मध्यवर्ग की व्यथा- कथा की कहानियाँ: दोष किसका था / शिवजी श्रीवास्तव

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सुदर्शन रत्नाकर जी साहित्य की ऐसी मौन साधिका हैं जो प्रचार की स्पृहा से दूर रहकर साहित्य की अनेक विधाओं में अपना योगदान दे रही हैं। कहानी, लघुकथा, उपन्यास के साथ ही वे कविता, हाइकु, माहिया, ताँका, सेदोका एवं अनुवाद के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। प्रत्येक विधा में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित होने के साथ ही उन्हें ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ द्वारा सन् 2013 में श्रेष्ठ महिला रचनाकार एवं 2019 में ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना पुरस्कार’ से सम्मानित होने का गौरव प्राप्त है। ‘दोष किसका था’ कहानी- संग्रह को भी ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ द्वारा वर्ष 1999 की श्रेष्ठ कृति होने का गौरव प्राप्त है। प्रस्तुत संस्करण संग्रह का द्वितीय संस्करण है।

‘दोष किसका था’ की समस्त रचनाओं के केंद्र में मध्य वर्ग है। मध्य वर्ग की अपनी समस्याएँ हैं। इस वर्ग में आर्थिक अभावों में दम तोड़ते स्वप्न हैं, एकाकी पड़ते बुजुर्ग हैं, परिवार के लिए अपने जीवन की खुशियों को होम करते अभिभावक हैं, गृहस्थी के चक्र में पिसतीं, घर- परिवार के लिए सब कुछ चुपचाप सहतीं, आत्म- बलिदान के गौरव से भरी नारियाँ हैं। सुदर्शन जी की कहानियों में इन सब समस्याओं को चित्रित किया गया है। यद्यपि यह कृति दो दशक पूर्व की है किंतु यह रचनाकार का रचना-कौशल है कि कथाओं में आज भी ताजगी है, समस्त कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं।संग्रह की कहानियों को देखकर कहा जा सकता है कि समाज में व्यापक बदलाव और विकास के बावजूद भी मध्यवर्ग की मानसिकता में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है, वह अपनी रूढ़ियों, अपनी कमजोरियों और द्वंदों के साथ वहीं खड़ा है, जहाँ दो दशक पूर्व था। संग्रह की कहानियों में मध्यवर्ग की मानसिकता और उसकी समस्याओं को बहुत प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।

संग्रह में पंद्रह कहानियाँ हैं। कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तर पर कहानियाँ प्रभावित करती हैं। प्रत्येक कहानी का वैशिष्ट्य यह है कि उन्हें पढ़ते समय पाठक उसी भाव भूमि पर पहुँच जाता है जिसे केंद्र में रखकर रचना का सृजन हुआ है।

मध्यवर्ग जिन प्रमुख समस्याओं से आज भी त्रस्त है उनमें स्त्री- जीवन के द्वंद्व प्रमुख हैं। परिवारों में स्त्री को आज भी बहुविधि चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, परिवार में सबको प्रसन्न रखना, सबकी सेवा करना, परिवार को बाँधकर रखना, हर दृष्टि से आदर्श बने रहना स्त्री का ही दायित्व माना जाता है। इस मानसिकता को सुदर्शन रत्नाकर जी ने कई कहानियों में उठाया है। ‘कसौटी’ कहानी की नमिता का दोष इतना ही है कि वह सामान्य परिवार की सादगी पसंद लड़की है, पर उच्च वर्ग की बहू बन जाती है, यद्यपि उसके ससुर ही उसकी सादगी और सरलता से प्रभावित होकर उसे अपने घर में बहू बनाकर लाए हैं पर उच्च वर्ग की तथाकथित आभिजात्यता की कसौटी पर वह खरी नहीं उतरती। ननद, देवर और यहाँ तक कि उसके पति भी उसकी सादगी को पिछड़ापन मानकर उसकी उपेक्षा करते हैं और अक्सर ही अपमानित करते रहते हैं, नमिता आदर्श बहू बनी सब स्वीकार करती रहती है।कहानी का सकारात्मक पक्ष यह है कि नमिता की सास एक समझदार महिला हैं, वे बड़ी ही कुशलता से नमिता के गुणों को सबके सामने उभारकर प्रस्तुत करती हैं। धीरे- धीरे नमिता अपने सद्गुणों से सबको प्रभावित करके सबकी प्रिय बन जाती है।अपने गुणों के कारण वह कसौटी पर खरी उतरती है। यहाँ मुख्य बात यह है कि सारी परीक्षा बहू को ही देनी है, उसे ही सबकी कसौटी पर स्वयं को खरा सिद्ध करना है।यह स्त्री- द्वंद्व के साथ ही मध्यवर्ग की आडम्बरप्रियता को भी सामने लाती है।

बेटे और बेटी में फर्क करने की प्रवृत्ति भी मध्यवर्ग की सामान्य पर गम्भीर समस्या है। बेटे की चाह में बेटियों का जन्म होता रहता है, बेटियों के जन्म के लिए स्त्री को ही उत्तरदायी माना जाता है, उसे परिवार एवं समाज में निरंतर तिरस्कृत होना पड़ता है। ‘कोई जरूरी तो नहीं’ इसी विषय पर बुनी गई कहानी है। बेटे की चाह में कमला बेटियों को जन्म देती रहती है। उसकी सास इस बात के लिए कमला को ही दोषी मानते हुए निरंतर ताने देती रहती है और अपने बेटे के दूसरे विवाह का विचार भी करने लगती है। कमला का पति भी उसकी उपेक्षा करने लगता है। चौथी बेटी के जन्म के बाद उसकी शारीरिक स्थिति देखकर डाक्टर उसे परामर्श देती हैं कि उसके पति को ऑपरेशन करवा लेना चाहिए, कमला कहती है कि पति तैयार नहीं होंगे, अतः वह अपना ही ऑपरेशन करा लेगी पर अचानक ही पति अमर का विवेक जाग्रत हो जाता है और वह अपना ऑपरेशन कराने के लिए तैयार हो जाता है।

मध्यवर्ग की स्त्री अभी भी परम्परागत संस्कारों से बँधी है, अपने संस्कारों के कारण वह बहुत कुछ सहने के लिए अभिशप्त है, उसे वह अपनी नियति मानकर चुप रहती है पर बहुत विद्रोह की स्थिति में नहीं आती। ‘दोष किसका था’ कहानी की शालिनी की भी यही नियति है। भारतीय सभ्यता और संस्कारों में रची- पगी शालिनी विवाह के बाद पति के साथ कनाडा आ जाती है, यहाँ वह एक पुत्र को जन्म देती है। इसी अंतराल में पति सुमित एक उन्मुक्त जीवन जीने वाली युवती शैली के आकर्षण में बँध जाता है। सुमित चाहता है, शालिनी भी जीवन जीने की इस शैली को अपना ले पर शालिनी अपने संस्कारों को नहीं छोड़ पाती। पति उसे जीवन से निकाल देता है, वह बेटे को लेकर भारत वापस आकर एकाकी जीवन व्यतीत करने को विवश होती है। वह अकेले ही अपने बेटे की परवरिश करती है। बेटे के बड़े होने के बाद भी एक प्रश्न उसे व्यथित करता रहता है कि सम्पूर्ण घटनाक्रम में दोष किसका था? परिस्थितियों के चक्र में पिसती नारी नियति की यह एक सशक्त कहानी है।

स्त्री- पुरुष प्रेम सम्बन्धों और उनके मनोविज्ञान पर भी संग्रह में महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं। ‘भँवर’, ‘अपराध बोध’ और ‘निर्णय’ इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। ‘निर्णय’ प्रेम में आहत एक युवती मनीषा के साहसिक निर्णय की कहानी है। शोध-कार्य करने के दौरान मनीषा से उसके प्रोफेसर आशीष प्रेम करने लगते हैं, पर अचानक ही थोड़े से स्वार्थ के लिए वे उसे ठुकराकर अन्यत्र विवाह कर लेते हैं। मनीषा इस बात से आहत है, पर विचित्र संयोग यह है, आशीष की शादी मनीषा की बुआ की लड़की सुनीता से हुई है, इतने निकट रिश्ते में आशीष से उसकी मुलाकात की संभावनाएँ बनी हुई हैं। भविष्य में उसे शोध- कार्य के लिए एक बार लखनऊ जाना पड़ता है। आशीष और सुनीता लखनऊ में ही हैं। बुआ का आग्रह है कि वह जाकर सुनीता के घर ही रुके। मनीषा लखनऊ की यात्रा करते हुए द्वंद्व में रहती है पर लखनऊ पहुँचकर निर्णय करती है कि वह सुनीता के यहाँ नहीं जाएगी। उसका यह निर्णय उसके स्वतंत्र भविष्य की राह खोलने वाला है। ‘अपराधबोध’ नारी मनोविज्ञान के एक नए आयाम को प्रस्तुत करती है। छोटा सा शक सम्बन्धों को किस प्रकार ग्रस लेता है, यह इस कहानी से समझा जा सकता है। कहानी की प्रमुख पात्र मीरा को अपनी सखी सुहानी की मृत्यु की सूचना मिलती है पर उसे लगता है कि सुहानी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी जब उसने सुहानी का विश्वास तोड़ा था।

सुहानी और मीरा बचपन की सखियाँ थीं, परिस्थितिवश वे बिछड़ जाती हैं। लंबे अंतराल बाद सुहानी शोध के संदर्भ में मीरा के घर आकर रुकती है। मीरा का पति वीरेन उससे सदा दूरी बनाकर रखता है। एक दिन सुहानी अपना अतीत मीरा के सामने रखती है। पिता की मृत्यु के बाद वह अपनी माँ और छोटी बहिन के साथ रहती थी। अचानक एक दिन उसकी जिंदगी में एक तूफान आ जाता है, बाजार से लौटते वक्त तेज आँधी- तूफान के दौरान कोई उसे अपने घर के अंदर खींचकर दुराचार करता है, जिससे वह टूट जाती है। उसके बाद वह परिवार के साथ शहर छोड़कर चली जाती है। सुहानी की व्यथा मीरा को भी स्तब्ध कर देती है। सुहानी को लम्बे समय तक वहाँ रुकना पड़ता है। इसी अंतराल में मीरा अस्वस्थ हो जाती है तो सुहानी पूरे परिवार की व्यवस्था सम्भाल लेती है। एक रात अचानक मीरा उठती है तो वह सुहानी को पति वीरेन के कमरे में उसके बेड के पास बैठे हुए देख लेती है। क्रोध और आवेश में वह सुबह होते ही सुहानी को अपने घर से निकाल देती है। जब वीरेन जागता है तो बतलाता है कि रात्रि में उसे बहुत तेज बुखार था, बैचेनी की अवस्था में सुहानी ने उसे बर्फ की पट्टी रखी, तब आराम हुआ।मीरा को अपनी भूल का अहसास होता है, उसे अपने निर्णय पर पछतावा होता है, ठीक उसी समय वीरेन भी पश्चाताप की मुद्रा में बतलाता है कि सुहानी से दुराचार जिस युवक ने किया था, वह कोई और नहीं वीरेन ही था, पर सुहानी उसे देख नहीं पाई थी। इस बात से मीरा विचित्र अपराधबोध से भर जाती है। संयोग पर घटित यह कहानी एक अवसाद भाव से समाप्त होती है।

‘भँवर’ कहानी भी संयोग पर आधारित है। एक नारी के जीवन में अचानक घटित होने वाली घटनाएँ उसे किस प्रकार तोड़ सकती हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ‘भंवर’ की समीक्षा का विवाह कैप्टन मनीष से होता है। अचानक युद्ध छिड़ने पर मनीष को मोर्चे पर जाना पड़ता है, वहाँ वह लापता हो जाता है। लंबे अंतराल तक उसका कोई पता न चलने के कारण विभाग उसे मृत घोषित कर देता है।समीक्षा अपनी सास के साथ जीवन के दिन काटने लगती है। उसकी सास उसका दूसरा विवाह करा देती हैं। नियति का चक्र कुछ अलग चलता है। एक दिन मनीष उसे मिलता है झुलसा चेहरा लिए, उसका विवाह हो चुका है, एक बेटी भी है उसकी।पहले तो मनीष उसे पहचानने से इंकार करता है, फिर उससे वर्तमान को स्वीकारने की सलाह देकर आगे बढ़ जाता है।

नारी मनोविज्ञान की एक और बहुत सहज सी कहानी है ‘कायाकल्प’। ये कहानी एक लड़की नेहा को मायके में मिलने वाले निश्छल स्नेह की कहानी है। नेहा के पिता नहीं है। उसके भैया- भाभी उसे बहुत चाहते हैं। भैया- भाभी और माँ से मिलने वह विवाह के बाद हर हफ्ते मायके आ जाती है। मायके से अपने मोह के कारण वह भैया- भाभी की सुविधा का भी ध्यान नहीं रखती। एक दिन मायके आने पर भैया- भाभी सदा की तरह स्वागत करते हैं, अचानक उसकी भेंट एक पुरानी सहेली से होती है तो उसे ज्ञात होता है कि भैया- भाभी कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम बना चुके थे पर शायद उसके कारण नहीं जा रहे हैं। यह जानकर उसे अपनी भूल का अहसास होता है, और वह अपने घर वापस जाने का निर्णय करती है। स्नेह- भीगे पारिवारिक सम्बन्धों की यह मोहक कहानी संदेश देती है कि रिश्तों में परस्पर एक दूसरे की सुविधा का भी ध्यान रखना जरूरी है।

मध्यवर्ग की नारियों के साथ ही वृद्धों की समस्याओं को भी लेखिका ने बहुत प्रभावी ढंग से उठाया है। ‘अपना घर’ की गृहस्वामिनी के स्वप्न घर के उत्तरदायित्वों के निर्वाह में शनैः शनैः बिखर जाते हैं। अपने स्वयं के घर में रहने का उसका स्वप्न पूर्ण नहीं हो पाता। दोषी कोई नहीं, सम्पूर्ण व्यवस्था है, आर्थिक अभाव हैं। वहीं ‘मृगतृष्णा’ के कथानायक रामप्रकाश शर्मा अध्यापन करते हुए छोटे शहर में जीवन व्यतीत करते हैं। बेटा न्यूयार्क में नौकरी करता है। सेवानिवृत्ति के बाद वे सोचते हैं कि बेटे के पास अमेरिका जाकर रहें, लोग बहुत समझाते हैं, पर वे नहीं मानते और बेटे के पास चले जाते हैं पर वहाँ जाकर उस व्यवस्था में वे स्वयं को बिल्कुल अकेला पाते हैं।

‘संबंधों का अहसास’ भी बुजुर्ग माता-पिता के मनोविज्ञान को बहुत प्रभावी ढंग से चित्रित करने वाली कहानी है। माँ- बाप बेटे का भविष्य सँवारने के लिए त्याग- तपस्या करते हैं, अपने सारे सपनों को और सुखों को तिलांजलि देते हुए अपने भविष्य को बेटे के साथ जोड़कर देखते हैं पर बेटे के विवाह और नौकरी के बाद सम्बन्धों की उष्णता खत्म होने लगती है। बेटा वर्षों बाद घर आता भी है तो मेहमान की तरह। माँ को ये प्रश्न व्यथित करता है कि बेटे के साथ आत्मीय सम्बन्धों की उष्णता कहाँ खो गई।क्यों अब सम्बन्ध केवल शिष्टाचार की औपचारिकता तक सीमित रह गए। ‘विसर्जित होते हुए’ भी वृद्धावस्था के अकेलेपन की पीड़ा को व्यक्त करती है।

मध्यवर्ग में महानगरों में एक ऐसा आभिजात्य वर्ग भी है जो आडंबरप्रिय है और सम्बन्ध निर्वाह के प्रति शुष्क है जबकि उसकी तुलना में ग्राम्यांचलों या छोटे शहरों में सम्बन्धों की आत्मीयता को जीवंत रखने वाले लोग भी हैं। इस फर्क को ‘परतें’ कहानी में बहुत सुंदर ढंग से उभारा गया है।

‘छुट्टी की मुसीबत’ एक अलग ढंग की समस्या को सामने लाती है। साधारण सी स्थितियों में विकसित होती हुई इस कहानी में कथानायक एक दिन की छुट्टी लेकर घर पर आराम करना चाहता है, पर सारे दिन इतने लोग आते हैं, कोई याचक, कोई सेल्सगर्ल, कोई चंदा माँगने वाला या कोई और कि उसकी छुट्टी व्यर्थ जाती है। ऐसी स्थितियों से प्रायः हर मध्यवर्गीय व्यक्ति को कभी न कभी गुजरना ही पड़ता है।

संवेदना को झंकृत करने वाली एक छोटी और महत्त्वपूर्ण कहानी है ‘पहली बार’। एक ईमानदार आदमी को इस व्यवस्था में सम्मानपूर्वक जीवनयापन करना काँटों पर चलने के समान है। इस कहानी के नायक को भी अपनी ईमानदारी के कारण पारिवारिक दायित्व निर्वाह में कठिनाइयाँ तो आती ही हैं साथ ही बच्चे तक उसकी ईमानदारी से खीझते हैं। एक दिन बच्चों के होमवर्क की कापियों के लिए वह हिम्मत बटोरकर अपने ऑफिस की स्टेशनरी चोरी से घर ले जाना चाहता है।किसी तरह साहस बटोरकर कागज बैग में भर तो लेता है, पर ऑफिस के बाहर ही लड़खड़ाकर गिरता है और सारे कागज सड़क पर बिखर जाते हैं। कहानी अपने कलेवर में लघु है पर उसकी संवेदना व्यापक है। कहानी अंत में एक टीस छोड़ जाती है।

सांप्रदायिक समस्या भी समाज की एक बड़ी समस्या रही है। दो दशक पूर्व तो प्रायः दंगे होना एक सामान्य बात थी। इस समस्या पर भी संग्रह में एक कहानी है ‘तो फिर किसके लिए’। यह कहानी दंगों के दौरान बस में सवार यात्रियों के भय और अपनेपन के द्वंद्व से विकसित होती है।विरोधी संप्रदाय के यात्री एक दूसरे से भयभीत हैं पर संकट की घड़ी में सभी एक दूसरे को सहयोग करते हैं। ये कहानी एक बड़ा प्रश्न खड़ा करती है कि सब साथ मिलकर रहना चाहते हैं तो फिर ये दंगे- फसाद आखिर किसके लिए और क्यों होते हैं? इसी प्रश्न को छोड़कर कहानी समाप्त हो जाती है।

कथ्य के स्तर पर विविध विषयों वाली कहानियाँ शिल्प के स्तर भी सशक्त एवं प्रभावी हैं। भाषा पात्रानुकूल और सहज है। प्रत्येक कहानी में रोचकता है, एक सहज प्रवाह है, एक तरलता है जो पाठक को अपने साथ बहाकर ले चलने में समर्थ है।अनेक प्रचलित शैलियों के साथ ही मनोविश्लेषणात्मक एवम पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शैलियों का बहुत प्रभावी प्रयोग कथा लेखिका ने किया है। इन कहानियों का वैशिष्ट्य यह भी है कि प्रायः घटनाएँ संयोग से घटित होती हैं। हर कहानी आदर्श के एक महीन धागे में पिरोई गई है। कहानी यथार्थ की समस्या को लेकर चलती अवश्य है पर किसी आदर्श पर ही उसका अवसान होता है। कहीं भी पात्रों के अंदर आक्रोश या विद्रोह की भावना जन्म नहीं लेती, वे अपनी परिस्थितियों को थोड़ी सी कशमकश के बाद यथावत स्वीकार कर लेते हैं। प्रायः मध्यवर्ग में ऐसा होता भी है।कहानियों में समाज के वे ही चित्र हैं जो लेखिका ने अपने आस- पास देखे हैं जैसा कि उन्होंने स्वयं भूमिका में लिखा भी है, “लेखक जो कुछ भोगता है,जो कुछ देखता है। स्व- अनुभूति, सर्व अनुभूति को केंद्र में रखकर किसी रचना की सर्जना करता है।मैंने भी वही किया है।”

निःसंदेह ‘दोष किसका था’ संग्रह मध्यवर्ग की व्यथा- कथा और अनुभूतियों को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करती कहानियों का सुंदर गुलदस्ता है।

दोष किसका था (कहानी- संग्रह): सुदर्शन रत्नाकर, पृष्ठ: 120, मूल्य: 340, द्वितीय संस्करण: 2023, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059