मनसो / अज्ञेय
जब उस दिन एक विचित्र विस्मय से भरकर अपने झोंपड़े के द्वार पर आते ही मैंने अपने हाथों को हथकड़ियों में बँधे हुए पाया, तब उस अनहोनी, यद्यपि चिर-अपेक्षित घटना के दबाव के बीच में भी, मैंने यह सोचा था कि इस विघ्न द्वारा कुछ पूर्ण हो गया है-कुछ ऐसा जिसका और कोई अन्त मैं सोच नहीं पाता था... पर आज इतने दिन बाद, तुम्हारे सम्बन्ध में एक दूरस्थ भाव हृदय में जमा कर जब मैं अपने उस दिन के विचारों को लिखने बैठा हूँ, तब यह सोच-सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं कि मैं तुम्हारे सम्बन्ध में जो कुछ लिख रहा हूँ, जो कुछ लिखूँगा, वह कभी तुम नहीं जान पाओगी-तुम्हें कभी यह भी ज्ञात नहीं होगा कि मैंने कभी तुम्हारे बारे में कुछ लिखा-कभी कुछ सोचा भी! मनसो, जब ऐसा है, तब वे सारे विचार, यह सारा एकाग्र चिन्तन, यह लिखना, यह सौन्दर्य को घेर-घेर कर इकट्ठा करने की चेष्टा, यह निरन्तर खोज और यह अप्राप्ति के प्रति विद्रोह-ये सब कितने व्यर्थ हैं!
यदि मैं अपने को विश्वास दिला सकता कि मैं जो लिख रहा हूँ, जो निर्माण कर रहा हूँ, वह कला की वस्तु है और इसलिए मेरे व्यक्तिगत जीवन से अलग है, तब शायद मैं लिख सकता पर वह झूठ है, मैं जानता हूँ, वह झूठ है! यह कला नहीं है, यह सार्वलौकिक वस्तु नहीं है; यह है मेरी घोर व्यक्तिगत व्यथा, जिसे दुबारा भुगतकर मैं चाह रहा हूँ भूत को जिला लेना, एक धुँधले चित्र में नयी दीप्ति और नया जीवन डाल देना-यह जानते हुए कि वह चेष्टा है व्यर्थ!
मैं विवश हूँ! जब-जब इस चेष्टा की निरर्थकता जानकर मेरे प्राण रो उठते हैं तभी कविता की दो एक पंक्तियाँ मेरे मस्तिष्क में फिर जाती हैं, और उन्हें गुनगुनाते हुए मुझे फिर भ्रम हो जाता है कि एक धुँधला-सा चित्र मेरे आगे खड़ा है और मेरे स्पर्शमात्र से जी उठेगा, और मैं आत्मविस्मृत होकर तत्काल आगे हाथ बढ़ा देता हूँ-
स्पिरिट ऑ़फ सैडनेस, इन द स्फ़ीयर्स
इज़ देयर ऐन एंड ऑफ़ मार्टल टीयर्स?
ऑर इज़ देयर स्टिल इन दोज़ ग्रेट आईज़
दैट लुक ऑफ़ लोनली हिल्स एंड स्काईज़?
(ओ विषाद की आत्मा, इस लोक में मानवीय आँसुओं का कोई अन्त भी है? अथवा कि उन विशाल आँखों में अब भी वैसी ही एकाकी पहाड़ियाँ और सूने आकाश झाँकते हैं?)
मुझे अभी याद है, उन दिनों में एक दिन, मैं तुम्हें अपने दृष्टिपथ से जाते देखकर तुम्हारा वह वन्य-सौन्दर्य, तुम्हारी आँखों की अतल नीलिमा देखकर, वह सोच कर रो उठा था कि सौन्दर्य की जिस प्रकार की अनुभूति मैं कर सकता हूँ, जिसके लिए मेरे पास इतने साधन हैं, उस प्रकार की अनुभूति तुम्हें कभी नहीं प्राप्त हो सकती, क्योंकि वे साधन तुम्हारे पास नहीं हैं, न होंगे। कालिदास और शैली, रैफ़ेल और रोज़ेटी, हमारी संस्कृति की असंख्य सौन्दर्यनुभूतियाँ तुम्हारे जीवन-क्षितिज से परे हैं और रहेंगी, हम तुम्हारे विवश उपासक रहेंगे किन्तु तुम वही सरल, स्वच्छन्द, अछूती वन्य मनसो ही रह जाओगी... एक ओछी पहाड़ी झील की तरह, जिसके उथले, किन्तु स्वच्छ शान्त मुकुर में जहाँ तल के कंकर-पत्थर दीख जाते हैं, वहाँ आकाश का अबाध विस्तार और शरत्कालीन मेघ-पुंजों की रहस्यमयी गति भी प्रतिबिम्बित होती रहती है...
पर यह शायद मेरा मिथ्या दर्प मात्र है? सम्भवतः तुममें भी उसी दर्जे की अनुभूति-क्षमता थी, पर उन वस्तुओं के सम्बन्ध में नहीं। नहीं तो, यह कैसे होता कि उस दिन तुम्हारी आँखें एकाएक ऊपर उठकर मेरी दृष्टि को ललकार कर पूछतीं, ‘परदेशी, कभी तुमने-?’
महेश जिस झोंपड़े में छिपकर अपने दिन बिता रहा था, वह पहाड़ के उतार में एक बड़ी-सी चट्टान की आड़ में बना हुआ था। किसी ज़माने में वह शायद गूजरों ने गायें बाँधने के लिए बनाया था, किन्तु बाद में जब वह ज़मीन किसी राजपूत के हाथ में आ गयी थी, तब उसने उसी को लीप-पोत कर किराये पर देने लायक झोंपड़े में परिवर्तित कर दिया था। उस समय उसे एक और राजपूत ने किराये पर लिया हुआ था, और अपने को दीन-मलिन वस्त्रों में छिपाये हुए महेश इसी राजपूत की नौकरी में यहाँ रहा करता था-उसकी भूमि के रक्षक-मात्र की हैसियत से। उसे काम कुछ नहीं था, अतः यही उसका सबसे बड़ा काम था कि सोचे, क्या करे। वह झोपड़े के तंग और नीचे दरवाज़े में बैठ जाता और कुछ नीचे जाते हुए श्वेत पहाड़ी पथ की ओर या तलहटी के पारवाले पहाड़ के अंक में एक-स्वर रोते (या गाते या हँसते) हुए छोटे झरने की ओर देखा करता। कभी एकाएक उसकी इच्छा होती, कुछ गाये,
किन्तु पहाड़ी गीत न जानने के कारण अपना भेद खुल जाने के डर से वह चुपचाप रह जाता। इसी डर से वह कुछ पढ़-लिख भी नहीं सकता था... वह वहीं चुपचाप आँखों वाले अन्धे और ज़बानवाले गूँगे की तरह बैठा रहता, उसके मन में अस्फुट कविता की अधूरी पंक्तियाँ दौड़ा करतीं, या कहाँ-कहाँ की स्मृतियाँ, और उसे क्षोभ होता है कि उसका जीवन कितना सूना है, आज ही नहीं, सदा से कितना सूना रहा है...
हाँ, तो वह उस श्वेत पहाड़ी पथ की ओर स्थिर दृष्टि से देखा करता था। उस पथ में कुछ नयी बात नहीं थी, एक साधारण पहाड़ी थी। किन्तु महेश जो उसकी ओर इतनी देर देखते-देखते भी नहीं उकताता था, उसका कारण यह था कि सब ओर हरियाली से घिरे रहने के कारण उसे चीड़ वृक्षों की आड़ में से थोड़ी देर के लिए निकलकर खो जाने वाले इस पथ की धवलता एक नयेपन का, एक कोमलता या सजीवता का आभास दे जाती थी। महेश को मानो जान पड़ता था कि वह पथ उसी के जीवन का प्रतिबिम्ब है-प्रतिकूल अवस्थाओं में घिरा हुआ, किन्तु क्षण-भर के लिए उस आच्छादन को काट कर प्रकट और देदीप्यमान...
कुछ दिनों तक यही एकमात्र कारण था। फिर एक दिन एकाएक महेश ने जाना, जो यह महत्त्वपूर्ण घटनाएँ होती हैं, उनका पूर्वाभास नहीं मिलता, लोकश्रुति चाहे जो कहे। जिस क्षण ने उसके जीवन की स्वीकृतिमय थकान को एक उग्र उत्कंठित प्रतीक्षा में बदल दिया, उसका कोई आभास महेश को पहले नहीं मिला।
महेश न जाने क्या-क्या सोचते-सोचते थक गया था। उसका सिर मानो घूम रहा था। वह दरवाजे से उठकर भीतर जाने को ही था कि उसने देखा-
आकस्मिक अनुभूति घटना-क्रम को उलट-पुलटकर देती है। उस समय महेश की स्मृति में जो चित्र जम गया, वह था केवल यों चौंककर ऊपर उठी हुई आँखें - किन्तु आँखें कैसी! महेश जानता है कि जिस समय वह पहले-पहले पथ पर दीखीं, उसका सिर झुका हुआ था, क्योंकि उसने एक कन्धे और ग्रीवा-बैंक के ऊपर एक घड़ा टेका हुआ था और दूसरे कन्धे पर उसके सिर को ढँकनेवाला काला और बोझल रूमाल लटक रहा था। यह तो बाद में हुआ था कि शायद महेश की कोई आहट पाकर उसने क्षण के अंश भर रुककर चौंकी हुई दृष्टि से ऊपर देखा था और फिर महेश की उत्कंठित दृष्टि के आगे सिमटकर जल्दी से आगे बढ़ गयी थी...
वह सब ऐतिहासिक दृष्टि से बिलकुल ठीक और अनुक्रमिक है, पर-वे आँखें! उस सारे चित्र का केन्द्र वे हैं, वैसे ही जैसे चन्द्रोदय के समय उसकी पूर्व-ज्योति, पर्वतों की रजत-रेखा चित्रित करती हुई प्रथम किरणों, खिल उठने वाले बादल, तारों की क्रमशः छिप जानेवाली झिल-मिल कम्पन, सब ऐतिहासिक क्रमबद्ध सत्य होकर भी उदय के प्रकांड मुग्धकारी सत्य के आगे कुछ नहीं रहते-उस समय नहीं रहते, केवल बाद में धीरे-धीरे चोरों की तरह चित्र में अपने-अपने स्थान पर आ विराजते हैं...
आँखें देखती हैं, मन परखता है, वाणी कहती है। इन तीनों की शक्तियाँ अलग-अलग क्षमता रखती हैं-अतः उसकी आँखों का वर्णन ऐसा करना कि दूसरा उन्हें चित्रित कर सके, असम्भव है। बर्न-जोन्स के चित्र देखने से जान पड़ता है, उसके हृदय में ऐसी ही किन्हीं आँखों ने स्थान पाया होगा, जिन्हें चित्रित करने में उसने जीवन बिता दिया; किन्तु यदि मनसो की आँखों को उसने देखी होतीं...तो वह अवश्य कह उठता, यह है वह अवर्ण्य सत्य जिसे मैं नहीं पाया हूँ...
महेश ने सोचा, उसका जीवन उतना सूना नहीं है जितना उसने समझा था। उसके जीवन में प्रकट हुई एक नयी उत्कंठा, अस्तित्वमात्र के प्रति एक ममत्व, एक आग्रह, एक प्यास... उसके दिन पहले की अपेक्षा छोटे हो गये - कितने छोटे और कितने सरल! एक क्षण तक प्रतीक्षा, उसके बाद उस क्षण का चिन्तन, बस यही तो थी उसकी चर्या...
पर ईश्वर की बुद्धिमत्ता का (यद्यपि स्वयं ईश्वरवादी इसका घोर विरोध करेंगे!) सबसे अच्छा प्रमाण है मानव-हृदय का असन्तोष-तृप्ति की असम्भाविता। यदि एक बार पाकर ही हम सन्तुष्ट हो जाते, तो कुछ दिन में संसार जड़ होकर नष्ट हो जाता। निरन्तर भूख, निरन्तर माँग, निरन्तर प्राप्ति, निरन्तर वृद्धिगत भूख, यही जीवन का अनिवार्य और नितान्त आवश्यक क्रम है...
2
वह नित्यक्रम हो गया था।
नित्य ही वह प्रतीक्षा, वह आकस्मिक चौंकी हुई ऊपर उठी हुई दृष्टि, वह आँखों का मिलन, वह क्षणिक क्या? एक अनैच्छिक किन्तु सचेतन स्थिर मुद्रा, उसके बाद एक त्वरगति कँपकँपी-सी और काले रूमाल का अवगुंठन और कन्धे पर रखे हुए घड़े की ओट! कभी शायद वेणी में बँधे हुए छोटे-से घुँघरू का बहुत हल्का-सा रुनझुन।
यह सब अभी तक आकस्मिक ही था किन्तु शायद नित्य होने के कारण इसकी आकस्मिकता पुरानी हो गयी थी। तभी तो, उस दिन जब महेश अपने अभ्यस्त स्थान पर खड़ा-खड़ा एक विचारपूर्ण प्रतीक्षा में उलझा हुआ था, तब उसके मन में एक दबा हुआ-सा असन्तोष था कि इस क्रम में कोई परिवर्तन क्यों नहीं होता। वह अपने सामने की पर्वत-माला, स्वच्छ आकाश, जिसकी स्वच्छता को बादल का एक छोटा-सा टुकड़ा मानो अधिक मुखर कर रहा था। उसमें उड़ते हुए एक विशालकाय गरुड़, सामने के छोटे-से झरने और चीड़ों की छाया में जड़े हुए उस पथ के टुकड़े को देखकर, एक विचित्र आत्म-विस्मृति के भाव मनसो को सम्बोधित करके कह रहा था, ‘यह सारी पर्वत-माला तुम्हारी है, यह सारा प्रदेश, यह सारा बिखरा सौन्दर्य! मेरे लिए है केवल यह छोटा-सा द्वार, यह निर्जन प्रान्त का छोटा-सा टुकड़ा; वह एक रेखा जो पथ की धवल रेतीली धूल पर तुम्हारे पैरों की छाप से बन जाती है और जिसे तुम्हारे कन्धे पर के घड़े से छलका हुआ पानी बूँद-बूँद करके धो जाता है... मैं भागा हुआ क़ैदी तुम्हारी इस विशाल सुन्दर सृष्टि में आकर भी अपनी उस छोटी-सी क़ैद में से नहीं भाग पाता...’
तभी वह आयी। वह नित्यवाला क्रम फिर हुआ। महेश एक विस्मृति से जाग कर दूसरी विस्मृति में खो गया। और फिर क्षण भर में ही जाग पड़ा। उसके मन में अपने ही विचार के उत्तर में एक प्रश्न उठा, ‘क्यों नहीं भाग पाता?’ और वह अकारण खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसने स्वयं नहीं जाना-कभी नहीं, कभी भी नहीं जाना-कि क्यों।
उसने घूमकर, रूमाल उठाकर, महेश की ओर देखा। और उसकी हँसी का कारण न जानकर भी, उसकी बिलकुल स्वच्छ सरलता का अनुभव करके विवश होकर मुस्करा दी।
महेश ने किसी तरह पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” यह उसे प्रश्न पूछने के बाद ध्यान आया कि उसका हृदय किस अनभ्यस्त गति से धड़क रहा है।
उसने कहा, “मनसो।” उसकी आवाज़ में रस से बढ़कर कुछ-एक अजीब कम्पन-सा था, जो वयःसन्धि की भर्रायी हुई ध्वनि के सम्मिश्रण से और अधिक आकर्षक हो गया था।
वह आगे बढ़ने लगी। संस्कृति की परिचय-प्रथा के अभ्यस्त महेश ने शायद आशा की थी कि मनसो अपना नाम बता कर पूछेगी, ‘और तुम्हारा?’ पर जब वैसा नहीं हुआ, तो महेश ने कहा, “मेरा नाम है दाता।” दाता ही वह नाम था जिसकी आड़ में उसने उस समय अपने को छिपाया हुआ था।
महेश ने जब फिर घूम कर देखा, अभी उसकी मुस्कराहट गयी नहीं थी। वह थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से महेश की ओर देखती रही-इतनी स्थिर दृष्टि से कि महेश स्तब्ध होकर अपने दिल की धड़कन गिनने लगा-एक, दो, तीन, चार... फिर वह खिलखिला हँस पड़ी, बोली, “मुझे क्या?” और जल्दी से घूमकर, रूमाल से अपना मुँह छिपाकर, पहले से अधिक मुखर स्वर से घुँघरू रुनझुनाकर चली गयी।
कुछ देर तक मनसो के उस प्रश्न की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। किन्तु उसके बाद ही वह आयी, एक बवंडर की तरह, जो इस नयी घटना की नूतनता को भी उड़ा ले गया और हूल-हूल कर एक ही प्रश्न उसके कानों में, मस्तिष्क में, समूचे शरीर, समूचे संसार में ध्वनित करने लगा - मुझे क्या? मुझे क्या? मुझे क्या?
हाँ, तुम्हें क्या! महेश कौन है या दाता कौन है, किस संसार का वासी है, किस संस्कृति का प्रतिनिधि, तुम्हें क्या! किसका शत्रु है, किसका मित्र, किससे लड़ता है, किससे भागता है; किसका सखा है, किसका प्रतिस्पर्द्धी, किसका विरोधी, किसका प्रेमी, तुम्हें क्या! कविता से तुम्हें क्या, कला से तुम्हें क्या, बर्न जोन्स से तुम्हें क्या! अवर्ण्य आँखों और दिव्य सौन्दर्यानुभूति से भी तुम्हें क्या!
पर क्यों नहीं तुम्हें कुछ? क्यों कैसे, किस अधिकार में तुम जीवन की पुकार से परे, सौन्दर्य की अनुभूति से परे, आन्तरिक न्यूनता की प्यासी रिक्तता से परे? तुम्हें जानना होगा, मानना होगा, झुकना होगा उसकी प्रेरणा के आगे, उसी प्रेरणा के जो...
जो क्या?
जो हमारे विश्व के स्थायित्व का मूल है जो उसे बनाये रखता ही नहीं, चलाता भी है, वह अप्रतिहत आकर्षण...
महेश धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगा और सोचने लगा कि क्या कभी मनसो के जीवन में ऐसा क्षण नहीं आएगा जब वह लौटकर देखेगी, नहीं किसी वस्तु की कमी पाकर परिताप करेगी कि क्यों नहीं, जब समय था तब उसने स्मृतियों का भंडार भर लिया... फिर उसे ध्यान आया, क्या वही एक है जो उस भंडार को भर सकता है... क्या उसी की, उस भागे हुए क़ैदी की स्मृति ही एक वस्तु है जो मनसो के जीवन में मूल्यवान हो सकती है, और यह विराट् सौन्दर्य, ये प्रकट और अप्रकट निधियाँ उसके लिए कुछ भी मायने नहीं रखतीं - एक स्मृति-भर भी नहीं?
उसके बाद तीन-चार दिन तक मनसो उस पथ पर से गयी या नहीं, महेश ने नहीं जाना। जानने की चेष्टा ही नहीं की। जड़वत् झोंपड़े के मध्य में, द्वार की ओर पीठ करके, बैठा रहा, विशेषतः मनसो के जाने के समय के आसपास।
3
साँझ घिरती आ रही थी। पर्वत-शृँगों से घिरे हुए उस बड़े प्याले में जिसमें पहाड़ी झरना बहता था, अन्धकार भर गया था और बढ़ रहा था। केवल ऊँची चोटियों पर कहीं-कहीं एक रक्तिम-सा प्रकाश था, जो शीघ्र उस बढ़ते हुए सजीव अन्धकार में घुलता-सा जा रहा था। प्रकृति मानो थककर सोने की तैयारी कर रही थी, केवल उसकी साँस की तरह चीड़ों में वायु की सर-सर ध्वनि अनवरत होती जा रही थी...
महेश का ध्यान उधर नहीं था। वह एक चोटी से कुछ ही उतरकर, एक ऊँचे पत्थर पर खिन्न-मन बैठा हुआ था। पहला क्रम टूट जाने से उसका यही क्रम हो गया था - नित्य ही साँझ को यहाँ आकर बैठ जाता, और अँधेरा हो आने पर धीरे-धीरे उतर कर आ जाता। इसमें सुख नहीं था, थी एक कुढ़न, पर फिर भी वह नित्य ऐसा ही करता था, ऐसा करना अपने झोंपड़े के द्वार पर प्रतीक्षा करने से अधिक सहज पाता था...
बैठे-बैठे वह शून्य दृष्टि से कुछ दूर नीचे के एक झोंपड़े की ओर देख रहा था। उसने देखा, वहाँ से कोई निकल कर धीरे-धीरे उसकी ओर आ रहा है, कमर झुकाये, मानो कुछ ढूँढ़ता आ रहा हो। उस धुँधलके में वह पहचान नहीं सका कि कौन है, किन्तु समीप आक़र जब उसने पूछा, “यहाँ क्यों बैठे हो?” तब महेश चौंक उठा, मनसो! वह बिना उत्तर दिये ही मनसो के मुख की ओर देखने लगा। मनसो ने फिर कहा, “यहाँ साँझ को मत बैठा करो, इधर रीछ आते हैं।”
महेश की बड़ी उत्कट इच्छा हुई कि कह दे, ‘तुम्हें क्या?’ पर वह कह नहीं पाया। अपना क्षोभ निकाल देने का इतना सरल उपाय वह न जाने क्यों स्वीकार नहीं कर सका। उसने उदास-से स्वर में पूछा, “तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“एक बूटी ढूँढ़ रही हूँ।”
“कैसी बूटी?”
“दवाई है।” कहकर उसने अपने हाथ में पकड़ी हुई एक-दो फुनगियाँ महेश को दिखा दीं।
“लाओ, मैं भी देखूँ-” कहकर महेश ने हाथ बढ़ाया, तो वह पलटकर हँसकर भागती हुई बोली, “क्यों, तुम्हें क्या हुआ है?”
क्षण ही भर में वह झोंपड़े के भीतर जा पहुँची। तब महेश अपने-आपको कोसने लाग कि क्यों उसने इतनी शीघ्र हार मान ली और इतनी बुरी तरह पिटा! वह जान-बूझकर कर बहुत रात गये तक वहीं बैठा रहा, किन्तु न तो रीछ ही आया, और न - हाँ, इसकी भी एक छिपी-छिपी आशा थी - न मनसो ने ही झोंपड़े के बाहर आकर देखा कि वह चला गया है या अभी बैठा है। झोंपड़े में जो धीमा प्रकाश था, वह जब बुझ गया, तब महेश धीरे-धीरे सिर झुकाए उतर आया।
महेश ने निश्चय कर लिया था कि वह अब फिर उधर नहीं देखेगा। वह झोंपड़े में बैठा, ज्यों-ज्यों मनसो के आने का समय निकट आता जाता था। त्यों-त्यों अधिक निश्चयात्मक भाव से अपने को कहे जा रहा था, ‘नहीं देखूँगा, नहीं देखूँगा...’ और उसे लग रहा था, सामनेवाली पहाड़ी झरने की ध्वनि भी, मानो उसी निश्चय की आवृत्ति साथ-साथ ताल देते-देते, अधिकाधिक तीखी होती जा रही है...
जब वह समय आया और बीत गया, और महेश अपने स्थान से हिला नहीं, तब वह एकाएक विजय के उल्लास से फूल उठा-कितनी बार ऐसा होता है कि ठीक पराजय के समय ही हम विजय के उल्लास से भरते हैं! और उठकर सीधा द्वार की ओर गया। वह तो चली गयी होगी, पर शायद उसके पदचिह्नों को धोनेवाली बूँदों की रेखा बनी होगी, यह सोचते हुए उसने झाँक कर देखा।
पथ के किनारे पर बनी हुई मेड़ पर वह बैठी थी, गोद में घड़ा रखे, घड़े के मुँह पर दोनों हाथ रख कर उन पर ठोड़ी टेके, स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देख रही थी।
क्या वह थकी थी? यदि ऐसा, तो क्यों महेश से आँखें चार होते ही सकपका कर उठी और घड़ा उठाकर जल्दी से चीड़ों की ओट हो गयी? महेश को ऐसा अनुभव हुआ, उसकी विजय और भी पुष्ट हो गयी है-मानो, उसने कोई चोर पकड़ लिया है। वह फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। जब वह लौटा, तब उसके मन में कविता की एक पंक्ति सहसा गूँज उठी, “ऐसे भी क्या दिन होंगे जब स्मृति भी नष्ट हो चुकी होगी?” किन्तु कविता की पंक्ति में जो आशंका, जो संशय-भाव था, वह उसके मन में नहीं जागा, उसके मन में प्रश्न का उत्तर बिलकुल सीधा, बिलकुल निश्चयात्मक था...
पर उसके बाद, जब महेश नित्य ही पूर्ववत् झोंपड़े के द्वार पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा, और मनसो नहीं आयी, तब धीरे-धीरे उसे ज्ञान हुआ कि जिसे वह अपनी विजय समझे था, वह वास्तव में उसकी पराजय, घोर आत्म-समर्पण था। विजय मनसो की ही थी, और उसी की रहेगी।
वह यह जानने की जितनी ही कोशिश करता कि मनसो क्यों नहीं आयी, उतनी ही उसकी उलझन बढ़ती जाती। एक ही कारण उसे उचित जान पड़ता था - कि वह जान-बूझकर नहीं आयी, किन्तु इसी को स्वीकार करने के विरुद्ध उसकी समूची आत्मा विद्रोह कर उठती थी। यदि वह उसे बिलकुल महत्त्व नहीं देती, उसकी इतनी उपेक्षा है, तब वह उसे इतना महत्त्व क्यों देने लगी कि केवल मात्र उसी के कारण, उसी को चिढ़ाने के लिए, उस पथ पर से आना छोड़ दे? यह तो केवल तब हो सकता है जब-जब कुछ नहीं...
एकाएक महेश को ध्यान आया, मनसो पानी भरकर ले जाती है, पर वह उसे लौटती ही देखता है, आती कभी नहीं देखता। इसका यही कारण हो सकता है कि वह पानी लेने किसी दूसरे पथ से जाती थी, अब वापस इधर से ही लौटने लगी है। पर क्यों? क्यों?
जिस समय महेश ने यह सोचा, उस समय बिलकुल सवेरा था। पर यह उलझन इतनी गौरवान्वित हो गयी थी, उसका सुलझाना इतना नितान्त आवश्यक कि महेश उसी समय निकलकर मनसो के झोंपड़े की ओर चल पड़ा - यह देखने के लिए कि वह किधर से जाती है...
सूर्य की पहली किरण नहीं तो किरणों का पहला पुंज अवश्य मनसो की झोंपड़ी को छूता था। जिस समय महेश उसके पास पहुँचा, उस समय समूची झोंपड़ी उस कोमल धूप में नहा रही थी, पर धूप के रंग में अभी तक वह स्निग्ध लाली थी जो सन्ध्या की धूप में देर तक रहती है, किन्तु प्रातःकाल में अत्यन्त क्षणस्थायी होती है...
महेश ठिठक गया।
मनसो अपनी झोंपड़ी के बाहर एक काली गाय को दुह रही थी। काली घघरी में आवृत घुटनों के टीन का कमंडल दबाये, काले रूमाल में छिपे हुए सिर को गाय के पेट पर टेके, महेश की ओर पीठ किये वह बैठी थी, और दूध दुहते हाथों की गति के साथ उसकी वेणी के सिरे पर बँधा हुआ लोलक धीरे-धीरे इधर-उधर झूल जाता था।
उसे पता लग गया कि कोई उसे देख रहा है, क्योंकि उसने कलाई से सिर का रूमाल एक और हटाकर कनखियों से इधर देखा और महेश को देखकर सिर को गाय के पेट में और भी छिपा कर दूध दुहती रही - महेश को ऐसा लगा कि जैसे सदियों तक दुहती रही।
थोड़ी देर बाद महेश आगे बढ़ गया - सिर झुकाये और धीरे-धीरे और काफ़ी दूर चला गया। एक चोटी पर पहुँचकर, चारों ओर देखकर धप्प से नीचे बैठ गया। और उसका मन-पक्षी जो अब तक आकाश में उड़ रहा था, उतरता नहीं था, अब उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती हुई गति से नीचे गिरने लगा, जैसे गुरुत्वाकर्षण के कारण पत्थर।
महेश सोचने लगा कि वह भी मनसो को अपनी कल्पना में एक विशेष स्थान दे रहा है, वह क्या भूल कर रहा है? यदि वह चाहता है, मनसो उसके वास्तविक जीवन का अंश हो, तो क्यों वह उसे कल्पना की, देवोचित आराधना की, अधिकाधिक ऊँची सीढ़ी पर चढ़ाए जा रहा है? और यदि मनसो कल्पना की ही वस्तु है, उसके भाव-संसार का कल्पना-सत्य, तो क्यों वह उसे खींच-खींचकर यथार्थता के घेरे में बाँधने की चेष्टा कर रहा है?
वह अपने को समझाने लगा। मनसो कुछ नहीं है। जो वास्तविकता है और जो उसकी कल्पित मनसो है, उनमें कुछ भी साम्य नहीं है। उसकी मनसो एक वातावरण है, एक स्वप्न है, एक छाया जिसकी अस्पृश्यता ही उसका सौन्दर्य और आकर्षण है। मनसो बाहर कहीं नहीं, उसके सामने नहीं, उसके हृदयस्थ एकचित्र है, बस!
और यह क्या है जो सामने? ये बर्न जोन्स के स्वप्नों से भरी रहस्यमयी आँखें, यह अमा-निशा की स्वर्गगा के समान काले अम्बर पर चमकता हुआ वेणी-सूत्र, यह...
कुछ नहीं। बर्न जोन्स कहाँ है? उससे पूछो, उसने कभी बर्न जोन्स का नाम सुना है?’ ‘बर्न जोन्स के चित्र-सी आँखें’ - यह वर्णन क्या उसके लिए कुछ भी अभिप्राय रखता है? स्वर्गंगा उसके लिए क्या है?
एक बड़े पीड़ित विस्मय में महेश को यह ज्ञान हुआ कि उसकी मनोगतियाँ बिलकुल भिन्न तलों पर चलती हैं, महेश के लिए जो वाक्य संसार का सारा अभिप्राय लिये रहते हैं, वे मनसो के लिए भी महत्त्व नहीं रखते, कुछ भी अस्तित्व तक नहीं! और बढ़ते हुए विस्मय, बढ़ती हुई पीड़ा में वह अपने को बताने लगा कि किसी भी वस्तु का सौन्दर्य वह मनसो के साथ नहीं बँटा सकता - उस मनसो के साथ जो उसके मन में नहीं, अपने घर में बसती है! ओफ़, संसार की कोई भी (उसकी दृष्टि में) अच्छी, सुन्दर वस्तु ऐसी नहीं है, जिसे देखकर, सुख पाकर वह मानसो की आँखों की ओर देखे और उनमें अपने सुख का प्रतिबिम्ब पा सके! क्या हुआ यदि वे बर्न जोन्स के स्वप्न की आँखें हैं, क्या हुआ...
महेश की आँखों में आँसू आ गये - इतना आकस्मिक, इतना अभूतपूर्व था यह ज्ञान...
जब आदमी को चोट लगती है, तब उसकी ओर ध्यान देने से पीड़ा अधिक होती है, पर यह जानते हुए भी उसका ध्यान बार-बार उधर ही जाता है। महेश भी रह-रहकर अपने को कहने लगा, ‘वह दूध दुहती है, पानी लाती है, गायें चराती है। बूटियाँ बीनती है, पानी पीती है, सो जाती है। इससे बाहर उसका कुछ नहीं, इसके आगे का संसार न उसने देखा है, न देख सकती है, न देखने की इच्छा करती है। इससे बाहर उसकी तृष्णा जाती ही नहीं और इससे कभी उकताती नहीं कि बाहर जाने की उत्सुक हो।’
वह सोचने लगा, चाहने लगा कि मनसो में इस सबके अतिरिक्त भी कुछ होता, उसकी आँखों में इन पहाड़ों और आकाश के सूनेपन की छाया के साथ ही कुछ और भी छाया से बढ़कर; उस सूनेपन की अनुभूति नहीं, तो उसे अनुभव करने का सामर्थ्य...
ये विचार उसको जितने ही अप्रिय लगते, उतना ही वह और उन्हें सोचता और जितना अधिक वह सोचता, उतना ही उसका विक्षोभ बढ़ता जाता, भरी आँखें बहती जातीं...
तब एक क्षण आया जब वह आगे नहीं सोच सका। वह उठा और वापस उतरने लगा।
मनसो की झोंपड़ी के पास आने तक उसकी पीड़ा की तीक्ष्णता बहुत-कुछ धीमी पड़ गयी थी। उतरते-उतरते जब बीच-बीच में वह उस झोंपड़ी की ओर देखता, तब उसमें किंचित् विषण्ण शून्य-भाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होता था। किन्तु झोंपड़ी के पास आते ही, उसके पुराने सब संशय, वे सारी दुखद आशंकाएँ पुनः जाग उठीं।
झोंपड़ी के बाहर खुली धूप में घुटने टेककर बैठी हुई मनसो बछिया को नहला रही थी। उसकी मुद्रा में एक तन्यमता का, एक दिव्य आर्जव का भाव था, किन्तु उसके चेहरे पर, उसकी आँखों में थी वही गहरी रहस्यमयी हल्की मुस्कान...
महेश उसके बहुत समीप पहुँच गया था। उसने शायद अपने विचारों के दबाव के कारण ही सहसा पूछा, “मनसो, तुम थक नहीं जातीं?” मनसो ने चौंक कर केवल आँखें उठाकर महेश के मुख की ओर देखा - वे आँखें और उनकी वह उठती हुई चितवन! - और एक दूरस्थ विस्मय के स्वर में कहा, “नहीं तो - काहे से?”
महेश जैसा एकाएक बुझ गया। थकना काहे से, यह भी नहीं जानती! और नीचे उतर गया, एक बार लौटकर भी नहीं देखा।
महेश में कुछ बदल गया। वह झोंपड़ी के बाहर नहीं निकलता, उसके द्वार पर खड़ा रहता, किन्तु किसी प्रतीक्षा में नहीं, किसी आशा में नहीं, किसी उल्लास में नहीं। केवल वहीं पड़ा रहने के लिए पड़ा रहता...
और मनसो में भी कुछ परिवर्तन हो गया था - या कम से कम उसकी चर्या में अवश्य हो गया था। जहाँ उसने महेश के झोंपड़े के सामने जाना छोड़ ही दिया था, वहाँ अब दो बार जाने लगी थी - पानी लेने भी और लेकर वापस भी।
यह बात महेश को पहले ही दिन नहीं ज्ञात हुई। उसका मस्तिष्क इतना निकम्मा हो गया था कि दो-तीन दिन तक मनसो को दो-दो बार देखकर भी उसे किसी परिवर्तन का ध्यान नहीं हुआ था। किन्तु धीरे-धीरे यह बात उसके मन में स्थान पाने लगी और एक दिन सहसा उसे पूर्ण ज्ञान हो गया कि यह परिवर्तन हो गया है, अकस्मात् एक दिन के लिए नहीं हुआ, दैनिक क्रम बन गया है। पर इससे उसे किंचिन्मात्र भी आनन्द नहीं हुआ। अब मनसो दो बार उधर से जाकर भी उस स्थान-विशेष पर रुकती नहीं थी, बिजली की गति से मुस्कराती नहीं थी। इसके विपरीत महेश को लगता था, वह जान-बूझकर सिर अधिक झुका लेती है, आँखें अधिक यत्न से पथ पर जमाए रहती है, घड़े को उस कन्धे पर रखती है, जो महेश के सामने होता है, और रूमाल भी दूसरे कन्धे पर न डाल कर उसी कन्धे पर डालती है, ताकि किसी तरह वायु की सहायता पाकर भी महेश उसके मुख को न देख पाये और महेश को समझ नहीं आता कि यह सब क्यों...
कई दिन बाद एक दिन, जब मनसो पानी लेकर लौट गयी, तब घड़े की टपकी हुई बूँद की रेखा देखते-देखते महेश को ध्यान आया कि वह शायद उसकी ग़लती है। शायद उसी में कोई त्रुटि है, कोई अक्षमता; शायद मनसो उससे किसी वस्तु की, किसी भाव की, किसी चेष्टा की आशा करती है। शायद वह किसी चीज़ की प्रतीक्षा, किसी घटना की इच्छा करती है, और महेश में उसकी न्यूनता पाती है। एक संशय नाचने लगा उसके हृदय में कि यदि उमसें वह मौलिक अक्षमता न होती तो शायद यह सारी क्रिया किसी नयेपन की ओर बढ़ती, कुछ फलित होती, कुछ बन सकती! कितनी भयंकर थी वह कल्पना कि मनसो प्राप्य, स्पृश्य, ज्ञेय थी पर उसी की किसी कमी के कारण, प्राप्त, स्पृष्ट, ज्ञात नहीं हो पायी...
उस समय वह कुछ नहीं कर सकता था, अतः उसने निश्चय किया कि अगले दिन जब मनसो उधर से जाएगी, तब वह अवश्य उससे पूछेगा, पूछेगा कि...
महेश ने पुकारा, “मनसो!”
आवाज़ से वह चौंकी अवश्य, किन्तु रुकी नहीं, न उसने ऊपर ही देखा। प्रत्युत कुछ अधिक सिर झुकाकर, कुछ अधिक तीव्र गति से, आगे निकल गयी। चीड़ के पेड़ों की ओट हो गयी।
महेश जड़वत् उस पथ की ओर देखता रह गया, जिस पर आज अभी वह बूँदों की रेखा भी नहीं थी।
जब मनसो पानी भरकर लौटकर आयी, तब भी महेश वैसे ही बैठा था; मनसो को देखकर ही उसकी मूर्छा टूटी। उसने फिर पुकारा, “मनसो!” किन्तु अबकी बार वह परिवर्तन भी नहीं, सम्पूर्ण उपेक्षा, मानो उसने पुकारा ही नहीं था, यद्यपि उसके स्वर में था कितना विषण्ण आग्रह!
जब वह चली गयी, तब महेश सोचने लगा, क्यों नहीं मैंने पथ पर जाकर उसे बुलाया? पर तब उसके लिए बहुत देर हो चुकी थी। इस ध्यान के साथ-ही-साथ उसने सोचा, यदि वह तब भी न बोलती तो?
तो क्या? उचित ही होता!
ज्ञेय? प्राप्य? स्पृश्य! मनसो, मैं तुम्हें नष्ट कर सकता हूँ, पर छू नहीं सकता...
और इस व्यथित ज्ञान में वह अपनी असलियत को भूलकर, अपने खतरे को भूलकर, अपने-आप को भूलकर, दाता से महेश होकर एक विह्वल, कम्पित किन्तु बहुत ऊँचे और भेदक स्वर से गाने लगा...
4
बहुत सवेरे ही उस झरने का पता लगाकर, जहाँ से मनसो पानी लेने जाती थी, महेश उसके पास जा बैठा था और बैठा हुआ था। अनेकों विचार उसके मन में उठते थे और लीन हो जाते थे, किन्तु सभी का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार मनसो से था और उसके आकर्षण की विह्वलता...
आज न जाने क्यों उसका मन अपेक्षाकृत स्वच्छ और प्रखर हो गया था-अधिक अलगाव से प्रत्येक बात पर विचार कर सकता था। वह सोच रहा था कि इस आकर्षण का कारण, औचित्य और फल चाहे जो हो, एक बात अवश्य थी कि वह अब तक मनसो के प्रति अन्याय करता आया था-और वह अन्याय, आकर्षण के - क्या वह उसे प्रेम कह सकता है? - कारण नहीं, केवल स्वार्थ के कारण। मनसो क्या सोचती है इस पर उसने विचार नहीं किया, वह अपना ही पक्ष सोचता रहा है, ...और मनसो का पक्ष अवश्यमेव विचारणीय है, इसका प्रमाण है उसका कल का बर्ताव। कल ही क्यों, उसका प्रत्येक कार्य, प्रत्येक शब्द। मनसो कुछ हो, असभ्य हो, जंगली हो, अपढ़ हो, है स्त्री और इसलिए स्त्री की स्वाभाविक सहज बुद्धि रखती है और स्त्री-जीवन की माँगों का अनुभव करती है। महेश क्यों सदा उसे भुला-भुला कर, अपनी ही बुद्धि के अभिमान पर, अपनी माँगों की पूर्ति खोजता आया है? क्यों नहीं देख पाया कि मनसो का प्रत्येक शब्द एक ललकार है, जो प्रत्येक स्त्री प्रत्येक पुरुष को करती है, वह पुरुष चाहे वांछित हो, चाहे अवांछित, संगी बनने के योग्य हो अथवा अयोग्य? बल्कि वह ललकार ही तो कसौटी है जिस पर वह वांछनीयता या योग्यता परखती है... इस चिन्ता में वह इतना लीन था कि उसने मनसो को आते हुए नहीं देखा। मनसो ने आकर, उसे वहाँ बैठे देखकर, अपना घड़ा झरने की धार के नीचे टिका दिया था और दबे-पाँव उसके कुछ ही दूर तक आकर भूमि पर बैठ गयी थी। तब भी महेश ने उसे नहीं देखा। वह चौका तब; जब मानसो ने अपनी भर्रायी-सी आवाज़ में पूछा - “परदेशी, तुम इतने दुखी क्यों दीखते हो?”
महेश ने एक बार आँख भरकर उसकी ओर देखा। वह उस दृष्टि के आगे सिमटी नहीं, स्थिर होकर महेश की आँखों से आँखें मिलाए रही। महेश ने अनुभव किया, उसमें कहीं परिताप का-सा भाव है, और उससे उत्पन्न एक कोमलता।
“इतने दुखी क्यों दीखते हो, परदेशी?”
हाँ, क्यों? महेश अपने-आप से पूछता है। क्या इसलिए कि मनसो उसकी ओर देखती नहीं? महेश चाहता है, अपने को यह विश्वास दिला ले! यद्यपि वह झूठ है! तब क्यों? क्या इसलिए कि मनसो उसके प्रति कठोरता का व्यवहार करती है? हाँ यद्यपि महेश जानता है, वह भी झूठ है। तब क्या इसलिए कि महेश का निर्माण ही दुख के लिए हुआ है? हाँ, हाँ, हाँ! पर यह झूठ भी दूसरे दोनों की अपेक्षा अधिक समुचित नहीं है...
तब महेश की बुद्धि से अधिक गहरी कोई चेतना, उसकी प्रज्ञा से अधिक विशाल कोई सत्य उसके भीतर जागता है, और उसके मुख से उत्तर दिलाता है, ‘हाँ, इसलिए दुखी दीखना बहुत सहज है...”
और एक विस्मय में महेश सोचता है, मनसो ने इतनी अनुभूति, इतनी सर्वग्राही विदग्धता कहाँ पायी जो उसकी चितवन में व्यक्त हो रही है? उसमें इतनी संवेदना, इतनी सहानुभूति इतना विस्तीर्ण ओर सम्पूर्ण भावैक्य है, महेश के साथ... महेश को ऐसा लगता है, उसका अस्तित्व ही मिट गया है, वह मनसो के भाव-संसार का एक अंश हो गया है, मनसो के किसी स्वप्न का एक परदा-उस मनसो के लिए जो स्वयं आज तक उसके स्वप्न का एक परदा थी। उसकी अनुभूति; उसकी चेतना, उसका अस्तित्व-मात्र मानो कुचलकर उसमें से निष्कासित कर लिया जाता है, और वह मनसो से एक सम्पूर्ण एकान्त, आत्यन्तिक एकत्व प्राप्त कर लेता है, कैवल्य...
मनसो फिर पूछती है, महेश के जाने एक असम्भव प्रश्न - “परदेशी, तुमने कभी प्यार किया है?”
और फिर कुछ महेश के गले में उठता है जो उसे वह उत्तर देने से रोकता है जो वह ऐसी परिस्थिति में देता, जो सभ्यता उससे माँगती है - हाँ, इस समय वह क्या है जो उसे बाध्य करके, और बिना किसी प्रकार की लज्जा या आत्मग्लानि के उत्तर दिलाता है, “हाँ, अनेक बार, अनेकों दिन...”
उसे फिर ज्ञात होता है कि वह अपना विचार अधूरा ही कह पाया है, किन्तु वह मनसो के मस्तिष्क में जाकर सम्पूर्ण हुआ है कि अपना भाव व्यक्त नहीं किया है, किन्तु मनसो उसे समझ गयी है; उसे ही नहीं, उसके आगे की असंख्य कथित और अकथित बातों को भी...
तभी ऊपर कहीं से एक तीखी, भयभीत-सी पुकार आयी, ‘मनसो! ओ मनसो ओ मनसो!’
मनसो जल्दी से उठी और घड़ा उठाकर झरने से ऊपर के चीड़ों की ओर चल दी। चीड़ों के छोर पर पहुँच कर उसने रूमाल हटाकर एक बार स्थिर दृष्टि से महेश की ओर देखा - एक बहुत दीर्घ क्षण तक, फिर ओझल हो गयी चीड़ों के भीतर घुसकर।
चीड़ों के झुरमुट के भीतर, और महेश के जीवन से बाहर। महेश जब वहाँ से उठकर एक विचित्र स्निग्ध, सन्तोष-मिश्रित विस्मय का भाव लिये अपने झोंपड़े के द्वार पर पहुँचा, तब वहाँ दस-बारह सिपाही खड़े थे। महेश ने एक बार चारों ओर देखा, फिर किंचित् मुस्करा कर दोनों हाथ बढ़ा दिये।
इसको बहुत दिन हो गये हैं। आज मैं कारागार में बैठा इस सब-कुछ को कल्पना में खींचकर लाता हूँ, तो मुझे याद आता है कि उस समय अपने हाथों पर हथकड़ियाँ देखकर मुझे यही ध्यान हुआ था कि यह उचित हुआ, इसने इस एक स्मृति को पूर्णता दे दी कि यह यदि उस समय न होता तो एक स्वप्न कभी बन ही न पाता, मैं सदा के लिए उसके प्रति एक अत्याचार कर आता जिसका कोई प्रायश्चित नहीं। पर इसके साथ ही एक घोर अतृप्ति का भाव भी आया है, जो उस दूसरे से किसी तरह भी कम सच्चा नहीं है...
समय के साथ अनुभव आता है, अनुभव के साथ बुद्धि, बुद्धि के साथ जीवन के प्रत्येक कर्म और प्रत्येक भूल की तर्क-संगत सफ़ाई। पर यह छोटी-सी घटना अभी तक तर्क के फन्दे में नहीं फँसती - क्या इसीलिए कि वह घटना होने का गौरव पा ही नहीं सकी, एक शक्ति का बीज-मात्र रह गयी हो अंकुरित नहीं हुआ, और जो इसलिए तर्क से सिद्ध नहीं हो सकता?
एक स्मृति बची है। मैंने अनेकों बार, अनेकों दिन प्यार किया है। वे सारे प्रेम एक-एक करके खो गये हैं, एक बढ़ती हुई प्रणय-भूख के दबाव के आगे। किन्तु वह एक बार प्यार - वह क्या प्यार था?- अचल बना रहा है एक विचित्र, उग्र लालसामयी, किन्तु फिर भी भावुकता-भरी स्मृति। क्या इसीलिए कि उसे स्वप्न में भी पूर्ति नहीं मिली - कि मैं उसकी एक वाक्य द्वारा हत्या नहीं कर पाया जो कि कहे जाने के पूर्व इतना विशाल, इतना अर्थपूर्ण, इतना अतिशय गौरवान्वित होता है, और कहे जाने के बाद ही इतना निरर्थक - ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ...?’
कुछ हो? वह स्मृति बची है, एक सजीव कम्पन-युक्त भर्रायी हुई आवाज़ पूछती है, ‘तुम इतने दुखी क्यों दीखते हो?’ और दो रहस्य-भरी आँखें असीम संवेदना, असीम सहानुभूति, असीम आत्यन्तिक भावैक्य और असीम अस्पृश्यता की दृष्टि में स्त्री-हृदय की चिरन्तन ललकार करती हैं - ‘तुमने कभी प्यार किया है?’
‘कभी किया है? कभी किया है? कभी किया है?’
(डलहौजी, सितम्बर 1934)