मनुष्य, प्रेम और पर्वत की महान फिल्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 अगस्त 2015
दशरथ मांझी को पहाड़ तोड़ने में 22 वर्ष लगे, जिनमें उसने घोर परिश्रम किया, अनेक विपत्तियों का सामना किया, उसने जो खून-पसीना बहाया उसका अनुमान लगाना कठिन है। अनेक छुटभैया नेताओं ने उसे ठगा और लगभग इतना ही परिश्रम, पसीना, आंसू और रक्त केतन मेहता ने भी बहाया होगा 'मांझी द माउंटेन मैन' बनाने में, क्योंकि वितरण-प्रदर्शन का चक्रव्यूह तोड़कर सार्थक व रोचक फिल्म का प्रदर्शन हमारे देश में आसान नहीं है। मल्टीप्लैक्स के प्रोग्रामिंग अफसर पहले चार दिन की टिकट बिक्री के आधार पर अगले सप्ताह कितने शो मिले, यह तय करते हैं। मंगलवार को दोपहर चार बजे के शो में लगभग पचास प्रतिशत सीटें भरी थीं और मेरे अतिरिक्त वहां कोई उम्रदराज व्यक्ति नहीं था। उस युवा भीड़ ने मुझे उत्साह से भर दिया।
बिहार की उर्वर सृजन भूमि में फणीश्वरनाथ रेणु, बाबा नागार्जुन, शैलेंद्र इत्यादि अनगिनत सृजनधर्मी लोगों ने भी बहुत से 'पहाड़' काटे हैं। उर्वर बिहार के लोग अन्य प्रदेशों में कलेक्टर-कमिश्नर रहे हैं। अनगिनत लोग अन्य प्रांतों में फसल काटने की नौकरी भी करते हैं। ये अपने देश वाले, अपने ही देश में 'गिरमिटिया' भी हैं। महानगर मुंबई को दूध पिलाने का काम भी बिहारी करते हैं। मुंबई के कुछ सांप उन्हें डसते भी हैं। अगर सारे बिहारी 'गिरमिटिया' जन्म-भूमि आ जाएं तो अनेक महानगर ठप पड़ जाएंगे। ये बिहार ही है, जहां रथयात्राएं रोकी जा सकीं और बिहार को अभी राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय करनी है।
सत्य घटना से प्रेरित इस फिल्म को केतन मेहता ने प्रेम और पहाड़ की फिल्म की तरह गढ़ा है और पहाड़ को भी पात्र की तरह प्रस्तुत किया है। उनके कैमरामैन ने भी स्थिर पहाड़ को चलायमान मनुष्य की तरह फोटोग्राफ किया है। बचपन में दशरथ की शादी फगुनिया से कर दी गई थी। केतन मेहता ने दशरथ और फगुनिया की प्रेम कथा कविता की तरह रची है और कीचड़ में सने प्रेमियों का कुएं में सहवास का दृश्य बड़ी कशिश से रचा है। मिट्टी से बने शरीर, मिट्टी में लथपथ, जल में प्रेमक्रीड़ा करते हैं। यह सरल पात्रों के प्रकृति की गोद में पनपने की प्रेमकथा है। एक तथ्य यह है कि इंदिरा गांधी की आमसभा में मंच का एक भाग छुटभैयों के कारण गिरने लगता है तो दशरथ और साथी कंधा लगाते हैं। क्या व्यंग्य है कि गरीब के कंधों पर सवार नेता गरीबी हटाने की बात कर रहा है। मंच से उतरकर इंदिरा गांधी दशरथ से मिलती हैं और उसे धन भेजने की बात करती हैं। दिल्ली से 25 लाख रुपए आते हैं और एक छुटभैये नेता अफसर से मिलकर दशरथ का अंगूठा लगवाते हैं और रकम हड़प लेते हैं। गौरतलब है कि यह छुटभैया सामंतवादी परिवार का सदस्य है। राजीव गांधी ने साफगोई से कहा था कि केंद्र का एक रुपया गरीब तक पंद्रह पैसा रह जाता है।
फगुनिया पानी लाने पहाड़ पर चढ़ी थी और पैर फिसलने के कारण मर गई। दशरथ को पर्वत शत्रु लगता है और उसे तोड़ना शुरू करता है। सारी प्रक्रिया के बीच उसकी प्रेम कथा के अंश उसमें कलात्मकता से गूंथे गए हैं। इन्हीं यादों के कारण दशरथ का पर्वत के प्रति दृष्टिकोण बदलता है और अंतिम पत्थर तोड़ते हुए वह उससे प्यार करने लगता है। पूरी फिल्म में दशरथ व पर्वत के बीच की बातचीत कमाल की रची गई है। केतन मेहता ने एक विलक्षण दृश्य रचा है कि एक पत्थर तोड़ते ही पहाड़ का एक हिस्सा गिर जाता है और धूल तथा पत्थरों के नीचे दबा दशरथ जब उठने का प्रयास करता है तब मनुष्य और पहाड़ एक हो जाते हैं। एक अन्य दृश्य में दशरथ पत्थर हटाकर सांप को बचाता है, जो उसके अंगूठे को डस लेता है। दशरथ के साथ जमींदार, व्यवस्था इत्यादि ने सांप की तरह व्यवहार किया है। उसे ठगा है, उसे डसा है। वह अपने जहर से नीले पड़ते पैर के अंगूठे को छेनी से काट देता है। चीख निकलने वाला दृश्य है। आंशिक जहर के प्रभाव से वह बेसुध सो रहा है और फगुनिया का लहराता आंचल उसके शरीर को सहलाता है, वह मौत के आगोश से बाहर आता है। प्रेम दृश्यों की शारीरिकता में किस तरह आध्यात्मिकता का स्पर्श आता है- यह केतन मेहता से युवा फिल्मकारों को सीखना चाहिए। इस फिल्म में नवाजुद्दीन ने श्रेष्ठ अभिनय किया है और राधिका आप्टे ने तो कमाल ही कर दिया है। राधिका की सेन्सुअसनेस के कारण भी उसका राधा होना सार्थक लगता है। हर दृष्टि से यह महान फिल्म है।