मनहरि वायन का न्याय / अपूर्व भूयाँ
कल से ही उमड़-घुमड़ रहे बादलों से हल्कान आसमान ने करवट बदलते वर्षा का संकेत दे दिया। ठीक इसी तरह का परिवेश गाँव के इस छोर से उस छोर तक व्याप्त है। संध्या होते ही नामघर में जनसभा बैठेगी। मनहरि बायन की सुनवाई होनी है। उसका न्याय होना है। बूढ़े-जवान, मर्द-औरत सभी को नामघर में जुटना है। ऐसी बातों के लिए लोगों को बुलाने के लिए कोई औपचारिक न्योता नहीं दिया जाता। इन कान से उस कान...लोगों को ख़बर हो ही जाती है और मज़ा उठाने के लिए जनता कि भीड़ जुटने लगती है। परंतु किसी के घर में शादी-ब्याह या फिर सार्वजनिक सभा आदि हो तो फिर किसने किसे कैसे बुलाया, अमूक को क्यों बुलाया, क्यों नहीं बुलाया आदि प्रसंग बड़ा महत्त्व रखते हैं। परिस्थिति बहस से हाथापाई तक पहुँच जाती है। कल से ही गाँव में ऐसा माहौल बना है कि क्या बूढ़े और जवान, बच्चे तक चटखारे ले-लेकर चर्चा करते फिर रहे हैं। अंदर ही अंदर मतवाला-सा हो गए हैं। इस घर, उस घर, गाँव के चौराहे-कोने में उस घटना पर कानाफुसी हो रही है। नरेन की दुकान के सामने ताम्बुल के थंब से बनी बेंच पर जवान लड़के घटना पर चर्चा करते अड्डा जमा रहे हैं। मौजादार अखिलेश बरुवा कि हवेली का प्रांगण में आरामकुर्सी पर पसरे हुक्का गुड़गुड़ा रहे मौजादार अखिलेश बरुवा के पास मोढ़े पर बैठे गाँव के अग्रणी व्यक्ति घनश्याम सातोला, ऊपर से साफ़ मगर अंदर से कपटी स्वभाव का बगाधर दत्त, धनबर साउद सहित कई लोग मनहरि बायन की घटना का न्याय करने के लिए मंत्रणा कर रहे हैं।
"" अरे छोड़ो, विश्वास ही नहीं होता कि मनहरि ऐसा काम करेगा। कानों में बात पड़ते ही लगा जैसे बिना मेघ वज्रपात हो गया। बायन से क्या मेरी कम दोस्ती है? बचपन में स्लेट-किताब लेने से लेकर अब नाट भाओना करने तक उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। इस्स, इस्स! बड़ा बुरा हुआ। पता नहीं उसके दिमाग़ में क्या भर गया। "-ताम्बुल चबाते घनश्याम सातोला ने कहा।
"" सातोला को हो सकता है कई बातें पता न हों। परछाई की तरह साथ रहने पर भी कई चीजें नहीं भी जानी सकतीं। जानते ही हो, उम्र ढलने के साथ ही बायन का चरित्र भी कुछ बदलने लगा था। शादी-ब्याह तो उसने की नहीं। नदी के उस पार की रमनी नाम की विधवा, वह अक्सर रबिन केवट के घर काम करने आती है। एक शाम वह घाट पार कर रही थी कि बायन ने उसे नदी तट पर अकेला पाकर दबोच लिया था। वैसे मैंने देखा नहीं, सुना ही है। "-फुसफुसाने के लहजे में बगाधर दत्त ने मुंह खोला।
"" रहने भी दो, बिना जाने-समझे बातें मत किया करो। बायन को मैं जानता हूँ। गाँव के लोगों के आफत-विपद में जीन-जान लगाने वाला आदमी है बायन। ढोल-ताल, गीत गा-बजाकर गाँव को आनंदित रखने वाला आदमी है बायन। गाँव के लड़के-लड़कियों को हमारे पारंपरिक साज-बाज, ताल, नृत्य सिखाकर हमारी संस्कृति को ज़िंदा रखने वाला महान व्रती है ये बायन। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी ने बायन के मुंह से कोई कड़वी बात सुनी हो। बायन से पूरी बात जाने बगैर अब एकतरफा उसे दोषी ठहरा सभी फिकरे कस रहे हैं। इस तरह उसे झूठमूठ बदनाम करना कहीं से भी उचित नहीं। सुना है रबीन केउट को बायन के पैसे चुकाने थे। बायन के याद दिलाने पर उल्टे रबीन ने बायन को खरी-खोटी सुना दी और उसे बदनाम करते फिर रहा है। "-सातोला ने कहा।
मौजादार आंखें मूंदे हुक्का गुड़गुड़ाते सातोला, दत्त की बाते सुन रहा था। अचानक मौजादार के शरीर में हरकत हुई और गंभीर होते कहा, "" परंतु हमारे समाज ने जिसे जगह नहीं दी, उस चरित्रहीन गूंगी को उसकी अवैध संतान के साथ अपने घर लाकर बायन ने अच्छा काम नहीं किया। इसका उचित न्याय होना ही चाहिए। "
"" हाँ, हाँ... महाशय यह अच्छा नहीं हुआ। बायन जैसा व्यक्ति, जिसका सभी सम्मान करते हैं, उसका सही फ़ैसला नहीं किया गया तो हम गाँव की जनता के सामने कैसे मुंह दिखाएंगे। " अब तक माथा गाड़े चुपचाप सारी बातें सुन रहा धनबर साउद बोला।
"" महाशय, अगर बुरा न मानें तो एक बात कहूं-ये बात जानकर कल मैं बायन के घर गया था न। जनता भी थू-थू कर रही है। आख़िर बात की जड़ क्या है जान लेते हैं। जब बायन से इस बारे में बात की तो वह भड़क उठा। कहा कि उसने जो कुछ भी किया है ईश्वर की मर्जी से किया है। जनता को अगर कुछ जानना है तो वह उनके सामने बताएगा और झूठमूठ की बात पर खुसुर-फुसुर करने से पहले असली बात जान लेनी चाहिए न। " विनम्रता के साथ बगाधर दत्त ने अपनी बात रखी।
"" उसकी भी व्यवस्था कि गई है। शाम को छह बजने के साथ सभी को नामघर में इकट्ठा करना। अच्छा हाँ, बायन आएगा कि नहीं? " मौजादार अखिलेश बरुवा ने पूछा।
"" आएगा महाशय, कैसे नहीं आ सकता। बायन कल से ही घर में दुबका है। बाहर कैसे नाक निकालेगा। ज़रूरत पड़ी तो बाँध-पकड़कर भी उसे जनता के समक्ष लाना ही होगा। " बगाधर दत्त बोला।
"" लेकिन हाँ, इसका ध्यान रहे कि बायन के साथ अभद्र आचरण न किया जाए, ये सभी को बताना होगा। लड़के-जवान आजकल जो मुंह में आता है बकने लगते हैं, गुरु-बुजुर्ग जैसों को तो मानते ही नहीं। अच्छा मैं ज़रा बायन के यहाँ से हो आता हूँ..."-कहते घनश्याम सातोला खिन्न भाव से मौजादार की बैठक से उठ पड़ा।
सातोला मौजादार की हवेली के द्वार के पास पहुँचा ही था कि तेज गति से आती एक बाइक वहाँ रुकी। बाइक चलाने वाला मौजादार का इकलौता बेटा लक्षीन्द्र था। व्यवसाय करता है। आस-पास के मछली के कई तालाबों की बोली लगा ठेके पर लिया है। बालू का एक खदान भी है। बाइक पर सवार दूसरे को सातोला पहचान नहीं पाया। उनके मुंह से आती दुर्गंध से सातोला का मन भिनक गया। मन ही मन बोला, " वाह रे आज के नौजवान, दिन-दोपहरी में दारू...छि। '
मौजादार के बेटे लक्षीन्द्र ने सातोला को देखते हुए कहा, "" अरे! चाचा क्या हुआ, किस काम से आए थे। ओह हाँ, आपके दोस्त का आज फ़ैसला होना है न। सा...ल्ला...बुढ़ौती में इतनी मस्ती। " सातोला ने कुछ कहने की ज़रूरत नहीं समझी।
" अच्छा मैं चलता हूं' ...कहते सातोला तेज कदमों से बायन के घर की ओर चल पड़ा।
बायन के घर पहुँचने पर घनश्याम सातोला ने देखा कि बायन बांस की टोकरी बना रहा है। मन लगाकर टोकरी बना रहा है, मगर बीच-बीच में बायन का मन उचट जा रहा है। "बैठो सातोला'कहते बायन एक मोढ़ा आगे कर फिर टोकरी बनाने में व्यस्त हो जाता है। सातोला बायन से क्या पूछे, क्या ना पूछे सोच ही रहा था कि नीचे माथा किए टोकरी बना रहे बायन ने कहा," खबर तो तुम्हें हो ही गई होगी।'
"" मेरा मन मानने को तैयार नहीं है, इसलिए तुमसे एक बार..."
"" छोड़ो, तुम लोग मानो या न मानो, मैंने फ़ैसला कर लिया। शाम को जनता ने सभा बुलाई है। मेरा इंसाफ होगा सातोला। होने दो, मैं जनता से सब कुछ बता दूंगा। जिन लोगों के साथ मैं उठता-बैठता हूँ, रहता हूँ, वे अगर मेरे सुख-दुख के बारे में जानना चाहते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन हाँ, दुख इस बात का है लोग मेरे चरित्र को लेकर बातें बना रहे हैं। इतने दिनों में शायद लोग मुझे पहचान ही नहीं पाए.।। ओह, ठहरो, एक ताम्बुल खाओ... "-बायन घर के अंदर चला जाता है।
सातोला को बायन के घर के अंदर से एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। बायन को किसी से कुछ कहते सुना। थोड़ी ही देर बाद बायन पानबट्टा में ताम्बुल लिए निकल आया।
"बच्चे की तबीयत खराब है, बुखार है। माँ बच्चे के साथ ही है। जानते हो गूंगी, पर वह बच्चे की माँ भी है। बच्चे को थोड़ा दूध पिलाया जाता तो अच्छा होता। छोटा बच्चा है, डॉक्टर को दिखाए बगैर दवा भी नहीं दी जा सकती। पर लोगों का भी इतना दबाव, क्या करूं समझ ही नहीं पा रहा सातोला।"-बायन ने ऐसे कहा जैसे रो पड़ेगा।
"" हम क्या करें। तुमने ही मुसीबत मोल ली है। हमारी कोई सलाह भी नहीं ली। "-सातोला ने गुस्से और अभिमान से कहा।
"" भगवान की मर्जी सातोला। बड़ा सोच-समझकर मैंने फ़ैसला किया है। अपने अकेले जीवन में किसी वंचिता के लिए कुछ कर जाऊँ तो भले ही पुण्य मिले ना मिले, मुझे पाप नहीं लगेगा सातोला। लो ताम्बुल खाओ। "-बायन ने पानबट्टा सातोला कि ओर बढ़ा दिया।
घनश्याम सातोला कुछ नहीं कह पाया। वह मन ही मन शाम को होने वाली भयावह परिस्थिति के बारे में सोचने लगा। क्या जनता कि इच्छा के विरुद्ध बायन अकेला खड़ा हो पाएगा? आजीवन गाँव के लोगों के लिए जीने-मरने वाले बायन को क्या उचित न्याय मिलेगा? क्या बायन उस अभागी और उसके बच्चे का भविष्य सुरक्षित कर पाएगा?
बायन के घर से लौटते रास्ते में बायन के भतीजे रमेन ने सातोला का रास्ता रोका और उत्तेजित होते कहा कि हो सके तो वह बायन को अपना फ़ैसला बदलने के लिए समझा दें। जनता को जो फ़ैसला करना है करेगी। मगर बायन के नाम पर उसका वंश का नाम मिट्टी में मिल जाएगा। सुबह ही बायन के भाई उसके घर से उस अभागी को भगाने गए थे, लेकिन बायन ने उन्हें ही अपमानित करते अपने घर से बाहर कर दिया। वैसे बातों ही बातों में एक दिन बायन ने सातोला से कहा था कि उसके हिस्से में जो जमीन-जायदाद है वह रमेन के नाम कर देने के पीछे पड़ा है वह भाई।
नामघर में ढोल-नगाड़ा बजने ही वाला था। नवीन और हरेश नामक दो लड़के साइकिल से बायन के दरवाजे पर पहुँचे। बायन के आंगन में घनश्याम सातोला को देखते ही वे चिल्ला पड़े, " ओ, घनश्याम भैया यहाँ हो। हम आपको कब से खोज रहे हैं। बायन भैया को नामघर ले आने की जिम्मेवारी जनता ने आपको दी है। हमें यही बताने के लिए भेजा है। '-कहते दोनों फिर साइकिल पर सवार हो वहाँ से निकल गए। अब तक बायन पूजाघर में जा चुका था। दीप-अगरबत्ती जला हरि-हरि कह भगवान का स्मरण कर बायन निकल आया और दिनों में घोषा का पाठ किए बगैर बायन पूजा घर से नहीं उठता था। लेकिन आज उसका मन बेचैन है। ढंग से पूजा-पाठ भी नहीं कर पाया। धोती और गंजी के ऊपर चादर को लपेटते वह सातोला के करीब आया और कहा-
" चलो, सातोला। '
बिना कुछ संवाद किए दोनों नामघर की ओर बढ़ चले।
नामघर में लोग जुट चुके थे। कई लोगों की ऊंची आवाज़ में की जा रहीं बातें बायन-सातोला के कानों पड़ीं। लगता था जैसे बायन की घटना कि विषद व्याख्या कर वहाँ उपस्थित लोगों को उत्तेजित करना चाहते हों। दूर से ही सातोला के साथ बायन को देख बातचीत बंद हो गई। तब तक मौजादार नहीं पहुँचे थे। एक ऊंचे पीढ़ा पर केथा बिछाकर उनका आसन तैयार किया गया था। बायन के उपस्थित होते ही माहौल अचानक शांत हो गया। बायन ने वहाँ बैठे लोगों पर नज़र दौड़ाई। गाँव के लगभग सभी लोग आए थे। युवा और लंपट क़िस्म के लड़के भी थे। थोड़ी दूर अंधेरे में वे भुनभुना रहे थे। दो-एक की चिटकारी बायन के कानों में पड़ी। बायन को किसी ने नहीं टोका। सिर्फ़ बगाधर दत्त ने कहा, "आ गए बायन काका, बैठिए। 'बायन साधारणत: नामघर के एक खूंटे के पास बैठता है। उसके आसन पर दूसरा कोई अधिकार नहीं कर सकता। लेकिन आज उस आसन पर रबीन केउट बैठा है। हाँ, केउट ही बैठा है। तिरछी नज़र से भी नहीं देख रहा है। इसी केउट की बीमार पत्नी को तीन साल पहले टाउन के अस्पताल में ले जाने के लिए पैसों की ज़रूरत थी। बायन ने अपने पास रखे बारह सौ रुपए देकर टाउन भेजा था। उसमें से पांच सौ रुपए अभी केउट को लौटाने बाक़ी हैं और बाकी, किसके लिए क्या नहीं किया है? हरेक की मुसीबत में वह साथ खड़ा रहा है। बायन ने मणिकूट की ओर सिर नवाते प्रणाम किया और नामघर के बरामदे में एक चटाई पर बैठ गया। बायन को बरामदे में बैठता देख सातोला ने कहा," बायन आगे चलो।'
"" ठीक है, मेरा आसन ढह गया, यहीं बैठता हूँ। "-बायन बोल पड़ा।
अब तक मौजादार भी आ गए थे। उनके लिए सजाए आसन पर बैठे और जनता को सम्बोधित किया, "" मुझे थोड़ी देर हो गई। बायन भी आ चुका है, तो आरंभ किया जाए, क्यों क्या कहते हो बगाधर? "
"" हां-हाँ...आरंभ किया जाए। जनता जान ही चुकी है कि हम सबके आदरणीय मनहरि बायन ने समाज से तिरस्कृत औरत को उसके बच्चे के साथ अपने घर में आश्रय दिया है। गूंगी है, पर वह जवान भी है। दूसरी ओर एक अविवाहित व्यक्ति ने उसे किस आधार पर अपने घर में आश्रय दिया, जनता जानना चाहती है। वैसे भी समाज ने उसे दूर कर रखा है। उसे अपने घर में आश्रय देकर बायन ने अपराध किया है। यह बात बायन को अपने मुंह से स्वीकार करना होगा। "-बगाधर दत्त ने कहा।
बात कैसे शुरू करे सोचते बायन ने सिर नीचे नवा लिया। लोगों की भीड़ से पुन: गूंजी, "बायन को स्वीकार करना ही होगा। गलती स्वीकार कर जनता के समक्ष घुटने टेकने होंगे और उस औरत को घर से बाहर निकालना ही होगा। 'अंधेरे की आड़ में बैठे दो युवक बोल पड़े," बुढ़ापा में देह में पीर उठना, पाप है...महापाप है।'
बायन के कान-मुंह लाल हो उठे। हमेशा शांत रहने वाले बायन के सिर पर क्रोध चढ़ आया। उधर बाहर से एक बच्चे के क्रंदन, अस्पष्ट सिसकारी कानों में पड़ आई। बायन ने बाहर की ओर देखा। देखा कि मौजादार बरुवा का बेटा लक्षीन्द्र और उसका भतीजा रमेन गूंगी औरत के बाल पकड़ घसीटते ला रहे हैं। गोद में बुखार से तपता बच्चा रो रहा है, भय से सिसकी पर सिसकी ले रहा है। कराहने-रोने का अस्पष्ट स्वर। बायन उठ खड़ा हुआ। क्रोध, उत्तेजना में उसके हाथ-पैर कांपने लगे। बावजूद स्वयं को संयमित करते बायन ने कहा, "" जनता जनार्दन आप लोगों को मेरा न्याय करने के लिए गूंगी लड़की को उसके बीमार बच्चे के साथ जबरन घसीटकर नहीं लाना चाहिए था। उसके बारे में आप लोग नहीं जानते हैं क्या? बचपन में ही अनाथ हुई वह हमारे गाँव की ही लड़की है। उसकी जिम्मेवारी उठाते हुए हमारे मौजादार महाशय ने एक दिन उसे अपने घर में आश्रय दिया था। उसे आश्रयहीन किया किसने? "
"" वह चरित्रहीन है, देह पर कलंक लगी लड़की को मैं अपने घर में नहीं रख सकता न। " मौजादार ने विरोध जताते हुए कहा।
बायन ने अब पहले से भी ऊंची आवाज़ में मौजादार की ओर देखते हुए कहना शुरू किया, "" उसे कलंकित किया किसने? आपके शरण में ही तो वह कलंकित हुई। आपने उसे घर से निकाल बाहर किया। उसे अपने घर में भी शरण नहीं मिली, भाभी-भैया ने उसे भगा दिया। गाँव के किसी भी व्यक्ति ने उसकी ज़रा भी फ़िक्र नहीं की। बरगद के पास स्थित दुकान के सामने ही उसने यम-यंत्रणा भोगते बच्चे को जन्म दिया। उसके बाद तिल-तिल कर मरते दो जीव हमारे बीच ही घूमते फिरते रहे। अकेली, असहाय उस अबला ने लोगों से थोड़ी-सी दया कि आस की। नहीं, कोई आगे नहीं आया। मौजादार महोदय, आप छिपाकर रखना चाहें तो भी बड़े लोगों के घर की बातें पूरा समाज जान जाता है। आज आपके जिस बेटे ने इन दो निष्पाप प्राणियों को मेरे घर से घसीटते लाया है, उसने ही उसकी देह पर कलंक का दाग लगाया है। अगर बोल पाती तो आज वह चिल्ला-चिल्ला कर बताती कि अपराधी कौन है। समाज ने आप जैसे लोगों को बड़े आसन पर बिठाया है। आप लोग समाज के पाप-पुण्य का फ़ैसला करने आते हैं। आप सामने के देवस्थान को देखकर कह सकते हैं, गूंगी की गोद में पड़े निष्पाप शिशु के चेहरे को देखकर कह सकते हैं कि उसे आपके बेटे ने कलंकित नहीं किया है! "
बायन थोड़ा रुका। अचंभित, हैरान-परेशान मौजादार लोगों के सामने सिर उठाकर देखने की स्थिति में नहीं हैं। मौजादार के बेटे लक्षीन्द्र ने बाहर थोड़ा हो-हल्ला किया, मगर उसके कंठ से निकली आवाज़ किसी बिल्ली जैसी थी। किसी की भी ज़ुबान से न निकलने वाली बात आज बायन ने चिल्ला-चिल्ला सबके सामने कह जैसे मौजादार की छाती पर वज्राघात कर दिया। बगाधर दत्त का भी सिर झुक गया। बायन ने फिर कहना शुरू किया, "" परसों मुझे एक पर्व के भोज से लौटते रात के नौ बज चुके थे। तब आंधी-बारिश शुरू हो गई थी। साइकिल ठेलते-ठेलते आ रहा था। इस नामघर के सामने खड़े उस आम के पेड़ के नीचे उसे देखा, गोद में बच्चे को लिए रो रही थी। मन नहीं माना। आगे बढ़ा। देखा कि बच्चा बुखार से तप रहा था। मैं उन्हें अपने घर ले आया। सेंकाई-वकाई की तो बच्चा थोड़ा ठीक हुआ। गूंगी लड़की भी बड़ी भूखी लग रही थी। मेरे हाथ से पर्व से लाया प्रसाद लेकर एक झटके में खा गई। भाइयो, इस बावन वर्ष की उम्र में मैंने अपनी देह की पीर मिटाने के लिए गूंगी को अपने घर में आश्रय नहीं दिया है। वह गाँव की ही लड़की है, मेरी बेटी जैसी है, वह बच्चा मेरे नाती जैसा है। वह मुझे नाना-नाना कहके पुकारेगा। मैं उसे एक पहचान दूंगा। हमारे बीच में रहते हमारी संतान अनाथ, नाजायज नहीं हो सकती। वंश, परिवार, समाज मुझे अलग-थलग करते हैं तो करें। मुझे कोई परवाह नहीं। जो समाज आदमी को आदमी की तरह जीने नहीं देना चाहता, वह समाज मुझे अलग ही कर दे। अंधेरे में बैठकर फिकरा कस रहे युवकों से कहना चाहता हूँ कि तुम लोग अपने पिता कि उम्र के व्यक्ति पर अश्लील-असभ्य वाणी मारने से पहले दिन-दोपहरिया रास्ते से गुजरती गाँव की ही बहन-बेटी-बहुओं से असभ्य आचरण करना छोड़ो, अपने चरित्र को बदलो। वरना समाज एक दिन ख़त्म हो जाएगा। गूंगी जैसी लड़की को भी अपनी बहन समझना सीखो। उसकी सुरक्षा करना तुम लोगों का कर्तव्य है। "
यह कहते बायन ने मणिकूट की प्रतिमा कि ओर देख सष्टांग प्रणाम किया। उसका गला भर आया था। सुबक पड़ा। मनहरि बायन का मन अब हल्का-हल्का अनुभव कर रहा था। लोगों की बोलती बंद हो चुकी थी। नामघर से बाहर आ बायन ने किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी गूंगी से कहा, " चलो मां, चलो, मेरे घर चलो, दो बच्चे को मुझे दे दो। ' बायन ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया। तब तक आसमान में चांद निकल आया था। चांदनी में गाँव की गलियाँ चमक उठीं।