मनपंछी / सुधा भार्गव
वे दोनों अंतरंग सहेलियाँ थीं। रोज ही उनका मिलना होता था पर जब से शबनम विदेश गई एक बार अपनी सहेली की सुध न ली। कुछ दिनों तो वह इंतजार करती रही पर जब कोई फोन न आया तो हारकर शशि ने ही फोन का रिसीवर उठा लिया।
--हलो शबनम! कैसी हो?तुम्हें तो बात करने की फुरसत नहीं।
-अरे शशि तुम। एकदम ठीक हूं।
क्या बताऊँ! बहू काम से बाहर गई है। मैं प्यारी सी पोती के पास बैठी हूं।
-अकेली -----आज कहीं बाहर घूमने नहीं गई।
-कहाँ जाऊँ,कहीं चैन नहीं! इसको खिलाने में,बातें करने में बड़ा आनंद आता है।
--कैसा आनंद!यूं कहो एक मुफ्त की आया मिल गई है ।बहू तुम्हारा शोषण कर रही है शोषण।
-ऐसी बात नहीं-... -घर में ही आनंद और तृप्ति हो तो बाहर ढूढ़ने की क्या जरूरत!
- पोती का मोह छोड़कर अब इंडिया आ सकोगी?
-चाहे जब चल दूँगी!
-कैसे आओगी?तीन माह का टिकट भी तो लेकर गई हो- ---!
- उससे क्या होता है । जब तक इज्जत की सीढ़ियाँ चढ़ती रहूंगी तब तक यहाँ हूं ।जरा भी फिसलन लगी...,चल दूँगी ।बिना टिकट के...|
मन से,विश्वास,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती | मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं,शरीर यहाँ हुआ तो क्या हुआ।