस पार्टी में कौन-सी साड़ी पहननी है? उस साड़ी के साथ कौन-सी ज्वेलरी मेल खायेगी? हाथों में सिर्फ कंगन होंगे या भरी-भरी चूड़ियाँ? और परफ्यूम किस मूड का होगा? साड़ी के साथ चलनेवाली सैंडिल उनके पास है या नहीं? यदि नहीं है तो खरीद लेनी है। ऐसे बाजार का विकल्प तो हमेशा उनके लिए खुला ही रहता था। ऐसे मौके पर ब्यूटी पार्लर जाना भी जरूरी ही हो जाता था। पार्टियाँ उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी थीं। पार्टियों का पूरा लुत्फ उठाया करती थीं नीता शर्मा। बेटी के यहाँ से लौटकर आयीं तो दूसरे दिन ही एक पार्टी में जाना पड़ा। खाने की मेज के पास खड़ी उनकी सहेली विभा ने कहा, “बधाई नीता! अब तो तुम नानी बन गयी।”
नीता शर्मा ने अपने गाल को उंगलियों से छूते हुए कहा, “ओह! इस बात को सुन-सुनकर मैं बोर हो गयी हूँ।”
विभा यह उत्तर सुनकर अचानक चुप हो गयी थी और उनकी ओर ताज्जुब से देखने लगी थी। वह सोच नहीं पायी कि अब इसके जवाब में क्या कहें।
माँ के जाने के बाद पहले-पहल माँ बनने के अनुभवों से गुजरती हुई अमिता के लिए बच्चे को सँभालना मुश्किल हो गया था। अकेले सारे काम करना आसान नहीं था। घर में कोई हाथ बाँटनेवाला न था। प्रवीर बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता था। वह सवेरे निकलता तो रात को आता। बारह-चौदह घंटों तक अमिता इस नन्हीं-सी जान को पल-पल देखती-सँभालती रहती थी। कभी बिस्तर पर सुलाती तो कभी गोद में। ऐसे में लगता कि कोई एक और सदस्य होता तो कम-से-कम बच्चे के पास बैठ तो जाता। यद्यपि नीता शर्मा बच्चे से जुड़े कामों को कर नहीं पाती थीं तो भी उनके रहने से एक सहभागिता का एहसास होता था। माँ के चले जाने से वह भी खत्म हो गया।
अनुभव नहीं रहने के कारण अमिता के लिए बच्चे की रुलाई के रहस्यों को समझ पाना कठिन था। वह फोन करके कभी माँ से पूछती तो कभी अपनी पड़ोसन मधु से, जो दो बच्चों की माँ थी। मधु हर दिन एक बार आकर जरूर पूछ लेती थी। इस कठिनाई का हल प्रवीर ने निकाला था। उसके गाँव में दूर के रिश्ते की बुआ रहती थीं। विधवा थीं। उन्हें कोई संतान नहीं थी। बहुत मुश्किल से अपनी ज़िन्दगी चला पा रही थीं। प्रवीर को अचानक उनकी याद आयी। उसने उन्हें खबर भिजवायी कि कुछ दिनों के लिए दिल्ली आकर उनके बच्चे को सँभाल दें। बुआ ने तुरंत प्रवीर का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। ख़बर मिलने के हफ्ते-भर के भीतर ही बुआ जी अपने एक परिचित के साथ दिल्ली पहुँच गयीं थीं।
बुआ जी ने जब प्रवीर के घर में प्रवेश किया तो खुशी से उनका चेहरा दमक रहा था। बैठक में बैठते ही सबसे पहले उन्होंने बच्चे को देखने की इच्छा ज़ाहिर की। उस समय बच्चा अमिता की गोद में दूसरे कमरे में सो रहा था। बुआ जी वहाँ जाकर ममता-भरी दृष्टि से बच्चे को देखने लगीं। फिर उन्होंने बच्चे को उठाकर अपनी गोद में ले लिया और वहीं पलंग पर बैठ गयीं।
बुआ जी ने आने बाद से बच्चे की देख-भाल की ज़िम्मेवारी इस तरह अपने ऊपर ले ली जैसे वह उनका ही बच्चा हो। उसके सोने-जागने के साथ उनका सोना-जागना जुड़ा हुआ था। समय पर मालिश करना, नहलाना-सभी कुछ वही करने लगी थीं। उनके हाथों का स्पर्श पाकर बच्चे का स्वास्थ्य भी निखर गया था। उस नन्हे के लिए उनकी आँखों से हमेशा स्नेह छलकता रहता था। उन्हें लगने लगा था जैसे अब वह भी उसी घर की एक सदस्या हैं। अमिता और प्रवीर उन्हें बहू-बेटा के समान लगने लगे थे। वह नन्हा उन्हें अपना पोता नज़र आने लगा था। उसकी मालिश करते समय वह अपने पैरों को पसार कर उसे अपने पैरों पर लिटा देतीं और फिर इत्मीनान से हाथ-पैरों में तेल लगा-लगाकर मलने लगतीं। बीच-बीच में ठुड्ढी छूकर कहती, “यह मेरा कृष्ण-कन्हैया है। बहुत शैतान है मेरा कृष्ण-कन्हैया।” और भी न जाने क्या-क्या उस अनबोलते के साथ बोलती रहतीं। कभी न खर्च हो पाये अपने मातृत्व को वह जितना ही लुटा रही थी, वह उतना ही बढ़ता चला जा रहा था। गोद में लेकर जब हल्की-हल्की थपकी देने लगतीं तो उनकी लोरी का पिटारा खुल जाता। वे गाने लगतीं, “आव रे खदन चिरैया पपरा पको.......।” उनका गीत सुनते ही नन्हा मीठी नींद का दामन थाम लेता था। बच्चे को उनकी गोदी की आदत लग चुकी। कितना भी रोता रहे, उनकी गोद में जाकर चुप हो जाता था। उसके सोने की सबसे आरामदेह जगह वही थी। अमिता को यह देखकर कभी-कभी कुढ़न भी हो जाती कि उसके बच्चे के लिए उसकी गोद से अधिक प्यारी कोई और गोद क्यों होगी?
बुआ जी हर समय अपने कृष्ण-कन्हैया को ही थामे रखना चाहती थीं। कभी-कभी उसे प्यार-भरी नजरों से देखती हुई अमिता से कहतीं, “बहू, इसका नाम रखना कृष्णमोहन या राजेन्दर बाबू।”
यह कहते हुए उनकी आवाज़ में आश्वास का स्वर भी मिला होता था जैसे उन्हें लगता था कि अमिता उनका सुझाया हुआ नाम ज़रूर रख लेगी। ऐसा परंपरागत नाम सुनकर अमिता के मन में गुदगुदी होने लगती और वह मुँह छिपाकर हँस लेती। एक दिन वह पूछ बैठी, “क्या बुआ, आप को राजेन्दर बाबू नाम बहुत अच्छा लगता है?”
बुआ उसकी हँसी पकड़ नहीं पायीं। वे बच्चे को सुला रही थीं। गम्भीर होकर बच्चे को कंधे पर ठपकी देते हुए बोलीं, “हाँ, बहुत। कितना अच्छा लगेगा जब यह सयाना हो जायेगा और लोग इसे बुलायेंगे राजेन्दर बाबू।”
अमिता फिर मुँह छुपाकर मुस्कुरायी थी। ऐसा कहने से थोड़ी देर के लिए उसका मनोरंजन हो जाता। पर बुआ जी इसे समझ नहीं पातीं कि अब ऐसे पुरातन पंथी नाम कौन रखता है। यह कहते-कहते उनकी आँखें एक सपने में खो गयी थीं-उस सपने में जिसे देखने का अधिकार उन्हें नहीं था। पर सपनों के लिए कोई अधिकार-क्षेत्र नहीं होता। तभी तो सभी सपने देखने लगते हैं। अब इनसे दुख मिले या सुख। बुआ जी को उस छोटे-से परिवार में रहते हुए किस तरह तीन महीने बीत गये पता भी नहीं चला। घर में रसोई बनाने से पोतड़े धोने तक का काम समय से हो जाता था। अब अमिता भी बच्चे की देख-भाल करना जान गयी थी। प्रसवकालीन कमजोरी भी दूर हो चुकी थी।
आज मदर्स डे था। आज बुआ जी अपने गाँव वापस जा रही थीं। एक पुराना घिसा हुआ ब्रीफकेस और एक झोला तो लेकर आयी थीं और दो-चार साड़ियाँ। उन्हें समेटने और रखने में कितना समय लगता? एक साड़ी बाहर डोरी पर फैली हुई रह गयी थी जिसे उतार कर वह तहा रही थीं तो प्रवीर आया। आते ही उसने पूछा, “बुआ जी, आपने अपना सारा सामान रख लिया है न? कहीं कुछ छूट तो नहीं रहा है?”
बुआ जी ने निस्पृह भाव से कहा, “नहीं। और छूट भी जायेगा तो क्या होगा?” उनकी आवाज में उदासी घुली हुई थी। तैयार होकर बुआ जी ने बच्चे को गोद में उठा लिया और कहा, “जाने के पहले कृष्ण-कन्हैया को खेला लूँ। अब पता नहीं इससे कब भेंट होगी! मुझे यह याद रखेगा भी?”
उसे गोद में लेकर बुआ जी उसे प्यार से देखती रहीं। न जाने क्या सोचती रहीं। फिर आँखों से गिर गयी बूँदों को आँचल से पोंछते हुए उन्होंने बच्चे को वापस अमिता की गोद में दे दिया। अमिता ने बुआ जी के चेहरे को देखा-सुंदर गोरा चेहरा। काले-सफेद खिचड़ी बाल। पर आज उनका चेहरा सुबह से बेहद गंभीर और उदास दिखायी दे रहा था। वह मुस्कुराहट जो हमेशा ओठों पर खिली रहती थी गायब थी। अमिता को इस क्षुण बुआ जी के लिए बहुत दुख लग रहा था। शब्दों में वह नहीं कह सकती थी, लेकिन उसकी अंतरात्मा कह रही थी, “आप मुन्ने के लिए रात-रात भर जागती रही जब कि मैं सोती रही। यह जानते हुए भी कि मुन्ने को छोड़कर आपको वापस जाना होगा आप उस पर अपनी ममता उँडेलती रहीं! बुआ जी आपका कर्ज़ मैं चुका नहीं पाऊँगी।” अमिता ने भी अपनी आँखें पोंछ लीं। मन खुले टेप की तरह बजता रहा।
बुआ जी भी बहुत-कुछ कहना चाहती थीं अमिता से, “देखो, मुन्ने पर ध्यान देना। बच्चे के पेट में दर्द हो तो अजवाइन से सेंक देना। कुछ कड़ी चीज मत खाना नहीं तो मुन्ने का पेट ऐंठेगा। अंग्रेजी दवाइयाँ मत खिलाना। ध्यान रखना। अब फिर मुझे कब बुलाओगी?” लेकिन कुछ कह न पायीं।
प्रवीर ने जल्दी से उनका सामान उठाकर कार में रख दिया था। बुआ जी बाहर चली। उनके पैर नहीं उठ रहे थे। लगा जैसे किसी डोरी से बँधी हुई हैं वह। किसी तरह अपने को खींचती हुई बाहर निकलीं और कार में बैठ गयीं। अमिता भी उन्हें विदा देने के लिए बाहर निकल आयी थी। कार स्टेशन की ओर बढ़ चली।
रेल स्टेशन पर लगी हुई थी। बुआ जी घबरायी हुई प्लेटफार्म की भीड़ में प्रवीर के पीछे-पीछे चप्पल घिसटती चल रही थीं। प्रवीर ने जब सहायता देकर उन्हें डब्बे के भीतर बर्थ पर बैठा दिया तो वे कुछ आश्वस्त हुई और आँचल से अपना मुँह पोंछने लगी। जल्दी चलते-चलते हाँफ गयी थीं। प्रवीर ने एक दर्जन केले खरीदकर उनके झोले में डाल दिये। सौ-सौ के कुछ नोट उनके हाथों में पकड़ाते हुए कहा, “यह रख लीजिये।”
बुआ जी के चेहरे पर संकोच और असमंजस के भाव उभरे और मिट गए। उन्होंने पैसे रख लिये। प्रवीर वहीं बर्थ पर बैठ गया। अभी रेल खुलने में कुछ समय बाकी था। बुआ जी को विदा देने की सारी रस्में पूरी हो गयी थीं। कहीं कोई कसर नहंीं हर गयी थी। अमिता ने सफर में खाने के लिये पूड़ियाँ भी बनाकर उनके झोले में रख दी थी। प्रवीर ने कलाई उठाकर घड़ी देखी। गाड़ी खुलने का समय हो चुका था। वह उठ खड़ा हुआ। उसने उनके पैर छू लिये और कहा, “अच्छा, अपना ख्याल रखियेगा”, यह कहते हुए वह तेज़ी से नीचे उतर गया।
रेल खिसकने लगी थी। बुआ जी ने बर्थ के नीचे झाँककर देखा-उनका पुराना ब्रीफकेस रखा हुआ था। बगल की खूँटी से उनका कंधे से लटकानेवाला सूती थैला भी झूल रहा था। उनका सामान उनके साथ था, लेकिन उन्हें लग रहा था कि उनका कुछ अमिता के घर में ही छूट गया है-उनकी कोई जमा-पूँजी रह गई थी शायद। कभी एक कौड़ी तो उनके पास रही नहीं। फिर क्या छूट गया था कि कुछ खो देने के गहरे एहसास की पीड़ा उनके कलेजे में समा गई थी? वे बेचैन हो गयी थीं और आँखें में भर आये आँसुओं को आँचल से पोंछने लगी थीं।
रेल की रफ्तार तेज़ होने लगी थी। सड़कं-पगडंडियाँ, झरबेरी के झाड़, कँटीले बबूल, टीन-टप्पर पन्नियों की बनी झुग्गियाँ पीछे भागती चली जा रही थी।