मध्यम आय वर्ग की त्रासदी / जयप्रकाश चौकसे

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मध्यम आय वर्ग की त्रासदी
प्रकाशन तिथि :20 जनवरी 2018

सिनेमाघरों में सबसे कम कीमत के टिकट तीसरे दर्जे के होते थे। थोड़े अधिक दाम वाले दूसरे दर्जे के और सबसे महंगे बालकनी के टिकट कहे जाते थे। कुछ ऐसी ही व्यवस्था रेलगाड़ी में भी थी। सिनेमाघरों की टिकट दर समाज व्यवस्था से ही प्रेरित थी। व्यक्ति की पोशाक से भी उसकी आर्थिक क्षमता का आकलन हो जाता था। अमीर और गरीब दो ही वर्ग लंबे समय से कायम थे परंतु यूरोप में नेपोलियन के समय में मध्यम वर्ग उभरकर सामने आया। इसी तरह नायलोन के आविष्कार के बाद पोशाक के आधार पर वर्गभेद करना कठिन हो गया। बहुमंजिला इमारतों में नीचे के माले से ऊपर की ओर जाते हुए दाम बढ़ जाते हैं। सबसे ऊपरी माला सबसे महंगे दाम में बिकता है। शायद ईश्वर से नज़दीकी भी आर्थिक स्थिति ही तय करती है। एक दौर में कुछ सिनेमाघरों में बालकनी से भी अधिक दाम के बॉक्स होते थे। मोतीलाल और शोभना समर्थ ने एक बॉक्स अपने लिए आरक्षित रखा था। मोतीलाल सप्ताह के सात दिन अलग-अलग रंग की कारों में उसी रंग के सूट पहनकर बैठते थे। वे भारत के पहले स्टाइल आइकन माने जाते हैं। आज के सितारे धन कमाने में प्रवीण हैं परंतु मोतीलाल धन खर्च करने की कला जानते थे। गौरतलब है कि जयप्रकाश नारायण के बाद सिनेमा में आक्रोश की छवि वाले नायक का उदय सलीम-जावेद की अमिताभ बच्चन अभिनीत 'जंजीर' से हुआ। इसी दौर में तृतीय श्रेणी में बैठने वाले दर्शक ने बालकनी में प्रवेश किया और बालकनी वाला दर्शक घर बैठ गया। इसी वर्ग संघर्ष से उभरा ऋषिकेश मुखर्जी का मध्यमार्गीय सिनेमा। उनका नायक 'एंग्री' नहीं वरन 'एंक्शस' है। वह जानना चाहता है कि चीजें कैसी और क्यों घटित हो रही हैं। ऋषिकेश मुखर्जी की धर्मेंद्र अभिनीत 'सत्यकाम' भ्रष्टाचार विरोधी यथार्थवादी फिल्म थी और वैसी ही धार और तेवर गोविंद निहलानी की ओम पुरी अभिनीत 'अर्धसत्य' में हमने कुछ बाद में देखे।

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद उसी तरह के महान उद्‌देश्य से अण्णा हजारे का आंदोलन हुआ। आज तक यह ज्ञात नहीं हुआ कि रामलीला मैदान पर मौजूद उन असंख्य लोगों को भोजन कौन उपलब्ध कराता था। इस तरह के आंदोलन का आर्थिक पक्ष कभी उजागर नहीं हुआ। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह कार्य 'इकोनॉमिक हिटमैन' करते रहे हों। यह संस्था विकासशील देशों में हुड़दंग करके प्रगति रोकने का काम करती है। यह बड़े पैमाने पर साधनहीनता रचने की साजिश का हिस्सा है। इकोनॉमिक हिटमैन मंत्रियों व अफसरों की सुविधाएं और अय्याशी के साधन जुटाते हैं और सरकार की नीतियां प्रभावित करते हैं। सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट भी प्रभावित किया जाता है। अवाम के पास कोई ऐसी संस्था नहीं जो उसके हितों की रक्षा कर सके। जीएसटी में वस्तुओं की नई सूची चौथी बार जारी हो रही है। अंत में वह न्यूनतम वस्तुओं पर ही कायम रह पाएगा। एक कदम आगे जाकर दो कदम पीछे जाने की इस दिलकश अदा की प्रशंसा करने के लिए शब्द नहीं मिलते। अमीर वर्ग और निम्न आय वर्ग के नैतिक मूल्यों पर कभी प्रश्न नहीं पूछे जाते और इस मायने में वे काफी हद तक स्वतंत्र भी हैं परंतु मध्यम वर्ग के कमजोर कंधों पर ही भार डाला गया है कि सारी तथाकथित नैतिकता का निर्वाह वह करे। उसे बाधाओं और विरोधाभासों के बीच जीने की आदत पड़ गई है। अपनी सुविधा को संस्कार का नाम दिया गया है। इसी व्यवस्था को ढोते रहने के कारण मध्यम वर्ग कुंठाओं का शिकार होता रहा है। यह मध्यम वर्ग की सहनशीलता ही है कि सारे स्वांग बदस्तूर जारी है। उसका आक्रोश भी एक शक्तिहीन के आक्रोश की तरह रह गया है।

मध्यम वर्ग की किफायत के कारण ही अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुई है। मध्यम वर्ग की खरीदने की क्षमता ही बाजार को रोशन रखे हुए है। मध्यम वर्ग की ज़िद है कि वह बना रहे, जबकि सचाई यह है कि उसे निम्न आय वर्ग की ओर धकेला जा चुका है। व्यवस्था अमीर को अधिक अमीर और गरीब को अधिक गरीब बनाती जा रही है। मध्यम वर्ग अपने दिखावे को कायम रखना चाहता है। हकीकत यह है कि वह साफ-सुथरे कपड़े पहना हुआ निम्न वर्ग का व्यक्ति ही है। वह अनुपयोगी चीजें खरीदने के लिए मजबूर है। यह मजबूरी उसकी अपनी ईजाद की हुई है। वह चाबी से चलने वाला ऐसा खिलौना है, जो चाबी खत्म होने के बाद भी ठुमकता रहता है। मध्यम वर्ग की खरीदने की क्षमता बढ़ गई है परंतु उसे इसी अवस्था में फ्रीज कर दिया गया है। उसमें असीमित इच्छाएं जगाकर उसे दुविधाओं के मायाजाल में उलझा दिया गया। वह इस जाल में उलझकर भी मुतमइन है कि सबकुछ ठीक-ठाक है-ऑल इज़ वेल।