मनसुखा की सीख / ज़ाकिर अली 'रजनीश'
“सलाम अम्मीजान।” घर में कदम रखते ही अकरम जोर से चहका। वह सफेद कुर्ता, पाजामा और टोपी पहने हुए था और उसके चेहरे पर खुशी फूली न समा रही थी। लेकिन जब उसको सलाम का जवाब नहीं मिला, तो उसके चेहरे की चमक फीकी पड गयी। वह भागता हुआ सीधे आंगन में पहुंचा। उसने देखा कि अम्मी चारपाई पर लेटी हुई कराह रही हैं।
“क्या हुआ अम्मी? आप....” कहते हुए अकरम चारपाई के पास पहुंच गया।
अम्मी ने सिर घुमाकर अकरम की ओर देखा और फिर धीरे से बोलीं, “नमाज पढ आए बेटा?”
“हां, पर आप.....?”
“कुछ नहीं बेटा, अचानक पैरों में दर्द होने लगा। तुम फिक्र न करो, जाओ सिवइंया खा लो, प्याले में निकाली रखी हैं। ये दर्द थोडी देर में अपने आप ठीक हो जाएगा।”
“मैंने आपसे कितनी बार कहा कि ज्यादा चला–फिरा मत करें, लेकिन आप मानती ही नहीं। बिलावजह....” कहते हुए वह अम्मी के पैर दबाने लगा।
“रहने दे बेटा, अभी ठीक हो जाएगा। जा, अपने दोस्तों के साथ घूम–फिर आ। आज मेला भी तो लगा होगा? लो, एक रूपया रख लो, कुछ लेकर खा लेना।” तकिए के नीचे से एक रूपये का नोट निकाल कर देते हुए अम्मी ने कहा, “...और हां, आज के दिन तो तुझे पुरस्कार भी मिलने वाला है, सरकार की तरफ से। दौड में अव्वल आया था तू।” “नहीं, मैं आपको छोडकर नहीं जा सकता।” अकरम ने प्रतिरोध किया।
“अरे, क्यों नहीं जाएगा ?” अम्मी ने प्यार से डांटा, “वहां सब लोग तेरा इंतजार कर रहे होंगे, तू नहीं जाएगा तो...” अकरम ने अम्मी की बात बीच में ही काट दी, “...मैंने कह दिया न, मुझे नहीं जाना पुरस्कार–वुरस्कार लेने। आप कभी अपनी भी फिक्र कर लिया करो।”
अकरम पुन: अम्मी के पैर दबाने लगा। एक रूपये का नोट उसके हाथ में ज्यों का त्यों फंसा रहा। अम्मी ने इस बार कुछ नहीं कहा। उन्हें मालूम था कि जब इसने जिद कर ली, तो फिर कहने से कोई फायदा नहीं।
“क्या कर रहे हो अकरम? जल्दी करो, प्रधान जी तुमको बुला रहे हैं।” यह आवाज अकरम के दोस्त शफीक की थी, जो दालान के पास से अकरम को आवाज दे रहा था।
अकरम की ओर से कोई जवाब न मिलने पर शफीक उसके पास आ गया। वह उसकी अम्मी को सलाम करने के बाद बोला, “जल्दी चलो, वहां पर सब लोग आ गये हैं। बस थोडी देर में कार्यक्रम शुरू होने वाला है।”
“नहीं, मुझे नहीं जाना पुरस्कार–वुरस्कार लेने।” अकरम ने शफीक से अपना कंधा छुडाते हुए कहा, “तुम्हें मालूम है, मेरी अम्मी की तबियत खराब है और तुम्हें पुरस्कार की पडी है।”
यह देखकर अम्मी से रहा न गया। वे बिस्तर से उठते हुए बोलीं, “नहीं बेटे, तू मेरी फिक्र न कर। मैं बिलकुल ठीक हूं।” कहते हुए उन्होंने शफीक की ओर देखा, “शफीक बेटा, तू इसे अपने साथ ले जा।”
“चलो यार।” शफीक ने अकरम का हाथ पकडकर उसे उठाने की कोशिश की।
अकरम का मन मेला जाने के लिए स्वयं ही कितने दिनों से उतावला था। आखिर ईद का मेला साल में एक बार ही तो आता है। कितनी सारी दुकानें लगती हैं वहां। आसपास के दस गांवों से लोग आते हैं। और फिर इतने सारे लोगों के बीच नेताजी के हाथों पुरस्कार मिलना कितने गर्व की बात है। पिछले एक महीने से वह इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहा था। कितनी योजनाएं बनाईं थी उसने। लेकिन आज अम्मी की तबियत अचानक खराब हो जाने से उसका मूड उखड गया था। भला वह ऐसी हालत में उन्हें अकेला छोडकर कैसे चला जाए?शफीक ने दुबारा अकरम का हाथ पकड कर घसीटा। इस बार वह बेमन से उठ गया। उसने एक बार अम्मी की ओर देखा। जैसे जाने से पहले आखिरी इजाजात मांग रहा हो।
“मैं बिलकुल ठीक हूं बेटा, तू आराम से जा।” अम्मी ने उसे आश्वासन दिया।
अकरम ने पुन: एक बार अम्मी की ओर देखा और फिर शरीफ के साथ बाहर निकल गया। अकरम के जाते ही उसकी अम्मी अपने पति के बारे में सोचने लगीं। वे किराने की एक दुकान चलाते थे। उनकी इच्छा थी कि अकरम खूब पढे और बडा होकर कोई बडा अफसर बने। लेकिन दुकान से जितनी आमदनी होती थी, उससे तो घर का खर्च भी मुश्किल से चल पाता था। इसलिए वे अकरम को किसी अच्छे स्कूल में नहीं पढा पा रहे थे। अकरम के अब्बू का एक दोस्त विदेश में नौकरी लगवाने का काम करता था। अपने दोस्त से कहकर उन्होंने दुबई में एक नौकरी का जुगाड किया और फिर इधर–उधर से पैसे उधार लेकर विदेश चले गये।
अभी कुछ दिनों पहले ही अकरम के अब्बू ने खर्चे के लिए कुछ रूपये भेजे थे। हालांकि घर में पैसों की सख्त कमी थी, लेकिन फिरभी अम्मी ने वे सारे रूपये उन लोगों को दे दिए, जिनके वे कर्जदार थे। आज जो एक रूपया उन्होंने अकरम को दिया था, उसे उन्होंने कई दिनों से संभाल कर रखा था। ईद के अवसर पर बच्चों में ‘ईदी’ के रूप में पैसे देने की परम्परा है। अगर आज अकरम को ईदी न मिलती, तो उसके कोमल मन को ठेस लगती और वह अन्य बच्चों के सामने स्वयं को हीन महसूस करता।
अचानक उनके पैरों का दर्द बढ गया। वे पुन: चारपाई पर लेट गयीं। धीरे–धीरे दर्द बढता ही गया। और जब उनसे रहा न गया, तो उनके मुंह से चीख निकल ही गयी, “अकरम बेटे।”
और तभी जैसे चमत्कार हो गया। अकरम बाहर से “जी अम्मी” कहता हुआ आया और उनसे लिपट गया।
मेले जाते समय अकरम को बराबर ऐसा लग रहा था कि कहीं अम्मी की तबियत बिगड न जाए। ऐसे में उन्हें उसकी सख्त जरूरत पडेगी। बस यही सोचकर वह रास्ते से ही घर लौट आया। ईदी के रूपये से उसने अम्मी के लिए दवा खरीदी और उसे लेकर वापस घर आ गया।
एक गिलास में पानी लेकर अकरम ने अम्मी की तरफ दवा बढाई, “लीजिए अम्मी, दवा खा लीजिए। अभी आराम मिल जाएगा।” कहते हुए उसने सहारा देकर अम्मी को उठाया।
अकरम की बातें सुनकर अम्मी स्नेह से नहा उठीं। लेकिन तभी उनकी नजर अकरम के हाथ में थमी दवा की गोली पर चली गयी। भला ये दवा इसे कहां से मिली? और जब उनसे रहा न गया, तो उन्होंने पूछ ही लिया, “लेकिन बेटे, तू ये दवा कहां से लाया?”
“आप ही ने तो पैसे दिए थे।” कहते हुए अकरम ने अम्मी को दवा खिलाई और फिर उन्हें लिटा दिया।
अपने प्रति बेटे का यह प्रेम देखकर वे गदगद हो गयीं। उनका मन चाहा कि वे अकरम को सीने से लगा लें और उसे जी भर कर प्यार करें। लेकिन तभी उनके मन में पुरस्कार वाली बात कौंध गयी। वे बोलीं, “लेकिन बेटे, तुम तो पुरस्कार लेने....?”
“मेरा सबसे बडा पुरस्कार तो आपकी सेवा है। आपने मुझे पाल–पोसकर इस काबिल बनाया है। आपकी दुआ से मैं ऐसे कई पुरस्कार जीतूंगा। ...आज आपकी तबियत ठीक नहीं है, आपको मेरी जरूरत है, तो क्या ऐसे में मैं आपको छोडकर पुरस्कार लेने चला जाता? नहीं–नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। आप यहां दर्द से तडपती रहें और मैं वहां अपना सम्मान करवाऊं, यह मुझसे नहीं हो सकता। कभी नहीं हो सकता।” कहते हुए अकरम की आंखें भर आईं।
हृदय में उठते स्नेह के ज्वार को अम्मी ज्यादा देर तक थाम न सकीं और उन्होंने अपने बेटे को सीने से लगा लिया। आंसू रूपी मोती उनकी आंखों से झर–झर झर रहे थे।