मध्यम वर्ग के सपनों के सौदागर / जयप्रकाश चौकसे

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मध्यम वर्ग के सपनों के सौदागर
प्रकाशन तिथि :21 अप्रैल 2016


लंबे अरसे के बाद अमोल पालेकर को एक विज्ञापन फिल्म में देखा। विज्ञापन के फिल्मकारों की दृष्टि पैनी है और मध्यम वर्ग समाज के कलाप्रेमी, संस्कारवान एवं विनम्र व्यक्ति की छवि को रंगमंच और सिनेमा के परदे पर जीवंत करने वाले अमोल पालेकर इस विज्ञापन में भी इतने विश्वसनीय हैं कि विज्ञापित तौर-तरीके इस्तेमाल का खयाल मन में आता है। बाजार और विज्ञापन के इस सोने के हिरण का कभी पीछा न करने का एहद टूटता-सा नज़र आता है। आप अपनी सोच में सुई बराबर छेद छोड़ दें तो बाजार का हाथी उसमें घुस जाता है। यह भी इत्तफाक देखिए कि क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्रसिंह धोनी विवाद के घेरे में हैं, क्योंकि उन्होंने एक घर बेचने वाली कंपनी का विज्ञापन किया था। भारत में अनगिनत लोगों ने अपने जीवनभर की पूंजी अपने सबसे प्रिय सपने घर के लिए निवेश की और बिल्डर के अपने निजी स्वार्थ और रिश्वतखोर अफसरों के सपने को हकीकत में बदल दिया। गरीब व्यक्ति रोटी, कपड़ा और मकान जैसी तीन न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा देता है। सारी सरकारें और व्यवस्थाएं इन्हीं तीन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के वचन पर चुनाव जीतकर सत्ता में आती हैं परंतु आज़ादी के इतने दशक बाद भी आधे से अधिक अाबादी को रोटी, कपड़ा और मकान मयस्सर नहीं हुआ। वह तो सदियों से छला जा रहा है परंतु आज सर्वत्र व्याप्त मीडिया के युग में भी उसकी दशा नहीं बदली। क्या इसका अर्थ यह है कि मीडिया के तेवर हाथी के दांत की तरह हैं? याद आती हैं जनाब इकबाल की पंक्तियां, 'जिस खेत पे बेहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर, कोशिया गुंदम जला दो।'

बहरहाल, सितारों और विज्ञापन ने एक और मुद्‌दा उछाला है कि विज्ञापित चीज के अशुद्ध पाए जाने के दोष से वह सितारा बच नहीं सकता, जिसने विज्ञापन फिल्म में काम किया है। इससे जुड़ी अन्य बात यह है कि क्या किसी फिल्म को देखकर कोई व्यक्ति आत्महत्या कर ले तो इसका दोष भी सितारे पर जाएगा, जिसने महज एक काल्पनिक पात्र का अभिनय किया है और अभिनय उसकी रोजी-रोटी है। इस तरह के दो लोगों और वर्गों के मूलभूत अधिकारों का द्वंद्व सामने आता है। घर के सपने को राज कपूर और ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म 'श्री 420' में प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया था। इसमें पूंजीपति सेठ सोनाचंद धर्मानंद माया के जाल में सरल गरीब व्यक्ति की विश्वसनीयता व ईमानदारी की छवि को आगे रखकर सौ रुपए में मकान का सपना बेचकर ठगने का प्रयास करता है। एक गरीब औरत अपनी सीमित बचत के साथ अपना मंगलसूत्र जमा कर देती है। कुछ भिखारी आपसी सहयोग से राशि इकट्‌ठा करते हैं। फुटपाथ पर सारी उम्र बिताने वाले भी किसी तरह साधन जुटाते हैं।

'श्री 420' में कभी न भूल सकने वाली चरित्र भूमिकाअों की भरमार थी और उनमें चौथे दशक में नायक रहे एम. कुमार, ललिता पवार व रशीद खान शामिल थे। राज कपूर सोनाचंद की भूमिका के लिए कभी पृथ्वी थिएटर्स में सक्रिय रहे सेवानिवृत्त नीमो को लखनऊ से लेकर आए थे। नीमो को संवाद अदायगी का दिलकश अंदाज दिया गया। 'क्या पीपली नगर में कपरे ही कपरे (ड़े) धुलते हैं?' और 'राजू अब तुम्हें विद्या की नहीं माया की जरूरत है।' इस तरह के संवादों में एक पूंजीपति अपने पूरे छल के साथ प्रस्तुत होता है। बेहद निर्मम क्षणों में उसके चेहरे की मुस्कराहट तिलमिला देती थी। आजकल ऐसी ही मुस्कराहट कुछ नेताओं के चेहरे पर देख अवाम भी अपनी शक्तिहीनता पर तिलमिला जाता है। इस नपुंसक वेदना से बड़ा कोई दर्द नहीं।

अमोल पालेकर को पहली बार हमने इंदौर में मंचित गिरीश कर्नाड के नाटक 'हयवदन' में अमरीश पुरी के साथ देखा था। अमोल बैंक में क्लर्क थे और शाम को रंगमंच की गतिविधियों में भाग लेते थे। मराठी भाषी लोगों की यह संस्कृति ऊर्जा कमाल की थी कि नाट्य मंच उपलब्ध नहीं होने पर वे माध्यमिक पाठशालाओं में जाकर रिहर्सल करते थे। साधनों का अभाव कला के जुनून को बोतल में हमेशा के लिए बंद नहीं कर पाता। यह भी इत्तफाक है कि उसी दौर में अल्प बजट की सार्थक फिल्मों का दौर प्रारंभ हुआ, जो न तो पहला दौर था और न ही आखिरी दौर है, क्योंकि वह हिंदुस्तानी सिनेमा की कुंडली में बैठा मणि कांचन योग की तरह है। इन्हीं फिल्मों मं अमोल पालेकर ने आम आदमी की छवि का निर्वाह किया। अमोल के पहले राज कपूर जैसे गोरे-चिट्‌ठे और यूरोपियन से दिखने वाले कलाकार ने अपनी प्रतिभा से इन भूमिकाओं को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत किया था। किंतु अमोल के रूप में अत्यंत साधारण-सा दिखने वाला यथार्थ जीवन के मध्यमवर्ग का युवा प्रस्तुत हुआ था और बाद में फारुख शेख ने इन भूमिकाओं में कमाल किया। हर वर्ग का सिनेमा अपने लिए अपना एक अमिताभ बच्चन अर्थात सितारा बनाता है।

ठीक ऐसे ही हर वर्ग अपना नेता भी खड़ा करता है। एक नेता पूंजीपतियों का हिमायती होते हुए भी स्वयं को सर्वहारा का नुमाइंदा साबित करने में सफल हो गया, क्योंकि उसकी नाव पर धर्म का रथ नदी पार कर रहा है।