मनरँगना’: नारी मन की व्यथा-कथा / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
सामाजिक जीवन, बहुत सारी सीमाओं में बँधा होता है। बहुत-सी मर्यादाएँ होती हैं। चिन्तनपरक गद्य-कहानी, निबन्ध, उपन्यास , नाटक आदि विधाओं में इसे पूरी तरह अभिव्यक्त किया जाता रहा है। रचनाकार का जीवन भी बहुत -सी उद्दाम तरगों से विलोडित होता रहता है। भावों का ज्वार -भाटा उसे निरन्तर मथता और उद्वेलित करता है। दुनिया की बात छोड़िए, हमें स्वय भी अपने मन का पता नहीं कि वह किस मोड़ पर क्या ठान ले, क्या कर बैठे! गीतकार नीरज ने कहा भी है-
मन तो मौसम-सा चंचल है, सबका होकर भी न किसी का।
कभी सुबह का कभी शाम का, कभी रुदन का, कभी हँसी का।
जीवन का ताप, जो बीत गया या रीत गया, उसका अनुताप प्रतिपल मन को मथता है। उस मंथन पर, कवि का स्वय का भी वश नहीं होता; क्योंकि मन हमारे वशीभूत कब होता है! हमारे कहने या सोचने से न विरक्त होता है, न अभिभूत होता है। जब तक मन अप्रतिहत है, किसी वल्गा से नियन्त्रित नहीं, किसी मन्त्र से अभिमन्त्रित नहीं, तब तक कल्पना की अल्पना उसको विविध रंगों से रँगती रहेगी। मन के यही सात्त्विक रंग मन का अवगाहन कर सकें , तो मन के सभी रंग खिल उठेंगे और खुल उठेंगे।
नन्दा पाण्डेय की काव्य-कृति ‘मनरँगना’ में ये विभिन्न रंग भावेष्टित होकर सहृदय को चमत्कृत करते हैं। इनकी सभी कविताएँ चमत्कृत ही नहीं करती; बल्कि गहराई से अधिगम के बाद विचलित भी करती हैं। सुख वह नहीं है, जो हमको मिला है; बल्कि सुख या आनन्द वह है, जिसके लिए हम कस्तूरी मृग बनकर इस जगत् की मरुभूमि में तपते सूरज के नीचे हाँफते हुए दौड़ रहे हैं। जो डाकिए की स्थिति होती है, वही हमारे मन की भी गति होती है। निदा फ़ाजली ने अपने एक दोहे में कहा है-
सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान।
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान।
मन एक डाकिया ही तो है, जिसके थैले में आँसू और मुस्कान दोनों भरे हैं। उसी व्याकुल मन की पर्तें नन्दा पाण्डेय ने बहुत खूबसूरती से खोली हैं।
नैतिकताओं और मर्यादाओं के भारी -भरकम बोझ को ढोते हुए , जब कन्धे झुकने लगें, तब कवयित्री को थककर यह कहना पड़ा है-
बहा आई आस्थाओं, संस्कारों,
/ परम्पराओं और नैतिकताओं के उस
भारी-भरकम दुशाले को भी/
जिसे ओढ़ते हुए उसके कन्धे झुकने लगे थे। (चैत की रात -19)
अपनी इच्छाओं को वनवास देकर कृत्रिम, औपचारिक और असहज जीवन की विभीषिका एक न एक दिन तन और मन दोनों को थका देती है।
पुरुष का व्यक्तित्व नारी से अलग होता है। पुरुष के जटिल व्यक्तित्व को लेकर नन्दा जी ने एक नूतन उद्भावना प्रस्तुत की है-
जैसे भीगे मन और भीगी रेत को
सूखने में लगता है वक़्त/ ठीक वैसे ही
पुरुष को समझने में लगता है वक़्त। (पुरुष -24)
पुरुष कितना भी कठोर क्यों न हो, उसमें भी किसी सीमा तक गहन व्यथा समाई हुई है; अतः पुरुष की अन्तरंगता को इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
क्यों इजाज़त नहीं उन्हें, किसी के काँधे पर सर रखकर बहने की
क्या प्रवाह में बहना पुरुषों का अधिकार नहीं? (पुरुष -25)
जीवन का सबसे अनिवार्य रस है- पानी। पानी का एक पर्याय जीवन भी है। वही जब उसके जीवन से निकल जाए, तो कुछ नहीं बचता । पानी, जो प्यास बुझाता है, पानी जो उसके तन और मन का अनिवार्य तत्त्व है। समय मुट्ठी से क्या निकला कि अब-
भीगे हुए दिन-रात
अब उसे विभोर नहीं करते;
बल्कि/ लेते हैं उसके सब्र का इम्तिहान (नियति का सबसे बड़ा छल -27)
प्रेम में वंचना उसी को होती है, जो सर्वथा निश्छल है, जो प्रत्येक भाव-भंगिमा को सत्य मान लेता है। उसकी निश्छलता ही उसे अभिशप्त करती है। कवयित्री ने ‘प्रगाढ़ चुम्बन’ कविता में सात्त्विक अनुभूति और समर्पण को अक्षरशः चित्रित कर दिया है-
उस प्रगाढ़ चुम्बन के बाद
जब तुमने कहा-खोल दो सब गिरहों को
खुल गया उसके जीवन का हर बन्ध तुम्हारे नाम से
… उसे तो बस इतना पता था
कि प्रेम का मतलब होता है
आत्मा के द्वार को खोल देना (प्रगाढ़ चुम्बन -33)
निश्छल मन की हर गिरह को खोल देता है। भाव-विभोर होकर सागर में मिल जाने के बाद कुएँ का मीठा जल खारेपन से अभिशप्त हो जाता है। उसी खारेपन को पीठ पर बाँधना, अपनी छाती के अमृत से सींचना के माध्यम से वंचिता नारी की नियति को प्रखरता से प्रस्तुत किया गया है। सपाटबयानी से दूर, ऐसी मर्मभेदी प्रतीकात्मक भाषा, बहुत मंथन के बाद अर्जित की जाती है-
आज उसी खारेपन को
अपनी पीठ पर बाँधकर
सींच रही है अपनी छाती के अमृत से। (प्रगाढ़ चुम्बन -34)
मधुर कूप जल, बाहरी मिलावट से दूर, अनछुआ सौंदर्य है, तो उधर समुद्र उद्दाम तरंगें, घोर गर्जन लिये है, जिसे आलिंगन बद्ध करे, उसे क्षत- विक्षत करने पर कतिबद्ध, किसी के भी अस्तित्व को विदीर्ण करने में सक्षम है। ‘महुआ चुनती, उपले थापती न जाने कितनी अबोध बालाएँ इस तरह के छद्म ‘प्रगाढ़ चुम्बन’ से अभिशप्त होती रही हैं।
जीवन के झंझावात ने बहुत कुछ सिखाया। अब समझ में आया कि केवल स्मृतियों को लिख देना भावानुभूति नहीं है। जीवन की तरह कविता में भी सन्तुलन होना चाहिए-
उन्माद में कहे गए शब्द/ अब सन्तुलन के साथ
समय के प्रवाह में/ बहकर बन रहे हैं कविता। (पौ फट चुकी है -57)
नन्दा जी ने सृजन के संयम और सन्तुलन को अनिवार्य बताया है। सन्तुलन के कारण-
कलम अब स्मृतियाँ नहीं/ स्वप्न लिखेंगी
फूल, पर्वत और नदी का बहना लिखेंगी । (पौ फट चुकी है -57)
प्रतिरोध के स्वर इनकी कविताओं का केन्द्र- बिन्दु है। यह प्रतिरोध और प्रतिकार बहुत- सी उलझी हुई गाँठों को खोलता है। बड़े-बड़े सम्मान किसी के हृदय की रिक्तता नहीं भर सकते। अपनेपन के लिए आत्मीय स्पर्श चाहिए, जिससे सम्मान की अनुभूति हो।
नहीं चाहिए मुझे/ सम्मान एक दिन का/
देना है, तो दे दो/ मुझे मेरे हिस्से का आसमान/
चाहे रख लो अपनी ज़मीन अपने पास। (सम्मान -60)
आपकी कविताओं में अन्तर्द्वन्द्व स्थायी भाव की तरह उपस्थित है, जिसे नपे-तुले शब्दों में चित्रित किया गया है-
वह समझ नहीं पा रहा था/ कि उसके सामने
पहले सिर झुकाऊँ,/ दीये जलाऊँ/
या उसकी आँखों की बहती नदी में/ जी भरकर नहा लूँ। (अन्तिम सुर -64)
अवशता और परवशता दोनों के कारण जीवन भार लगने लगता है। सामाजिक सम्बन्ध मानव को सुरक्षा-कवच प्रदान करने के लिए हैं; लेकिन ऐसा होता नहीं। मनुष्य गौण हो जाता है और ये सम्बन्ध सुख -दुःख के ऊपर न्यायधीश बनकर बैठ जाते हैं। प्रतीत होता है कि जीवन गौण है और न्याय-संहिता सबसे ऊपर है। कवयित्री ने इस बेचैनी को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है-
मेरी मौन मुद्रा का रोम-रोम/ ठहर जाता है/
तुम्हारे चेहरे की बनती -बिगड़ती/ मुद्राओं के बीच/
और मैं निरीह मृग की तरह/ चलती रहती हूँ/
तुम्हारे पीछे/ बहुत पीछे… (रिश्तों का भूगोल -72-73)
वैसे तो आपकी सभी कविताओं में गहरा आवेग है; लेकिन कुछ कविताओं में यह आवेग आँधी -तूफ़ान की भाँति उमड़ता-घुमड़ता प्रतीत होता है। ‘प्रेम-पाश’ उन्हीं कविताओं में से एक है।
उलाहना, राग और विराग के/ छोटे-छोटे भँवर में डूबे
मेरे मन की साँकल को/ जिस किसी ने भी खटखटाना चाहा-
साँकल टूटकर उसी के हाथ में आ गई (प्रेम-पाश -80)
‘साँकल का टूटकर हाथ में आ जाना’ विशिष्ट भाषा-प्रयोग है, जो अभिव्यक्ति को और अधिक भास्वर रूप प्रदान करता है।
प्रेम को केन्द्र में रखकर बहुत कुछ रचा गया है; लेकिन इसका कोई अन्तिम सिरा नहीं है। नन्दा जी ने ‘सम्बन्ध’ कविता में बहुत सादगी से, अनछुई कलिका जैसे प्रेम को अभिव्यक्त किया है। प्रेम में आहट की भूमिका देखिए-
ड्योढ़ी पर उसके/ पाँव की आहट सुनाई दी
मैं भागती हुई आई
…जो कुछ मेरे पास/ मेरा अपना था/
मैंने उसे दे दिया/ उसमें से जितना उसे लेना था/ उसने ले लिया
अब किसी को, / किसी से कुछ कहना नहीं था… (सम्बन्ध -98)
कवयित्री की भाषा पर ध्यान देना होगा- ‘पाँव की आहट’ सुनने पर ‘भागती हुई आई’, दौड़ती हुई नहीं। दौड़ने में एक निश्चिन्तता होती है। भागने में आतुरता और बेचैनी होती है। कुछ छूट जाने का , खो जाने का डर; इसी में प्रेम की प्रतीति निहित है।
मौन के गह्वर में बहुत कुछ छुप जाता है। नदी के पाट में और मानव- मन में ऐसे बहुत सारे शान्त कुण्ड होते हैं, जिसमें हाथी भी डूब जाए। कवयित्री के मन में भी वही अबूझ गहराई है, वही अशान्त करने वाला कोलाहल विद्यमान है। बहुत सारी व्यथाएँ उसके हृदयतल में उतर चुकी हैं, जिसे रूपक के अनूठे प्रयोग में इस प्रकार बाँधा है-
मौन की प्रत्यंचा पर/ हृदय के कोलाहल को साधकर/
अब वह चुप रहने लगी है…
किसी को नहीं पता/ कि आज उसका मन /
सन्निपात की अवस्था में पहुँचकर/ अन्तिम साँसें ले रहा है। (अब वह चुप रहने लगी है -103) ‘नदी बनी पहाड़’ कविता में मानवीकरण की छटा अभिभूत करती है। बहुत सारे प्रश्न एक साथ सिर उठाकर खड़े हो जाते हैं। नदी से पहाड़ बनने की, रूप परिवरिवर्तन की स्थिति क्यों आई, इसका उत्तर भी यहीं उपस्थित है-
कशमकश/ के दंश को सहते-सहते/ नदी अब पहाड़ बन गई
पूस की ठण्डी रातों में झुककर काँपती-बहती हुई नदी,
सर उठाकर/ जीने की चाहत में/ पहाड़ बन गई। (सम्बन्ध -98)
‘थककर सो गई माँ’ मार्मिक कविता है, जिसमें माँ के पल-प्रतिपल बदलते कई रूप सामने आते हैं- कभी धूप की तरह प्रखर, तो कभी चाँदनी की तरह शीतल थी वो (थककर सो गई माँ-146) माँ ने रामायण, महाभारत भले ही न पढ़े हों, लेकिन उसने जीवन का पारायण किया था; इसलिए उसे किसी अन्य शास्त्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
आँसुओं के मोती को मुस्कानों की माला में कैसे गूँथा/ जाता है/ बखूबी पता था उसको’ (थककर सो गई माँ-146)
कवयित्री जिस प्रकार मन के अवगाहन, अनुरंजन, और विलोडन से परिचित है, ठीक उसी तरह अपने परिवेश के प्रति भी सजग है। निम्नलिखित पंक्तियों में नदी की दुर्दशा का चित्रण मन को द्रवित कर जाता है-
नदी/ उस ग़ुमशुदा औरत की तरह हो गई है/
जिसके होने के निशान तो मिलते हैं/ पर वह नहीं मिलती। (अन्तर्नाद नदियों का-150) जिसका कारण है यह कटु सत्य-
‘कि नदियों की हत्या में शामिल हैं
हमारी अपनी ही कई-कई पीढ़ियाँ!
नन्दा पाण्डेय के ‘मनरँगना’ काव्य-संग्रह में अधिकतम ऐसी कविताएँ हैं, जो नारी की व्यथा-कथा का, मन के विभिन्न अनछुए कोनों का दस्तावेज़ बन गई हैं। भावों, कल्पनाओं और विचारों की तूलिका से नारी-मन के आँगन में जो अल्पनाएँ सजाई हैं, वे कभी चकित करती हैं, कभी उद्वेलित करती हैं, कभी द्रवित करती हैं और कभी चक्रवात की तरह सहृदय को झकझोर जाती हैं। शान्त दिखने वाला मन अपने भीतर एक दूसरा ही संसार बसाए हुए होता है। कवयित्री ने उस अनुभूत सत्य को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।
भाषा की गहनता प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि अर्थ का स्फोट भी चकित कर जाता है। शब्दों का, सही स्थान पर किया गया सही प्रयोग, भावों के शाण पर चढ़कर अर्थ को गरिमा प्रदान करता है। इनकी सभी कविताएँ इसका साक्ष्य हैं। ये कविताएँ किसी भी राष्ट्रीय स्तर के कवि के रचनाकर्म के सामने तनकर खड़ी दिखाई देती हैं। संवेदनशील पाठकों को यह संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए।
अनुप्रिया का बनाया पुस्तक का आवरण सार्थक और मुद्रण विशिष्ट एवं गुणात्मक है। इसे श्वेतवर्णा के उत्कृष्ट प्रकाशन की श्रेणी में रखा जाएगा।
मनरँगना (काव्य-संग्रह) : नन्दा पाण्डेय, पृष्ठः152, मूल्यः299 रुपये, संस्करणः 2023, श्वेतवर्णा प्रकाशन, 212 ए,एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेण्ट सुपर एम आई जी सेक्टर-93, नोएडा-201304
-0-
ब्रम्पटन, 26 अक्तुबर,2024