मनुष्य का प्रौढ़ होना! / ओशो

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प्रवचनमाला

एक लड़की रो रही है। उसकी गुडि़या टूट गई है। और अब मैं सोचता हूं कि सब रोना क्या गुडि़यों के टूट जाने के लिए ही रोना नहीं है।

कल संध्या एक वृद्ध आये थे। उन्होंने जीवन में जो चाहा था, वह नहीं हो सका। वे उदास थे और संतापग्रस्त थे। एक महिला आज मिली थीं और बातें करते-करते आंसू पोंछ लेती थी। उन्होंने स्वप्न देखे थे और वे सत्य नहीं हुए हैं। और अब यह लड़की रो रही है। और क्या

लड़की की आंखों में सब आंसुओं की बुनियादी झलक नहीं है! और उसके सामने टूटी पड़ी गुडि़यां में क्या सब आंसूओं का मूल साकार नहीं हुआ है? उसे कोई समझा रहा है कि आखिर गुडि़या ही तो है, उसके लिए रोना क्या है! यह सुन मुझे हंसी आ गयी है। काश, मनुष्य इतना ही जान ले तो क्या समस्त दुख समाप्त नहीं हो जाते?

गुडि़या-बस गुडि़या है, यह जानना कितना कठिन है!

मनुष्य मुश्किल से इतना प्रौढ़ हो पाता है कि यह जान सके। शरीर का प्रौढ़ होना एक बात है, मनुष्य का प्रौढ़ होना बिलकुल दूसरी बात है। प्रौढ़ता क्या है? मनुष्य की प्रौढ़ता मन से मुक्त होना है।

मन जब तक है, तब तक गुडि़यों को बनाता रहता है। मन से मुक्त होते ही गुडि़यों से मुक्ति होती है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)