मधु अरोड़ा की बातचीत / चित्रा मुद्गल
चित्रा मुद्गल की कुछ खास बातें
10 दिसम्बर, 1944 को चेन्नई में जन्मी चित्रा मुद्गल वर्तमान हिन्दी साहित्य में एक सम्मानित नाम हैं। मुंबई से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर चित्रा जी छात्र जीवन से ही ट्रेड यूनियन से जुड़ कर शोषितों के लिये कार्यरत रही हैं।
अमृतलाल नागर और प्रेमचन्द से प्रभावित चित्रा जी को लिखने की प्रेरणा मैक्सिम गोर्की के प्रसिद्ध उपन्यास "माँ" को पढ़ने के बाद मिली। अब तक वे कई लघुकथायें और चार उपन्यास - "आवाँ", "गिलिगद्दू", "एक जमीन अपनी" व "माधवी कन्नगी" लिख चुकीं हैं। इसके अतिरिक्त उनके बाल-कथाओं के पाँच संग्रह भी प्रकाशित हैं।
चित्रा मुद्गल को विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें "आवाँ" के लिये २००० का इंदु शर्मा कथा सम्मान तथा २००१-०२ का उत्तरप्रदेश साहित्य भूषण प्रमुख हैं।
आप समाज के पिछड़े वर्गों को जागृत करने के लिये एक सामालिक संस्था "समन्वय" भी चला रही हैं। वे "स्त्री-शक्ति" तथा महिला-मंच से भी जुड़ी हुई हैं।
साक्षातकारकर्ता:मधु अरोरा
प्रश्न: आपके लिये स्त्री- विमर्श क्या है?
उत्तर: समाज में स्त्री की जो दोयम दर्जे़ की स्थिति रही है, समाज में जो उसका तिरस्कार रहा है, समाज में उसकी जो उपेक्षा रही है, समाज में जो उसे एक मानवीय दर्जा़ मिलना चाहिये था, वह नहीं मिला है। वह 'देवी' और 'भोग्या' के बीच एक पेंडुलम की स्थिति सदियों से जीती रही है। मेरी नज़र में स्त्री- विमर्श का अर्थ है समाज में उस आधी दुनिया के विषय में सोचा जाना जो अपनी साझीदार उपस्थिति से उसे एक संतुलित और मुकम्मल दुनिया का स्वरूप प्रदान करती है लेकिन दुर्भाग्य से उसे अपना सर्वस्व स्वाहा करने के बावजू़द वह संतुलित, मुकम्मल दुनिया नसीब नहीं होती। पितृसत्ता व्दारा निर्मित उन अमानवीय स्थितियों के बारे में सोचा जाना, विचार किया जाना और मानवीयता के नाते इस बात का समाज के व्दारा एहसास किया जाना कि अपनी वर्चस्वता कायम करने हेतु आधी दुनिया के साथ मानसिक, दैहिक, व्यावहारिक सभी स्तरों पर व्यभिचार किया है।
प्रश्न: पुरुष समाज स्त्री के साथ आखि़र ऐसा क्यों करता है?
उत्तर: दरअसल, पुरुष यह भूल गया है कि स्त्री के सीने में भी एक अदद दिल है, उसके धड़ के ऊपर के हिस्से में एक अदद दिमाग़ है जो किसी भी मायने में पुरुष के दिमाग़ से कम ऊर्जावान नहीं है। ये विसंगतियां, ये मुद्दे हैं जिनके बारे में स्त्री विमर्श के माध्यम से ग़हराई से समाज का विश्लेषण किया जाना चाहिये कि हम उन्नत भारतीय सभ्यता की बात करते हैं जहां अर्धनारीश्वर के जीवन दर्शन की महत्ता रही है। स्त्री दुर्गा, शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है- इसी शक्ति के पत्नी बनने के बाद बात-बात में चुप रहने के लिये बाध्य किया जाता है, आखि़र क्यों? यौन संबंधों में भी उसे गै़र बराबरी का दर्जा़ दिया जाता है। तो मधु, स्त्री के संदर्भ में स्त्री- विमर्श के मायने है प्रतिरोध का वह स्वर है जो उसके सामाजिक उत्पीड़न को लेकर बहुत पहले उठाया जाना चाहिये था।
प्रश्न: आपको ऐसा लगता है कि गत कुछ वर्षों से स्त्री-विमर्श का मुद्दा ज्य़ादा चर्चा में है?
उत्तर: पिछले डेढ़ दशक पहले से मुख्य रूप से उसे उठाया जाने लगा है और मधु, प्रतिरोध के इस स्वर को साहित्य ने भी अपना मुख्य मुद्दा बनाया है- दलित विमर्श के ही समकक्ष, क्योंकि इस विषय पर अनिवार्यत: यह महसूस किया गया कि स्त्री-विमर्श को साहित्य में भी आंदोलनात्मक धरातल पर भी अपने मोर्चे खोलने होंगे और वे मोर्चे खोले गये। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में हम यह पाते हैं कि वह मोर्चा अपनी सन्नद्ध मुद्रा में कई कृतियों में मुख़र होता है। जा़हिर है मधु, पितृसत्ता को स्वयं को सत्ताधीशी के मद से उबारना होगा। स्त्री को स्पेस देना ही होगा। हालांकि मुझे ऐसी परस्परता का प्रतिशत 21वीं सदी में भी बहुत उत्साहवर्धक महसूस नहीं हो रहा है। फिर भी परिवर्तन आ रहा है और स्वयं स्वावलंबित और शिक्षित स्त्री भी इस दिशा में सचेष्ट है कि वह अपने पुरुष को एक संतुलित और विवेकशील परस्परता की तरफ मोड़ सके।
प्रश्न: जीवन और समाज में स्त्री की भूमिका अहम् है। रचनात्मक भूमिका के बावजू़द स्त्री उपेक्षित क्यों है?
उत्तर: स्त्री की रचनात्मकता की क़द्र तो तब होगी जब पुरुष अपने अहम् को त्यागेगा। वह अपने पितृसत्तात्मकता अहम् यानी कि 'मैं चलानेवाला हूं। यह घर ही नहीं, यह समाज ही नहीं, यह देश ही नहीं, बल्कि यह राष्ट्र भी।' जहां इस तरह का भाव होगा कि हर चीज़ चलाने का आधार पुरुष के पास है तो वह स्त्री की रचनात्मकता को कहां जगह देगा? मधु, यही तुम साहित्य में देखोगी। हमारे आलोचकों ने स्त्री-लेखन को जनाना लेखन कहकर बहुत बार मज़ाक उड़ाया है। मैं तो कहती हूं कि उनकी कूवत ही नहीं है स्त्री लेखन को पहचानने की। आधी दुनिया अपनी सर्जना के माध्यम से लिख रही है, अपने अंतर्मन की तलछटों को जो अभिव्यक्त कर रही है, वह उस पूरे समाज का ही तो आधा हिस्सा है, वह पहिया है जो अपनी कील से उखड़ चुकने के बाद गाड़ी की गति के साथ घिसट रहा है और उस 'घिसटन' का कोई इलाज़ करने के बजाय उसे निकाल कर हाशिये पर फेंक कर नया पहिया जड़ लेने के अहंकार से भरा है।
प्रश्न: कुछ महीनों पहले अदालत ने 'लिव-इन-रिलेशनशिप' पर फैसला दिया। इस पर आप क्या सोचती हैं?
उत्तर: मुझे लगता है कि इस दिशा में जिस प्रकार की क़ानूनी पहल हुई है उसमें एक प्रकार की उतावलीभरी ज़ल्दबाजी नज़र आती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के साथ शायद यह महसूस किया जाने लगा था कि पैकेज डील की अविश्वसनीय किस्म की लंबी-चौड़ी तनख्व़ाहों के चलते पिछड़े प्रदेशों के बेटी की कैरियर ओरियन्टेड शिक्षा की ओर ध्यान देनेवाले माता-पिता उन्हें सायबर सिटियों में भेजने से परहेज़ नहीं करेंगे और होगा यह कि साथ काम करनेवाले युवक-युवतियों के बीच आपसी संबंध खुली जीवनशैली के चलते इस सीमा तक प्रगाढ़ हो सकते हैं कि वे 'लिव-इन-रिलेशनशिप' में प्रवेश कर साथ-साथ रहने का निश्चय कर सकते हैं और ऐसा हुआ भी और हो रहा है और इसी के चलते लड़कियों के मानसिक और दैहिक शोषण के विषय में निर्णय लिया गया और कोर्ट का फैसला आया। अब रही बात विदेशों में लिव-इन-रिलेशनशिप की, तो वहां तो इसकी कोई सीमा ही नहीं है। यह मल्टीनेशनल्स का फंडा है। लिव-इन-रिलेशनशिप का मतलब है कि स्त्री-पुरूष गंधर्व विवाह करके अपने आपकी मरजी़ से रहें।
प्रश्न: आपको लगता है कि यह विदेशों का षडयंत्र है?
उत्तर: हां, क्योंकि उसके पीछे एक बाज़ारीय सोच काम कर रही है। हो यह रहा है कि पितृसत्ता की भोगवादी प्रवृत्ति को अनजाने ही एक उछाल मिला है। बिन ब्याहे युवक-युवतियों की बात तो और है, घर से दूर रहनेवाले पुरूष या अपने ही शहर में रहनेवाले शादीशुदा पुरुष भी इस फैसले से फ़ायदा उठाने से नहीं चूक रहे हैं। इसका एक बहुत ही ज्वलंत उदाहरण बहुत बरस पहले गुजरात में मैत्री करार के रूप में देख चुके हैं। मैत्री करार के लागू होते ही हज़ारों महिलाओं ने अपने पत्नीत्व के हितों की रक्षा के लिये कोर्ट में दावा दायर कर दिया कि उनका पति शहर में नौकरी करते हुए किसी अन्य स्त्री के साथ बरसों से रह रहा है और मैत्रेयी करार के अंतर्गत कानून साथ रहनेवाली स्त्री के बच्चे को पति की संपत्ति में हक़दार मानता है और उन्हें क़ानूनी मान्यता प्रदान करता है। शादीशुदा स्त्री के पत्नीत्व के अधिकारों और बच्चों के हक़ पर तुषारापात करते हुए उन पत्नियों का मानना था कि पुरुष के दोनों हाथों में लड्डू हैं। हारकर गुजरात सरकार को मैत्रेयी करार को रद्द करना पड़ा। क़मोबेश यही स्थितियां 'लिव-इन-रिलेशनशिप' को का़नूनी संरक्षण देने से उत्पन्न हो सकती हैं। दरअसल 'लिव-इन-रिलेशनशिप' रद्द किये गये मैत्री करार की तरह विवाह संस्था की सुदृढता को चुनौती दे रहा है। बदलती हुई परिस्थितियों के साथ यदि ज़रूरत का वास्ता देकर हम यूं ही बदलते रहेंगे तो वह दिन दूर नहीं है जब हमारे समाज में सांस्कृतिक मूल्य, नैतिकताएं और मान्यताएं ढहती हुई नज़र आयेंगी जिनकी वजह से वैश्विक संस्कृतियों में हमारी विशिष्ट पहचान है। नैतिकता का विवेक मनुष्य के भीतर मानवीय संवेदनाओं के क्षरण को रोकता है। लिव-इन-रिलेशनशिप मल्टीनेशनल्स का फंडा है। यह मल्टीनेशनल्स बगीचों का, भूमंडलीकरण का, बाजा़रवाद का दबाव है और यह उसकी वजह है।
प्रश्न: आज का युवा-वर्ग साहित्य से दूर होता जा रहा है, इसके लिये आप किसे दोषी मानती हैं?
उत्तर: इसके लिये हमारी जो शिक्षा नीतियां हैं, मैं उनको दोष देती हूं। साथ ही पारिवारिक वातावरण को भी दोष देती हूं। पहले बच्चों को साहित्यिक वातावरण मिलता था जहां वे माता-पिता को पढ़ते देखते थे कि माता-पिता काम करते हुए भी साहित्य पढ़ते थे, पुस्तकें ख़रीदते भी थे। लेकिन आज माता-पिता ने ख़ुद भी वह छोड़ दिया है। उनकी पूरी तवज्जो जो है उसने बच्चों को कैरियर ओरियन्टेड बना दिया है। पहले मां-बाप सोचते थे कि बच्चों के लिये खेलने को भी समय होना चाहिये। हमारे समय में स्कूलों में लायब्रेरी से पुस्तकें इशू करवाना ज़रूरी था। प्रार्थना के बाद प्रिंसिपल बताते थे कि पाठ्यक्रम में जो लेखक हैं, उन पर पुस्तकें लायब्रेरी में उपलब्ध हैं। आज मुझे नहीं लगता कि हिन्दी के अध्यापक स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों को इस तरह गाइड करते होंगे या बच्चों को निर्देश देते होंगे।
प्रश्न: आपका कहना है कि युवा वर्ग की साहित्य से दूरी की जि़म्मेदारी अध्यापकों की वजह से है?
उत्तर: हां, किसी हद तक। तुम्हीं बताओ, अब जब हिन्दी के अध्यापक ही नहीं पढ़ते तो वे बच्चों को कैसे बतायेंगे कि किस उम्र में क्या पढ़ना चाहिये। आज की नई पीढ़ी को चेतन भगत में रुचि है। उसके लिये वही क्लासिक है। हम यह आरोप नहीं लगा सकते कि नई पीढ़ी में रुचि नहीं है। उनमें रुचि जगाई ही नहीं जाती। दूसरे, पाठ्यक्रम बनाते समय बच्चों का मनोविज्ञान नहीं पकड़ पाते। वे पाठ्यक्रम में ऐसी-ऐसी कहानियां रख देंगे जिनमें बच्चों को कोई दिलचस्पी ही नहीं है। इसने साहित्य का बहुत ही नुक़सान किया है। हमने अपने समय में कालिदास, शाकुंतलम ये सारी चीज़ें पढ़ ली थीं। साहित्य का यह संस्कार जानना बहुत ज़रूरी है। भारतीय भाषाओं को वांड्गमय है, उसकी जो सशक्तता है, बच्चों को उस सशक्तता के बारे में बताइये।
प्रश्न: आज की कहानी की बात करें तो क्या आपको लगता है कि आजकल की कहानियों में कथात्मकता ख़त्म हो रही है?
उत्तर: नहीं, आजकल की कहानियों में तो नहीं। लेकिन पूरा समकालीन कथा परिदृश्य जो युवा पीढ़ी का है, उसमें वह कथा पर महत्व देने की बजाय शिल्प को ज्य़ादा महत्व दे रहा है। उन्हें लगता है कि शिल्प उनकी कथा की कमज़ोरी को अपने प्रभाव में छिपा लेगा। पर पाठक को कथा पढ़ने के बाद उसमें कहानी ही नहीं मिलती। जो कहानी मर्म को नहीं छूती है, तो वह किसी भी तरह पाठक के मन में परिवर्तन नहीं ला सकती। कहानी जब मर्म को छूती है, उसे लेकर पाठक उव्दिग्न होता है, कहानी पाठक के साथ चलती है, रात को सोते समय, सुबह उठते समय, घर के काम को निपटाते समय। तब समझो कि उस कहानी ने पाठक को उव्देलित किया है। अधिकांश लेखक सोचते हैं कि शिल्प के माध्यम से पाठक को चमत्कृत कर दें और पाठक को सोचने को मौका न दें और पाठक पर बौद्धिक विलास थोप दें। कहानी क्या है? कुछ भी तो नहीं। मधु, शैल्पिक कौशल के प्रति अतिरिक्त रुझान के चलते युवा पीढ़ी के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों की कथा रचनाओं में सर्वथा नवीन दृष्टि से लैस कथा संकेतों के बावजू़द वह अपने मर्म को छूती नहीं है। लेकिन अल्पना मिश्र, वन्दना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज सुबीर, प्रियदर्शन, मनोज पांडे, राकेश मिश्र आदि कथा की अन्तर्वस्तु के कलात्मक रचाव में विश्वास रखते नज़र आते हैं और उस रचाव की प्रभावोत्पादकता से कथा मर्म वंचित नज़र नहीं आता। भाषा की असंबद्ध, जटिल, प्रांजल निर्मितियां निश्चय ही पाठक को एक सीमा के बाद उबन से भर देती हैं।
प्रश्न: आज के लेखकों में अपने लेखन को लेकर हड़बड़ी है, ज़ल्दी छपने की छटपटाहट है, रातों-रात शोहरत पाने की अदम्य इच्छा है, इस विषय में आप क्या सोचती हैं?
उत्तर: ये विज्ञापन जगत के लेखक हैं। उस युग में जी रहे हैं। उन्हें मालूम है कि प्रचार-प्रसार उन्हें बहुत ज़ल्दी प्रतिष्ठित कर सकता है। हालांकि वे यह नहीं जानते कि प्रचार-प्रसार के बूते प्रतिष्ठित तो हो जायेंगे लेकिन रचना जब मील का पत्थर नहीं है तो वह अपने पाठक नहीं ढूंढ पायेगी। आप आपस में 'मेरी पीठ तू ख़ुजला, तेरी पीठ मैं खुजलाउं' करेंगे। यह एक असहिष्णुता है। यह लेखकों का जो युवा वर्ग है वह तात्कालिकता में विश्वास रखता है, पर यह सच है कि रचना अपने पाठक ढूंढती है।
प्रश्न: दिल्ली की साहित्यिक राजनीति से आपका व्यक्तित्व कभी प्रभावित हुआ है?
उत्तर: नहीं। मेरा व्यक्तित्व इसलिये प्रभावित नहीं होता क्योंकि मैं इस राजनीति से दूर रहती हूं। मुझे जहां बुलाया जाता है, वहां उस कार्यक्रम में जाती हूं। मैं चुनती हूं कि मुझे किस कार्यक्रम में जाना चाहिये। मैं सोचती हूं कि अमुक कार्यक्रम में जाकर मुझे क्या हासिल होगा? अग़र मैं वृद्धाश्रम न जाऊं तो मेरे एक दिन वहां न जाने से क्या फर्क़ पड़ेगा और मैं यदि इस संगोष्ठी में जाऊं तो वही लोग और वही बातें। क्या करना है असग़र वजाहत को सुनकर, जो कहते हैं कि हिन्दी के लिये रोमन लिपि ठीक है।
प्रश्न: अक्सर सुना जाता है कि कई कार्यक्रमों में आप शहर में होते हुए भी नहीं जातीं, कोई ख़ास वजह?
उत्तर: बिल्कुल वजह होती है। मैं चुनती हूं कि मुझे कहां जाना है और कहां नहीं। मैं मना कर सकती हूं और मना कर देती हूं। आपको पता है महात्मा गांधी विश्वविद्यालय में लाल झंडा कैसे लग गया? यह शिक्षा का इन्स्टीट्यूशन है और कोई शिक्षाविद् किसी छात्र से उसकी जाति नहीं पूछता। गुरू सबसे बड़ा होता है। तो साहित्य जगत में यह सब क्रिएट हो रहा है। ये लोग तो रोज़ शराब की पार्टी में ये विचार करते हैं। हम तो काम करते हैं, सबके साथ काम करते हैं और कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं। हेड तो अब जाकर बनने लगे हैं। तो ये सब है मधु, मेरा इसलिये साहित्य जगत से नाता कम रहता है। मैं सारी गोष्ठियों में नहीं जाती। लेकिन जिसमें जाना है, तो उसमें जाना है और इतना दमख़म भी रखती हूं कि जो चीज़ ग़लत लगती है, हांट करती है तो उसके प्रति प्रतिरोध भी ज़ाहिर करती हूं। साहित्य जितना प्रपंच और पंचायत निर्मित करता है, इतना तो राजनीति भी नहीं करती। पहले ऐसे साहित्यकार थे कि उनका एक्टिविज्म़ उनके अपने व्यवहार में होता था, जैसे शिक्षाविद् का एक्टिविज्म़ उसके व्यवहार में होता है। मैं अपनी जगह, अपने वजू़द के लिये लड़ती हूं।
प्रश्न: आप जब लेखन करती हैं तो सृजन से पूर्व, सृजन के समय और सृजन के बाद आपकी मन:स्थिति क्या होती है?
उत्तर: जिस चीज़ को लिखने के लिये मेरी उद्विग्नता उसको लिखने से पहले होती है और अग़र अपने मनमाफि़क लिख लिया तब तो ठीक है। पर मैं जब लिखना शुरू करती हूं और लगता है कि वह मेरे हाथ नहीं आ रहा है जो सोचा है तो मैं उसे लिखने का इरादा छोड़ दूंगी। लेकिन जिस वक्त जो सोचा है, उसे अग़र कागज़ पर उतार लिया है तो मुझे बहुत संतुष्टि होती है कि अब मैंने ख़ाका तो उतार लिया है। मैं एक बार में ही नहीं लिख सकती। एक कहानी को कम से कम तीन बार देखना पड़ता है। इसलिये पैंतालिस साल के लेखन में कुल जमा सत्तर कहानियां लिखी होंगी। मधु, दरअसल, जो जीवन-मूल्य, जो संघर्ष थे और अब जो नई-नई चीजें आईं तो नई-नई अड़चनें आईं। पहले की कुछ अड़चनें ख़त्म हो रही हैं। तो जो यह संक्रमण काल चल रहा है, जो बाज़ारवाद और वैश्विकतावाद से आया है तो इससे जूझने के लिये लेखकों को सन्नद्ध होना चाहिये। लेकिन ये लोग प्रपंच करते घूम रहे हैं कि यह मेरा ख़ेमा, तेरा ख़ेमा वो, तेरा ख़ेमा वो, तेरा ख़ेमा वो। ये विषमताएं लेखक क्या दूर करेगा जब वह ख़ुद ही ऐसा करता है।
प्रश्न: आप साहित्य, दूरदर्शन आदि में बड़े प्रतिष्ठित पदों पर आसीन रही हैं, इनसे जुड़े खट्टे-मीठे अनुभव अपने पाठकों से शेयर करना चाहेंगी?
उत्तर: मेरे कड़वे-मीठे अनुभव मेरे संघर्ष का हिस्सा बनते हैं। मुझे लगता है कि जब कभी ये कड़वे-मीठे अनुभव लिखूंगी तो वे मेरे पाठकों का हिस्सा बन सकते हैं। पाठक तो मेरे लिये वह अदालत है जिसमें मेरे अनुभवों का जो पिटारा है वह रचना-सर्जना के माध्यम से पहुंचता रहता है। मैं निश्चित रूप से अपने अनुभव लिखूंगी। मैं कभी हार नहीं मानती हूं। मैं अपनी बात रख देती हूं, आप मुझे अपनी बात समझा दीजिये।
प्रश्न: आज प्रायोजित पुरस्कारों, सम्मानों और विदेश यात्राओं की भरमार है, क्या इससे साहित्य लेखन के स्तर में इज़ाफा हुआ है या फिर स्तर में गिरावट आई है?
उत्तर: मेरा मानना है कि यदि पुरस्कारों, सम्मानों में इज़ाफा हुआ है तो यह तो अच्छा है। इनसे अनुभव को विस्तार मिलता है। लेकिन लेख़क दिल्ली से उड़कर लंदन पहुंचे और वहां शाम को शराब की बोतलें खोलकर बैठ गये और उस पर बहस कर रहे हैं तो क्या इज़ाफा होगा, तुम ही बताओ। मेरा यह मुद्दा है कि आप वहां को देखिये, अंग्रेज़ों को देखिये, उनके गांवों को जाकर देखिये कि वे कैसे खेती करते हैं, गांवों में कैसे रहते हैं। लंदन के जन-जीवन को देखिये। मधु, मैं यह मानती हूं कि लेखकों के लिये यात्राएं ज़रूरी हैं, वह अपने फ्लैट से बाहर निकले, उसे निकलना चाहिये लेकिन अपने अनुभवों में इज़ाफा करने के लिये न कि सिर्फ़ सैर-सपाटे के लिये।
प्रश्न: आपके उपन्यास 'आंवा' को सहस्त्राब्दि का प्रथम 'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' लंदन में मिला, तब आपको कैसा महसूस हुआ?
उत्तर: जब तेजेन्द्र शर्मा ने मुझे लंदन से सूचना दी कि मेरे उपन्यास 'आंवा' को सहस्त्राब्दि का प्रथम 'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' लंदन में दिया जा रहा है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। ख़ुशी इसलिये हुई कि यह प्रायोजित नहीं था। सबसे ज्य़ादा ख़ुशी तब हुई जब गिरीश कर्नाड ने कहा कि आंवा जैसा उपन्यास कन्नड़ में भी होना चाहिये। यह पहली ख़ुशी थी। तुम्हें एक बात बताती हूं मधु, कि जब इस उपन्यास का कथा यूके ने चुनाव किया तब राजेन्द्र यादव ने कथादेश पत्रिका में कहा था कि लद्दड़ भाषा में लिखा गया उपन्यास और इतना भारी-भरक़म है कि कौन इसे पढ़ेगा? वही राजेन्द्र यादव आउटलुक पत्रिका के लिये अजय नावरिया को इंटरव्यू देते हुए कहते हैं कि आंवा एक दस्तावेज़ी उपन्यास है और चित्रा के पात्र कभी समझौते के लिये राज़ी नहीं होते। मधु, आंवा असमिया, पंजाबी, मराठी, कन्नड़, बंगला, तेलुगू, मलयालम में अनूदित हो चुका है। हाल में ही तमिलनाडु से भारतीय भाषाओं के लिये आरंभ किया गया चिनप भारती सम्मान का पहला सम्मान हिन्दी के अनेक उपन्यासों के बीच में से आंवा को दिया गया। हिन्दी की किसी कृति को प्रथम सम्मान का श्रेय आंवा को प्राप्त हुआ। मेरे इस उपन्यास का इतनी भाषाओं में अनुवाद हुआ है, ढेर सारे सम्मान और पुरस्कार मिले हैं, इसका सारा श्रेय कथा यूके को जाता है। मेरे लिये तो कथा यूके एक तरह से शगुन की तरह रहा है।