मदर टेरेसा : मदर इंडिया में आम स्त्री / जयप्रकाश चौकसे

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मदर टेरेसा : मदर इंडिया में आम स्त्री
प्रकाशन तिथि :07 सितम्बर 2016


मदर टेरेसा की कर्मभूमि भारत रही है और चर्च की शिखर सभा ने उन्हें एक भव्य समारोह में संत का दर्जा दिया। दूसरी ओर धर्मं का लबादा ओढ़े एक बाबा हैं, जिनकी व्यापार कंपनी ने पांच हजार करोड़ की सीमा पार कर ली है और अगले कुछ समय में उनकी कंपनी भारत के शिखर उद्योगों में शामिल हो जाएगी। यह कंपनी अनेक चीजों का निर्माण करती है परंतु उनके पास कितने कारखाने हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं है। कई कंपनियां अन्य जगह बनाई चीजों पर अपने लेबल लगाकर बेचती हैं। यह लेबल बड़ी प्रभावी चीज है। इंदौर के डॉ. मधुसुदन द्विवेदी विदेश से लौटते समय मुंबई में मित्रों और रिश्तेदारों के लिए भेंट स्वरूप दी जाने वाली वस्तुएं खरीदते थे और फिर अपने साथ लाए विदेशी लेबल उन पर चस्पा कर देते थे ताकि हर रिश्तेदार को लगे कि उसके लिए भेंट विदेश में खरीदी गई है। सामाजिक व्यवहार में बड़ी आंकी-बांकी गलियां हैं, जो हमारे सामूहिक अवचेतन में चस्पा कमजोरियों का ही उजागर स्वरूप है। हमारे यहां कुछ साध्वियां राजनीतिक महत्वाकांक्षा पालती रही हैं और कभी-कभी सत्ता शिखर पर जा विराजी हैं। एक बार वे एक प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और अपने विशाल सरकारी भवन में उन्होंने पशुओं का एक तबेला भी रचा था, जिसकी सड़ांध उनके पद छोड़ने के बाद भी लंबे समय तक वहां कायम रही। कुमार अंबुज की कविता 'साध्वियां' की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं,'उनकी पवित्रता में मातृत्व शामिल नहीं है, संसार के सबसे सुरीले राग में नहीं गूंजेंगी, उनके हिस्से की पीड़ा…मगर अब वे सिर्फ पवित्र नदियों की सूखी हुई नहरें हैं या तुलसी की पत्तियां, धार्मिक तेज ने सोख लिया है उनका मानवीय ताप, वे इतनी पूजनीय हैं कि अस्पृश्य हैं, इतनी स्वतंत्र हैं कि एक धार्मिक पुस्तक में कैद हैं…, उनका जन्म एक उल्लसित अक्षर की तरह हुआ था, और शेष जीवन, एक दीप्त वाक्य में बुझ गया।

एक धर्म में किसी महिला के साध्वी बनने के निर्णय के बाद, उस्तरे से उसका मुंडन नहीं होता वरन एक-एक बाल नोंचा जाता है। एक प्रश्न उठता है कि क्या पल-पल पीड़ा भोगना ही ईश्वर को पाने का मार्ग है?

क्या आनंद का मार्ग वहां तक नहीं पहुंचता? दु:ख को गरिमामय और सुख को अपराधमय बनाए जाने के पीछे क्या तर्क रहा होगा? क्या कांटों की शय्या पर लेटकर ही अराधना की जा सकती है? क्या भौतिक सुख साधनों के बीच रहते हुए मन को स्थितप्रज्ञ नहीं रखा जा सकता? एक मांसाहारी शराबखोर धनाढ्य व्यक्ति अनेक कारखाने खोलकर अनिगनत लोगों को रोजगार देता है, तब भी शराबी-कबाबी होने के कारण क्या वह पापी है? लोकप्रिय सामाजिक मानदंड की रचना में ही खोट है। सरलीकरण तो यह है कि जो व्यक्ति अपना काम पूरी मेहनत व निष्ठा से करता है- यह चरित्र निर्णायक मानदंड होना चाहिए न कि वह अपने फुर्सत का वक्त कैसे बिताता है, जिस पर हम जोर देते हैं। फुर्सत के निजी वक्त को सार्वजनिक करना और सार्वजनिक समस्याओं को गोपनीय कक्षों में निपटाना हमारा राजनीतिक यथार्थ है।

बाइबिल में वर्णित एक कथा में एक बुजुर्ग अपनी युवा बहू को सच्चरित्रता पर प्रतिदिन लंबा भाषण देता है। एक दिन बहू ने उसे सबक सिखाया और उस वेश्या की जगह परदानशीं होकर बैठ गई, जिसके पास प्रति संध्या यह बुजुर्ग जाता था। परदा उठाते ही उसकी बहू ने उसके दोगलेपन की धज्जियां उड़ा दीं। वेश्यावृत्ति सबसे पुराना व्यवसाय माना गया है अर्थात मनुष्य की लंपटता विकास यात्रा के आरंभ से ही जुड़ी है।

मदर टेरेसा को शांति के लिए नोबल पुरस्कार पहले ही मिल चुका है। भारत उनकी कर्मभूमि रही, जबकि इस देश में अच्छे कार्य में बाधाएं खड़ी करने की असीम शक्ति है। प्राय: नेक लोग बुरे लोगों से भयभीत रहते हैं परंतु सत्य यह है कि अच्छे व्यक्ति से भी बुरे लोग भयभीत हो जाते हैं। सामान्य बात यह है कि अच्छे लोग एकजुट नहीं हैं और उनका कोई मंच नहीं है। अपराध संगठित हो जाता है। दुनिया के सभी धर्मों में स्त्री की महानता का राग अलापा जाता है परंतु यथार्थ जीवन में धर्म के कोड़े से ही उन्हें पीटा जाता है। दरअसल, पुरुष स्त्री से भयभीत है परंतु वह भय को छिपाने की प्रक्रिया में असहिष्णु हो जाता है। मनुष्य की हजारों वर्षों की विकास यात्रा में स्त्री को जान-बूझकर हाशिये पर रखा गया है। उन्हें चूल्हा-चक्की में उलझा दिया गया है।

कुछ दिन पूर्व सुनने में आया था कि बोहरा समाज में शाम के भोजन के डिब्बे हर घर में समाज की ओर से भेजे जाते हैं ताकि महिलाओं को चक्की-चूल्हे से चंद घंटों के लिए मुक्ति मिले। यह एक विलक्षण प्रयोग है। स्त्री-पुरुष समाज की गाड़ी के दो पहिये माने गए हैं परंतु यथार्थ में यह एक पहिये वाली गाड़ी है। पाकिस्तान की युवा कवयित्री सारा शगुफ्ता ने लिखा है, 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ और भी है।' अगली पंक्ति खाकसार ने जोड़ी है, पौरुष का झंडा हाथ में लिए घूमने वालों औरत का बदन जमीन नहीं होता, वह कुछ और भी है।