मनुष्य नामक हैंगर पर टिके हैं लिबास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 अगस्त 2016
आज के सिनेमाप्रेमियों के लिए जे. ओमप्रकाश अपरिचित व्यक्ति हैं या आज उनका परिचय केवल इतना हो सकता है कि वे फिल्मकार राकेश रोशन के श्वसूर हैं और रितिक रोशन के नाना हैं परंतु छठे दशक में वे अत्यंत सफल फिल्मकार रहे हैं और राजेश खन्ना, राजेंद्र कुमार इत्यादि के साथ दर्जनों सफल फिल्में उन्होंने बनाई हैं। पांचवें दशक में मोहन सहगल सफल फिल्मकार थे और उनके सहयोगी रहे सोहनसाल कंवर, जे. ओमप्रकाश मोहन कुमार इत्यादि ने सफल फिल्में बनाई थीं। उनके समकालीन मित्र मोहन कुमार की राजेंद्र कुमार सायरा बानो अभिनीत फिल्म 'अमन' के लिए बर्टेन्ड रसेल ने भी शूटिंग की थी, जिसमें वे आणविक युद्ध के विकिरण प्रभावों का खुलासा करते हैं। हिरोशिमा में आणविक बम के प्रयोग को बहत्तर वर्ष हो गए हैं परंतु आज भी कुछ लोग आणविक विकिरण के घातक प्रभाव से पीड़ित हैं। अमेरिका ने वह आणविक विस्फोट किया था। आज तो दुनिया के आधा दर्जन देशों के पास आणविक अस्त्रों का भंडार है गोयाकि दुनिया बारूद का ढेर है, जिस पर हमने एक माचिस को पहरेदार नियुक्त किया है। एक चिंगारी दावानल को जन्म दे सकती है और आणविक अस्त्रों के प्रयोग वाले संभावित युद्ध के खतरों से उसी दौर में साहिर लुधियानवी ने हमें यूं आगाह किया था, 'गुजश्ता जंग में तो घरबार ही जले, अजब नहीं अब जल जाएं तन्हाइयां भी, गुजश्ता जंग में तो पैकर (शरीर) ही जले, अजब नहीं इस बार जल जाए परछाइयां भी।' अवाम में गैर-जरूरी बातों के नाम पर जुनून जगाकर कुछ असहिष्णु लोग सत्ता हथिया लेते हैं और उनकी अनुशासनहीन उंगलियां युद्ध का लाल बटन दबा सकती हैं। हम जिस उंगली से चुनाव में बटन दबा देते हैं, हमें उसके इस्तेमाल के प्रति सावधान रहना चाहिए।
बहरहाल, जे. ओमप्रकाश अपनी स्मृति लगभग खो चुके हैं। कुछ समय पूर्व खबर थी कि दिलीप कुमार की स्मृति को भी क्षति पहुंची है। मनुष्य की स्मृति में पूरा संसार कालातीत अवस्था में मौजूद रहता है और उसे हानि पहुंचाने का अर्थ है कि वह अब स्वयं से भी अपरिचित हो गया है। अपने-अपने अजनबियों के बीच रहना कितना भयावह है। विस्मृति के मायाजाल में उलझे दिलीप कुमार कभी अपनी पत्नी सायरा बानो को उनकी प्रेमिका रही वैजयंतीमाला के नाम से भी पुकार सकते हैं। अगर ऐसी दुर्घटना हो जाए तो पत्नी सायरा बानो के दिल पर क्या गुजरेगी कि इतने वर्ष वह जिसके साथ रहीं वह एक स्मृति से प्रेम करते हुए उनके साथ सद्ग्रहस्थ का जीवन बिता रहा था। आम जीवन मंे भी बाहों में कोई है और आलिंगन में कोई और बंधा है।
कभी-कभी स्मृति के आधार पर किसी का नाम बुदबुदाना हकीकत को ही बदल सकता है। 'साहब, बीबी और गुलाम' में नायक तीव्र बुखार से जन्मी नीम बेहोशी में अपने बचपन में ब्याही पत्नी का नाम ले लेता है और सेवा करने वाली खफा हो जाती है। यह प्रसंग मूल उपन्यास में है परंतु शायद फिल्म में नहीं है। मुंह से निकले शब्द अनर्थ भी कर सकते हैं। पितामह भीष्म ने कुंअारे रहने की शपथ नहीं ली होती तो कुरुक्षेत्र में युद्ध ही नहीं होता। कभी-कभी अवचेतन में गहरे पैठे किसी शत्रु का नाम भी मुंह से निकल सकता है और तत्कालीन सखी उसका गलत अर्थ निकाल सकती है। इस अजीबोगरीब तथ्य का गहरा आयाम देखिए कि चंद्रमुखी देवदास से कहती है कि देवदास द्वारा पारो की स्मृति में डूबे रहने और उसके पारो पुराण को दोहराते रहने के कारण ही अब स्वयं चंद्रमुखी को पारो से प्रेम हो जाता है गोयाकि पारो और चंद्रमुखी कभी साथ रहकर देवदास को ही अपने जीवन से बाहर निकाल सकती है। पुराने आख्यान तो यह भी कहते हैं कि हम सारे मनुष्य विष्णु भगवान के देखे जा रहे स्वप्न के पात्र हैं गोयाकि हमारे माध्यम से कोई और जी रहा है और मर भी रहा है। क्या हम मात्र वे हैंगर हैं जिन पर विविध वस्त्र रखे गए हैं, जिन्हें हम बदल-बदलकर मात्र पहन रहे हैं? आख्यान मनुष्य नामक विराट कल्पना का अवमूल्यन भी करते हैं।