मनसुख कवि कैसे बना / पल्लवी त्रिवेदी

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“कविवर! कोई ऐसी युक्ति बतलाइये जिससे मैं शीघ्र ही अच्छे कवियों में स्थान पा जाऊं”

ज़मीन पर उकडूं बैठा मनसुख कवि श्री कालजयी”दिग्गज”के चरण दबा रहा था।मनसुख के मन में अचानक कवि बनने की तीव्र लालसा जाग गयी थी।

यूं मनसुख कोई कवि ह्रदय लेकर पैदा नहीं हुआ था। मनसुख का बाप पहले कविवर के घर नाई का काम करता था। एक दिन बेचारे को लकवा मार गया और अगले दिन से मनसुख काम पर आ गया।आठवीं कक्षा का होनहार छात्र मनसुख नया काम पाकर बहुत खुश हुआ। गणित ,अंग्रेजी और संस्कृत से मुक्ति मिल गयी थी , साथ ही मास्टर जी की संटी से भी।नए काम में मेहनत कम थी।कविवर की खोपड़ी पर कुल जमा बीस पच्चीस बाल थे ,उन्ही कि मालिश करवाते थे और लगे हाथ लम्बे बालों की कटाई छंटाई भी करवा लेते थे।कभी कभी अपनी लकड़ी सी सूखी देह की मालिश भी करवा लेते थे। कविवर की देह भी उनके कवि ह्रदय के सामान नाज़ुक थी, ज्यादा कड़क हाथ बर्दाश्त न कर पाती थी इसलिए मनसुख का काम देह पर हाथ फिराने मात्र से चल जाता था।कभी कभी उसमे भी कविवर की आह निकल जाती तो सफाई का कपड़ा उठाकर मेज की तरह देह को भी झाड़ देता था।उसी से मालिश का कार्य संपन्न हो जाता था।

दो तीन साल से शरीर को झाड़ते झाड़ते कविवर की कवितायें भी मनसुख के कानों में पड़ती रहीं। शुरुआत में तो मनसुख को महसूस होता कि यही झाड़ने वाला कपड़ा कविवर के मुंह में ठूंस दे मगर ऐसा करने में नौकर मालिक के सम्बन्ध आड़े आते थे इसलिए मनसुख उस कपडे को कवि के मुंह की जगह अपने कानों में ठूंस लेता था।लेकिन एक बात उसके बालमन को हमेशा आश्चर्य में डाल देती थी कि जिस कवि की कवितायें सुनकर उसे ताप चढ़ आता है उन्ही कविताओं पर लोग कैसे वाह वाह कर लेते हैं ? एक दिन उसने कड़ा ह्रदय कर कान में से कपड़ा हटा दिया और कवि के साथ जाकर पूरा कवि सम्मलेन सुना|

कवितायें क्या थीं , बेसिरपैर के शब्दों का बवंडर था। मनसुख का कलेजा मुंह को आने लगा मगर उसने हार नहीं मानी।किसी योद्धा की तरह कविता के मैदान में डटा रहा। वह ध्यानपूर्वक सम्पूर्ण कवि सम्मलेन की प्रक्रिया का मनन करता रहा। कविवर की हर कविता पर लोग भेड़ के समान सर हिलाकर वाह वाह का उच्चारण करते थे। उसने बड़े गौर से अंतिम पंक्ति में बैठे एक आदमी को देखा जिसकी वाह वाह की ध्वनि अन्य सभी से अधिक थी।उसे रह रह कर नींद के झोंके आते थे , बदन हर कविता पर कांप कांप जाता था, रह रह कर शरीर में सिहरन होती थी व रोंगटे तो पहली कविता के बाद जो खड़े हुए, उनके बैठने की संभावना अब इस कवि सम्मलेन के समापन के पहले तो नज़र नहीं आती थी। किन्तु उसके मुंह से वाह वाह के गोले किसी मिसाइल की भांति छूट रहे थे। मनसुख इस पहेली को न बूझ सका। वह लगातार मनन करता रहा। लेकिन अगला नंबर जब उसी”वाह वाह”के तकियाकलाम वाले आदमी का आया तब मनसुख को समझते देर न लगी कि इसकी”वाह वाह”का राज़ क्या था ? वह दरअसल अपनी वाहवाही मंचासीन कवि को उधार दे रहा था ताकि जब वह खुद मंचासीन हो तब उसे ब्याज सहित वसूल सके। एक दूसरे की पीठ खुजाने का यह”वाहवाह”यंत्र उसे खूब जम गया। मनसुख की हंसी छूटने लगी मगर उसने मौके की नजाकत को देखते हुए कंट्रोल किया।

इसके बाद उसकी निगाह प्रथम पंक्ति में बैठे हुए एक भद्र पुरुष पर पड़ी जो बड़ी शान्ति से कविता को सुन रहे थे , उनकी मुखमुद्रा भी पुष्प के समान खिली हुई थी। वे लगातार आनंदपूर्वक सर हिला रहे थे व कविता के बीच में ही”वाह वाह”कर उठते थे। कविवर भी उनकी असमय वाहवाह से चौंक पड़ते थे। मनसुख ने निश्चय किया कि इन्ही के पास बैठकर कविता सुनना सीखना उचित होगा। वह धीरे धीरे सरकता हुआ उन सज्जन के समीप पहुँच गया व एकदम सटकर बैठ गया। मनसुख बड़े गौर से उन सज्जन का अवलोकन कर रहा था तभी उसे उन सज्जन के शाल के नीचे से झांकता हुआ एक पतला तार दिखाई दिया। उसने विस्मय से और नज़दीक जाकर देखा तो उनके कुरते की दाहिनी जेब कुछ भारी महसूस हुई। मनसुख ने उनसे और सटते हुए जेब को धीरे से छुआ तो अन्दर कुछ थर्राता महसूस हुआ। मनसुख और सट गया , अब उसे बहुत धीमी गाने की आवाज़ भी सुनाई दी”आजा आई बहार , दिल है बेकरार ....ओ मेरे राजकुमार”सुनकर मनसुख का सर भी आनंद से हिलने डुलने लगा और सके मुंह से भी अचानक निकला”आहा ..क्या बात है !”कविवर ने कविता रोककर एक बार मनसुख को देखा उअर पुनः कविता पाठ प्रारभ कर दिया। मनसुख ने उन सज्जन से फुसफुसाते हुए कहा”हेडफोन का एक सिरा मुझे भी दे दो , मैं भी गाना सुनूंगा”वे भद्र पुरुष अचानक यूं अपनी पोलपट्टी खुलते देख सकपका गए और शाल ऊपर तक ओढ़ लिया।

अब मनसुख को समझ में आया कि कवियों का सम्मान शाल और श्रीफल देकर क्यों किया जाता है। शाल तो कविताओं से रक्षा करने के काम आता है और श्रीफल ? शायद जब कविताओं से किसी सूरत बचने की राह न मिलती हो तो कवि का खोपड़ा फोड़ने के काम आता हो। ऐसा सोचकर मनसुख ने निश्चय किया कि वह भी अतिशीघ्र एक मोबाइल और शाल खरीदेगा और हर कवि सम्मेलन में बैठकर अंड बंड कवितायें पढ़ते सभी कवियों को सुनेगा। सो ऐसा विचार कर मनसुख दोनों सामग्री खरीद लाया।शाल ओढने से इंसान कवि सम्मलेन में जाने लायक गरिमा प्राप्त कर लेता है। मनसुख ने भी शाल ओढ़कर स्वयं को इस योग्य बना लिया। कविवर भी भारी प्रसन्न हुए कि उनकी काव्य प्रतिभा ने एक नाई के मन में कविता के भाव जगा दिए।

अब होता क्या है कि मनसुख के मन के भाव पलटी खाते हैं। श्रोता से कवि बनने की चाह उसके मन में उछालें मारने लगी। भांति भांति के कवियों को सुनने के बाद उसे ये पूर्ण विशवास हो गया था कि वह भी एक उच्च कोटि का कवि बन सकता है। कविवर से कविता बनाने का ज़रा सा ज्ञान मिल जाए तो वह भी लोगों के रोंगटे खड़े करने में सक्षम है। ऐसा सोचकर बड़े झिझकते झिझकते उसने कविवर के पास उकडूं बैठकर वह बात कही जहां से कथा आरम्भ होती है। पाठक पुनः एक बार शुरूआती पंक्तियों पर जाने का कष्ट करें।

“कविवर ,बताइये ना। मैं भी कवि बन जाउंगा ना ? मैं भी आपकी तरह कविता कर सकूंगा ना ?”

“बेटा , कवि तो तू बन जाएगा मगर मेरे जैसी कविता करना तेरे लिए इस जनम में तो संभव नहीं है”कविवर ने बेहद गंभीर मुद्रा इख्तियार करते हुए कहा।

मनसुख ने झट से दांतों से अपनी जीभ काटी”धत , ये क्या कह गया मैं”

मनसुख ने तुरंत अपनी गलती को दुरुस्त करते हुए कहा”नहीं नहीं कविवर , आपके समान बन पाना तो मेरे लिए इस जनम तो क्या अगले सात जन्मों में भी संभव नहीं है। आपके जैसा कवि तो आज तक इस पृथ्वी पर हुआ ही नहीं और ना ही अगले दो चार सौ सालों में कोई होगा बल्कि मैं तो कहता हूँ कि अगर कोई माई का लाल ऐसी कविता करने लगा तो समझो आपने ही दुबारा जन्म लिया है।”

कविवर अपनी प्रशंसा से एकदम गदगदा गए। उन्होंने मनसुख को अपना चेला बनाना स्वीकार किया और गंभीर भाव से कहा”देखो बेटा , कविता के कई प्रकार होते हैं। तुम मुझे बताओ कि तुम किस विधा में पारंगत होना चाहते हो ?”

"आप प्रकार बताएं गुरुदेव”मनसुख ने इस स्टाइल में कहा जैसे एक ग्राहक साड़ी की दुकान पर जाकर हर वैरायटी दिखाने को कहता है।

कविवर ने कविता के सारे थान दिखाने शुरू किये। मनसुख हर थान को खोलकर भली प्रकार जांचने लगा।

“बेटा ..पहले प्रकार की कविता वह होती है जिसमे तुक से तुक मिलानी पड़ती है। कविता का यह प्रकार फ़िल्मी गानों में ज़्यादा पाया जाता है जैसे”सैयां दिल में आना रे , आके फिर न जाना रे”

समझ गया गुरुदेव जैसे”जीजी आयी ,मिठाई लायी”मनसुख इतना भयंकर जोश में आ गया कि कविवर अपनी कुर्सी से टपकते टपकते बचे।

“हाँ हाँ ठीक है, ज़्यादा जोश में न आओ”कविवर अपनी कुर्सी के अचानक डोलने से बौखलाए हुए थे। एक पल को तो उन्हें लगा कि उनका सिंहासन डोल गया।

“कविता का दूसरा प्रकार वह होता है जिसमे भाव आवश्यक होते हैं। इसमें तुक मिलाने की आवश्यकता नहीं होती जैसे”मेरे नैना सावन भादों ,फिर भी मेरा मन प्यासा”

समझ गया गुरूजी ..आगे बढिए

“तीसरा प्रकार वह होता है जिसमे न भाव होते हैं और न तुक और न ही कोई अर्थ। यह कविता का सबसे आधुनिक रूप है। इसमें पाठक या श्रोता अपनी समझ के अनुसार कविता में भाव ढूंढ लेता है या पैदा कर लेता है।”

"वह कैसे गुरूजी ? यह कुछ समझ में नहीं आया”मनसुख अपनी खोपड़ी खुजाने लगा।

हम्म.. एक उदाहरण देता हूँ

“मैं खड़ा हूँ एक पेड़ की तरह मगर

कोई भी नहीं बनाता घोंसला मुझमे

मेरे मन के भीतर कोई सुरंग बनाए जाता है

धूप की कुल्हाड़ी मुझे काटे जाती है

दूर एक खिड़की में कैद चाँद फड़फड़ाता है

ये कैसा बोझ काँधे पर ढोता हूँ मैं”

इतना कहकर कविवर शांत हो गए और मनसुख को निहारने लगे।

मनसुख को काटो तो खून नहीं। उसके सारे बाल किसी खतरे की आशंका से चौकन्ने होकर खड़े हो गए। आँखों की पुतलियाँ फ़ैल कर दो दो गज की हो गयीं। बड़ी मुश्किल से थूक गटक कर बोल पाया”ये क्या था गुरुदेव ?”

गुरूजी हंस पड़े”बेटा तुझे क्या समझ में आया ?”

“कुछ भी नहीं गुरुदेव”

"बेटा ..यह कविता का सबसे सरल रूप है। लिखने वाले का अठन्नी दिमाग खर्च नहीं होता और पढने वाले के प्राण निकल जाते हैं इस पहेली को बूझने में। अगर न समझ पाए तो खुद को मूर्ख समझकर हीनभावना का शिकार होने लगता है इसलिए अपनी बुद्धि से जुगाड़ तुगाड़ कर कोई न कोई अर्थ निकाल ही लेता है और अपनी विकट समझ पर वाह वाह करने लगता है। इसे आधुनिक कविता कहते हैं।”

आधुनिक कविता ने अपनी ऐसी परिभाषा सुनकर अपना माथा कूट लिया और ईश्वर से खुद को उठा लेने की प्रार्थना करने लगी। तमाम आधुनिक कवि जो स्वर्गलोक गमन कर चुके थे और वे भी जो जो पृथ्वी लोक में काव्य रचना में मग्न थे , जो जहां थे , वहीं बैठे बैठे दीवार से दच्च दच्च सर फोड़ने लगे।

“समझ गया गुरूजी .. कविता में भाव पैदा करना या तुकबंदी भिडाने में दिमाग लगाना मेरे बस की बात नहीं है। मुझे तो यही प्रकार जंच गया। स्कूल में जब मास्टर जी के आगे अल्ल गल्ल बकता था तो संटी मिलती थी , यहाँ वाह वाह मिलेगी”

अब मनसुख के चौकन्ने बाल शांत होकर अपने स्थान पर बैठ गए और मनसुख ने मारे उत्साह के तुरंत एक कविता का निर्माण किया।

“अजीब सी उधेड़बुन मन के भीतर

कंकड़ पत्थर समेटकर बनाता हूँ एक पुल

जिससे होकर सागर पहुँचता है आसमान से परे”

कविता पाठ ख़त्म कर मनसुख ने आशा भरी नज़रों से कविवर की ओर देखा। सामने रोशनदान में घोंसले में बैठी गौरैया कातर दृष्टि से मनसुख को देख रही थी। उसके पंख बेचैनी से फड़फड़ाकर रहम की भीख मांग रहे थे।

“वाह वाह कितनी बेतुकी कविता है ! तेरा भविष्य उज्जवल है रे मनसुखा। अब तेरे पाँव कोई नहीं पकड़ सकता। तू कविता के मैदान में दौड़ लगाने के लिए पूर्ण तैयार है। गुरूजी हर्ष से बोले और मनसुख को आशीर्वाद दिया।

इतना सुनकर गौरैया गुस्से में पागल हो गयी और चीं चीं करके अपनी भाषा में कुछ बोली जिसका अर्थ था”अबे मनसुख की औलाद .. चुपचाप अपनी नाईगिरी कर वरना रोज़ तेरी बुशर्ट गन्दी करूंगी , सोते में तेरे माथे पर चोंच मारकर भागूंगी और तेरी कविता की कॉपी उठाकर बाहर फेंक दूँगी।

मगर मनसुख कवि बनने को तत्पर बैठा था। इस वक्त उस पर संसार के बड़े से बड़े पहलवान की धमको बेअसर थी , ये छोटी सी गौरैया क्या चीज़ थी। अगले दिन से मनसुख की कविताओं के निर्माण का महाभयंकर दौर प्रारम्भ हुआ। अब गुरूजी अपने कानों में कपड़ा ठूंसने लगे। गौरैया समेत चूहे , बिल्ली , छिपकली आदि अपना सामान सट्टा लेकर घर से कूच कर गए।

मनसुख आधुनिक विधा की कवितायें रचने लगा। और ऐसी वैसी नहीं साहब , क्या तो भी जालिम कवितायें रचीं मनसुख ने। मनसुख कविता लिखने को तपकर्म से कम नहीं समझता था। पूर्ण विधिविधान से कविता लिखने बैठता था। सबसे पहले दरवाज़े के बाहर पादुकाएं उतारकर रख देता था। पादुकाओं के समीप ही दिमाग भी उतारकर रख देता था। जिस वस्तु की आवश्यकता न हो ,उसे दूर ही रखना भला। फिर पूरे आराम से तकिये पर टेका लगाकर चने मुरमुरे खाते हुए साहित्य साधना करता था। कॉपी और कलम मनसुख के सो जाने के बाद उसकी चरण वंदना करते।

फिर एक दिन वह चमत्कार भी घटित हुआ जो मानव सभ्यता के इतिहास में कभी घटित नहीं हुआ था। रात को मनसुख के सो जाने के बाद उसकी लिखी कविताओं के मन में वह प्रश्न उत्पन्न होने लगा जो आज तक केवल चिंतनशील मानवों को ही माथे रहता था”मैं कौन हूँ व मेरे जन्मने का क्या उद्देश्य है ?”इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए बेचैन कवितायें आपस में विचार विमर्श करतीं , एक दूजे से खुद के अर्थ समझने का प्रयास करतीं और फिर नाकाम होने पर अपनी अपनी पंक्तियों में घुसकर खर्राटे भरने लगतीं और सारी मगजमारी का कम पाठकों पर छोड़ देतीं।

मनसुख ने शीघ्र ही कवि सम्मेलनों में जाकर अपनी कवितायें सुनाना प्रारम्भ कर दिया। मनसुख का नाम सुनने मात्र से लोगों के रोंगटे खड़े होने लगे। जल्द ही अपना मनसुख आधुनिक कवियों में शीर्ष स्थान पा गया। अभी अभी खबर आई है कि मनसुख की एक कविता को कोई राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है व शाल और श्रीफल भेंट कर उसे सम्मानित किया गया है। मनसुख की पुरस्कार प्राप्त कविता निम्नानुसार है –

“हर सवाल के भीतर छुपा है कोई ज्वार का खेत

जिसमे उगते हैं मकई के दाने और

सूरज की चौथी किरण से जाग उठते हैं

सवाल के अन्दर पनपते हुए जवाब

ऐसे सवाल बन जाते हैं एक मिसाल और

उनके जवाब खोजती रहती है

स्वयं सृष्टि ...”