मध्यम वर्ग / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
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सीता मेरे यहाँ बर्तमन माँजने, कपड़े धोने का काम करती थी। बचपन में आटा-साटा की ग्रामीण परम्परा के तहत उसका विवाह हो चुका। दो बरस पहले गौना हुआ। उसकी भाभी ससुराल आती है तो वह अपने ससुराल जाती है। भाभी पीहर जाती है तो सीता पीहर आती है। जब वह पीहर आती है तो मेरे यहाँ मिलने ज़रूर आती है।

सीता हंसी-मजाक बहुत किया करती थी। काम करते हुए मारवाड़ी गीत गुनगुनाया करती थी। दिन भर चिडिय़ों की तरह चहकती रहती थी। बातुनी बहुत थी। रोकने पर भी कहाँ रुकती थी। उसे डाटने के लिए कई बार विवशता में मुझे कहना पड़ता था 'मेरा मौन व्रत है' या कि 'आज मेरा मन ठीक नहीं हैं' या कि 'आज मुझे लिखने का बहुत काम है।'

अबके आई तो न चपर-चपर, न हंसी और न ही किसी भूले-बिसरे गीत की कोई आधी-अधूरी कड़ी। वह चुप-चुप थी। जैसे कि खुद में से खुद ही कहीं खो गई हो। जैसे कि मन ही मन में कुछ तय कर लिया हो। इस खामोशी का कारण पूछा तो बताया कि 'मुझे अलग घर मांडना है।'

मुश्किल से दो साल हुए हैं ससुराल में रहते हुए और ऐसी बातें कर रही है। मैंने कुरेदा तो कहने लगी-'मेरा मरद फेल है।'

'मतलब?'

दृढ़ता के साथ उसने कहा 'नामरद। जो मरद औरत को बच्चा नहीं दे सकता उसके साथ ज़िन्दगी काटने का क्या अर्थ? इतना ही नहीं वह मुझ से प्रेम भी नहीं करता। बात तो गालियों से शुरू करता है। मेरी कोई बात मानने को तैयार ही नहीं। कहूँ कि चल डाक्टर को दिखाकर आते हैं तो कहता है' मेरे में कोई कमी नहीं है। मैं जोरू का गुलाम नहीं हूँ जो तुम कहो तो चल पड़ूं, तुम्हारे साथ? इसलिए मैंने छुट्टा-छेड़ा करने का फैसला कर लिया है। '

'दूसरा मरद देख रखा है क्या?'

'हाँ, दो तीन निगाह में हैं। बात करने, मिलने पर जो जंचेगा उसके साथ ही रहूँगी।'

पास में बैठी उसकी माँ ने बेटी को समर्थन देते हुए कहा-'इसके साथ की सब लड़कियों की गोद भर गई. बस मेरी छोरी ही रही गई. अपनी सूनी गोद देख कर यह बिसूरती रहती है। कटती रहती है। देख नहीं रहीं आप कि यह कितनी दुबला गई है। सूख-सूख कर काँटा हो गई है।'

मुझे अनीता, गीता, मीता जैसी अनेक आधुनिकाएँ याद आने लगीं जो माँ नहीं बन पाई. ज्यादातर मामलों में कमियाँ पतियों में पाई गई थीं। इनमें से सिर्फ़ गीता ने दूसरे विवाह के बारे में सोचा था पर अन्तत: परिवार, समाज, मान-सम्मान का वास्ता दे-देकर दोनेां तरफ के परिवारों ने उन्हें रोक लिया। आखिरकार उन्होंने अनाथालय से बच्चा गोद लिया।

मैंने माँ-बेटियों को समझाया कि 'अगर दूसरा मरद करने पर भी बच्चा न हुआ तो? तो माँ ने तपाक से जवाब दिया-' तब की तब सोचेंगे। हम आप लोगों की तरह कल की सोच कर आज को खराब नहीं करते। '

उसके उत्तर से मैं परास्त हो गई.

मेरी बड़ी बेटी हमारे बातें सुन रही थी। मैंने उसकी ओर देखते हुए अचरज से कहा-'मेरी समझ में यह नहीं आया कि आधुनिकता, निर्णय लेने की आजादी, अपने हिसाब से जीवन जीने की इच्छा का शिक्षा से कितना लेना-देना है। शायद यह सब हमारी सोच पर ही निर्भर करता है।' बेटी ने उसमें जोड़ा 'और मध्यम वर्गीय सोच दीमक की तरह आदमी को खोखला करती रहती है तब तक, जब तक कि वह मर नहीं जाता। अपनी संकुचित सोच के दायरों में जकड़ा यह वर्ग न तो खुद जीवन जीता है और न ही किसी को जीने देता है। यह जीवन को बोझ की नाईं बस ढोता है। सीता का निर्णय ठीक है माँ। बच्चा हुआ न हुआ उतना बड़ा इश्यू नहीं है। बड़ा मसला यह है कि सीता को उसका पति चाहता भी नहीं है।'

बेटी के विचार जानकर मैं सोच के गहरे समंदर में डूब रही थी और किनारा दूर था।