मध्य वर्ग की अवधारणा और हिंदी साहित्य / राहुल सिंह

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हिंदी साहित्य में आधुनिकता के उदय के कारणों और परिस्थितियों पर विचार करने के क्रम में यह बात सामने आई कि आधुनिकता के लिए भौतिक आधारों की उपस्थिति के साथ साथ सामाजिक आधार का भी होना जरूरी है; कारण, आधुनिकता केवल भौतिकवाद की प्रक्रिया नहीं बुद्धिवाद की भी प्रक्रिया है। आधुनिकता के सीमित भौतिक आधारों (रेल, डाक, तार आदि) का विकास अंग्रेजों के द्वारा भारत में किया गया। इन भौतिक आधारों पर भी अधिकार अंग्रेजों का ही था। लेकिन क्या आधुनिकता के सामाजिक आधार का भी निर्माण और विकास अंग्रेजों के आगमन के साथ या बाद में ही हुआ? इस सवाल के जवाब के मूल में भारतीय मध्यवर्ग का आरंभिक इतिहास छिपा है क्योंकि 'भारतीय मध्यवर्ग आधुनिकता का उत्पाद और उत्पादक दोनों है।'1 चूँकि मध्यवर्ग भारतीय नहीं यूरोपीय अवधारणा है, भारत में वर्ग की नहीं वर्ण और जाति की अवधारणा रही है, इसलिए सवाल यह भी उठता है कि क्या यूरोप विशेषकर फ्रांस और इंग्लैंड में भी मध्यवर्ग आधुनिकता का उत्पाद और उत्पादक दोनों रहा है? या यह बात भारतीय मध्यवर्ग पर ही लागू होती है? इसकी जानकारी के लिए यूरोप में मध्यवर्ग के विकास पर नजर डालना आवश्यक है।

'ऐतिहासिक रूप से बूर्जुआ वर्ग ही आगे चल कर मध्यवर्ग के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि यह वर्ग जमींदार और मजदूरों के बीच का था। वैसे अपने वास्तविक और आरंभिक अर्थों में बूर्जुआ मध्यकालीन यूरोपीय शहर के 'मुक्त निवासियों' (Free Residents) के लिए प्रयुक्त होता था। बूर्जुआ पद सबसे पहले मध्यकालीन फ्रांस के उन निवासियों के लिए प्रयोग में आया था जो समाज में किसानों और जमीन पर आधिपत्य जमाए रखनेवाले कुलीनों के मध्य स्थित था।'2 क्लाउड अल्वेयर (Claude Alvares) ने अपनी किताब 'होमो फेबर' में मध्यवर्ग को व्यापक संदर्भ में देखने की कोशिश की है और उसी क्रम में मध्यवर्ग के जन्म के ठोस कारणों को सामने रखा है। वे कहते हैं - '16वीं शताब्दी के मध्य में तीसरी बार जनसंख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जिसका एक परिणाम अनाज और जमीन की कीमतों में वृद्धि के रूप में सामने आया। इसका मतलब यह कि जिनके पास जमीनें थीं, जो और जमीनें खरीद सकते थे, वे समृद्ध हो गए और दूसरे बचे लोग काफी गरीब हो गए। जनसंख्या का यह गरीब तबका, जिनका जीवन भूमि से जुड़ा था, काम की (किसी भी काम की) तलाश में विकासशील शहरी केंद्रों की ओर उन्मुख हुआ। जड़ से उजड़े हुए इन भूमिविहीन मजदूरों ने शहरी क्षेत्र के मजदूरों की परेशानियाँ बढ़ा दीं। अतिरिक्त श्रम की उपलब्धता से मजदूरी (पारिश्रमिक) में काफी कमी आई। उदाहरण के तौर पर 1571 में निर्माण के क्षेत्र में मिलनेवाली मजदूरी से सौ साल पहले खरीदे जा सकनेवाले भोजन का दो तिहाई हिस्सा ही खरीदा जा सकता था और जीवन स्तर में आई यह गिरावट अगले चालीस साल तक जारी रही।'3 कठिन परिस्थितियों में यह जड़विहीन वर्ग संघर्ष करता रहा। जीने के लिए अलग अलग पेशे अपनाए, कृषि से ले कर किस्म किस्म की कारीगरी तक में इसने हाथ आजमाए। इन्हीं में से कुछ अपने उद्यम के बल पर अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सके। नए कामों को करने का जोखिम उठाया और कामयाबी हासिल की। शहरों में जनसंख्या बढ़ती चली जा रही थी जमीन पर आधिपत्य पुराने भू स्वामियों (सामंतों) का था जो मुख्यतः कृषि के लिए भूमि का उपयोग कर रहे थे। इस बीच अपने उद्यम से विकसित तबका, (बूर्जुआ वर्ग) जिसके पास धन था पर जमीन नहीं थी, अपने विकास के लिए सामंतों के भूमि पर बने इस एकाधिकार को तोड़ना चाह रहा था।

'पश्चिमी यूरोप में राष्ट्र राज्यों के उदय के साथ मध्य काल का अवसान देखा जाता है, साथ ही राजतंत्र के हाथों में शक्ति का केंद्रीकरण भी देखने को मिलता है। इस दौर में अपने वर्ग स्वार्थ की पूर्ति के लिए बुर्जुआ वर्ग ने अपना समर्थन सामंतों के खिलाफ राजतंत्र को दिया।'4 परिणामतः सामंतवाद कमजोर हुआ और पूँजीवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस तरह बूर्जुआ वर्ग ने स्वयं को पूँजीवाद का समर्थक साबित किया। इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को अगर फ्रांस के संदर्भ में रख कर देखें तो बात ज्यादा स्पष्ट होगी।

'यूरोप सामंतशाही की गिरफ्त में था। इंग्लैंड में अवश्य 1688 की रक्तहीन क्रांति के बाद सत्ता पर मध्यवर्ग हावी होता जा रहा था। (मध्यवर्ग से मतलब बूर्जुआ वर्ग) ...1715 से 1785 के मध्य अकेले फ्रांस में करीब 100 किसान विद्रोह हुए थे। इसके अतिरिक्त हड़तालें होती रहती थीं। पेरिस में किताबों की जिल्द बनाने वालों से ले कर बढ़ई और लोहार तक हड़ताल करते थे। ...फ्रांस की क्रांति के बीज उसी समाज में बिखरे हुए थे। सारा समाज तीन भागों में बँटा हुआ था जिसमें पादरी प्रभुत्वशाली थे। दूसरा वर्ग सामंतों का। इनके पास फ्रांस की अधिकांश जमीन थी। तीसरा वर्ग ऐसे लोगों का था जो न पादरी थे न सामंत अर्थात समाज का बहुमत। इसमें किसान, मजदूर, नौकरी पेशावाले, वकील, पत्रकार सभी शामिल थे।' सबकी अलग अलग समस्याएँ थीं लेकिन ये सब एक बात से जुड़ते थे, इन्हें सामाजिक समानता नहीं प्राप्त थी। सार्वजनिक स्थानों से ले कर व्यक्तिगत जीवन तक इन्हें अपनी हेयता का आभास रहता था। इन सबके ऊपर था कर का बोझ। इसे भी वह शायद वहन कर लेता लेकिन उसे यह अहसास था कि संपन्न और कुलीन व्यक्ति राज्य को कुछ भी नहीं दे रहा है और सारे लाभ उठा रहा है। दूसरी ओर किसान सब कुछ दे रहा है और बदले में उसे कुछ भी नहीं मिल रहा है। इस स्थिति में उसका असंतोष यदि बढ़े तो स्वाभाविक ही था।

जब अमरीका का स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों के विरुद्ध शुरू हुआ तो दुश्मन के दुश्मन की मदद करने के लिए फ्रांस ने अमरीका की भरपूर मदद की। इससे आर्थिक दबाव बढ़ा। करदाताओं की एक सीमा होती है। जब वहाँ से वसूली बढ़ने की संभावना नहीं रही, धनिकों पर कर लगाने की दृढ़ नीति लागू नहीं की जा सकी और राज्य के खर्चे पूरे नहीं पड़े तो स्थिति डाँवाडोल हो गई। तत्कालीन फ्रांस की आर्थिक स्थिति सुधारने का एकमात्र तरीका था उन लोगों पर कर लगाना, जो करमुक्त थे, जो देश की अधिकांश जमीन और संपत्ति के मालिक थे। विशिष्ट लोगों की सभा अपने जैसे विशेषाधिकार संपन्न लोगों पर कर कैसे लगाती? परिणामतः राजा से मतभेद होने के कारण उसने स्वयं को देश की संविधान सभा घोषित कर दिया। पेरिस की क्षुब्ध भीड़ ने 14 जुलाई 1789 को क्रांति कर दी।'5

क्रांति के मूल में जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारण थे वह तो ऊपर की बातों से स्पष्ट है लेकिन फ्रांसीसी क्रांति का विचारधारात्मक आधार विकसित करने में मोंतेस्क्यू (1689-1755) वाल्तेयर (1694-1760) और रूसो (1712-1782) का बड़ा योगदान था। फ्रांस की क्रांति का नारा : समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व रूसो के विचारों से प्रेरित था। इसलिए इतिहासकारों का मानना है कि 'वास्तविक क्रांति से पहले एक बौद्धिक क्रांति हो चुकी थी।'6 और बौद्धिक क्रांति का अगुआ था फ्रांसीसी समाज का वह तीसरा वर्ग जिसमें बूर्जुआ वर्ग शामिल था। 'जिसका ध्यान पूँजी बढ़ाने और मुनाफा कमाने पर ही रहता था। लेकिन इनकी पूँजी बढ़ाने और मुनाफा कमाने का व्यापार आसानी से चल नहीं सकता था क्योंकि सत्ता सामंतों के हाथ थी, भूमि पर उनका अधिकार था और भूमि से संबंधित होने के कारण खेतिहर और मजदूर भी उन्हीं के मातहत थे। इसीलिए बूर्जुआ वर्ग ने अपने को गरीबों का रहनुमा कहना शुरू किया और समता, स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व का नारा दिया। निम्नवर्ग उसके चकमे में आ गया और बेहतर जीवन की आकांक्षा से प्रेरित हो कर उसने सामंतों के खिलाफ विद्रोह किया। लेकिन विद्रोह के बाद जब नई समाज व्यवस्था कायम करने की बात चली तो शासन सूत्र सँभालने और नीति नियम निर्धारण में बूर्जुआ वर्ग ही सामने आया। तब उसने सारे काम अपने लाभ के लिए किए और निम्नवर्ग का कोई उपकार न किया।'7 इससे बूर्जुआ वर्ग का अवसरवादी चरित्र प्रमुखता से इतिहास में दर्ज हुआ।

फ्रांसीसी क्रांति को मध्यवर्ग के विकास के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है। फ्रांसीसी क्रांति की जमीन जिन दिनों विकसित हो रही थी उन्हीं वर्षों में सबसे पहले बूर्जुआ पद से अलग हट कर मध्यवर्ग पद का प्रयोग पहलेपहल होने के प्रमाण मिलते हैं। 'रेवरेंड थॉमस गिस्बर्न ने सबसे पहले मध्यवर्ग का एक पद के रूप में प्रयोग 1785 में किया था। इस पद के माध्यम से गिस्बर्न ने उस धनी और ठेकेदार (जोखिम उठा कर नया उद्यम शुरू करनेवाला) वर्ग की ओर संकेत किया था, जो जमींदारों और कामकाजी मजदूरों के बीच में स्थित था।'8 इस तरह बूर्जुआ वर्ग से जिस वर्ग का संकेत होता था, मध्यवर्ग का सामाजिक आधार भी वही था। यही कारण रहे कि बाद के दिनों में बूर्जुआ वर्ग मध्यवर्ग का पर्याय हो गया। इसके कारण कई किस्म की उलझनें भी पैदा हुईं। मसलन भारत जैसे देश में जहाँ न बूर्जुआ वर्ग और न ही मध्यवर्ग जैसे शब्द परंपरा से उपलब्ध थे वहाँ इसे समझने की कोशिश इन्हीं आयातित पारिभाषिक शब्दों से करने के प्रयत्न हुए, जिसके परिणाम उलझानेवाले हुए।

'उच्च मध्यवर्ग का वह रूप जो बूर्जुआ वर्ग का पर्याय समझा जाता है, सभी देशों में एक सा नहीं रहा है। विभिन्न देशों के इतिहास से इस बात की पुष्टि होती है। जैसे भारतवर्ष में मध्यवर्ग का अस्तित्व बहुत पहले से था और उसमें भी कुछ लोग पद, प्रतिष्ठा, सामाजिक और आर्थिक हैसियत की दृष्टि से बहुत ऊँचा स्थान रखते थे फिर भी उनको अंग्रेजी बूर्जुआ वर्ग का पर्याय नहीं कहा जा सकता है। ...भारतीय परिस्थितियों में इनका वैसा महत्व नहीं था जैसा कि इंग्लैंड या फ्रांस में बूर्जुआ वर्ग का। इस दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि उच्च मध्यवर्ग को केवल बूर्जुआ वर्ग का ही पर्याय नहीं मानना चाहिए। यदि हम ऐसा करेंगे तो इस वर्ग के केवल एक ही रूप का बोध होगा जो मुख्यतः इंग्लैंड और फ्रांस की ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है।'9 लेकिन भारतीय मध्यवर्ग और हिंदी साहित्य के संदर्भ में विचार करें तो आप पाएँगे कि ऐसी भूल हुई है। यहाँ बूर्जुआ लगभग पूँजीपति का बोधक है और मध्यवर्ग बूर्जुआ के अर्थ में दूर दूर तक प्रयुक्त नहीं होता। हिंदी साहित्य में यह दोनों अलग अलग अर्थों में प्रयुक्त होते हैं।

मध्यवर्ग के विकास के इतिहास में अगर फ्रांस की क्रांति एक महत्वपूर्ण पड़ाव है तो इसका दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति है। इन दोनों क्रांतियों का उल्लेख इसलिए भी कर रहा हूँ कि 19वीं सदी का निर्माण इन दोनों क्रांतियों से उत्पन्न शक्तियों ने किया था। जहाँ तक इंग्लैंड का सवाल है तो 'मध्यवर्ग के उत्थान का पहला चरण चौदहवीं शताब्दी में ही देखने को मिलता है जब दुकानदारों के रूप में एक अलग सामाजिक और कामकाजी वर्ग का उदय होता है। आगामी सौ वर्षों में यह वर्ग व्यापारिक पूँजी की मदद से कारीगरों को वस्त्र निर्माण के लिए, डिजायन के लिए अग्रिम राशि उपलब्ध कराने लगता है और उत्पादित वस्त्रों का व्यापार करने लगता है। पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के व्यापारिक पूँजीपतियों ने जनसाधारण की शिक्षा के नाम पर ऐसे विद्यालयों की स्थापना की जो उनकी बढ़ती भौगोलिक और व्यापारिक जरूरतों की पूर्ति में सहायक हों।'10 इसके दूरगामी परिणामों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 'अठारहवीं शताब्दी ने भौगोलिक ज्ञान की उस आधारशिला को पूर्ण कर दिया था, जिस पर उन्नीसवीं शताब्दी का निर्माण करना था।'11 यहाँ हर बात के ब्योरे में जाने का अवकाश नहीं है इसलिए उनकी तरफ संकेत मात्र किया जा रहा है। तकनीकी क्षेत्रों में उन्नति के हर कदम के साथ कौशलों का उद्भव और विकास भी तेजी से होता है। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने विश्व इतिहास में अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 'औद्योगिक क्रांति के पहले चरण की प्रधान विशेषता विभिन्न शक्तिचालक कारखानों की स्थापना है जो आरंभ में जनशक्ति से और बाद में कोयले की शक्ति से चले। इससे ऐसे मजदूरों के समूहों का निर्माण हुआ जो पहले के ग्रामीण मजदूरों की तुलना में ज्यादा गरीब था। इन उद्योगों ने अपनी सुविधानुसार नए शहरी केंद्रों का निर्माण किया जो बसे हुए शहरों से दूर थे। औद्योगीकरण के अगले चरण में रेलवे और जहाजरानी उद्योग का विकास हुआ। इससे जहाँ एक ओर वितरकों के लिए दूरी कम हुई वहीं दूसरी ओर नए उत्पादकों के लिए बाजारों के नए द्वार खुले। उद्योगों की बढ़ते तकनीकी प्रकृति के कारण नौकरी में वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान की जानकारी रखनेवालों की भागीदारी बढ़ी। उत्पादन और वितरण की बढ़ती जटिलताओं ने एक नए प्रबंधक वर्ग को जन्म दिया। ऐसे पेशे जो अब तक कमतर आँके जा रहे थे अचानक महत्वपूर्ण हो उठे। सर्वहारा के साथ साथ प्रबंधकों और निदेशकों का भी एक समूह उठ खड़ा हुआ।'12 इसे नव मध्यवर्ग (New Middle Class) की संज्ञा दी गई। मध्यवर्ग ने बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक एक लंबा रास्ता तय कर लिया था। इसके चरित्रा, स्वरूप और भूमिका में बदलाव आ चुका था। इसके इतिहास को रेखांकित किए जाने की जरूरत सामने आने लगी थी।

बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के बाद मध्यवर्ग की अवधारणा को ले कर समाजशास्त्र और समाजविज्ञान की अन्य शाखाओं में कई अध्ययन और शोध सामने आने शुरू हुए। दरअसल यह पूरी कोशिश मध्यवर्ग के स्वरूप को समझने की थी जिससे आनेवाले समय में इसकी भूमिका का कुछ अनुमान किया जा सके। क्योंकि फ्रांस की क्रांति में इस वर्ग ने जो भूमिका निभाई थी वह सर्वहारा के हितों के विरुद्ध थी। मध्यवर्ग की अवधारणा और उससे जुड़े मुद्दों पर मार्क्सवादी दृष्टि से विचार करते हुए प्रसन्ना मिश्र ने लिखा है : 'सामाजिक उत्पादन की ऐतिहासिक पद्धति में अपने अनिश्चित और परिवर्तनशील भूमिका के कारण इसे किसी निश्चित अवस्थिति में नहीं रखा जा सकता है। किसी भी क्रांतिकारी आंदोलन में इसकी भूमिका संदिग्ध और ढुलमुलपन से युक्त रही है। जिन्हें इतिहास की थोड़ी समझ है वे इस बात का निर्णय करने में सक्षम हैं कि यह वर्ग अपनी सुविधानुसार लोकतांत्रिक अधिकारों और फासीवादियों का समर्थक हो सकता है। इसलिए इसके मस्तिष्क और गतिविधियों पर सतर्कतापूर्वक नजर रखे जाने की जरूरत है। एकीकृत मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका पर मार्क्स एंगेल्स का अटल विश्वास था पर नए और पुराने दोनों मध्यवर्ग के संदर्भ में उनके मन में बहुत थोड़ा सम्मान था।13 स्वयं मार्क्स ने 'कैपिटल : थियरिज ऑफ सरप्लस वैल्यू' के चौथे खंड में रिकार्डो की आलोचना लगातार बढ़ते मध्यवर्ग की अनदेखी के कारण की है। एंगेल्स ने भी लिखा है, 'मेरे लिए सबसे बड़ी बाधा तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा गुमराह किए जानेवाले मत के समर्थन में व्यक्त किए जानेवाले विचार हैं।'14 इनके अलावा लेनिन, माओत्से तुंग आदि ने भी सर्वहारा आंदोलनों पर विचार करते हुए इस वर्ग की भूमिका को रेखांकित किया है। मार्क्सवादियों की इन चिंताओं से इतर अन्य विचारकों, चिंतकों और समाजशास्त्रिायों ने मध्यवर्ग से जुड़ी दूसरी समस्याओं पर भी विचार किया है। सबसे पहले तो इसके विकास को रेखांकित करते हुए इसका इतिहास प्रस्तुत किया गया। जिसमें मूल रूप से कुछेक सवालों पर बल दिया गया। जैसे मध्यवर्ग के अंतर्गत किन्हें शामिल किया जा सकता है? विकसित औद्योगिक समाज की वर्ग व्यवस्था में इनका स्थान कहाँ है? मध्यवर्ग में केवल एक ही वर्ग है या इसमें कई वर्ग हैं? मध्यवर्ग किसके निकट है : पूँजीपति के या सर्वहारा के? या वह इन दोनों से स्वतंत्र हैं? इसकी संभावित ऐतिहासिक भूमिका क्या हो सकती है? पुराने मध्यवर्ग और नए मध्यवर्ग में क्या फर्क है? मध्यवर्गीय जीवनमूल्य कौन कौन से हैं? मध्यवर्ग में स्त्री के स्थान और भूमिका के सवाल तो उठाए ही गए साथ ही भविष्य के समाज में इसका क्या योगदान होगा जैसे सवालों पर भी विचार किया गया है।

अपने आरंभिक अर्थों में मध्यवर्ग जिसका बोध कराता था फ्रांस की क्रांति के समय उसका वही अर्थ नहीं रह गया था और आगे की औद्योगिक क्रांति ने तो पूरी तस्वीर ही बदल डाली। बदलते दौर में कभी आर्थिक आधार तो कभी रहन सहन का स्तर, कभी पेशे तो कभी जीवनमूल्यों के आधार पर इसकी पहचान और परख की गई। इस लिहाज से Roy Lewis और Angus Maude की किताब 'दी इंग्लिश मिडिल क्लासेज' बहुत महत्वपूर्ण और दिलचस्प है। महत्वपूर्ण काम के स्तर पर और दिलचस्प अंदाज के स्तर पर। इसका पहला अध्याय है 'हू आर दि मिडिल क्लासेज?'। इसमें ये लिखते हैं : 'कोई व्यक्ति किस वर्ग से ताल्लुक रखता है इसके निर्धारण के लिए कई कारकों पर विचार करना पड़ता है जिनमें आय, व्यवसाय, उच्चारण, खर्च की आदतें, आवास, संस्कृति, खाली वक्त को कैसे गुजारने की चाह, कपड़े, शिक्षा, नैतिक दृष्टिकोण और अन्य व्यक्तियों के साथ उसके संबंध प्रमुख हैं।'15 उसके बाद इन्होंने मध्यवर्ग के अंतर्गत आनेवाले पेशेवर समूहों को इन कारकों की कसौटी पर कसा है और जैसे जैसे वे इन्हें परखते जाते हैं यह कारक मध्यवर्ग के निर्धारण के लिए अपर्याप्त जान पड़ने लगते हैं। स्वयं मध्यवर्ग के अंतर्गत किसी एक पेशे से जुड़े सारे लोगों के वर्ग निर्धारण में समस्या पैदा हो जाती है। जैसे ये लिखते हैं : 'आय के आधार पर वर्ग का निर्धारण कठिन है क्योंकि कम आय किसी को सर्वहारा घोषित कर सकती है तो उससे ज्यादा आय उसे मध्यवर्ग का साबित कर सकती है। ...आय के आधार पर वर्गीकरण करते समय आनुवांशिकता का प्रभाव, परिवेश और शिक्षा के प्रकार्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए।'16 दूसरी जगह पर वे लिखते हैं कि पेशे के आधार पर भी वर्ग का निर्धारण संभव नहीं है। कई पेशों का उदाहरण देते हुए वे इसको प्रमाणित करते हैं। वे लिखते हैं : 'ज्यादातर पेशों में ऐसे लोग होते हैं जो निजी 'प्रैक्टिस' कर के शुल्क वसूलते हैं जबकि अन्य लोग (समान योग्यता धारण करनेवाले) राज्य या निजी संस्थानों से वेतन प्राप्त करते हैं।'17 इससे जो निष्कर्ष निकल कर सामने आता है वह यह कि इस वर्ग की संरचना अत्यंत जटिल होने के साथ परिवर्तनशील भी है। इस वर्ग की पहचान सापेक्षता में मतलब किसी से तुलना करके ही की जा सकती है।

मध्यवर्ग से जुड़ी दूसरी बड़ी समस्या यह जानना है कि वह किन समूहों या व्यक्तियों का समुच्चय है और किसके निकट है सर्वहारा के या पूँजीपति के। चूँकि मध्यवर्ग वर्गीकरण के मार्क्सवादी सिद्धांतों के खाँचों में फिट नहीं बैठता है और समाज में निर्णायक भूमिका निभानेवाले वर्ग के रूप में सामने आने के बाद इसकी अनदेखी संभव भी नहीं थी, इसलिए इस सवाल को केंद्र में रख कर जब छानबीन की गई तो नतीजे कुछ इस प्रकार सामने आए कि मध्यवर्ग जिन 'इंडिविजुअल्स' का समुच्चय है वे 'इंडिविजुअल्स' अलग अलग पृष्ठभूमि से आते हैं। अतः इस असमान और जटिल समूह को एक वर्ग में श्रेणीबद्ध कर पाना मुश्किल है। जबसे मध्यवर्ग अवधारणा के तौर पर सामने आया है तब से ही मध्यवर्ग के भीतर उच्च मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की उपस्थिति को रेखांकित किया जा रहा है। 'विकसित औद्योगिक समाज की वर्ग व्यवस्था में इन वर्ग या वर्गों के स्थान निर्धारण को ले कर कई सिद्धांत प्रचलित हैं। इनका विभाजन मार्क्सवादी और वेबरपंथी सिद्धांतों के रूप में किया जा सकता है। पहले उत्पादन संबंधों के आधार पर अलग अलग सामाजिक वर्गों के उत्पत्ति की बात की जाती थी बाद में उत्पादन संबंधों के स्थान पर बाजार महत्वपूर्ण हो गया। इस संदर्भ में मार्क्स के मतों में अंतर्विरोध देखने को मिलते हैं। एक ओर मार्क्स कहते हैं कि पूँजीपति और मजदूर वर्ग के मध्य बढ़ती शत्रुता मध्यवर्ग के लिए ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न कर देंगे कि उन्हें इनमें से किसी एक का साथ देना ही होगा। वहीं दूसरी ओर कहते हैं कि मध्यवर्ग को अपना आकार इस रूप में बढ़ाना चाहिए कि वे भौतिक वस्तुओं के उत्पादन में प्रत्यक्ष भूमिका निभा सकें जिससे व्यापारिक मजदूर वर्ग की महत्ता में वृद्धि हो सके।

कई मार्क्सवादियों का मानना है कि कार्यालयों में काम करनेवाला मजदूर मूलतः एक अस्थायी वर्ग का हिस्सा है। कुछ ने तो मध्यवर्ग जैसे किसी वर्ग की उपस्थिति को अस्वीकार करते हुए इसे बीच का एक स्तर माना। इस वर्ग को अस्थायी और असुरक्षित रोजगारवाला बता कर ऐसा कहा गया कि जब कार्यालयों का यंत्रीकरण और विस्तार होगा तो यह वर्ग रोजगारविहीन होने के बाद सर्वहारा की चेतना का अनुभव कर इनके साथ आ जुड़ेगा और यह भी कहा गया कि कुछ समय के बाद समाज के मध्य का यह स्तर सर्वहारा की चेतना को धारण कर उनकी राजनीति, संघ और संगठनों में शामिल हो कर वामपंथी दलों के पक्ष में होगा। जबकि कुछ मार्क्सवादियों ने इस वर्ग के सर्वहाराकरण की किसी भी सामान्य प्रक्रिया से इनकार किया।

मार्क्सवादी अपेक्षाओं के प्रत्युत्तर में वेबरपंथी लेखकों ने विरोधी तर्क प्रस्तुत किए। उदाहरण के लिए लॉकवुड (Lockwood, 1958) ने कहा 'लिपिक वर्ग सर्वहारा की चेतना को नहीं अपना सकते क्योंकि जिस कार्य दशा में वे हैं वह अभी भी उन्हें मानवीय श्रम करनेवाले मजदूरों की तुलना में ज्यादा गरिमा प्रदान करता है।' गिडिन्स (1973) ने कहा कि सामाजिक वर्गों के द्वंद्वात्मकता का सिद्धांत असफल होगा क्योंकि मध्यवर्ग ने अपने कामकाज के क्रम में मानवीय श्रम की तुलना में, जो सम्मानजनक आर्थिक लाभ अपनी तकनीकी और शैक्षणिक योग्यता के बल पर हासिल किया है, उसको पहचान पाने में मार्क्सवाद का यह सिद्धांत अक्षम है। कुछ लेखकों ने किसी एकीकृत श्रेणी के रूप में मध्यवर्ग की उपस्थिति से इंकार किया है बल्कि उनका मानना है कि यह एक खंडित वर्ग (Fragmentary Class) है। जिसका निर्माण विभिन्न सामाजिक समूहों के मेल से हुआ है जो इस वर्ग की भाँति ही अलग अलग प्रतीकों का अभिग्रहण अपने हिसाब से करता है। बाद के शोधों ने इस बात को प्रमाणित किया है कि मध्यवर्ग व्यापक असमानताओं का समुच्चय है।'18

पुराना मध्यवर्ग ही वह आधार था जिस पर नए मध्यवर्ग का आगे चल कर विकास हुआ इसलिए नए मध्यवर्ग को पुराने मध्यवर्ग का विकास भी कहा गया। हालाँकि पुराने मध्यवर्ग और नए मध्यवर्ग के अलगाव के कई बिंदु हैं। जहाँ पुराने मध्यवर्ग का सामाजिक आधार सिर्फ कारीगर, छोटे दुकानदार, व्यापारी, किसान, छोटे उद्योगपति और पूँजीपति थे; वहीं नए मध्यवर्ग में कौन शामिल थे इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। पुराने मध्यवर्ग का संबंध जहाँ व्यापारिक पूँजीवाद से था वहीं नए मध्यवर्ग का संबंध औद्योगिक पूँजीवाद से रहा। 'पुराना मध्यवर्ग पूँजीवादी वर्ग संरचना का हिस्सा बने बिना उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति से चालित होता था जबकि नए मध्यवर्ग ने अपना ढुलमुल वर्ग चरित्र सीधे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की संरचना से लिया था।'20 बी.बी. मिश्रा ने नए मध्यवर्ग की दो अन्य विशेषताओं की ओर संकेत किया कि पहला, इसने सामान्य जीवन शैली और व्यवहार पद्धति विकसित की और दूसरा यह कि अपने सामाजिक और राजनीतिक आचरण से उदार और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया। इस तरह नए मध्यवर्ग के सामने आने से हम देखते हैं कि यूरोपीय समाज में निर्णायक भूमिका निभानेवाले एक वर्ग के रूप में यह उभरा है। अब यह वर्ग वहाँ शक्ति संरचना का हिस्सा बनता है। जिस 'पब्लिक स्फियर' की चर्चा जार्गुन हेबरमास ने की है उस 'लोकवृत्त' में इस वर्ग की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यूरोप में मध्यवर्ग के विकास में स्त्रियों की चर्चा ज्यादा नहीं मिलती है, जो उदाहरण मिलते हैं वह भी पुरुष वर्ग के उत्थान की तुलना में उल्लेखनीय नहीं जान पड़ता। सामाजिक विचारों के कोश के अनुसार 'ज्यादातर पेशेवर कामगार पुरुष थे और निम्न स्तर के 'व्हाईट कॉलर वर्कर्स' में अधिसंख्य स्त्रियाँ थीं।'21 एक दूसरे स्तर का भेदभाव भी यहाँ देखने को मिलता है और वह यह कि 'महिला सिविल सर्वेण्ट्स को समान पद पर होने के बावजूद पुरुषों की तुलना में 10 फीसदी कम वेतन मिलता था।'22

इस तरह यह कहा जा सकता है कि यूरोप का मध्यवर्ग चुनौतियों का सामना करते हुए विकसित हुआ है। फ्रांस की क्रांति और इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति से प्रभावित होता हुआ और उन्हें प्रभावित करता हुआ इसका विकास हुआ है। क्या भारत में भी मध्यवर्ग का विकास अपनी परिस्थितियों के कारण हुआ या अंग्रेजों का उपनिवेश होने के कारण मध्यवर्ग के विकास को भी उन्होंने अन्य क्षेत्रों की तरह प्रभावित किया? यों तो 'किसी भी देश के संदर्भ में यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है कि किन सामाजिक वर्गों के मेल से वहाँ मध्यवर्ग का निर्माण हुआ है और यह काम तब और भी मुश्किल हो जाता है जब विचार भारत के संदर्भ में किया जा रहा हो।'23 मध्यवर्ग के संदर्भ में उठनेवाले सवालों और समस्याओं का उल्लेख किया जा चुका है। इन सवालों और समस्याओं से इतर भारतीय मध्यवर्ग की कुछ खास समस्याएँ रही हैं। जैसे भारतीय मध्यवर्ग का विकास एक साथ और समरूप तरीके से नहीं हुआ है। पश्चिम के मध्यवर्ग से यह कुछ अर्थों में अलग भी रहा है। अलगाव के कुछ बिंदुओं में पहला है, 'मध्यकालीन यूरोप में अस्तित्वमान मध्यवर्ग का प्रमुख आधार जमीन था लेकिन बाद के दिनों में, जमीन से जब कोई बँधा नहीं रहा तब, यह बड़ी तेजी और व्यापकता के साथ समरूप मध्यवर्ग के निर्माण की प्रक्रिया में लग गया। जबकि मध्यकालीन भारत में अस्तित्वमान मध्यवर्ग के ये कारक निःसंदेह एक समरूप मध्यवर्ग के निर्माण कि प्रक्रिया में सक्षम थे लेकिन यह लगातार कृषि व्यवस्था से संबद्ध हो कर उस पर निर्भर और उसके अधीनस्थ होते चले गए। जहाँ यूरोप में मध्यवर्ग ने अपनी उपयोगिता कृषि व्यवस्था के बाहर साबित की थी वहीं भारत में मध्यवर्ग की उपयोगिता बहुत कुछ इस कृषि व्यवस्था के घेरे के भीतर आबद्ध रही।'24 इसके लिए कुछ तो परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार रहीं। 'इंग्लैंड में चारागाहों की कमी के कारण घोड़ों (पशुओं) के लिए चारा की उपलब्धता भूमि की अतिरिक्त जुताई और दोहरे श्रम को निमंत्रण देती थी। इसलिए व्यापार के लिए भारत सरीखे मार्ग को, मतलब हजारों पशुओं की सहायता से व्यापार करना, अपनाना उनके लिए मुनासिब नहीं था। इन कारणों से वहाँ न सिर्फ पहिये का व्यापक इस्तेमाल हुआ बल्कि आगे चल कर व्यापार और वाणिज्य के नए साधनों का आविष्कार भी हुआ।'25 दूसरा, यूरोप का मध्यवर्ग पुनर्जागरण (रेनेसाँ), ज्ञानोदय (एनलाइटेनमेंट) और औद्योगीकरण (इंडस्ट्रीयलाइजेशन) का परिणाम रहा है जबकि भारत में तो पुनर्जागरण (रेनेसाँ) को ले कर ही विवाद है, ज्ञानोदय और औद्योगीकरण की अवस्थाएँ तो उसके बाद की हैं। तीसरा, 'भारतीय समाज की स्थिति यूरोप से भिन्न थी। इसलिए राजनीतिक क्षेत्र में भी यूरोपीय और भारतीय मध्यवर्ग को अलग अलग भूमिकाएँ निभानी पड़ीं।'26

अलगाव के इन बिंदुओं से यह बात स्पष्ट होती है कि भारतीय मध्यवर्ग पर बात करने के क्रम में प्रतिमान यूरोपीय मध्यवर्ग ही रहा है। यूरोपीय प्रतिमानों के आधार पर कुछ विचारकों ने भारत के संदर्भ में 'वास्तविक' मध्यवर्ग के अस्तित्व को ही नकार दिया है। '1970 के आसपास कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकारों ने भारतीय राष्ट्रवाद की संशोधनवादी व्याख्या करते हुए शिक्षित भारतीयों को अन्य शक्तिशाली लोगों के 'आश्रित' (Clients) के तौर पर देखा है जिनके पास किसी स्वतंत्र राजनीतिक कार्यसूची का सर्वथा अभाव था।'27 भारतीय मध्यवर्ग के बारे में मिशेलगुगलिएल्मो टोरी (Michelguglielmo Tori) भी कहते हैं, 'अगर (भारत में) एक आधुनिक और राजनीतिक रूप से वर्चस्वशाली मध्यवर्ग का अस्तित्व था तो उसके सांस्कृतिक वर्चस्व की अभिव्यक्ति के तौर पर सामाजिक सुधारों का क्रियान्वयन हो गया होता।'28 हरजोत ओबरॉय मध्यवर्ग को एक ऐसी 'कैटगरी' के तौर पर देखते हैं जो यूरोप में औद्योगीकरण के ऐतिहासिक अनुभव का परिणाम है 'जबकि भारत में छोटे नौकरशाह और शहरी पेशेवर अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में केवल औद्योगीकरण का ख्वाब देख सकते हैं इसलिए यह अनुत्पादक वर्ग बिल्कुल भी मध्यवर्ग के उपयुक्त नहीं है।'29

इन आक्षेपों के बावजूद कई सवाल हैं जो भारतीय मध्यवर्ग के स्वरूप से जुड़े हैं। भारत में मध्यवर्ग का उदय और विकास सभी जगहों पर न तो एक साथ हुआ है और न एक समान रहा है। 'संभवतः यह कहना कि बंगाल भारत में आधुनिक मध्यवर्ग का जन्म स्थान रहा है, ऐतिहासिक रूप से गलत नहीं होगा।'30 जबकि 'भारत के उत्तर पूर्व के घाटी क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ मध्यवर्ग का विकास भारत के अन्य भागों के समान ही हुआ है जबकि वहीं के पहाड़ी इलाकों में मध्यवर्ग का स्वतंत्र विकास हुआ है।'31

चूँकि मध्यवर्ग की अवधारणा और हिंदी साहित्य पर आगे चर्चा करनी है इसलिए भारतीय मध्यवर्ग पर बात करने के बजाय हिंदी भाषी क्षेत्रों में मध्यवर्ग के विकास पर बात करना जरूरी है। ऐसा मान लिया गया है कि भारत में 'आधुनिक' मध्यवर्ग का विकास अंग्रेजी शासन के परिणामस्वरूप हुआ है। अब इस पर ज्यादा विवाद भी नहीं है लेकिन इस ढंग के शोध भी हाल के दिनों में प्रकाशित हुए हैं जिसमें अंग्रेजी राज के पहले मध्यवर्ग की जड़ें तलाशी गई हैं और उसके नतीजे बताते हैं कि उन पारंपरिक अस्तित्वमान आधारों तथा नए अवसरों के मेल से इस आधुनिक मध्यवर्ग का विकास हुआ है। बनारस और लखनऊ इन दो शहरों के 'विषय अध्ययन' (case study) के आधार पर हिंदी भाषी प्रदेशों में मध्यवर्ग के विकास पर थोड़ी बात की जा सकती है।

बर्नार्ड कुहन (Bernard Cohn) ने 1960 में बनारस प्रदेश को केंद्र में रख कर एक गंभीर शोधपूर्ण आलेख प्रकाशित कराया था। जिसका शीर्षक था : The Initial British Impact on India - A case study of the Banaras Region.32 यह आलेख बनारस प्रदेश में ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना का विषय अध्ययन है जो वर्तमान जिलों में बलिया, बनारस, गाजीपुर, जौनपुर और मिर्जापुर (इसके दक्षिणी भाग को छोड़ कर) को अपने विषय क्षेत्र के अंदर शामिल करता है। इस आलेख में बर्नार्ड कुहन ने उस वर्ग के उदय के बीज (मूल) को हमारे सामने रखा है जो आगे चल कर मध्यवर्ग का रूप धारण करता है। 'मुगल साम्राज्य के विघटन के साथ अठारहवीं शताब्दी में तीन राजनीतिक तंत्रों का उद्भव होता है। राष्ट्रीय (मुगल), प्रादेशिक और स्थानीय।'33 मुगल काल में काजी, कोतवाल, अमीन, सरिस्तादार आदि के जो पद थे वे मुगल साम्राज्य के विघटन के बाद भी बने रहे और प्रादेशिक तथा स्थानीय शासनों में अपनी भूमिका निभाते रहे और 'ऐसा प्रतीत होता है कि अठारहवीं शती के अंत में यह स्थितियाँ (पद) परिवार के भीतर ही वंशानुगत हो गईं। अठारहवीं शती के अंत में, जब उनके (काजियों के) न्यायिक अधिकार सीमित कर दिए गए, तब काजी दस्तावेजों का अभिप्रमाणन और विवाहों का पंजीकृत करने का काम शुल्क ले कर करने लगे। उन्नीसवीं शती के आरंभिक लेखों के अनुसार, जिनका संबंध काजियों से है, पद की वंशानुगत प्रकृति को अंग्रेजों ने स्वीकार कर लिया और किसी संपत्ति के विषय के अधिकार पत्रा तथा विवाह के पंजीयन और साज सँभाल का जिम्मा काजियों को मिला।'34

मुगलों के पतन के बाद राष्ट्रीय राजनीतिक तंत्र पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था लेकिन प्रादेशिक और स्थानीय निकायों में समाज की ऊँची जातियों का अधिकार बना रहा। मुगलकाल में भू राजस्व की उगाही और जमा करने का जिम्मा प्रादेशिक और स्थानीय निकायों पर था। मार्क्स के अनुसार 'हिंदुस्तान की संस्थाओं के गहरे अध्ययन के आधार पर यह राय बनी है कि मूल हिंदुस्तानी संस्थाओं के अंतर्गत भूमि का स्वामित्व ग्राम पंचायतों के हाथ में होता था। खेती के लिए व्यक्तिगत लोगों के हाथों में उसे वितरित करने का अधिकार इन्हीं ग्राम पंचायतों को होता था और जमींदार तथा तालुकेदार का अस्तित्व पहले केवल सरकारी अफसरों के रूप में होता था। वे नियुक्त इसलिए होते थे कि गाँव से प्राप्त होनेवाले लगान की निगरानी करें, उसे वसूलें और उसे राजा को दे दें।'35

'राजस्व की वसूली की पुरानी प्रणाली यह थी कि पैदावार का एक निश्चित हिस्सा ही राजस्व घोषित कर दिया जाता था किंतु, जब विविध कारणों से पैदावार कम होती थी तो उसी मात्रा में राजस्व भी कम हो जाता था। किंतु, अंग्रेजी हुकूमत में कर रुपए पैसों से निश्चित किया गया, भले ही पैदावार की मात्रा कुछ भी क्यों न हो। वे किसान, जो कर अदायगी के लिए आवश्यक धन इकट्ठा नहीं कर पाते थे, अपनी जमीन को या तो गिरवी रखने या बेच देने पर बाध्य होते थे।'36

'अंग्रेजों के आगमन के पहले भूमि कभी भी पूर्णतया निजी संपत्ति के तौर पर किसी के अधिकार में नहीं रही। उत्पादन के लाभांश के पारंपरिक हिस्से पर राज्य का अधिकार होता था, जिसे भू राजस्व के नाम से जाना जाता था।'37 'भारतीय शासन अपना अधिकांश राजस्व पारंपरिक तौर पर भूमि से प्राप्त करता था। जब अंग्रेज सत्ता में आए तो, राजस्व वसूली के क्रम में उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों के भूमि संबंधी अधिकारों का अभिलेख (Record) और परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस हुई। इस दायित्व ने अंग्रेजों को भारतीय सामाजिक संरचना को आकार प्रदान करने की महान शक्ति एक साधन के रूप में दे दी। एक वर्ग या दूसरे के अधिकारों और विशेषाधिकारों का प्रतिपादन उनकी अपनी इच्छा पर था, ऐसा करते हुए अंग्रेज किसी वर्ग के वर्चस्व की स्थापना सुनिश्चित कर रहे थे। कहना न होगा कि अंग्रेजों की भूमि नीति ने भारतीय समाज के भीतर शक्ति के वितरण को इस तरह प्रभावित किया कि संभवतः यह वास्तव में सामाजिक परिवर्तन के अत्यंत प्रभावशाली घटक के रूप में सामने आया जिसके दरवाजे अंग्रेजों ने उन्नीसवीं शती में खोल दिए थे।'38

इस प्रकार अंग्रेजों की भूमि नीति सामाजिक परिवर्तन की प्रधान कारक साबित हुई। चूँकि अब तक भारतीय शासन में राजस्व का अधिकांश हिस्सा भूमि से आता था। अतः अंग्रेज इसकी अनदेखी नहीं कर सकते थे लेकिन राजस्व वसूली के लिए जिस आधारभूत संचरना की आवश्यकता थी, वह रातोंरात खड़ी नहीं की जा सकती थी। परिणामतः परंपरा से चली आती प्रणाली को स्वीकृति प्रदान करनी पड़ी। इसके परिणामस्वरूप 'अंग्रेज जिला अधिकारियों के सामने बड़ी संख्या में लिपिक, चपरासी और 'स्क्राइब्स' की तत्काल नियुक्ति का कार्य सामने आ पड़ा। जवाबदेहीवाले कुछ पदों पर उनको कुछ भारतीयों की भी नियुक्ति करनी पड़ी जैसे अमीन या तहसीलदार (स्थानीय कर संग्रहकर्ता), सरिस्तादार (अभिलेख रखनेवाला और प्रधान लिपिक) और कानून अधिकारी।'39 अतः यह स्पष्ट है कि अंग्रेजों की यह आधारभूत संरचना परंपरा से चली आती आधार भूमि पर निर्मित हुई। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि अंग्रेजों ने राजस्व वसूली का आधार परंपरा से चली आती संरचना को तो बनाया लेकिन भूमि संबंधी नीतियों में व्यापक फेरबदल किए। यद्यपि यह परिवर्तन अधिकाधिक राजस्व उगाही और अंग्रेजी सत्ता के प्रभाव विस्तार के हित को ध्यान में रख कर किया गया था, फिर भी इसके कुछ सार्थक नतीजे भारतीयों के पक्ष में भी रहे जो आगे चल कर सामने आए।

अंग्रेजों ने 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त कानून लागू किया। इस कानून के अनुसार 'सार्वजनिक भूमि उन जमींदारों या कर वसूलने वालों के हाथ में पहुँच गई, जो वसूली का एक निश्चित हिस्सा सरकार को देने की शर्त मानने को तैयार थे।'40 '1795 में भू राजस्व वसूली अंग्रेजों ने उन्हें सौंपा, जिन्हें वे जमींदार मानते थे। कर अदा न कर पाने की स्थिति में अंग्रेजों ने भूमि को बेचना आरंभ किया।'41 भूमि जब विक्रय की वस्तु हो गई तो भारतीय सामाजिक संरचना में कई बदलाव देखने को मिले। कई जगहों पर पुराने जमींदार वर्ग निष्प्रभावी होते चले गए और नए जमींदार वर्ग का अभ्युदय हुआ। भूमि जब खरीद फरोख्त की वस्तु हो गई तो भूमि की माप (अमीन) और निबंधन (रजिस्ट्री) से जुड़े लोगों की आवश्यकता बढ़ी। मुगलकाल में राजभाषा फारसी थी। अतः राजकाज से जुड़े काम इसी भाषा में होते थे। राजकाज और रोजगार की भाषा होने के कारण इसका ज्ञान गैर मुस्लिम कायस्थों, कश्मीरी पंडितों और खत्रिायों ने भी प्राप्त किया। इसका प्रभाव उन्नीसवीं शती के अंत में उत्तर भारत में देखने को मिला। 'उत्तर भारत में सबसे पहले जातीय संगठन के उदय और निर्माण का नेतृत्व कायस्थों और कश्मीरी पंडितों के समुदायों की ओर से देखने को मिला। यह उस समय घटित हो रहे एक प्रकार के सामाजिक परिवर्तन का प्रत्यक्ष परिणाम था।'42

बहरहाल, जहाँ पुराने जमींदार अपदस्थ हुए थे और नया जमींदार वर्ग उभरा था, वहाँ यह जानना जरूरी हो जाता है कि इस नए जमींदार वर्ग में कौन शामिल था? इतिहासकार सतीश चंद्र ने अठारहवीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति का विलेषण करते हुए एक महत्वपूर्ण संकेत दिया है कि 'स्रोतों से मालूम होता है कि अवध में यह रिवाज हो गया था कि जब भू राजस्व बाकी पड़ जाता था तो उसका भुगतान परिवार का साहूकार करता था। साहूकार वैसे लोगों का एक नया वर्ग था जो बहुत से जमींदारों द्वारा भू राजस्व वसूली के अनुबंध पर लिए गए किसी इलाके या तालुक्के के भू राजस्व की अदायगी का जिम्मा अपने हाथों में लेते थे। अगर जमींदार या तालुक्केदार भू राजस्व की अदायगी के पैसे नहीं दे पाता था तो साहूकार उन पैसों का भुगतान कर देता था और जब जमींदार या तालुक्केदार के पास पैसा आ जाता था तब वह अपना हिसाब माहवारी एक प्रतिशत से ले कर कभी कभी तीन प्रतिशत तक के ब्याज के साथ पूरा कर लेता था। ...यह स्पष्ट नहीं है कि पैसेवाले लोगों ने जमींदारों की खरीदारी में दिलचस्पी लेनी शुरू की थी या नहीं। इस काम में जमींदारियों की अपेक्षाकृत अधिक बिक्री के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन ये जमींदारियाँ आमतौर पर छोटी छोटी होती थीं। जमींदारियों का विक्रय मूल्य उससे प्राप्त सालाना राजस्व का लगभग ढाई गुना हुआ करता था। इससे लगता है कि इन जमींदारियों से होनेवाली आमदनी बड़े बड़े साहूकारों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं थीं। इसका एकमात्र उल्लिखित अपवाद पंजाब के एक खत्री व्यापारी द्वारा वर्धवान राज की खरीदारी था।'43

जैसा ऊपर की बातों से स्पष्ट है कि साहूकार जमींदारियाँ खरीदने की बजाय सूद पर पैसे लगाकर और व्यापार के माध्यम से मुनाफा कमाना चाहते थे तो सवाल उठता है इन जमींदारियों को खरीद कौन रहा था? इसका जवाब बर्नार्ड कुहन ने अभिलेखों और ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से विस्तार से दिया है। 'इस समय भारतीयों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों के रूप में राजस्व सेवा के द्वार खुले थे। 1805 ई. तक तहसीलदार के रूप में भारतीयों का पूर्ण नियंत्रण प्रशासन और राजस्व उगाही के क्षेत्र में था। यहाँ तक कि बनारस की प्रशासनिक व्यवस्था अंग्रेजों के द्वारा हस्तगत कर लिये जाने के बावजूद स्थानीय स्तर पर कर संग्रह का कार्य पुराने अमीनों के हाथ में ही रहा, जो अब तहसीलदार के नाम से जाने जाते थे। तहसीलदारों का कार्य यह था कि राजस्व दाताओं से कर संग्रह कर उसे जिलाधीश के कोषागार की ओर बढ़ा दें। उन्हें वेतन नहीं दिया जाता था, लेकिन जमा की गई राशि का 11.5 प्रतिशत कमीशन के तौर पर प्राप्त होता था। उन्हें प्रशासनिक बल भी मुहैया कराया गया और वे जिले में न्याय व्यवस्था बनाए रखने को कटिबद्ध थे। ...1797 1805 के दौरान अपने आधिकारिक पद का लाभ उठाते हुए इन्होंने भारी मुनाफा कमाया क्योंकि पहली बात तो यह कि प्रशासनिक बल के आधार पर लूटखसोट करके वे 11.5 प्रतिशत से ज्यादा लाभ अर्जित कर पाने में सक्षम थे और आगे चल कर जो बात ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुई, वह यह कि गैरकानूनी तरीके से बलपूर्वक बकाया राजस्व के नाम पर अपने मातहतों को जमीन बेचने को बाध्य करने की स्थिति में थे। साथ ही लाभदायी भू संपत्तियों को छद्म नामों से खरीदने में भी सक्षम थे। चूँकि तहसीलदारों का नियंत्रण भूमि के 'रिकार्ड' और राजस्व से जुड़े आँकड़ों पर होता था। इससे वे इस बात से अच्छी तरह परिचित थे कि कौन सी भू संपत्ति का मालिकाना हक उनके लिए लाभदायी होगा। चूँकि वे उसके कर निर्धारण के साथ ही साथ सारे कानूनी दाँवपेंच से परिचित थे और गैर कानूनी अधिकारों से लैस भी इसलिए बेहद कम समय में व्यापक भूसंपत्ति अर्जित कर पाने में यह वर्ग सफल रहा।'44 आगे चल कर ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमि संबंधी नीतियों के फलस्वरूप इस वर्ग के लिए और अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती चली गईं। जिससे 1840 तक एक नया भूस्वामी वर्ग विकसित हो गया। 1840 के पहले जहाँ फारसी राजकाज की भाषा होने के कारण रोजगार प्राप्त करने का मुख्य साधन थी वहीं '1840 के बाद प्रशासन में अंग्रेजी के उपयोग पर लगातार बल दिया जाने लगा।'45 'उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में कम से कम उत्तर भारत के उन परिवारों में जिनकी पारिवारिक परंपरा शैक्षणिक उपलब्धियों से जुड़ी थी, शिक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बिकाऊ कौशल हो गई। इन परिवारों के लड़के अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित स्कूलों, कॉलेजों की ओर आकर्षित हुए और उनमें से कुछ तो ऊँची डिग्री प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए।'46 अंग्रेजी पढ़ी लिखी पीढ़ी के सामने फारसी भाषावालों की अपेक्षा अब (1850 के बाद) कहीं बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध थे। 'अंग्रेजी भाषा कानूनी पेशे में प्रवेश का पारपत्र (पासपोर्ट) भी थी। यह पेशा पारंपरिक रूप से नौकरी पेशा समुदायों के लिए उन्नति के अवसर प्रदान करता था। शुरुआत में न्यायपालिका पर ब्रिटिश बैरिस्टरों का वर्चस्व था। लेकिन जल्दी ही भारतीय अधिवक्ताओं की एक दूसरी कतार खड़ी हो गई। इन्हें वकील कहा गया। इनमें से कई वकीलों ने प्रिवी कौंसिल की उद्घोषणाओं की न्यायिक पेंचीदगियों पर महारत हासिल करके धन और प्रतिष्ठा दोनों कमाया।'47

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने अपनी आत्मछवि के अनुरूप एक देशी प्रभुवर्ग (नेटिव्स एलीट) की रचना की थी। यह उपनिवेशवादियों की सर्वाधिक शानदार और स्थायी उपलब्धि थी। 1835 में ही मैकाले ने अपने विख्यात शिक्षा संबंधी कार्यवृत्त विवरण में इस इरादे को किसी संकोच और द्वंद्व के बिना इस प्रकार व्यक्त कर दिया था : 'हमें इस समय एक ऐसे वर्ग की रचना करने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए जो हम और हमारे करोड़ों शासितों के बीच दुभाषिए की भूमिका निभा सके अर्थात व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग जो रक्त और त्वचा के रंग में तो भारतीय हो लेकिन रुचि, अभिमत, नैतिक मानदंडों और प्रतिभा में अंग्रेज हो।'48 मैकाले की यह इच्छा गिलक्राइस्ट के प्रयत्नों का विस्तार मात्र थी। इस प्रक्रिया में तेजी तथा समाज के अन्य तबकों में इसका विकास चार्ल्सवुड की शिक्षा नीति से हुआ। 'सर चार्ल्सवुड के 1854 ई. के 'डिस्पैच' पहली बार निजी एवं मिशनरी सहायता से जन शिक्षा की आवश्यकता को पहचाना और चयनित शिक्षा की नीति को छोड़ दिया, जिसे छनन सिद्धांत (Filtration thiory) कहते हैं।'49 इससे शिक्षा पर ऊँचे वर्ग का एकाधिकार टूटा और शिक्षा जन के लिए सुलभ हुई। परिणाम यह हुआ कि पारंपरिक शिक्षा पर उच्च वर्गों का बना हुआ वर्चस्व टूट गया। अब यूरोप का ज्ञान भारत में वैधानिक रूप से हर वर्ग और समूह के लिए उपलब्ध था। प्रेस की वजह से वेदों का ज्ञान शूद्रों तक पहुँचा। जाति के कारण आरोपित बंधनों से मुक्त हो कर उसने भी अपनी 'वैयक्तिक्ता' को महसूस किया। जन्म के आधार पर प्राप्त विशेषाधिकारों के स्थान पर मानवाधिकारों की बात की जाने लगी।

इस दिशा में शिक्षा संस्थानों के साथ साथ न्यायालयों के गठन और उसके नए स्वरूप ने भी भारतीय समाज व्यवस्था को प्रभावित किया। वारेन हेस्टिंग्स द्वारा लागू की गई नई न्याय व्यवस्था के दो परिणामों पर गौर किया जा सकता है। 'समानता के नियम की स्थापना तथा सकारात्मक अधिकारों की चेतना का निर्माण। अंतिम बात निम्न वर्गों के अत्यधिक दब्बूपन के कारण धीरे धीरे विकसित हुई, जिसने उन्हें समान कानूनों की व्यवस्था का लाभ लेने और कानूनी कार्यवाही द्वारा अपने अधिकारों को सही साबित करने से रोका। किंतु शनैः शनैः परिवर्तन हुआ। उदाहरणार्थ 1841 में देखा गया कि चमार, जो कि उत्तर भारत के अछूत थे, अपने जमींदारों के खिलाफ मुकदमा दायर करने से नहीं डरते थे।'50

भारत में प्रेसिडेन्सियाँ जहाँ (कलकत्ता, मद्रास और बंबई) कायम हुई को छोड़ कर अन्य हिस्सों में विशेषकर हिंदी भाषी प्रदेशों (पश्चिमात्तर प्रांत) में मध्यवर्ग के विकास की रूपरेखा कमोवेश ऐसी रही है। प्रेसिडेन्सियों में सुविधाओं की उपलब्धता से मध्यवर्ग का विकास हिंदी भाषी प्रदेश की तुलना में तेजी से हुआ। कलकत्ता, मद्रास और बंबई में जहाँ विश्वविद्यालयों की स्थापना 1857 में हुई थी वहीं हिंदी भाषी प्रदेश में पहला विश्वविद्यालय 1887 में इलाहाबाद में खुला। आधुनिक ढंग की शिक्षा का प्रसार हिंदी भाषी प्रदेशों में प्रेसिडेन्सियों की तुलना में बाद में हुआ। परिणामतः शिक्षित मध्यवर्ग का निर्माण भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में बाद में हुआ। इसके कई परिणामों में से एक यह भी हुआ कि शिक्षा के कम प्रचार प्रसार के कारण यहाँ समाज सुधार और धर्म सुधार आंदोलनों का वैसा प्रभाव नहीं पड़ा जैसा बंगाल या महाराष्ट्र में पड़ा। जो भूमिकाएँ बंगाल महाराष्ट्र में समाज सुधारक और धर्म सुधारक निभा रहे थे, हिंदी भाषी प्रदेशों में अपने अंतर्विरोधों के साथ साहित्यकारों ने निभाईं।

भारतीय मध्यवर्ग के विकास में 1857 का आंदोलन एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। 1857 से पहले जहाँ मध्यवर्ग एक 'सोशल कैटगरी' के रूप में उपस्थित था वहीं 1857 के बाद वह एक 'पोलिटिकल कैटगरी' के रूप में सामने आता है। 1947 के बाद का समय इसके 'इकोनोमिक कैटगरी' के रूप में विकसित होने का है। इस वर्गीकरण में जो विशेषण लगे हैं वह उस दौर में उनके द्वारा निभाई गई प्रमुख भूमिका को सामने लाते हैं।

आधुनिक ढंग की शिक्षा के प्रचार प्रसार के अभाव में हिंदी भाषी प्रदेशों में महाराष्ट्र और बंगाल की तुलना में शिक्षित मध्यवर्ग का अनुपात बहुत कम था। बंगाल की जिस 34वीं इन्फेंट्री ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था उसमें मूलतः अवध के किसान सिपाही थे। बकौल बिपन चंद्र 'सेना में अवध के प्रत्येक कृषक परिवार का कोई न कोई प्रतिनिधित्व करता था, अवध के 75,000 सैनिक सेना में थे।'51 अंग्रेजों की नई भूमि नीति से वह सर्वाधिक प्रभावित हुए थे। इस प्रभावित तबके में हिंदू मुस्लिम का विभाजन नहीं था। दोनों समान रूप से अंग्रेजों से त्रास्त थे। विद्रोह के कई कारणों में एक कारण यह भी था लेकिन इनके विद्रोह की जो व्याख्या प्रस्तुत की गई है उसको बंगाल के जमींदारों के एक प्रसंग में रख कर देखने की जरूरत है। 1820-25 के आसपास जहाँ सरकारी नौकरी पेशावाला तबका सुख सुविधा प्रतिष्ठा सुरक्षा के कारण व्यवस्था अभिमुख था, वहीं दूसरी ओर बंगाल में स्थायी बंदोबस्तीवाले जमींदारों की लगान मुक्त जमीनें छीनने की कोशिश के कुछ दूसरे परिणाम सामने आए। जमींदारों ने लैंडलार्ड्स सोसायटी की स्थापना की। इस परिघटना की जो व्याख्याएँ इतिहासकारों (बाँग्ला) ने की है वह इतिहास चेतना पर जातीय चेतना के हावी होने का उदाहरण है। सुरेंद्रनाथ बनर्जी52 ओर एस.एन. मुखर्जी53 ने इसकी व्याख्या इस रूप में की है : 'भारत में राष्ट्रवाद के मूल की तलाश में 1857 के पूर्व के दशकों की ओर जाना आवश्यक है। यह वह दौर था जब अंग्रेजी राज द्वारा सृजित कुछ सामाजिक वर्गों को अपने आर्थिक हितों पर खतरे दिखाई दे रहे थे और इन हितों की रक्षा के लिए उन्होंने स्वयं को पश्चिमी पद्धति पर संगठित किया था।'54

1857 के विद्रोह पर शिक्षित मध्यवर्ग की क्या प्रतिक्रिया थी? स्वयं उस आंदोलन में हिंदी भाषी प्रदेश विशेषकर पश्चिमोत्तर प्रांत और बंगाल की क्या भूमिका रही? बहुत बाद के दिनों तक बंगाल के इतिहासकारों की 1857 संबंधी सोच क्या थी? इनका मानना था कि अंग्रेज इस देश में प्रगतिशील भूमिका निभा रहे थे। उनके राज में विकास हो रहा था। अगर 1857 का विद्रोह सफल हो जाता तो प्रतिक्रियावादी सामंतों के शासन में भारत का विकास रुक जाता और पुनः सामंतवादी ताकतें देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेतीं। अब आप स्वयं तय करें कि एक जमींदार वर्ग जो अपने आर्थिक हित की रक्षा के लिए संगठन की स्थापना करता है वह स्वयं को पश्चिमी ढंग से संगठित करता है और जहाँ किसान, मजदूर, सिपाही, देशी शासक और सामंत अपने हितों की रक्षा के साथ साथ राष्ट्रहित के लिए साम्राज्यवाद से लड़ते हैं, वहाँ वे सामंतवादी और प्रतिक्रियावादी हो जाते हैं। हद है।

जिस बात की ओर मैं संकेत करना चाहता हूं वह यह कि हिंदी भाषी प्रदेशों का चरित्र आरंभ से ही मध्यवर्गीय नहीं रहा है। यह 1857 के बाद की परिस्थितियों का परिणाम है। शिक्षा के साथ सिर्फ अवसर ही नहीं अवसरवाद की प्रवृत्ति भी समान रूप से हर क्षेत्र में बढ़ी है। 1857 के बाद अंग्रेजों के भारत संबंधी सोच में व्यापक बदलाव देखने को मिलते हैं। सामाजिक राजनीतिक आर्थिक दृष्टि तो बदलती ही है वह रणनीति (सट्रैटजी) के तहत एक इतिहास दृष्टि भी भारतीय समाज पर आरोपित करते हैं। इसलिए आधुनिक भारत को समझने के लिए 1857 के बाद का दौर बहुत महत्वपूर्ण है।

1857 के जो तात्कालिक परिणाम सामने आए वह यह कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति हुई और विक्टोरिया का शासन आरंभ हुआ तथा भू राजस्व संबंधी नीतियों में बदलाव देखने को मिला। इससे सामाजिक राजनीतिक आर्थिक और ऐतिहासिक चेतना के विकास को एक दिशा मिली। कल तक जो अंग्रेजी राज को बनाए रखने में सहयोगी की भूमिका में थे उसी वर्ग से कुछ ऐसे लोग भी निकल कर सामने आए जो राजनीतिक तौर पर अंग्रेजों के प्रतिस्पर्धी साबित हुए। 1857 के विद्रोह से अछूतों में एक नई चेतना का प्रसार हुआ। बंगाल आर्मी के विद्रोह का दमन अंग्रेजों ने बंबई आर्मी और मद्रास आर्मी की सहायता से किया था। बंबई आर्मी और मद्रास आर्मी में कौन शामिल थे इसका उल्लेख करते हुए आंबेडकर लिखते हैं : 'उनमें अधिकतर अछूत थे, बंबई की सेना में महार थे और मद्रास की सेना में परायण थे। जिस अछूत समुदाय ने ब्रिटिश सेना में भर्ती हो कर भारत को जीतने में उनकी मदद की थी, उसका फल यह मिला कि ब्रिटिश सरकार ने लगभग 1890 में भारतीय सेना में अछूतों की भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया था।'55 1890 तक अंग्रेजों को यह समझ आ गई थी कि भारतीय समाज की संरचना को यथावत बनाए रखने में ही उनकी कुशल है।

1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने औद्योगिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए भारत में अपने साम्राज्य को ज्यादा दृढ़ बनाने की कोशिश की। अंग्रेजों की इस कोशिश में छिपी मंशा को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने कहा है : 'औद्योगिक स्वार्थ भारत के बाजार के ऊपर जितने निर्भर होते गए, अंग्रेज उतने ही अधिक इस बात की आवश्यकता अनुभव करते गए कि उसके राष्ट्रीय उद्योगों को तबाह कर चुकने के बाद अब उन्हें भारत में नई उत्पादक शक्तियों की सृष्टि करनी चाहिए।'56 और 'पुनर्रचना की पहली शर्त यह थी कि भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हो और वह महान मुगलों के शासन में स्थापित एकता से अधिक मजबूत और अधिक व्यापक हो। इस एकता को ब्रिटिश तलवार ने स्थापित कर दिया है और अब बिजली का तार उसे और मजबूत बनाएगा तथा स्थायित्व प्रदान करेगा। भारत अपनी मुक्ति प्राप्त कर सके और हर विदेशी आक्रमणकारी का शिकार होने से बच सके, इसके लिए आवश्यक था कि उसकी एक अपनी देशी सेना हो; अंग्रेज ड्रिल सार्जेंट ने ऐसी ही एक सेना संगठित और शिक्षित करके तैयार कर दी है। एशियाई समाज में पहली बार स्वतंत्र अखबार कायम हो गए हैं। इन्हें मुख्यतया भारतीयों और यूरोपीयनों की मिलीजुली संतानें चलाती हैं और वे पुनर्निर्माण के एक नए और शक्तिशाली साधन के रूप में काम कर रहे हैं। ...भारतीयों के अंदर से, जिन्हें अंग्रेजों की देखरेख में कलकत्ते में अनिच्छापूर्वक और कम से कम संख्या में शिक्षित किया जा रहा है, एक नया वर्ग पैदा हो रहा है, जिसे सरकार चलाने के लिए आवश्यक ज्ञान और यूरोपीय विज्ञान की जानकारी प्राप्त हो गई है। भाप ने योरप के साथ भारत का नियमित और तेज संबंध कायम कर दिया है, उसने उसके बंदरगाहों को पूरे दक्षिण पूर्वी महासागर के बंदरगाहों से जोड़ दिया है और उसकी उस अलगाव की स्थिति को खत्म कर दिया है जो उसके प्रगति नहीं करने का मुख्य कारण भी है।

'मिलशाहों के वर्ग को पता लग गया है कि भारत को एक उत्पादन करनेवाले देश में बदलना उनके अपने हित के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है। इस काम के लिए, सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि वहाँ पर सिंचाई के साधनों और आवाजाही के अंदरूनी साधनों की व्यवस्था की जाय। अब वे भारतीय रेल का जाल बिछा देना चाहते हैं और वे बिछा देंगे। इसका परिणाम क्या होगा, इसका उन्हें कोई अनुमान नहीं है।'57 मार्क्स का यह भारत संबंधी 'आब्जर्वेशन' प्रोफेटिक साबित हुआ। एम.एन. श्रीनिवास ने लिखा है कि 'उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने धीरे धीरे भूमि का सर्वेक्षण करके राजस्व निर्धारित किया, आधुनिक अधिकारी तंत्र, सेना और पुलिस की स्थापना की, अदालतें स्थापित करके कानून की संहिताएँ बनाईं, संचार साधनों यथा रेल, डाक, तार, सड़कों और नहरों का विकास किया, स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की और इन सबके द्वारा एक आधुनिक राज्य की नींव डाली।'58 इस तरह मार्क्स ने जिस पुनर्रचना की ओर संकेत किया था वह बाद के दिनों में एक साथ कई स्तरों पर आरंभ हो चुका था। इस प्रक्रिया के साथ उस मध्यवर्ग का विकास भी हो रहा था जिसे हम आधुनिक अर्थों में मध्यवर्ग कहते हैं।

1857 के विद्रोह के परिणामों ने और भी कई स्तर पर भारतीय समाज व्यवस्था को प्रभावित किया। इस विद्रोह में जो अंग्रेजों के साथ रहे बाद में उन्हें इसका इनाम भी मिला। गदर के गद्दार बाद में अंग्रेजों के हाथों पद, पदवी और प्रतिष्ठा से नवाजे गए। लेकिन विद्रोही क्रूरता और नृशंसता के शिकार बने। 1857 के बाद अंग्रेजों ने हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों पर ज्यादा अत्याचार किया। बकौल नेहरू '1857 के बाद अंग्रेजों ने हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों को अपने दमन चक्र का निशाना बनाया। वे मुसलमानों को ज्यादा आक्रामक और जुझारू मानते थे, जिनके पास भारत में अपने विगत शासन की स्मृतियाँ थीं, अतः वे ज्यादा खतरनाक थे।'59 इतना ही नहीं उस समय जो भारतीय इतिहास की चेतना साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने निर्मित की उसमें अंग्रेजों के शासन को सभ्यता का मिशन (सिविलाइजिंग मिशन) बतलाया गया। साम्राज्यवादी इतिहासकारों (जेम्स मिल, इलियट, डाउसन आदि) ने इसको बेहद कुशलतापूर्वक अंजाम दिया। 'जेम्स मिल ने भारत का इतिहास लिखते हुए पहली बार सांप्रदायिक आधार पर इसका विभाजन किया, जैसे हिंदू काल, मुस्लिम काल तथा ब्रिटिश काल। पूरे का पूरा मध्ययुग मुस्लिम शासनकाल कहलाता है, जो भारत पर विदेशी जाति के प्रभुत्व को रेखांकित करता है। अंग्रेजों ने सांप्रदायिक आधार पर इतिहास का विभाजन करते हुए अपने शासन को धर्म निरपेक्ष तथा ज्ञानोदय का शासन बताते हुए उसे ईसाई शासन की जगह ब्रिटिश शासन कहा तथा यह जताने का प्रयास किया कि उन्होंने भारत को न सिर्फ मुसलमानों के सांप्रदायिक शासन से मुक्ति दिलायी बल्कि शांति व धार्मिक सहिष्णुता के युग का सूत्रापात भी किया।'60 जेम्स मिल की इस साम्राज्यवादी इतिहास चेतना का विस्तार सर हेनरी इलियट और जॉन डाउसन की संपादित पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट्स आन हिस्टोरियन' में देखने को मिलती है। इसका प्रकाशन 1876-77 में हुआ था। 'इसमें मध्यकालीन भारत के इतिहास संबंधी स्रोतों का बड़ी सावधानी से चयन किया गया था और उसे तैयार करने का उद्देश्य यह था कि भारतवासियों को सांप्रदायिक आधार पर बाँट दिया जाए और साथ ही ब्रिटिश शासन के कल्याणकारी स्वरूप का उन्हें विश्वास दिलाया जाय।'61 यह फूट डाल कर राज करने की नीति थी।

1857 के विद्रोह में हिंदी भाषी प्रदेशों की भूमिका सर्वाधिक उल्लेखनीय रही है। पश्चिमोत्तर प्रांत में अवध इस संदर्भ में खास है। इस अवध प्रांत के अंतर्गत ही लखनऊ आता था। अन्य शहरों की तुलना में लखनऊ की स्थिति थोड़ी भिन्न थी क्योंकि '1774 में जब फैजाबाद से शाही अदालत का स्थानांतरण लखनऊ हो गया, तब से ही इस शहर का विशेष विकास देखने को मिलता है। 1774 से 1856 के बीच के 80 सालों में लखनऊ में अदालती संस्कृति के साथ लखनवी तहजीब भी विकसित हुई।'62 लेकिन 1857 के बाद स्थिति पहले जैसी नहीं रही। 'अंग्रेजों ने हिंसा लखनऊ में कम नहीं की थी। अपनी तहजीब, शानो शौकत और खूबसूरत इमारतों के लिए लखनऊ मशहूर था और हिंदुस्तान का बगदाद कहलाता था। यह उत्तरी भारत का सबसे बड़ा शहर था जिसकी आबादी उस वक्त चार लाख की थी। विद्रोह को कुचलने और फिर बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने इसे इतनी बुरी तरह उजाड़ा कि इसकी आबादी, विद्रोह को कुचल देने के पंद्रह साल बाद भी दो लाख अस्सी हजार से ज्यादा नहीं हो सकी।'63 दमन के इस दौर में इस बात को अब ज्यादा व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है कि क्यों हिंदू या मुलसलमान अपने आपको अंग्रेजों के प्रति ज्यादा 'लॉयल' सिद्ध करने में लगे थे। सैय्यद अहमद के द्वारा लिखी गई किताब 'दी लॉयल मोहम्मडन ऑफ इंडिया' पूरे कौम के प्रति अंग्रेज सरकार की दृष्टि बदलने की कोशिश थी। ऐसी कोशिशें हिंदू मुसलमान दोनों वर्गों की ओर से लगातार और समान रूप से की गई। अंग्रेजों ने जिस 'फूट डालो और राज करो' की नीति का कुशलतापूर्वक क्रियान्वयन किया था, इसको उस दौर के मध्यवर्ग के बुद्धिजीवी, साहित्यकार तत्काल पढ़ पाने में असमर्थ रहे। इसलिए बहुलता ऐसे बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की रही जो अंग्रेजी राज के प्रति, अपनी सामुदायिक उन्नति को ले कर आश्वस्त रहने के कारण उन पर आस्था रखते हुए यथासंभव उनकी आलोचना करता था। इसकी मूल चेतना सुधारवाद की थी और सुधारवाद के दायरे के भीतर रह कर ही अंग्रेजी राज की आलोचना वे कर रहे थे।

'1857 की राजनीति का मूल स्वर यदि 'सचेत वैर भाव' का था तो 1857 के बाद की राजनीति का मूल स्वर सचेत राजभक्ति (Concious logality) का हो जाता है।'64 'बंगाल, महाराष्ट्र की तरह हिंदी क्षेत्र में भी पारंपरिक बौद्धिक वर्ग की जगह नए बुद्धिजीवी ने ली। इस नए बुद्धिजीवी, शिक्षित समुदाय के सभी प्रतिनिधियों के मन में अंग्रेजी राज का जो मूल्यांकन था, वह 1857 के नेताओं के मूल्यांकन से सर्वथा भिन्न था... नवजागरणकालीन बुद्धिजीवी ने स्वत्व को 1857 में व्यंजित दृष्टि से नहीं, उससे पहले के वर्चस्व, संघर्षों के मुहावरे में परिभाषित किया। इस मुद्दे पर बंकिम चंद्र, भारतेंदु, सैय्यद अहमद और ज्योतिबा फुले के बीच कोई बुनियादी पद्धतिगत अंतर नहीं है। (ज्योतिबा फूले के लिए अंग्रेज शूद्रों के संरक्षक थे तो भारतेंदु के लिए मुसलमानों के कठिन दंड से छुड़ानेवाले। उधर 1877-78 में रूस, तुर्की युद्ध के संदर्भ में सर सैय्यद अहमद भारतीय मुसलमानों से आग्रह कर रहे थे कि वे खलीफा को नहीं बल्कि अंग्रेजों को इस्लाम के संरक्षक के रूप में देखें)। अंग्रेजी राज इन सबके लिए न सिर्फ वास्तविकता है बल्कि ऐसा सुअवसर भी जिसका उपयोग अपने अपने स्वत्व के विकास के लिए किया जा सकता है। भारतेंदु ही नहीं, उनके समकालीन सभी बुद्धिजीवी निःसंदेह अंग्रेजी राज की आलोचना भी करते हैं लेकिन वह आलोचना अंग्रेजों की न्याय बुद्धि तथा अंग्रेजी राज की वैधता पर विश्वास रखते हुए की जा रही आलोचना है।'65 1857 के बाद इस मानसिकता के निर्माण में तत्कालीन परिस्थितियों की अहम भूमिका रही। इस मानसिकता के विकास को मध्यवर्ग के निर्माण की प्रक्रिया के समानांतर रख कर संजय जोशी ने अपनी किताब 'फ्रेक्चर्ड माडर्निटी' में प्रस्तुत किया है। लखनऊ को केंद्र में रख कर 1880-1930 के मध्य की वस्तुस्थिति को संजय जोशी ने सामने रखा है। मूल रूप से जुर्गेन हैबरमास की 'पब्लिक स्फियर' की अवधारणा को सामने रख कर आधुनिकता के प्रतिमानों पर 1880-1930 के लखनऊ को संजय जोशी ने इस किताब में परखा है। हैबरमास की 'पब्लिक स्फियर' को बहुत मोटे अर्थों में ऐसे समझा जा सकता है कि वृत्त (ऐसे लोगों का समूह) जो राज्य और सामान्य जनता के मध्य संवाद स्थापित करने का काम करे और जो स्वयं आम जनता की राय को राज्य के सामने व्यक्त करे। 1857 के बाद हिंदू मुस्लिम एकता को तोड़ने के साम्राज्यवादी प्रयास ज्यादा तेज हुए परिणामतः हिंदू मुस्लिम समाज के मध्य आई दरार बढ़ती चली गई। बदली हुई परिस्थितियों में अपनी जमात को ज्यादा से ज्यादा लाभ दिलवाने की कोशिश आरंभ हुई। चूँकि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया था और भारत सीधे विक्टोरिया शासन के अधीन चला गया था इसीलिए इन वर्गों को विश्वास भी था कि अब इनकी समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया जाएगा। इस सोच का परिणाम यह हुआ कि इस दौर में मध्यवर्ग के अनेक रूप उभर कर सामने आए। पहला विक्टोरिया शासन के प्रति विश्वास एवं आस्था रखने के कारण गुणगान में व्यस्त था, दूसरा तटस्थ भाव से अंग्रेजी सरकार के मातहत अपने जीविकोपार्जन में लगा था, तीसरा अपने वर्गीय स्वार्थों का हिस्सेदार दूसरे समुदाय को मान कर उसका विरोध कर रहा था तो चौथा अंग्रेजों की मंशा पर संदेह करता हुआ दबी, छिपी आलोचना कर रहा था। इनमें जो एक महत्वाकांक्षी खेमा था वह निज उन्नति के लिए अंग्रेजी राज की हर नीति का समर्थन करता था। कुछ अवसरवादी तत्व भी थे जो लगातार अपने स्वार्थ की पूर्ति के क्रम में राष्ट्रहित में बाधक सिद्ध हो रहे थे। 'समुदाय के नाम पर रखी गई माँगें जो किसी भी सामुदायिक समूह के द्वारा रखी गई हों, निष्कर्षतः नौकरियों की माँग होती थीं और वे नौकरियाँ केवल उच्च मध्यवर्ग के मुठ्ठीभर लोगों के लिए थीं। ...ये संकीर्ण राजनीतिक माँगें अक्सर राष्ट्रीय एकता और विकास के मार्ग में अवरोधक का काम करती थीं, जो इस चतुराई के साथ रखी जाती थीं कि ऐसा प्रतीत हो कि ये विशेष धार्मिक जनसमूह की माँगें हैं।'66

लखनऊ के संदर्भ में बात करते हुए संजय जोशी ने मध्यवर्ग को आधुनिकता का उत्पाद और उत्पादक दोनों बताया, राष्ट्रवाद की अवधारणा के साथ इसका संबंध बतलाया और मध्यवर्ग के विकास को देखते हुए दो, तीन महत्वपूर्ण बातें कहीं। पहली 'औपनिवेशिक उत्तर भारत में मध्यवर्ग का निर्माण सामाजिक और आर्थिक आधारों पर नहीं बल्कि लोकवृत्त की राजनीति (Public sphere politics) के कारण हुआ।'67 दूसरी, 'भारतीय मध्यवर्ग द्वारा निर्मित लोकवृत्त ने मुख्य रूप से स्वयं के सशक्तीकरण के लिए कार्य किया।'68 तीसरी, 'औपनिवेशिक काल में होनेवाले इन सार्वजनिक बहसों, मुबाहिसों की प्रकृति में गुणात्मक और परिमाणात्मक परिवर्तन देखने को मिले और इन परिवर्तनों के बारे में बहस करनेवाले उन विषयों और संदर्भों के प्रति पूरी तरह जागरूक थे।'69 साथ ही अन्य वर्गों की तुलना में मध्यवर्ग की पहचान करानेवाले प्रमुख लक्षणों के तौर पर सांस्कृतिक व्यवसायी (Cultural Entrepreneurs) और स्वयं को लोकाचार के अनुरूप ढालने (Self-fashioning) की प्रवृत्ति को सामने रखा।

लखनऊ को केंद्र में रख कर उस दौर में हिंदू, मुस्लिम के बीच बढ़ते अलगाव के तीन चरणों को रेखांकित किया। अलगाव का पहला चरण 1900 में अदालतों में नागरी के प्रवेश को माना। फारसी का वर्चस्व टूट गया था। यह कदम नौकरियों पर फारसीदाँ का इजारा समाप्त होने का संकेत था। दूसरा चरण 1916 में विधानसभाओं में मुस्लिमों के विशेष प्रतिनिधित्व के लिए लिया गया सरकारी निर्णय बना। इस निर्णय ने लखनऊ के हिंदू, मुस्लिमों को सीधे सीधे दो वर्गों में बाँट दिया और तीसरा चरण, 1924 में हिंदू मुस्लिम के बीच के सांप्रदायिक दंगों को माना। इनमें से पहला चरण दोनों वर्गों के मध्य आर्थिक हितों के टकराव से विकसित हुआ। दूसरे चरण में राजनीतिक अधिकारों को ले कर मतभेद बढ़े और तीसरा चरण धार्मिक स्वतंत्रता के हनन के कारण अपनी जड़ें फैला सका। लखनऊ को छोड़ कर शेष भारत में भी अलगाव के मूल में यह धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण ही महत्वपूर्ण रहे।

राष्ट्रवाद की चेतना का वाहक भी मध्यवर्ग ही रहा है। हिंदू मध्यवर्ग और मुस्लिम मध्यवर्ग के विभाजन ने गुजरते समय के साथ एक दूसरे की स्पर्धा में हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाओं के विकास में मदद पहुँचायी। चाहे वह 1885 में स्थापित कांग्रेस हो या 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग। इनका आधार शिक्षित मध्यवर्ग ही रहा। इनके मार्फत ही राष्ट्रीय चेतना का प्रचार प्रसार हुआ। यह अलग लेख का विषय है कि इनके राष्ट्रवाद की संकल्पनाएँ क्या रहीं? और उसने कैसे भारत की तस्वीर पेश की? इनके राष्ट्रवाद की क्या सीमाएँ रहीं? उन सीमाओं का संबंध मध्यवर्ग से कैसे जुड़ता है? राष्ट्रवादी आंदोलन के विकास के साथ साथ मध्यवर्ग का कैसा विकास होता गया?

मध्यवर्ग पर इतनी बातों के बाद उसकी कुछ सीमाएँ और कुछ उपलब्धियाँ हमारे सामने हैं। सीमाएँ तो स्पष्ट हैं। उपलब्धियों की ओर पुनः संकेत कर रहा हूँ। मध्यवर्ग के जन्म के साथ सामंतवाद का पराभव इसकी ऐतिहासिक उपलब्धि रही है। 'पूँजीवादी विकास के पहले चरण में मध्यवर्ग की जिस भूमिका की ओर मार्क्स ने संकेत किया था वह सही साबित नहीं हुआ।'70 यह सच है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने मध्यवर्ग को सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बना दिया। यद्यपि मध्यवर्ग का निर्माण उन समूहों के मेल से हुआ जो सामान्य व्यावसायिक हितों की पूर्ति और सामान्य जीवन शैली के कारण मिले थे। लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि 'मध्यवर्ग ने अपने सामाजिक और राजनीतिक आचरण में कुछ निश्चित लोकतांत्रिक और उदार मूल्यों की वकालत की। किसी भी धार्मिक संगठन के द्वारा लगायी गई पाबंदियों की तुलना में वैयक्तिक अधिकारों को ज्यादा तरजीह दी। विचारधारा के स्तर पर इसने बौद्धिक स्वतंत्रता, सामाजिक गतिशीलता, उदार वैयक्तिकवाद और राजनीतिक लोकतंत्र को अपना समर्थन दिया।'71 साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन में और राष्ट्र निर्माण की दिशा में निभाई गई भूमिका को यों ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

इस पूरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए औपनिवेशिक काल के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो कुछेक बातें सामने आती हैं। हिंदी साहित्य की प्रत्येक विधा पर विचार करने का अवकाश नहीं है इसलिए हिंदी उपन्यासों के आधार पर अपनी बात रख रहा हूँ। हिंदी उपन्यास इसलिए क्योंकि मध्यवर्ग के उदय के साथ इसके उदय की बात की जाती है।

आचार्य शुक्ल 1843 ई. तक हिंदी साहित्य में रीतिकाल की मौजूदगी को अपने इतिहास ग्रंथ में दर्ज करते हैं। मतलब इस समय तक हिंदी साहित्य में रीतिकालीन संस्कारों को देखा जा सकता है। इसके विपरीत बाँग्ला साहित्य की चर्चा करते हुए आचार्य शुक्ल कहते हैं : 'बंग देश में नए ढंग के नाटकों और उपन्यासों का सूत्रपात हो चुका था, जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का प्रतिबिंब आने लगा था।'72 मुक्तिबोध भी लिखते हैं : 'सन सत्तावन के गदर के पहले ही बंगाल में आधुनिक सभ्यता आरंभ हो गई थी तथा शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हो गया था।'73 इसके परिणामों की ओर मैनेजर पांडेय ने संकेत किया है : 'भारत में यही मध्यवर्ग आरंभिक दिनों में उपन्यास के लेखक और पाठक के रूप में उसके उदय का आधार बना। बंगाल में ऐसा मध्यवर्ग पहले विकसित हुआ था। इसलिए वहाँ उपन्यास का विकास भी दूसरी भारतीय भाषाओं से पहले हुआ। बाँग्ला में पहले उपन्यास के विकास का एक कारण यह भी था कि वहाँ पत्र पत्रिकाओं का विकास भारत की दूसरी भाषाओं से पहले हुआ।'74 मतलब आधुनिकता के सामाजिक आधार का ही नहीं भौतिक आधारों का विकास भी वहाँ अन्य क्षेत्रों की तुलना में पहले हुआ था।

प्रदेशों के स्तर पर बात करने से कुछ बातें सामने आईं, कुछ बातें पूरे भारतीय परिदृश्य को सामने रखने से स्पष्ट होंगी। मैनेजर पांडेय लिखते हैं : 'भारत में उपन्यास का जन्म अभिशप्त स्थितियों में हुआ। ...भारत में उपन्यास का जन्म उन्नीसवीं सदी के मध्य में तब हुआ जब देश में अंग्रेजी राज था। उपनिवेशवाद के कारण भारतीय समाज के यथार्थ और भारतीय जनता की चेतना में ऐसे अंतर्विरोध थे, जो उपन्यास के स्वाभाविक विकास में बाधक थे। यूरोप में उपन्यास का उदय जिन स्थितियों में हुआ था उनके ठीक विपरीत परिस्थितियाँ यहाँ मौजूद थीं। भारत में न तो औद्योगीकरण हुआ था और न मध्यवर्ग विकसित हुआ था। यहाँ जो नाममात्र का औद्योगीकरण हो रहा था, वह भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास का परिणाम न था। वह साम्राज्यवाद की लूट के लिए फैले व्यापार और बाजार का एक हिस्सा था। उपनिवेशवाद ने भारतीय सामंतवाद के मूल ढाँचे को बनाए रखा और उसके साथ एक नए किस्म का सामंतवाद भारतीय समाज पर थोप दिया। इसलिए यहाँ के औद्योगीकरण में स्वाभाविक रूप से विकसित पूँजीवाद की कोई विशेषता न थी। यूरोप में जो मध्यवर्ग उपन्यास के विकास का आधार बना था, वह यहाँ लगभग गायब था। उपनिवेशवादी व्यवस्था में यहाँ जो मध्यवर्ग पैदा हुआ था उसका चरित्र यूरोप के मध्यवर्ग से बहुत भिन्न था।'75 आगे वे लिखते हैं : 'भारत में जिस मध्यवर्ग का विकास हुआ था उसकी मूल्य चेतना दुविधाग्रस्त थी। उसमें एक ओर परंपरा बनाम आधुनिकता का द्वंद्व था तो दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर भ्रामक आधुनिकता की ओर झुकाव भी था। संभवतः यही कारण है कि आरंभिक उपन्यासों में कहीं भारतीय और पश्चिमी मूल्यों का द्वंद्व मिलता है तो कहीं सतही आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी मूल्यों की नकल मिलती है।'76

'हिंदी उपन्यास का इतिहास' लिखनेवाले गोपाल राय भी मानते हैं : 'हिंदी उपन्यास के उदय का संबंध मध्य वर्ग से न के बराबर ही माना जा सकता है।'77 हिंदी उपन्यास पर बात करते हुए गोपाल राय लेखक और पाठक वर्ग की बात रखते हैं। हिंदी उपन्यासों के आरंभिक दौर में जो लेखक वर्ग था वह तो मध्यवर्ग से संबंध रखता था लेकिन जहाँ तक पाठक वर्ग का सवाल है वहाँ यह बात लागू नहीं होती है क्योंकि 'किसी क्षेत्र में पाठक वर्ग के निर्माण की प्रक्रिया वहाँ की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होती है। बिना अपेक्षित क्रयशक्ति के पाठक वर्ग का निर्माण नहीं हो सकता, क्योंकि पठन के लिए पुस्तकें पैसे से ही प्राप्त होती हैं।'78 'मध्यवर्गीय हिंदी लेखक और पाठक अभी अपनी निर्माण की प्रक्रिया में ही था। लेखकों का एक वर्ग बाबू हरिश्चंद्र के नेतृत्व में निर्मित हो रहा था; राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हो कर राष्ट्रभाषा के रूप में 'निज भाषा' की उन्नति का जीतोड़ प्रयास चल रहा था।'79

हिंदी में पाठक वर्ग के निर्माण का अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक महत्व का कार्य देवकीनंदन खत्री और गोपालदास गहमरी के प्रयत्नों से हुआ। लेखक, पाठक और रचना का यह त्रिकोण साहित्य के समाजशास्त्रा का विषय है। पश्चिम में इस पर विचार की समृद्ध परंपरा देखने को मिलती है। स्वयं ऑयन वॉट ने अपनी पुस्तक 'उपन्यास का उदय' में एक अध्याय 'पाठक समुदाय और उपन्यास का उदय' को केंद्र में रख कर लिखा है। हिंदी में इस विषय पर विचार करनेवाले अकेले आलोचक मैनेजर पांडेय हैं। बहरहाल, देवकीनंदन खत्री और गोपालदास गहमरी के प्रयत्नों का ही परिणाम था कि प्रेमचंद को यह कार्य नहीं करना पड़ा (पाठक वर्ग के निर्माण का)। बल्कि उन्होंने इस पाठक वर्ग की चेतना को संस्कारित किया। इसी कार्य को रेखांकित करते हुए रामविलास जी ने कहा था कि प्रेमचंद ने चंद्रकांता के पाठकों को सेवासदन का पाठक बनाया। मध्यवर्ग के विकास में समानांतर हिंदी उपन्यासों के विकास के अध्ययन की जरूरत बनी हुई है। मध्यवर्ग के विकास के भी कई चरण हैं और हिंदी उपन्यास के विकास में भी कई पड़ाव हैं। इनके बीच के अंतर्संबंधों की पड़ताल की जानी चाहिए।

'नवजागरण और हिंदी उपन्यास' पर बात करते हुए गोपाल राय ने लिखा है : 'हिंदी उपन्यास मध्यवर्ग की माँग के फलस्वरूप नहीं, वरन् एक प्रकार की प्रच्छन्न राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया।'80 राष्ट्रीय चेतना को लगातार अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया में और दूसरे कारणों से हिंदी उपन्यास का विकास हुआ। इस विकास के एक महत्वपूर्ण आयाम को स्पष्ट करते हुए मैनेजर पांडेय लिखते हैं : 'भारतीय उपन्यास का स्वतंत्र रूप तब विकसित हुआ जब उपन्यास रचना के केंद्र में भारतीय किसान जीवन आया, तभी वह यथार्थवाद विकसित हुआ जो राष्ट्रीय जागरण का अभिन्न अंग था।'81 आगे वे लिखते हैं : 'अगर कोई व्यक्ति उन्नीसवीं सदी के मध्य से आज तक के भारतीय उपन्यास के विकास को, उसकी ऐतिहासिक भूमिका और सामाजिक सार्थकता को, उसके बदलते रूपों और कलात्मक उपलब्धियों को देखे तो उसे भारतीय उपन्यास की स्वतंत्र अस्मिता की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट दिखाई देंगी। उपन्यास यूरोप में भले मध्यवर्ग का महाकाव्य रहा हो, लेकिन भारत में वह मध्यवर्ग का महाकाव्य नहीं है। भारतीय साहित्य में ऐसे बहुत कम उपन्यास मिलेंगे, जो केवल मध्यवर्गीय जीवनानुभव तक सीमित हों, फिर भी उनमें महाकाव्यात्मक उदात्तता हो। उन्हीं भारतीय उपन्यासों में महाकाव्यात्मक गरिमा है जिनमें भारतीय समाज के श्रमजीवी उत्पादक लेकिन शोषित जनसमुदायों के जीवन संघर्ष का समग्रता में चित्रण है।'82

यह विश्लेषण सही है। लेकिन इस बात पर विचार किए जाने की जरूरत है कि औपनिवेशिक काल के उपन्यास और उत्तर औपनिवेशिक उपन्यासों में केंद्रीय पात्र और स्थितियों में आए बदलाव के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं? किसानों के पात्र और चरित्र के तौर पर समाज और कथा साहित्य दोनों से गायब होते चले जाने के क्या कारण हैं?

औपनिवेशिक काल में किसान अंग्रेजी राज के आधार थे। किसानों के शोषण पर उनका अर्थतंत्र और राजतंत्र टिका था। उत्तर औपनिवेशिक काल भी उस औपनिवेशिकता की धारावाहिकता का प्रसार है। अब वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में किसानों के साथ मध्यवर्ग भी उसके निशाने पर है। उत्तर औपनिवेशिक काल में मध्यवर्ग का विकास एक 'इकोनॉमिक कैटेगरी' के तौर पर हुआ है। इसलिए उत्तर औपनिवेशिक उपन्यासों में मध्यवर्ग उसी रूप में उपस्थित नहीं है जिस रूप में औपनिवेशिक काल में उपस्थित था। अब यह ज्यादा जटिल और संश्लिष्ट रूप में आज के उपन्यासों में मौजूद है। अगर आज के इस समीकरण को केंद्र में रख कर विचार किया जाए तो संभवतः मध्यवर्ग और उपन्यास के साथ साथ पूँजीवाद की भी प्रच्छन्न भूमिका उजागर होगी। ऑयन वॉट ने पश्चिम में उपन्यास के उदय पर लिखा है कि 'परंपरागत दृष्टिकोण यह था कि वर्ग भेद सामाजिक व्यवस्था का आधार था और परिणामस्वरूप खाली समय के आमोद केवल फुरसतवाले वर्ग के लिए ही उचित थे। इस दृष्टिकोण का आज के आर्थिक सिद्धांत द्वारा प्रबलतापूर्वक पोषण किया गया। यह सिद्धांत हर उस चीज का विरोधी था जो श्रमिकवर्ग को अपने काम से परे रखे।'83 आज मध्यवर्ग को केंद्र पर रख कर लिखे जानेवाले उपन्यास कौन सी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं? क्या यह किसी चेतना का निर्माण कर रहे हैं या फिर कुछ गिने चुने 'फ्रेमों' में ही जिंदगी का तानाबाना बुन रहे हैं?

'भारतीय उपन्यास और प्रेमचंद' पर विचार करते हुए मैनेजर पांडेय लिखते हैं : 'प्रेमचंद के कथा साहित्य में मध्यवर्ग भी है लेकिन केंद्रीय स्थिति किसान जनता की है। यहाँ किसानों का जीवन संघर्ष ही केंद्रीय विषय है। जीवन में किसान जिस शोषण के शिकार थे, उस शोषण के पेचीदे तंत्र, उसकी जटिल प्रक्रिया और उसकी भयानक परिणति का चित्रण प्रेमचंद ने किया है। इसके साथ ही उन्होंने सामंतवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध किसान जनता के मुक्ति संघर्ष का भी चित्रण किया है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में अपने समय के किसान जीवन के जितने महान कथाकार हैं, वे अपने समय के भारतीय समाज के ऐतिहासिक संघर्ष और विकास की दिशा प्रक्रिया और गति को पहचाननेवाले उतने ही महत्वपूर्ण इतिहासकार भी हैं। प्रेमचंद किसान, मजदूर, मध्यवर्ग, सामंत वर्ग, पूँजीपति वर्ग और साम्राज्यवादी शासकों का चित्रण एक दूसरे से अलग एकाकी रूप में नहीं करते, वे एक व्यापक सामाजिक राजनीतिक प्रक्रिया और उसकी विचारधारात्मक परिणतियों के भीतर अंतर्वगीय संघर्षों और संबंधों का चित्रण करते हैं। यही कारण है कि प्रेमचंद के उपन्यासों में उस काल के सामाजिक यथार्थ की जटिल समग्रता और राजनीतिक संघर्ष की अंतर्विरोध से भरी हुई प्रक्रिया का बोध होता है।'84 यह लंबा उद्धरण इसलिए दिया है कि यह स्पष्ट हो सके कि प्रेमचंद किसान जीवन के रचनाकार होने के कारण बड़े रचनाकार नहीं हैं बल्कि अपनी दृष्टि के कारण बड़े रचनाकार हैं। न सिर्फ किसान जीवन बल्कि मध्यवर्ग को भी उसकी भूमिका, उसके निर्माण और कर्म की प्रक्रिया और अंतर्विरोधों के साथ प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में उतारा है। ऐसा करते हुए उन्होंने कहीं पूर्वाग्रह का परिचय नहीं दिया है।

1990 में प्रकाशित 'हिंद स्वराज' में महात्मा गांधी ने आधुनिक सभ्यता के नाम से पूँजीवादी सभ्यता की आलोचना करते हुए उसे 'चांडाल सभ्यता' कहा था। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि 'हिंदुस्तान को रेलों ने, वकीलों ने और डाक्टरों ने कंगाल बना दिया है।'85 'वकीलों ने हिंदुस्तान को गुलाम बनाया है, हिंदू मुसलमानों के झगड़े बढ़ाये हैं और अंग्रेजी हुकूमत को यहाँ मजबूत किया है। ...उनका धंधा उन्हें अनीति सिखानेवाला है। ...लोग दूसरों का दुःख दूर करने के लिए नहीं, बल्कि पैसा पैदा करने के लिए वकील बनते हैं'86 प्रेमचंद हिंदी के अकेले कथाकार है जिन्होंने गांधी जी के समान वकीलों की बड़ी कड़ी आलोचना की है। ईदगाह कहानी में वकील के खिलौने के बहाने इस पेशे पर प्रेमचंद ने जो टिप्पणी की है उसे हिंद स्वराज के साथ मिला कर पढ़े जाने की जरूरत है।

प्रेमचंद पर ही बात करते हुए मैनेजर पांडेय लिखते हैं कि 'प्रेमचंद ने किसान जीवन को अपने कथा साहित्य का केंद्र बना कर पश्चिम में प्रचलित उपन्यास की परंपरा से अलग रास्ता चुना तो रचनात्मक स्तर पर एक कठिनाई भी मोल ले ली। मध्यवर्ग के जीवन को केंद्र बना कर उपन्यास कहानी लिखने में जितनी सुविधा है उतनी किसान जीवन को अपनाने में नहीं है। मध्यवर्ग का जीवन काफी खोखला होता है, उसमें तनावों, भ्रमों, मोहों, रोमांटिकता और बनावटीपन के लिए बहुत जगह होती है। ऐसे जीवन को उपन्यास में बदलना अपेक्षाकृत सरल हो सकता है।'87 लेकिन क्या कारण है कि मध्यवर्ग पर आधारित उपन्यासों में महाकाव्यात्मक उदात्तता कम देखने को मिलती है? इसका प्रमुख कारण तो स्वयं मध्यवर्ग की जटिल संरचना है जिसके कारण इसकी व्याख्या तो संभव है लेकिन परिभाषा नहीं। इसके अंतर्विरोधों, उलझनों और अन्य बारीकियों को समग्रता में चित्रिात करना बेहद कठिन है। इसका कारण मध्यवर्ग का लगातार बदलता चरित्रा और स्वरूप भी है। इस मध्यवर्ग को ले कर हिंदी आलोचना में जो मान्यताएँ प्रचलित हैं उन पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

हिंदी आलोचना को समृद्ध करने में मार्क्सवादी आलोचना की अहम भूमिका है। मध्यवर्ग पर बात करते हुए प्रत्येक मार्क्सवादी आलोचकों ने उसकी आलोचना की है। आलोचना का आधार 'मध्यवर्गीय जीवन मूल्य' और 'मध्यवर्गीय मानसिकता' इन दो विशेषताओं को बनाया गया है। बल्कि यह कहें कि यह मार्क्सवादी आलोचना का एक औजार (टूल्स) है जिसके आधार पर अक्सर इस वर्गीय साहित्य की आलोचना की जाती रही है। कुछेक उदाहरण उद्धृत कर रहा हूँ, कुछ का संकेत मात्रा करूँगा। 'राम की शक्ति पूजा' का एक काव्यांश है - 'अन्याय जिधर, है उधर शक्ति' इसकी बड़ी दिलचस्प व्याख्या नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक छायावाद में की है - 'यह शक्ति स्वयं राम की शक्ति थी जो अब रावण के पक्ष में हो गई थी। यह निराला का स्वयं अपना वर्ग मध्यवर्ग था जो अब पुराणपंथी सामंती दल से मिल गया था। इस राम को जराजीर्ण रावण से भय न था और न उसकी परवाह ही थी। लेकिन वे उस अपनी शक्ति का क्या करते?'88 'राम की शक्ति पूजा' का ही एक अंश है :

धिक्‌ जीवन को जो पाता ही आया विरोध,

धिक्‌ साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध!

इस पर नंद किशोर नवल के विचार देखिए - 'उनकी यह आत्मभर्त्सना किसी भी मध्यवर्गीय व्यक्ति की आत्मभर्त्सना हो सकती है, जो अपने जीवन में निरंतर बाधाओं का सामना करता रहा हो और जिसकी सफलता के मार्ग में अंतिम बार भी बाधा आ खड़ी हुई हो।'89

राजेंद्र यादव चंद्रकांता की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि इसके पीछे इतना ही कारण है कि 'सामाजिक जीवन व्यवस्थित हो गया था, मध्यवर्गीय लोग फुर्सत में थे और समय काटने के लिए ऐसे लंबे किस्से पढ़ते चले जाना उनके लिए स्वाभाविक था?'90 इसके अलावा 'त्यागपत्र' के जज एम. दयाल के चरित्र पर कही गई बातें। अज्ञेय के 'नदी' के द्वीप' (कविता) की वह ऐतिहासिक पंक्ति 'स्थिर समर्पण है हमारा'। मोहन राकेश के नाटकों की समीक्षाएँ, कालिदास (आषाढ़ का एक दिन) का अवसरवाद और पलायनवाद, अमृतलाल नागर के उपन्यासों 'बूँद और समुद्र' तथा 'अमृत और विष' की लिखी आलोचनाएँ आदि।

सूची काफी लंबी हो सकती है। मेरा मकसद मध्यवर्ग की रक्षा में खड़ा होने का नहीं है। मैं इस बात की ओर संकेत करना चाहता हूं कि अपनी कमियों के बावजूद मध्यवर्ग के संदर्भ में मार्क्सवादी आलोचना का रुख वैसा ही है जैसा भारत में हुई हर घटना के लिए आई.एस.आई. का हाथ कह कर पल्ला झाड़ लेने का। 'मध्यवर्गीय जीवनमूल्य' और 'मध्यवर्गीय मानसिकता' के सरलीकृत 'फार्मूलेशन' से मध्यवर्ग को समग्रता में नहीं समझा जा सकता है। मध्यवर्ग के कुछ धनात्मक पक्ष रहे हैं। उन पक्षों के हाशिए में चले जाने के कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए। इस बात का पता लगाया जाना चाहिए कि क्या स्वयं मध्यवर्ग को इस बात का बोध है कि उसके ऊपर कितना बड़ा दायित्व है? क्या उसे बोध है कि मध्यवर्ग के अंतर्गत कौन कौन आते हैं?

मध्यवर्ग एक 'सेल्फ एवीडेंट' और 'सेल्स रेफरेंशियल' पद हो गया है जबकि इसके ऐतिहासिक विकास को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता है। यह हमेशा से सापेक्षता में व्याख्यायित होता आया है। आज महानगरों के मध्यवर्ग के आय की तुलना में छोटे शहर के मध्यवर्ग की आय कहीं टिकती नहीं है। फिर भी दोनों मध्यवर्ग के अंतर्गत गिने जाते हैं। आज से बीस साल पहले मध्यवर्ग और उच्च वर्ग की आय और आमदनी में उतना अंतर नहीं था जितना आज है। पहले कला, विज्ञान और वाणिज्य विषयों को ले कर पढ़ने वालों का भविष्य इतना बेमेल नहीं हुआ करता था। ज्ञान की पारंपरिक शिक्षा पद्धति अपनी अर्थवत्ता (बाजार के अर्थों में) को बनाए रख पाने में आज सक्षम नजर नहीं आ रही है। रोजगार और अध्ययन के नए नए दरवाजे आए दिन खुल रहे हैं। युवा वर्ग के बीच ही एक जबर्दस्त असंतुलन पैदा हो गया है। 'सोशल इंजिनियरिंग' और 'आरक्षण' के कारण नए समीकरण बने हैं। मध्यवर्ग का जबर्दस्त विस्तार देखने को मिल रहा है। उसके विस्तार के साथ, बाजार का विस्तार, शेयर बाजार की बुलंदी, सेज का आगमन, नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाएँ सभी जुड़ी हैं। इस बढ़ते परिवेश में अब 'उन्हीं हथियारों से' मध्यवर्ग को नहीं समझा जा सकता है। वैकल्पिक भारत के निर्माण के लिए जहाँ मध्यवर्ग पर पुनः गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है, वहीं हिंदी आलोचना को भी इस वर्ग को समझने के लिए वैकल्पिक आलोचनात्मक साधनों की जरूरत है। इसके बिना न तो आने वाला भारत प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर पाएगा और न हिंदी आलोचना पश्चिम की आलोचना के समक्ष खड़ी हो पाएगी।

संदर्भ

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